Monday, November 26, 2012

यादों मे रह गयी शाम

उन पवित्र शामों में
कुछ भी याद रखने लायक नहीं था
सिवा
उस रोशनी के
जो तारों की झिलमिलाहटों को ढंक देती थी
तुम्हारी आंखों से निकलती थी
ऐसा कुछ भी नहीं था
जो रख लिया जाता
जिंदगी की जैकेट में
अज्ञात रास्तों के नक्शों की तरह
तह करके
सिवा
तेरे चेहरें पर उमड़ती हंसी के
कोई भी चीज नहीं थी
उन धुंधलकों में
जो गीला कर पाती अंदर से
जैसे रेत सींझ रही हो समुद्र तल में
सिवा
तेरी आवाज के झरनों से
मेरे अंदर जमीं सीलन के
ऐसा कुछ भी रखा गया
हवा के सीने पर जो
लहरा कर गुजरे
नयी पत्तियों की टहनियों की तरह
सिवा
रूक रूक कर रखे गये कुछ कदमों के
मुझे क्यों याद रहे
वो
पवित्र शामें
ऐसा क्या था
जो मैं याद रखूं

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