कुछ तो होगा / कुछ तो होगा / अगर मैं बोलूँगा / न टूटे / तिलस्म सत्ता का / मेरे अदंर / एक कायर टूटेगा / टूट मेरे मन / अब अच्छी तरह से टूट / झूठ मूठ मत अब रूठ।...... रघुबीर सहाय। लिखने से जी चुराता रहा हूं। सोचता रहा कि एक ऐसे शहर में रोजगार की तलाश में आया हूं, जहां किसी को किसी से मतलब नहीं, किसी को किसी की दरकार नहीं। लेकिन रघुबीर सहाय जी के ये पंक्तियां पढ़ी तो लगा कि अपने लिये ही सही लेकिन लिखना जरूरी है।
Thursday, July 30, 2009
कारगिल हार भी जाते तो क्या होता ?
विजय समारोह से लौटते वक्त एक राष्ट्रीय स्मारक की दीवार पर एक युवक को पेशाब करते देखा एक ख्याल आया कारगिल हार भी जाते तो क्या होता।
sahi kaha aapne, hum sahido ko bus itna hi yaad rakhtey hai ki saal mai ek din ounkey samarako ki saaf safai karwa detey hai aur ounkey naam par milney wali chuti par biwi ko shoping karwatey hai.
3 comments:
होता क्या ?
ये लोग तब भी न रुकते |
होता क्या! सुन्नत कराकर फिर वहीँ मूतने खड़े हो जाते .......... ऐसे जाहिलों को तो मोर्चे पर आगे भेजना चाहिए तब शहादत की कीमत समझ में आयेगी.
sahi kaha aapne, hum sahido ko bus itna hi yaad rakhtey hai ki saal mai ek din ounkey samarako ki saaf safai karwa detey hai aur ounkey naam par milney wali chuti par biwi ko shoping karwatey hai.
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