Saturday, August 6, 2016

हादसा नहीं हुआ अभी तक, भगवान को धन्यवाद दो सरकार कोई नहीं है।

अखबार की पहली हैडलाईंस और दिल पत्थर सा। एक मां-बेटी के साथ समाजवादी सरकार के स्वर्ग में सामूहिक दुष्कर्म हो गया। हाईवे पर। घंटों एक मां-बेटी के साथ घिनौना अपराध कर रहे अपराधियों को मालूम था कि समाजवादी जाति की पुलिस अभी किसी न किसी अपराध पर पर्दा डालने में जुटी होगी इसी लिए इँसानियत के पर्दे को तार-तार करने में कोई परेशानी नहीं है। कोई डर नहीं है कोई बाधा नहीं है। जब ये अपराध रात में हो रहा था उस वक्त जाम में फंसे हुए रेडियों पर गानों के बीच में एक एड बार बार आ रहा था जिसका पैसा इस दुष्कर्म की शिकार मां-बेटी के परिवार की गाढ़ी कमाई से ही आया था किसी समाजवादी राजा की जेंब से नहीं। एड था कि ये चमकती गाड़ियां और सजग पुलिस दिखाई दे रही है क्या हम अमेरिका में है तो जवाब देती है कोई दूसरी आवाज नहीं ये उत्तरप्रदेश है समाजवादी सरकार ने ये सब कर दिखाया है। सड़कों पर गुंडे खुलेआम नाच रहे है। लूट और हत्या की खबरें सब पेजों पर है। ये कोई नई बात नहीं है इस राज्य के लिए लेकिन पुलिस जिस तरह से बेलगाम है जातिवाद के नंगें नाच में जुटी है वो जरूर चौंकाता है। नया वो नहीं है क्योंकि सरकार एक बार पहले भी आकर ये खेल कर चुकी है। दरअसल जातिवाद ने लोकतंत्र की मूल भावना को खत्म ही कर दिया या पनपने ही नहीं दिया। बहुत से समाजवादी जाति के लोग इस बात पर हल्ला काट देंगे कि ये क्या लिख दिया लेकिन मैं सिर्फ एक जाति की बात नहीं कर रहा हूं सत्ता हासिल होने पर शुरूआती पांच दशक तक सर्वणों से ताल्लुक रखने वाली जातियों ने भी मिल जुल कर ये ही खेल खेला। लेकिन तकलीफ तब शुरू हुई जब जनतंत्र की व्यवस्था के शोषित सत्ता में आएँ और उन्होंने भी वही सब करना शुरू कर दिया। यानि आंख के बदले आंख का सिद्दांत का शुरुआती गणित दोहराना शुरू हो गया। मैं सिर्फ ये ही कह रहा हूं कि मुझे लगता है कि बेहतर होना चाहिए था नई रोशनी में नए तरीके से। लेकिन किसी को इस तरफ जाना बेहतर नहीं लगा।जातियों की कोठरियां बन गई। अभी मुझे मालूम नहीं है कि वो बेगुनाह मां-बेटी किस जाति की है धर्म की है या फिर संप्रदाय की है। क्योंकि अखबारों ने भी उनकी अभी जाति नहीं लिखी है इसका मतलब वो खबर बनाने वाली जातियों या धर्म से रिश्ता नहीं रखती है। 
आप ऐसी पूरी सदी को अपने अंदर जीते हुए गुजरते है जिसमें कही कोई उम्मीद के बदले बदला ही बदला दिख रहा हो तो कैसा लगता है ठीक उसी जैसा - जैसे अब किसी भी संवेदनशील आदमी को इस तरह की खबरें पढ़ कर लगता है। ये सिर्फ सहानुभूति हो सकती है क्योंकि किसी एक की असहमति की भी ईज्जत का नारा जो लोकतंत्र की मूलभूत अभिव्यक्ति है उसका मौजूदा लोकतंत्र से कोई लेना-देना नहीं है। यहां तो उलट है लोकतंत्र को इस तरह गढ़ा गया है कि कुछ जातियां एक गोलबंदी का गणित बैठा कर सत्ता में आ सकती है और हमेशा से बहुमत में रहे विपक्षी जातियों के गठबंधनों को हौंक सकती है। और वो विपक्षी भी इंतजार करते है अपनी बारी का ताकि गिन गिन कर बदले ले।
लेकिन इन सबके बीच असली कहानी कही और है वो है नौकरशाहों की असीम ताकत। लूट और लूट के चक्र को अपने मुफीद बनाते हुए ये नौकरशाह किसी ऐसे हादसे के शिकार नहीं होते। इनके परिजन हाईवे हो या जंगल हमेशा एक सुरक्षा कवर से घिरे होते है। पुलिस को रोज आम इंसान को लाठियों से पिटते हुए देखना, थानों में इंसान को कुत्तों की तरह देखना जैसे दृश्य अपनी पत्रकारिता के 17 सालों में खूब देखे है। बहुत से लोग इस बात को अन्यथा लेंगे लेकिन कोई ये नहीं बता पाता कि थानों से वापस आने वाले आदमी का पुलिस पर से विश्वास क्यों उठ जाता है।
इस घटना में पुलिस ने रिपोर्ट लिखने में जो करतब दिखाएं है वो उसके डीएनए में है। पहले ये देखा जाना कि विक्टिम किसी जाति है अगर उसका सत्तारूढ़ पार्टी के जाति समूह से कोई रिश्ता नहीं है तो ये जानवर है जिसके साथ किसी इंसान ने कुछ कर दिया है इसको भुगतना ही चाहिएं। फिर थानेदार साहब को ये देखना है कि अपराधी किस जाति का है। अगर उसका सत्ता में बैठे गणित में हिस्सा है तो फिर उसको बचाने के लिए इस जानवर के साथ कैसा सलूक करना चाहिए। उस घटना को कैसे दर्ज किया जाना है ये इसी बात पर तय होता है। अब सवाल ये भी बचता है कि यार अगर दोनो में से कोई सत्ता गणित में पास जाति का नहीं है तब क्या देखा जाता है तब ये देखा जाता है कि किसकी जेंब से माल ऐँठा जा सकता है जो ज्यादा देगा वो ज्यादा पाएंगा। गणित सीधा है। जब सत्ता में समाजवादी जाति हो तो खाकी उनकी और जब भगवा में हो तो पुलिस के पास भगवा। पुलिस और पानी एक जैसे जिस बर्तन में डालों उस जैसे।
लेकिन हजारों लाखों लोगों को खौंफ में सड़कों पर चलना फिर उस आग भरी सड़कों से उतर कर घर की छोटी सी पनाहगाह में रात गुजारना कम मुश्किल से भरा नहीं। सड़कों पर चलते हुए पुलिस को दस रूपए दे कर विशेषाधिकार हासिल करने वाले ऑटों या बसों के गुंड़ों से बच कर ऑफिस तकपहुंच जाना और वहां से घर आना आपकी किस्मत पर निर्भर है किसी कानून पर नहीं
ये कहानी कोई नयी नहीं है 2007-8 में मुरादाबाद के मझौला थाने में इसी तरह का एक केस मैंने कवर किया था जिसमें कोई साईकिल का फ्रैविल सड़क पर डाल कर एक परिवार की कार को रोक कर लूट की थी और दुष्कर्म किया था। और वो परिवार जिसको एक जुल्म के खिलाफ खड़ा होना था वो बेचारा शर्म से मुंह छिपा रहा था क्योंकि सवाल इतने घिनौंने पूछे जाते है जैसे किसी थर्ड ग्रेड का स्क्रिप्ट राईटर इनको ये सवाल लिख कर दे गया हो।
(किसी को हो सकता है गुस्सा आएं जातिवादी लेख पर लेकिन बस इतना ही कहना है कि बलात्कारी भी ये उदाहरण दे सकते है कि उनकी जातियों के साथ ऐसा हुआ तो वो ऐसा कर रहे है। )
मेरी एक पुरानी कविता है जो इस तरह के डर पर आज से बरसों पहले लिखी थी शेयर कर रहा हूं अगर मन आएँ तो पढ़ सकते है।
डर आत्मा से खुरचता ही नहीं :
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अलार्म रोज बजता है,
चौंक कर आंखें खुलती है,
पसीने से भींगें जिस्म के साथ मैं सबसे पहले टटोलता हूं
जल को
हाथ जब तक उसको छूता है
तब तक आंखें भी देख लेती है उसको मुस्कुराकट के साथ सोए हुये
कई बार मिल जाती है बीबी भी बगल में लेटी हुयी
और कई बार खाली दिखता है उसका बिस्तर
चीखता हूं
.... रश्मि
हाथ में चाकू लिये
या फिर आटे से सने हुए हाथों में
तेजी घुसती है बेडरूम में
और पूछती है
क्या हुआ
कुछ नहीं
,
तुम ठीक हो ना
चप्पलें पैरों में डालता हुआ
संयत होने की कोशिश करता हूं
रात बीत गयी
डर
है कि खत्म नहीं होता।
कुछ न कुछ हो जायेगा
रात भर सड़कों पर घूमते रहे है लुटेरे
पुलिस वालों की जीप में बैठकर
....
मेरा घर बच गया है
आज रात

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