मां
तुमने रोक क्यों नहीं लिया,
मुझे इस शहर आने से
कितना आसान था
तेरे पास
सच को सच
झूठ को झूठ कहना
तुम्हारे आशीष सदा सच बोलने के
चुभ रहे है
अब...
किसका सच बोलूं
दफ्तर का
घर का
रास्तों का
किससे सच बोलूं
बॉस से
दोस्त से
दुकानदार से
प्रेमिका से
या
इन सबसे अलग
अपने आप को
शीशे में देखकर सच बोलूं
दिन भर जो शरीर गतिमान रहता है
रात को घावों से टपकता दर्द बन जाता है
कितना आसान था
मां
विश्वास कर लेना
सहजता से
दुख
सुख
प्यार
या नफरत पर
जाने क्यों
अब विश्वास नहीं होता
भीख मांगते भिखारी की दयनीयता पर
झुंझला सा जाता हूं
मदद के अनुग्रह पर
मां
कितना मुश्किल था
तेरे पास ये मान लेना
कि चोर दिन में भी निकलते होंगे
जीत शेर की नहीं
सियार की होंगी
खरगोश जिंदा नहीं रहेगे
बिना दांतों के
यहां
अब
कितना सहज हो गया हूं
रोज मरते हुये
लोगों के बीच से गुजरते हुये
मां
याद ही नहीं आती
तेरी सुनायी हुई कहानी
कि
आखिर में जीत हुयी सही इंसान की
कितना सरल था
दोस्त.दुश्मन पहचानना
मां
मुझे रोक लेती
तो
अब बहुत कठिन नहीं रहता
मुझे सच और झूठ के बीच निकलना
मां
वहां
आज भी डरता ..मैं
पेड़ों पर उल्टे लटके चमगादडों से
गांव के कोनों पर बनीं बांबियों से
दिन में कहानी सुनने से
अब
ये सब बकवास लगते है
मां तुमने रोक क्यों नहीं लिया
मुझे शहर आने से
....................
कल एक ब्लाग में किसी ने लिखा कि कवियों को मां शहर में आकर ही क्यों याद आती है। बात तो सही थी। मैंने भी जब शहर में नया-नया आया था, मां को याद किया। लेकिन ये कहना शायद ज्यादती होंगी कि लोग मां को सिर्फ लिखने के लिये ही याद करते है। मां घने पेड़ की तरह होती है जब तक उसकी छांव में रहते है तो पेड़ से कितना फल मिलता है ये सोचते है लेकिन छांव को याद नहीं करते। और जैसे ही तेज धूप में जाते है तो सिर्फ पेड़ की छांव याद रहती है फल नहीं।
2 comments:
रचना अच्छी है ।
"मां घने पेड़ की तरह होती है जब तक उसकी छांव में रहते है तो पेड़ से कितना फल मिलता है ये सोचते है लेकिन छांव को याद नहीं करते। और जैसे ही तेज धूप में जाते है तो सिर्फ पेड़ की छांव याद रहती है फल नहीं। "
आपकी इस बात में भी दम है !!
सर, आप ग़लत प्रोफेशन में आ गए हैं। आपकी इस कविता नें मन गीला कर दिया। पिछले कुछ महीनों से मां को जाने अनजाने वा समय नहीं दे पा रहा हूं, जो उसे मिलना चाहिए। ख़ुद को बदलता हूं।
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