Saturday, August 6, 2016

अब कहां ढूढ़ने जाओंगे हिरण के कातिल। यूं करों कि कत्ल का इल्जाम हिरण पर ही रख दो।

सलमान खान रिहा हो गए। गज़ब की ख़बर हुई। सुल्तान, दबंग या फिर भाई जाने कितने नामों से मीडिया को खुशी से बेहाल होते हुए देखा। यहां से आगे सुप्रीम कोर्ट है जहां से भाई को जमानत मिलने में अक्सर देर नहीं लगती है। हजार बार से ज्यादा ये दिख जाता है दिन भर में अंधों को भी कि जेब में माल है तो फिर कानून जूते में है। ( सहारा का उदाहरण न देना- उसकी कहानी ये है कि अभी तक एक संपत्ति नहीं बेच पाईं चल पाई) । हिरण मरे या नहीं मरे इस पर सवाल खड़ा होना चाहिए। मैं तो ये चाहता हूं कि उस जंगल के हिरणों को इस अपराध में सजा देनी चाहिए कि उनकी वजह से सुपरस्टार को परेशान हुई। एक सजा ये भी हो सकती है कि सलमान खान को उनके शिकार की ईजाजत दे देनी चाहिए। मैं हैरान हूं कि ये कैसे हिरण है दबंग से मरने के लिए बेकरार नहीं हो रहे है। लाईन में लग कर आ जाना चाहिए और अदालत जानती है कि हिरण इस तरह आना चाहते है। लेकिन बेईमान मीडिया या दलाल चिल्लाते तो वो निकल भागते है।
हरीश दुलानी को जानते है शायद मीडिया को उसको दिखाने की सुध नहीं थी। सालों साल पहले जब इस खबर में हरीश दुलानी की कहानी शुरू हुई थी तो उसकी मां मिली थी एक मकान में बैठी हुई। बेटा गायब हो गया था। वही बेटा था हरीश दुलानी। हरीश दुलानी चश्मदीद गवाह था इस केस का। एक बार बयान देने के बाद गायब हो गया हरीश दुलानी। फिर सालों तक कहां रहा कुछ पता नहीं। एक दूसरा गवाह और था जो एक गांव में था, अच्छा खासा आदमी पागलों की तरह व्यवहार कर रहा था और झोंपड़ी में उसकी हालत देख कर लगा था ज्यादा दिन जिंदा नहीं रहेगा। वही हुआ वो भी निबट गया दंबग की राह के दूसरे कांटों की तरह। फिर कुछ साल पहले हरीश दुलानी वापस आ गया। दुलानी को कोर्ट ने कई बार सम्मन भेजे। कई बार उसकी तलाश का नाटक हुआ। लेकिन किसी को उसका पता नहीं लगा। लेकिन किसी अदालत को किसी अधिकारी को कठघरे में खड़ा करने का नहीं सूझा। अदालतों की एक बात और सुंदर लगती है कि जब वो किसी को रिहा करती है तो एजेंसी को काफी कोसती है लेकिन किसी के खिलाफ मुकदमा दर्ज नहीं करती हालांकि ये भी उनके अधिकारक्षेत्र में आता है। इससे होता ये है कि फैसला आपका, बचाव किसी ताकतवर का और लाठी भी बच गई। ग़जब की नौटंकी चल रही है। हरीश दुलानी से बात करने की कोशिश की थी तो उसकी हालत भी ऐसी ही लगी कि उसको एक लंबें समय तक ऐसे हालात में रखा गया कि वो सामान्य जैसा न लग सके। (कानून को मालूम नहीं हुआ कि कहां है लेकिन जोधपुर की गली में घूमते हुए आवारा कुत्तें भी भौंक कर बता सकते है कि वो कहां रहा) बहुत मजेदार बात की बचाव पक्ष को अहम गवाह से जिरह की करने जरूरत ही नहीं( जरूरतें पूरी होने के बाद किसी की जरूरत नहीं रहती)
मुझे इस फैसले को देखने के बाद याद आ रहा है राहत इंदौरी का एक शेर ( शब्द दर शब्द याद नहीं है कोई इसको सुधार भी सकता है)
अब कहां ढूढने जाओंगे हमारे क़ातिल .
यूं करो कि कत्ल की इल्जाम हमी पे रख दो।
और इसको कहा जा सकता है
अब कहां ढूढने जाओंगे हिरन के कातिल
यूं करों कि कत्ल का इल्जाम हिरन पे ही रख दो।

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