Tuesday, April 14, 2009

कौन सा धर्मयुद्ध

तलवार मेरे हाथ में थी...
उन्होंने दी थी,
धार इतनी तेज कि खतरनाक नहीं.... खूबसूरत लगी,
चमक इतनी कि आंखे चौंधियां दी.
फिर मेरे हाथ में गीता दी,
कहां कि धर्म युद्ध में रिश्ते नहीं होते,
सिर्फ कर्तव्य होता है,
बात साफ थी,
तलवार को अपने और पराये में अंतर नहीं करना था,
मेरे उडा दी हर वो गर्दन जो भी मेरी पहुंच में थी,
पहुंच में थे, रिश्तेदार, दोस्त और जान-पहचान के लोग।
सब को मैंने देखा
रोटी के लिये लड़ते हुये।
रोटी के लिये रेंगते हुये,
लेकिन ये लोग शांति को खतरा थे,
और मेरे कानों में गीता गूंज रही थी,
जमीन पर लुढ़कती हर एक गर्दन मुझे नशा देती थी,
फर्ज पर मर-मिटने का नशा,
तलवार घूमाते-घूमाते मैं थक कर झुका... तो नजर में आ गया उनका चेहरा
मेरे हाथ में तलवार देने वाले लोग,
खून से प्यास बुझा रहे थे,
मेरी तलवार से मारे गये लोगों के खून से,
मैं अकबकाया .....
मेरा हाथ धीमा हुआ,
मैंने उनकी तरफ घूरा,
चिल्लाया कि क्या ये धर्मसम्मत हैं,
उनकी आंखों में डर नहीं उपहास था,
उन्होंने हंसते हुए कहा कि लो हो गयी इसकी जबान भी गज भर लंबी
इसका दौर भी पूरा हुआ,
मैं तलवार उठाता उनके खिलाफ,
उससे पहले ही मेरे पांव फिसलने लगे,
मैंने पहली बार देखा जमीन को,
जिस पर मैं खड़ा था,
वो खाई पर जमी... बर्फ की जमीन थी
जिसके नीचे उन्होंने अब आग जला दी थी।

1 comment:

इष्ट देव सांकृत्यायन said...

यही सच है. लेकिन इससे उबरने के रास्ते तलाशने होंगे.