कुछ तो होगा / कुछ तो होगा / अगर मैं बोलूँगा / न टूटे / तिलस्म सत्ता का / मेरे अदंर / एक कायर टूटेगा / टूट मेरे मन / अब अच्छी तरह से टूट / झूठ मूठ मत अब रूठ।...... रघुबीर सहाय। लिखने से जी चुराता रहा हूं। सोचता रहा कि एक ऐसे शहर में रोजगार की तलाश में आया हूं, जहां किसी को किसी से मतलब नहीं, किसी को किसी की दरकार नहीं। लेकिन रघुबीर सहाय जी के ये पंक्तियां पढ़ी तो लगा कि अपने लिये ही सही लेकिन लिखना जरूरी है।
Friday, July 2, 2010
ख्वाब हूं कि एक ख्वाब में हूं
एक ख्वाब हूं कि एक ख्वाब में हूं झूठ बोलता हुआ सच हूं कि सच बोलता हुआ झूठ दुनिया आँखों में है कि दुनिया की आंखों में हूं रास्ते से गुजर रहा हूं कि रास्ता मुझ से गुजर रहा है मै किसी को समझ रहा हूं कि मुझे समझा रहा है कोई
1 comment:
लाबवाब कर दिया आपने।
………….
दिव्य शक्ति द्वारा उड़ने की कला।
किसने कहा पढ़े-लिखे ज़्यादा समझदार होते हैं?
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