Sunday, July 4, 2010

लुटेरों को छूट... मीडिया का छाता

कोई भी डिनर मुफ्त में नहीं होता। एक अमेरिकी राष्ट्रपति ने देश की जनता को चेताते हुए कहा था। लेकिन हिंदुस्तान के मौजूदा हालात में हम लोग इतना ही संशोधन कर सकते है कि कोई भी डिनर मुफ्त में नहीं होता लेकिन हम डिनर का बिल किसी ओर से वसूल सकते है।
बुरा दौर गुजर गया। देश 8.50 की विकास दर हासिल कर लेगा। अब महंगाई रोकने के लिये ब्याज दर बढ़ानी पड़ेगी। मंहगाईं की दर को रोकना काफी मुश्किल है। थोक मूल्य का सूचंकाक बढ़ोत्तरी की ओऱ है। ये खबरें पिछले कुछ महीने में अखबारों और टीवी चैनलों की सुर्खियों में रही। देश भर में मंहगाईं को लेकर सनसनी फैलाई गयीं। मुख्य विपक्षी दलों (अगर विपक्ष है तो) के बयानबीरों ने टीवी चैनलों में बयान दिया कि वो मंहगाईँ के खिळाफ धरना देंगे। किराये की भीड़ के दम पर जंतर-मंतर से लेकर रामलीला मैदान तक भीड़ इकठ्ठा हो जायेगी। देर नहीं हुई तो नेताजी बिना बेहोश हुए घर चले जायेंगे। पांच हजार करो़ड़ रूपये के ग्रुप का मालिक नेता प्रतिपक्ष। पांच सौ पैतालीस सांसदों में तीन सौ से ज्यादा करोड़पति हैसियत। देश का प्रधानमंत्री विश्व बैंक में पूर्व नौकरीशुदा। तीसरे मोर्चे की कमान संभालने वाले यादव बंधु दोनो आय से अधिक संपत्ति के मामलों में कोर्ट के चक्कर काट रहे है। गरीब और दलित लोगों के मसीहा पासवान हो या मायावती इन लोगो के वैभव देखकर देवलोक के देवराज इन्द्र को शर्म आ जाये।
इन लोगों की हैसियत से आप को लगता है कि इन लोगों को महंगाई छू कर भी गुजर सकती है। सबसे ज्यादा महंगाईं इऩ लोगों के दम पर आती है। इन लोगों का ऐश्वर्य जुटाने के लिये ही मंहगाईं हर बार बढ़ती है।
फिर से मंहगाईँ बढ़ गयी है। प्रधानमंत्री ने कहा कोई चारा नहीं था। पेट्रोल,डीजल, कैरोसीन और घरेलू गैस के दाम एक साथ बढ़ाये दिये गये। सरकार चाहती है कि वो लोगों की आखिरी सहनशक्ति की सीमा भी देख ले। सत्ता में बैठे हर राजनेता ने इसका सर्मथन किया और विपक्ष में बैठे देवताओं ने निंदा। समर्थन देने वाले राजनेताओँ ने इस अपनी औकात के मुताबिक इसका फायदा उठाने वाले बयान दिये। ये सब बाते आपने पढ़ी, देखी और सुनी होंगी।
महंगाईं को लेकर दो महीने पहले भी दिल्ली में भीड़ जुटी थी। हजारों की रैली में आये लोगों को देखकर दिल्ली के लोगों ने नाक-भौं सिकोड़ी। उन लोगों को ट्रैफिक जाम के लिये गालियां दी। मीडिया में बैठी सजी-धजी एंकरों ने गुस्सा जाहिर किया कि ये लोग दिल्ली क्यों आते है। तभी एक सवाल जेहन में आाया कि क्या मंहगाईं क्या सिर्फ उन लोगों के लिये उन लोगों के लिये है जो दिल्ली में सरकार से विरोध जताने आये थे। या दिल्ली में भी मंहगाईँ थी। मंहगाईँ तो दिल्ली में भी थी। फिर दिल्ली के लोग या फिर दूसरे महानगरों के लोग विरोध प्रर्दशन करने क्यों नहीं निकलते है। लेकिन जब इसका जवाब मिला तो लगा कि पैरों तले की जमीं ही खिसक गयी।
चंबल के बीहड़ों में खबरों को कवर करने के दौरान एक बात पता चली कि डाकूओं को रोटियों की कीमत एक दो दस गुना नहीं बल्कि पांच सौ गुना तक देनी होती थी। गांव-देहात में किसी अनजान को भी पानी पिलाना
पिलाने वाला का सम्मान माना जाता है लेकिन यहीं पानी जब किसी डाकू गिरोह को दिया जाता था तो उसकी भी कीमत वसूल की जा रही थी। ये अर्थशास्त्र समझ में नहीं आया। सालों बाद महानगरों में काम कर रहे माफिया गिरोहों की कार्यप्रणाली देखी तो समझा कि वो लोग भी अपने पैसों को पानी की तरह बहाते है। एक पुराने पुलिस वाले ने समझाया कि ये लूट के माल की सामाजिक हिस्सेदारी है। लूट में हिस्सेदारी इससे सुरक्षा मिलती है और साथ माफिया गतिविधियों को सामाजिक होने का जामा भी। आज जब मंहगाईं को चरम पर जाते देखा और दिल्ली या ऐसे ही किसी महानगर के लोगों को इस मंहगाईं पर चुप कर बैठते देखा तो वहीं ख्याल आया।
दो दशक पहले सरकार को डर लगता था कि पेट्रोल में एक रूपये की तेजी भी महानगरों में विरोध प्रदर्शनों को न्यौता देंगी। लेकिन नब्बे के दशक में एकाएक महानगरों में सरकारी काम-काज संभालने वाले बाबूओं की सेलरी में हजारों रूपये का रातो-रात इजाफा फिर प्राईवेट कंपनियों में लाखों लोगों की लाखों रूपये की सैलरी की आमद। कुछ ही रातों में ये लोग देश की 88 करोड़ की जनता से निकलकर विशिष्ट जनों में शामिल हो गये। इन लोगों ने अचानक ऐसा कोई काम नहीं किया था कि ये लाखों रूपये के फायदे के एक दम से हकदार हो जाये लेकिन फिर भी इऩकी जेंब में पैसा आ गया। अब ये पैसा लूट के पैसे के तौर लगा। ये बात इन लोगों को भी मालूम थी कि घोर गरीबी में डूबे गांवों में स्कूल, सड़के और बिजली भेजने का पैसा उनकी जेब में आ रहा है। और यहीं से शुरू हो गया लूट में हिस्सेदारी का फार्मूला। देश के महानगरों में रहने वाले लोगों की आम नौकरी का वेतन देश के बाकी हिस्सों से कही ज्यादा है। इसीलिेय जब पेट्रोल का दाम बढ़ता है तो महानगर के आदमी को सिर्फ एक खुजली होने से ज्यादा कोई परेशानी नहीं होती। जब एक किलो दाल का भाव किसी मजदूर की एक दिन की मजदूरी के बराबर हो जाता है तब भी दिल्ली में नौकरी कर रहे लोगों को परेशानी नहीं होती। वो जानते है कि लूट में हिस्सेदारी करनी होंगी। क्योंकि लूट के इस खेल में वो अपना हिस्सा ले रहे है तो इस को बांट कर सामाजिक मान्यता तो हासिल करनी होंगी। आटा, तेल , नमक,चीनी, साबुन और भी दूसरी जरूरी चीजों के दामों में बढ़ोत्तरी बस ऐसी ही लगती है जैसी एक वसूली में कुछ पैसों का बढ़ जाना। और शायद यही कारण है कि महानगरो की एंकर हो या फिर आम निवासी सबको लगता है कि भूखे-नंगें लोग आकर इस लूट के खिलाफ अगर आवाज उठाते है तो इससे पर्दाफाश हो सकता है।
ये सब अचानक नहीं हुआ। लाखों लोगों की एक ऐसी फौज तैयार की गयी जो देश के सत्तर करोड़़ गरीबों की रोटियों के दम पर अपनी जिंदगी को खुशनुमा बनाने में जुट गयी। और ये वर्ग ऐसा था जिसकी जिम्मेदारी थी कि वो राजनेताओं और सरकारों पर नियंत्रण रखें और नीचे वाले लोगों के साथ अपनी सद् भावना।
आखिर मंदी किसके लिये आयी थी। मंदी कहां से आयी थी। मंदी का फायदा किसे मिला। मंदी का नुकसान किसने झेला। इस सवाल को मीडिया ने काफी धुंधला कर दिया। इतना धुंधला कि कोई आदमी साफ देख ही न सके। मीडिया ने एक खास मकसद से पूरा खेल इस तरह से खेला कि जैसे मंदी से देश का व्यापारी वर्ग पूरी तरह से परेशान है। पहले लेबर ला में संशोधन किये गये। फायदा किसे मिला बड़े व्यापारियों को। हजारों करोड़ रूपये की देनदारी साफ कर दी गयी। ये देनदारी किस पर थी। बैंकों में जमा पैसे किसके थे। इस बात पर कोई सवाल नहीं खड़ा किया।
कोई बड़ी कंपनी फेल नहीं हुई। छोटी ईकाईयां बंद हो गयी। किसी बड़ी ब्रांडेड कंपनी की सेल बेस सेल से नीचे नहीं गयी। लक्जरी कारों और आईटम की सेल का ग्राफ लगातार उपर उठता रहा। हजारों करोड़ रूपये की छूट दे दी गयी एक्सपोर्ट के व्यापारियों को। देश के करोड़ों लोग अपने खून की कीमत देकर देश के व्यापारियों, भ्रष्ट्र राजनेताओं और ब्यूरोक्रेट का बिल तो चुका ही रहे थे लेकिन अब करोड़ों महानगरवासियों की अय्याशी का बिल भी उनके मत्थे पड़ गया है। यानि देश को महानगरों को सजाने-संवारने की कीमत गरीबों के खून से हासिल की जा सकती है।

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