Wednesday, April 15, 2009

बेटा बन रहा हूं एक बार

दिन भर दुनिया में,
अपने हिस्से का नमक बहाकर लौटता हूं,
दो मंजिला घर की सीढिंया चढते वक्त,
न मुझे दुनिया की याद रहती है,
न दुनिया में बहाये अपने नमक की,
मेरा सारा ख्याल बस एक घंटी में बस जाता है,
मैं घंटी बजाता हूं,
दो दरवाजे पार अंदर से उठता है जैसे एक तूफान,
दरवाजे के सीखंचों के बीच से झांकता है,
जल..
पापा आ गये,
मैं भूल जाता हूं,
दुनिया में कम हो गया मेरा एक और दिन,
मेरे गले मे उसकी बांहे,
मुझे बेगाना कर देती है,
इन दरवाजों से बाहर की दुनिया से,
मेरे दिल की धड़कन,
जैसे उसकी धड़कन से मिलती है,
मेरी सांस में उसकी हवा महकती है,
मैंने कभी नहीं सोचा था,
पिताजी घर में घुसते ही,
क्यों पूछते है,
कहां गया है बब्लू,
घर से बाहर इस वक्त,
मैं जब लौटता हूं घर पर,
क्यों नहीं मिलता है घर पर,
कभी पढ़ नहीं पाया,
पिताजी की आंखों को,
पल भर में क्या-क्या गुजर जाता है,
उनकी आंखों के सामने से,
जब वो देखते हैं लौट कर मुझे,
जल मेरी बांहों में और मैं समझ रहा हूं
मेरी गोद में जल नहीं
पिताजी की गोद में खेल रहा
बब्लू है
कैसे समझूं
कि
मैं बेटा बन रहा हूं
फिर से एक बार

4 comments:

ghughutibasuti said...

बहुत अच्छ कविता लिखी है। हम जब माता पिता बनते हैं तभी संतान बन पाते हैं।
घुघूती बासूती

Shikha Deepak said...

सही है। ख़ुद माता पिता बनने के बाद ही हम अपने माता पिता को समझ पाते हैं।
बहुत सुंदर कविता...... भावनाओं की बेहतरीन अभिव्यक्ति।

sanjay sharma said...

पाठक ये भी जानना चाहते हैं कि जब पहली बार बेटे बने तब पिताजी के घर आते ही आप भी ऐसा ही तूफान मचाते थे क्या? या तब क्या और कैसा तूफान आपके भीतर मचता था.. उस तूफान की गंगा भी आपके विचारों के हिमालय से उतरे तो... इंतज़ार है उसका ....

हरि said...

बहुत गहरे में उतरे हो इस बार। कुछ चीजें वक्‍त के साथ ही समझ में आती हैं।