Wednesday, June 9, 2010

चेहरा बदलते हुए अंधा हो जाता हूं, मैं

एक चेहरे से पाया मैंने,
एक चेहरे से खो दिया,
यही दर्द है,
चेहरे बदलने का।
दर्प से उल्लसित,
विजयी चेहरे के साथ,
मिलता हूं दुनिया से,
मैं,
पराजित चेहरे में,
नितांत अकेला, निराश,
दर्पण के साथ,
इन्हीं में से किसी चेहरे से,
जुड़ गयी थी,
तुम
तु्म्हें याद है अब तक वो चेहरा,
मैं भूल भी गया वो चेहरा,
तुम रोज मुझ में तलाशती हो उसी आवाज को,
मैं गफलत में चेहरे बदलता हूं जल्दी जल्दी,
लेकिन खोज नहीं पा रहा उसी चेहरे को,
काम निकला और चेहरा गायब,
यहीं उसूल है ज्यादातर चेहरों को लगाने का,
तुम मेरे करीब आयी,
मेरे चेहरे ने पा लिया वो,
जिसके लिये बना था वो
फिर बदल गया दुनिया के लिये,
चेहरा बदलते हुए अंधा हो जाता हूं,
मैं,
केंचुली बदलते हुए,
सांप,
कैसे याद करूं,
मैं,
अपने खोये हुए चेहरे को,
लेकिन,
सोचना जरूर कभी,
कहां से सीखा
मैंने
चेहरे बदलना।

2 comments:

परमजीत सिहँ बाली said...

सुन्दर रचना है।बधाई।

माधव( Madhav) said...

सुन्दर रचना , बधाई