यूं तो किसी राजनेता पर लिखने का अब कोई मन नहीं होता है। जातिय गोलबंदी के नेता। उनके पास अपना कुछ नहीं है सिर्फ जाति के। ना कोई सपना ना कोई ईमानदारी का विकल्प। सबके पास है सिर्फ जातिय गणित के दम पर की गयी घेराबंदी। कभी एक कबीले का नेता दूसरे कबीले से मिलकर सामंजस्य बैठा लेता है। कभी किसी दूसरे को अपने मुताबिक कर लेता है। और लोकतंत्र और भीड़तंत्र में अंतर कर पाने में नाकाम रही जनता सिर्फ नेता की जाति को ही महत्व देती उसके चरित्र को नहीं। मीडिया हर सत्तारूढ़ नेता को महान साबित करने की होड़ में रहता है बस अनुपात इतना रखता है जितना वो टुकडे़ फेंकता है।
नीतिश कुमार बिहार के मुख्यमंत्री है। खुद्दार मुख्यमंत्री। इतना खुद्दार कि उसने दो साल पहले बिहार में आयी बाढ़ के दौरान गुजरात राज्य की दी गयी सहायता के पांच करोड़ रूपये वापस कर दिये। इस खुद्दार नेता ने तर्क दिया है कि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने राज्य की दी गयी सहायता का गुनगान कर बिहार को अपमानित किया है। एक और बात कि बीजेपी के पटना अधिवेशन में नरेन्द्र मोदी का नीतिश कुमार के साथ हाथ मिलाते हुए फोटों भी लगाया गया। इस बात पर भड़क गये है नीतिश कुमार।
गजब की खुद्दारी है। बीजेपी के समर्थन से सरकार चला रहे हो। उसकी सरकार में केन्द्र में मंत्री रहे हो। लेकिन हाथ मिलाने के फोटों से खफा। ऐसे ही है जैसे एक बाप घर में बैठ कर चोर बेटे की कमाई पर ऐश कर रहा हो। लेकिन बाहर उस पर नाराज होता रहे। ये कैसी खुद्दारी है। लेकिन नीतिश के जातिय बंधुओँ की निगाह में ये उनके नेता की महानता है। गुड़ खाये और गुलगुलों से परहेज। लेकिन नीतिश की जातिय समीकरण में राजनीतिक लाभ कमा रहे लोगों को अपने नेता की अदा दिखेंगी।
देश के तमाम लोगों की नजर में मोदी खलनायक हो सकते है। ऐसे खलनायक जिसने अल्पसंख्यकों के सफाये की कोशिश की। लेकिन लोकतंत्र की बुनियादी बात के मुताबिक गुजराती लोगों ने नरेन्द्र मोदी को उससे बेहतर तरीके से चुना है उसी तरह से जिस तरह से नीतिश कुमार को उनके राज्य के लोगों ने। अपन दोनों नेताओं के राजनीतिक विचारों से कोई ईत्तफाक नहीं रखते है। लेकिन लोकतंत्र की कसौटी वोट के दम पर दोनों चुने गये है। यहां तक तो ठीक है। लेकिन क्या नरेन्द्र मोदी ने पांच करो़ड़ रूपये अपनी जेंब से दिये थे। क्या पांच करोड़ रूपया मोदी का था। क्या हर गुजराती मोदी की तरह से नीतिश कुमार का दुश्मन है। ऐसा दुश्मन जिसकी रोटी से अपना पेट पाल रहे हो नीतिश कुमार। लेकिन ये बात मुझे नहीं झकझोरती। बात में हैरानी तब होती है जब आम जनता जिसके दम पर ये नेता जिन्हें नौकर होना चाहिये मालिक बन बैठते है। नीतिश कुमार अगर बिहार के स्वाभिमान की चिंता करते है तो दिल्ली में रोजगार से रोटी चला रहे लाखों बिहारियों को वापस बुला क्यों नहीं लेते। क्योंकि कई बार दिल्ली में उन लोगों को गाली देकर अपमानित किया जाता है।
पैसा मोदी का नहीं था। पैसा नीतिश कुमार को नहीं दिया गया था। पैसा हिंदुस्तान के एक राज्य के लोगों के टैक्स से जमा किया गया था। वो पैसा देश के ही एक राज्य बिहार के लोगों को संकट में मदद के तौर पर दिया गया था। लेकिन नीतिश का स्वाभिमान आहत हो गया। भीख के तौर पर मिली सत्ता की रोटियां तोड़ते वक्त नीतिश को शर्म नहीं आ रही है। लेकिन हाथ मिलते हुए देख कर तिलमिला उठा हूं। आखिर ये हो क्या रहा है संघीय ढ़ांचे की ऐसी की तैसी कर रहे है नेता। लेकिन संविधान में इस बात पर कोई रोकथाम नहीं कि भाई आप नेता है सम्राट नहीं कि आपकी सनक से शासन के नियम तय होंगे। जिस सनक और हनक के साथ नरेन्द्र मोदी जनता के वोटों से चुनकर आयी सोनिया गांधी को रोम की बेटी और जाने क्या क्या कहते है उसी तरह से नीतिश कुमार अपनी हनक और सनक से एक राज्य के लोगों की मदद को वापस कर उन करोडो़ं लोगों का अपमान करते है।
दरअसल इस संविधान को बनाते वक्त नहीं सोचा गया था कि बौने लोग ऊंची गद्दी पर बैठने के लिये हील के जूते नहीं बल्कि दूसरों की गर्दन काट लेंगे। इसी लिये नीतिश ने अपनी सनक में पैसे तो वापस कर दिये लेकिन बीजेपी के समर्थन को वापस नहीं किया। बेशर्मी देखिये बीजेपी की भी वो कह रही है कि वो नीतिश कुमार को समर्थऩ देती रहेंगी। सत्ता की मलाई खाने के लिये बेशर्म बनने में कोई बुराई नहीं है और नूरा कुश्ती से जातिय कबीलों को अपने नेताओँ के हक में बोलने की छूट मिलती है।
1 comment:
ये राजनीति का बौनापन है शायद इसलिए हर चीज़ पर राजनीति की जाती है....यहां भावनाओं की और लोगों की जरुरत की कोई कीमत नही है....
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