आदमी सड़कों पर ।
चूहे घरों में।
सवाल जेहन में,
बच्चियां पेट मेंचूहे घरों में।
सवाल जेहन में,
इंसानियत मर रही है सरेआम
नक्शों में दम तोड़ रहा देशहर चेहरे पर खुशी है कि मातम
कुछ देर में हंसते हुए रो रहा है
या
रोते हुए हंस रहा है।
कदम दर कदम आगे चलते हुए
दिख रहा है पीछे जाते हुए
पीछे से हंस रहा है कोई
मैं लगातार रास्ते देखता हूं
कभी चमकते हुए, कभी अंधेरे में डूबे हुये
गिनता आता हूं
जेब में पड़े हुए सिक्के
बिक गये जमीर के सहारे
रीढ में लगा कलफ रोज उतर जाता है
चेहरे पढ़ते पढ़ते भूल जाता हूं
छुप बैठी अंतर्मन की आवाज का गीत
पूछता हूं रास्ता अपने घर का रोज शाम को
बीत गये दिन से
सुबह जिसको साथ लेकर चला था
वो कहां गया सांझ होते ही
रात में तलाश करनी होगी
फिर कल के लिये अपने चेहरे की
थक गये जबडों के सहारे
पर्स में छुपा कर रखी हुई
हंसी में देखता हूं
बच्चों को पार्क में झूलते हुये
बीबी के कंधों में खोजता हूं
सुनहरे पर्दों के सपने
कुछ देर में पत्थर में बदल गयी
आंखों के सहारे कदम रखता हूं
रात के आंगन में
खिले हुए फूल छोड़ कर
कल निकला था मैं कक
ये क्या है
मैं रात से पूछता हूं
नींद की नाव को चलाकर
फिर से उतारना होगा
कर्ज एक बार फिर से तेरा
मुझे डर की सुंरगों में भटक कर
सुबह की किरणों से चमत्कार की उम्मीद करनी है
झकझोर कर उठा दिये रास्तें पर
अपनी दिन की कहानी को
एक दिन ओर आगे
एक दिन और पीछे
गिनती कहां से शुरू करूं
आखिर से या शुरू से
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