Wednesday, June 24, 2009

जिंदगी की प्यास और शैलेन्द्र

शैलेन्द्र सिंह के जाने की खबर मैंने सुनी तो यकीन नहीं हुआ। शैलेन्द्र से आखिरी मुलाकात तो कई साल पहले हुयी थी। लेकिन जब उनका गजल संग्रह आना था तो एक दिन मेरे पास उनका फोन आया था। मैंने वादा किया था कि मैं उनके गजल संग्रह के विमोचन के दिन जरूर आऊंगा। जा नहीं पाया। उनके जाने के बाद लोगों ने उनके बारे में कहा, लिखा और सुनाया। मैं उनके ज्यादातर किस्सों में तो शामिल नहीं था लेकिन मुझे याद है कि एक बार मैं कई सारी किताबे खरीद कर उनके सामने से गुजर रहा था उन्होंने किताबे देखी और एक किताब अपने पढ़ने के लिये रख ली। मैंने बाद में कहा तो उन्होंने कहा कि वो किताब तो अब मैं इस जन्म में तुमको वापस नहीं करूंगा। बात भूली सी हो गयी थी लेकिन उनके जाने के बाद किताब का नाम याद आया ....जिंदगी की प्यास।


कितने किस्सों में रह गया वो आदमी,
जिंदगी को कितनी तरह से कह गया वो आदमी।
चला गया हमेशा के लिये कितनों के लिये,
कितनों की यादों में रह गया वो आदमी।
रास्ते पर सहमा सा खडा था वो आदमी,
रफ्तार में जिंदगी खो गया वो आदमी।

तालिबान टीआरपी है भाई नक्सली नहीं.

पाकिस्तान पर कब्जा कर लेगा तालिबान। बुनेर तालिबानियों के कब्जे में। आतंकवादी दे रहे है महिलाओं को सजा। मोहब्बत करना हुआ गुनाह वजीरीस्तान में। हिदुस्तानी मीडिया की हाल की हैडलाईन है। खासकर इलेक्ट्रानिक मीडिया के लिये यू ट्यूब से लिये गये वीडियो टीआरपी मीटर को गति देने का साधन बन गये।
क्या हुआ पाकिस्तान के नौशेरा, बुनेर, और भी जाने कितने ऐसे कस्बों और गांव के नाम हिंदुस्तानियों की जबान पर ऐसे चढाये गये जैसे दिल्ली का कनॉट् प्लेस हो। पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में किस जगह कितने तालिबानी है सबका हाल-पता है हिंदुस्तानी मीडिया के पास। उनके पास कितने हथियार है और उनका मेक कौन सा है ये भी आपको स्क्रीन पर खूबसूरती से इठलाते एंकर बता रहे है।
लालगढ़ कहां है भाई। वहां किसका कब्जा है। वहां भी औरते रहती है। वहां के कई थानों में हिंदुस्तानी कानून का नामो-निशान मिटा दिया गया। लेकिन हिंदुस्तानी मीडिया चुप है। लगता ही नहीं कि लालगढ़ का कोई नामों-निशान हिंदुस्तान में है। वहां कई महीनों से तिरंगा नहीं फहराया गया सरकारी ईमारतों में। थानों पर नक्सलियों का कब्जा था। लेकिन इस बात का किसी को ईल्म नहीं है कि कौन इस नक्सलियों की जमात को हैड कर रहा है। कौन से हथियार है इनके पास कहां से लाये है ये हथियार। लेकिन न हिंदुस्तान के मीडिया को इलाके की टूटी सड़के दिखी न दिखी वहां छायी गरीबी। ऐसा नहीं है कि टीवी पर लालगढ़ दिखा ही न हो लेकिन दिखा तो उस दिन जब टीवी चैनल्स को लगा कि आज पैरामिलिट्री और नक्सलियों के बीच खून खराबा होने वाला है। खूनखराबे का मतलब है अच्छी टीआरपी की फसल। ऐसा हुआ नहीं। और लालगढ़ टीवी के नक्शे से गायब। हालांकि अखबार के किसी पन्ने पर लिखा था कि अब पैरामिलिट्री फोर्स रामगढ़ को भी नक्सलियों के कब्जे स छुडाने वाली है। यानि अभी भी वो हिस्सा हिंदुस्तानी नक्शे में सरकार के नियंत्रण से बाहर है। ये यही इसी देश में है भाई क्या मीडिया को दिखता है भाई।

Monday, June 22, 2009

मेरा और सरकार का रिश्ता।

सरकार यानि देश को चलाने वाले लोग जिन्हें मैं चुनता हूं और मेरे बीच क्या रिश्ता है। एक सप्ताह भऱ पहले एक पुलिस कप्तान के साथ बातचीत के दौरान सवाल उभरा। बात पुलिस और आम पब्लिक के बीच बढ़ती दूरी पर शुरू हुयी। पुलिस कप्तान बहुत दुख से बता रहे थे कि पुलिस पर काम का बेहद बोझ है। पुलिस डिपार्टमेंट अंडरस्टाफ है। उनके आदमी बेहद तनाव में है। बात आगे बढ़ी, मैंने उनसे एक सवाल पूछा वही सवाल जो मैं आपसे भी कर सकता हूं।
सरकार मतलब देश में कानून-व्यवस्था चलाने वाले लोग। हर आदमी के लिये रोटी,कपड़ा और मकान देने वाली एजेंसी और सुरक्षा और शिक्षा देने वाली एजेंसी। मैं एक आम आदमी की जिंदगी से शुरू करता हूं। दूसरे ज्यादातर लोगों की तरह से मैं भी एक छोटे शहर से राजधानी पहुंचा। नौकरी की तलाश में। पढ़ाई-लिखाई छोटे शहर में हुयी, मेरे मातापिता के पैसों से। प्राईवेट स्कूल में।
यहां आने के बाद मैंने नौकरी हासिल की। प्राईवेट नौकरी। मालिक और मेरे बीच के रिश्ते में सरकार को इतना करना था कि मेरे साथ मानवीय रिश्ता रखते हुये मालिक अपने लाभ को नजर में रखे। और यदि इस बैलेंस में कुछ गड़बड़ हो तो सरकार ठीक करे। मालिक ने साईन कराया कुछ और दिया कुछ। मेरे हिस्से का पीएफ भी मेरी तनख्वाह से और मालिक का भी हिस्सा भी मेरी ही तनख्वाह से। लेकिन सरकार मेरे से टीडीएस काटती थी खैर दो साल बाद मैंने संस्थान बदल लिया और बेहतर संस्थान में चला आया।
मालिक और नौकरीशुदा आदमी के बीचऐसा ही रिश्ता है कि वो मालिक हर तरीके से अपने फायदे के लिये नौकर को इस्तेमाल करता है और सरकार से उसके नाम का फायदा भी लेता रहता है।
किराये के मकान की डीड किरायेदार और मकानमालिक के बीच। मकान मालिक तीन महीने का एडवांस ले या तीन साल का सरकार का कोई दखल नहीं। आफिस से घर तक की दूरी तय करने के लिये प्राईवेट बस है। सरकार के पास पर्याप्त बस नहीं है। प्राईवेट बस में जानवर के मानिंद रोज जिंदा रहने और अपनी इज्जत बचा कर घर में घुसने तक घरवालों की निगाह दरवाजे तक ही रहती है। हर आदमी की निगाह में दिल्ली की ब्लू लाईन बस के दरिंदे है। सरकार और उनके बीच का क्या रिश्ता है ये फिर कभी।
घर के लिये सरकार के पास अमला औऱ जमीन नहीं। आम आदमी प्राईवेट बिल्डर के सहारे। वही बिल्डर जिसके ब्रोशर पर खूबसूरत लड़कियां, घने जंगल में बने आलीशान मकान और स्विमिंग पूल में नहाते बच्चे होते है। हकीकत क्या है महानगर के करोड़ों लोग जानते है। सरकार को संपत्ति शुल्क और रजिस्ट्री दे दिया। बिल्डर के लिये अरबों रूपया खाने का सरकार ने पक्का बंदोबस्त किया। लाईट नहीं है लिहाजा हर घर में इनवर्टर है या फिर जेनरेटर पूल है। पानी के लिये सप्लाई नहीं है। जिनकी जेब में पैसा है वो पानी के जार मंगाये। जार में पानी कैसा है ये ईश्वर जानता है सरकार का कोई लेना-देना नहीं। सड़क पर मरने वाले साईकिल वाले और भागकर पैदल सड़क पार करने वालों के अलावा हर आदमी रोड़ टैक्स देता है लेकिन रोड़ है ही नहीं, बाकि जहां रोड़ है वहां टोल टैक्स के नाम पर दलालों के हवाले सड़क। बच्चा पब्लिक स्कूल में। स्कूल में जितनी हवा बच्चा लेता है उसका पैसा भी लुटेरों की तरह वसूलते है पब्लिक स्कूल। और सरकार पब्लिक स्कूलों को फ्री की जमीन देती है। अब बचा घर सिक्योरिटी का सवाल तो उसके लिये निजी सिक्योरटी एजेंसी को सोसायटी ने हायर किया हुआ है। इस रोज की जिंदगी में सरकार कहीं आती है तो किसकी हमदर्द बन कर।
बात चूंकि पुलिस से शुरू हुयी थी तो जब भी पुलिस की जरूरत पड़ती है तो वो सिर्फ और सिर्फ बेईमान और बदतमीज के अलावा कुछ और नजर नहीं आती। रात दिन सड़क पर पैसे वसूलते टैफिक पुलिस के सिपाही हो या फिर ठेले वालों औऱ मकान मालिकों से पैसे वसूलते बीट कांस्टेबल।
अब मैंने सिर्फ कप्तान साहब से ये ही सवाल किया था कि मेरे और सरकार के रिश्ते को क्या नाम देना चाहिये। मेरी जिंदगी में सरकार का क्या दखल है। या एक आदमी के लिये सरकार का क्या मतलब है।

Sunday, June 21, 2009

सिक्का बदल गया क्या ?

बचपन की एक कहानी की याद आती है ,कहानी का लेखक हो सकता आपको याद आ जाये,..सिक्का बदल गया। कहानी का समय है जब देश को आजादी मिलने वाली थी और देश में पूरे तौर पर उसकी गहमा-गहमी का माहौल था,
इसी दौरान एक अंग्रेज की बदतमीजी पर एक तांगेवाला उससे भिड़ पडता है तो उसे देशी सिपाही जो अंग्रेजी राज की देन थे गिरफ्तार कर लेते है और हवालात में पहुंचा देते है। हवालात में तांगेवाले को पहले से बंद कुछ स्वतंत्रता सेनानी मिलते है आजादी के बाद देश के बदलने वाले हालात की चर्चा कर रहे होते है। तांगेवाले को वो बातें अबूझी लगती है। जब वो आजादी के बारे में जानने की कोशिश करता है तो वो कार्यकर्ता उसके बारे में उसको बस इतना समझाते है कि आजादी का मतलब है सिक्का बदल जाना, यानि अब अंग्रेजों का नहीं बल्कि हिंदुस्तानियों का सिक्का चलेगा और कोई भी बदतमीजी के बाद बेगुनाह आदमी जेल में बंद नहीं होगा। कुछ दिन बाद तांगेवाला रिहा हो जाता है और देश को भी आजादी मिल जाती है। कुछ दिनों बाद फिर उसी अंग्रेज से तांगेवाले का सामना होता है और अंग्रेज की बदतमीजी का विरोध करने पर फिर वही सिपाही उसी तांगेवाले को गिरफ्तार कर लेते है तो तांगेवाला चिल्ला-चिल्ला कर पूछता है कि अब तो सिक्का बदल गया। लेकिन इस बात का जवाब देने वाला कोई नहीं होता कि सिक्का बदल गया तो किसका चल रहा है,महारानी की विदाई के बाद देश का भाग्यविधाता कौन है। कहानी तो खत्म हो गयी लेकिन बचपन से इस कहानी ने दिलो-दिमाग में कुछ सवाल छोड़ दिये । सालों बाद भी जब पत्रकारिता में काम करना शुरू किया तो भी इस सवाल का जवाब नहीं मिल पाया। देश की आजादी के वक्त देश के स्वतंत्रता सेनानियों को इस लड़ाई में नायक बनाने वाले थे देश के करोड़ों हिंदुस्तानी जो गरीब. अनपढ़ और दूरदराज इलाकों में रहने वाले थे। और इस लड़ाई का नेतृत्व था महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, जिन्ना और सुभाषचन्द्र बोस और दूसरे ऐसे नेताओं के हाथ में जिनकी शिक्षा-दीक्षा देश में नहीं बल्कि विदेशों में हुयी। आजादी के लिये लड़ी जा रही पूरी जंग में पहली कतार के सेनानियों में वल्लभ भाई पटेल जैसे कुछ ही लोग होंगे जो अपनी पूरी पहचान के लिये गांव पर निर्भर थे। दशकों तक लंबी चली इस आजादी की निर्णायक लडाई 1920 के दशक में शुरू हो चुकी थी। नेताओं को भी यकीन था कि आजादी उनकी जिंदगी में ही हासिल हो जायेगी। इस दौरान देश के संविधान को बनाने की कार्रवाई शुरू हुयी। देश के ढ़ांचे पर विचार किया गया जो आजादी के बाद अंग्रेजों से देश की बागडोर संभालने वाला था। लेकिन नौकरशाही. और न्यायिक सेवाओं में अंग्रेजी राज की सेवा और वफादारी की शपथ लेकर काम करने वाले लाखों सरकारी कर्मचारियों के बदलाव के लिये कोई विचार-विमर्श नहीं हुआ।
देश को आजादी मिल गयी, देश के नेताओं को देश की बागड़ोर। लेकिन नेहरू और दूसरे तमाम राजनेताओं को जो बात अटपटी नहीं लगी वो ये कि तिलकमार्ग थाने का थानेदार 15 अगस्त 1947 को भी वही था जो 14 अगस्त 1947 को था। बात अटपटी जरूर है लेकिन समझ से बाहर नहीं। यूनियन जैक की हिफाजत और सम्मान के लिये लाखों हिंदुस्तानियों को मौत के घाट उतारने वाले और अंग्रेजी राज की हिमायत करने वाले लाखों हिंदुस्तानियों और अंग्रेज सरकारी कर्मचारी ज्यों के त्यों अपने पदों पर बने थे। और ये बात किसी को अटपटी नहीं लगी सिवाय उनके जो आजादी की इस लड़ाई में सिर्फ प्यादे थे यानि देश के करोड़ों देसवासी। आप सिर्फ कल्पना करके देखिये कि आजादी की लडाई में हिस्सा लेने वाले एक आदमी को साल दर साल सिपाहियों से डंडे, प्रताडना और अपमान झेलना पड़ा और किसी -किसी के लिये तो परिवार के किसी सदस्य को मौत भी मिली इन्हीं पुलिसवालों से। लेकिन आजादी की धुन में वो इंसान लड़ता रहा और आखिर वो दिन भी आगया जिसका एक देश दो सौ सालों से इंतजार कर रहा था। 15 अगस्त 1947 देश के इतिहास का अमिट दिन। जोश और आजादी के खुमार में वो आदमी जब लालकिला अपने देश के नेताओं का भाषण सुनने पहुंचता है तो उसका सामना होता है उन्हीं सिपाहियों से जो अब तक उस पर आजादी के आंदोलन में हिस्सा लेने पर लाठियां बजा रहे थे और अब भाषण सुनने के लिये एक लाईन में करने के लिये लाठियां बजा रहे है।उस इंसान के बारे में सोचिये जो किसी न्यायधीश से सिर्फ इसलिये सजा पाया हो क्योंकि उसने देश की आजादी के लिये नारे लगाये थे और आजादी मिलने के साल भर बाद उसी न्यायधीश से इस लिये सजा पा रहा हो कि उसने तिंरगे को सही तरह से नहीं फहराया। ये सिर्फ बानगी भर है जिन अदालतों से सजा और थानों में गिरफ्तारी आजादी के दीवानों ने पायी होंगी वहां 14 अगस्त और 15 अगस्त के बीच कोई बदलाव नहीं था सिर्फ एक ऐसी तस्वीर के जिसे पहले इंग्लैंड की महारानी के नाम पर फिर बापू के नाम पर लगा दिया गया था। यहां सवाल ये ही खड़ा होता है कि इतने बड़े बदलाव के लिये देश तैयार था कि नहीं, और किसी नेता से हमको कोई गिला-शिकवा नहीं है लेकिन देश की जनता की नब्ज पहचानने वाले महात्मा गांधी कैसे ये चूक कर गये कि हिंदुस्तानी जनमानस इस बात को पचा नहीं पायेगा कि कभी अंग्रेजी राज की हिमायत करने वाला सरकारी कर्मचारी बाद में भी देश के कानून को लागू करने की जिम्मेदारी ले। आम हिंदुस्तानी का साबका पूरी जिंदगी में एक बार भी शायद संविधान की किताब से पड़ता हो लेकिन मोहल्ले का दरोगा, बिजली विभाग का कर्मचारी और अस्पताल का बाबू उसकी जिंदगी की धड़कनों से जुडे रहे है लेकिन उसी में बदलाव नहीं था। यानि सिर्फ गद्दी पर बैठने वाले राजनेताओं को स्वायत्ता हासिल हुयी लेकिन आम हिंदुस्तानी को नहीं। स्वायत्ता शब्द इसलिये इस्तेमाल कर रहा हूं कि ये नेता 1935 से मंत्रीमंडल में थे और ब्रिटिश वायसराय के अधीन अपना शासन चला रहे थे। मैं अभी भी उस ब्यौरे की तलाश कर रहा हूं जिसमें घोर हिंदुस्तानी विरोधी मानसिकता के अधिकारियों बर्खास्त कर दिया गया हो आजादी के आंदोलन से तपकर निकले किसी आम हिंदुस्तानी को उसका चार्ज दिया गया हो। कहानी अपने आप में साफ है कि आजादी के नाम पर हिंदुस्तानी आम जनता को वो झुनझुना पकड़ा दिया गया जिसे वो भूख और प्रता़डना के वक्त बजा सकता है। इस कहानी के कई किरदारों से मेरी मुलाकात नहीं हुयी लेकिन जब भी किसी पुराने राजनेता या फिर नौकरशाह से बात हुयी तो उन्होंने कमोबेश एक ही सफाई दी कि नौसिखिये हिंदुस्तानियों को काम-काज की बागडोर कैसे सौंप दी जाती और इन लाखों सरकारी कर्मचारियों का क्या होता। हालात शायद इराक से भी बदतर हो जाते लेकिन इस बात की परवाह किसे है कि हालात तब इतने न बिगड़ते कि थानों में बेटी के साथ बलात्कार की रिपोर्ट लिखाने गये आम आदमी को अपनी बेटी को पुलिस की बदनजर से बचाने की जद्दोजहद से जूझना पड़े। अदालत में भ्रष्ट्राचार के नंगे नाच को बेबसी से देखना न पड़ता।

Saturday, June 20, 2009

सटोरियों की जय

16 मई की सुबह। जगह दिल्ली का 24 अकबर रोड़। आठ बजते-बजते ढ़ोल-ताशों की थाप पर नाचते गाते लोग। जीत का जश्न था। और इस बात से नाइत्तफाकी शायद ही किसी को है कि ये लोग बेहद खुश थे। इनके अपने सत्ता में लौट आये है। 18 मई की सुबह। जगह मुंबई की दलाल स्ट्रीट। शेयर बाजार खुला ही नहीं कि कि बंद हो गया। किसी खौफ या हमले से नहीं। बल्कि मुनाफा संभाल न पाने की वजह से। बाजार में सर्किट लग गया। एक बार नहीं दो बार। इतिहास बन गया। महीनों से मंदी से घिरे बाजार की ये खुशी थी। नयी सरकार के बनने की खुशी। 2 लाख दस हजार करोड़ रूपये बिजनेस। बाजार खुला 1 मिनट 48 सेकेंड। लेकिन यही सरकार चुनावी नतीजों से पहले भी सत्ता चला रही थी। महज एक महीने में क्या हुआ जिसने बाजार को इतना खुश कर दिया कि लाखों करोड़ का कारोबार दो मिनट में हो गया। गिरगिट को मात देने वाले मीडिया के पास इसका सटीक जवाब है। स्थायी सरकार। और खुशहाल भविष्य की उम्मीद।
अब सीन को कुछ महीने पीछे के फ्रेम में ले जाते है। 26 नवंबर मुंबई में आतंकवादियों का सबसे बड़ा हमला। पूरा देश दहशत में। सरकार आतंकवादियों से जूझ रही थी और देश टीवी चैनलों पर नजर गड़ाये बैठा था। शेयर बाजार खुला और सेंसेक्स बढ़ गया। गिरगिटों के पास अपनी दलाली औऱ देशभक्ति दोनों को बताने का कोई मुहावरा नहीं था। लेकिन इस बात से इंकार करने की हैसियत में कौन है जो ये कहे कि बाजार को अच्छे ट्रैंड नहीं मिले। यानि आतंकवादियों के हमले ने बाजार को इस बात का हौसला दिया कि वो चढ़ कर इसका स्वागत करे।
मीडिया ने कहा कि आतंकवादियों को जवाब दिया है बाजार ने। किस तरह का जवाब क्योंकि 18 मई को बाजार ने नयी सरकार का स्वागत किया है।
यानि सरकार के आने और आतंकवादियों के हमले में ये बाजार कोई अंतर नहीं करता है। समझ में नहीं आता कि क्यों। लेकिन बात इतनी नहीं है। बाजार को उपर नीचे गिराने का काम करते है सटोरिये। यही आम आदमी जानताहै और यही समझ भी आता है। लेकिन सटोरियों कौन है। कौन है जिसको इनके फायदे की फ्रिक रहती है।सरकार कौन चुनता है और सरकार किसके लिये काम करती है। ये कई सवाल लगातार जेहन में आते रहते है। मेरे आस-पास के लोग भी जिनको देश की फ्रिक (बातों में) होती है बेईमानी (दूसरे की) से नाराज होते है शेयर बाजार के चढ़ने से बेहद खुश और गिरने से हताश होते है। बाजार क्या है इससे उन्हें मतलब है कि पैसा उनका कितना परसेंट बढ़ गया। हालांकि मीडिया ने इसके लिये जाने कितने जवाब दिये वो सारे जवाब मेरे पास है, लेकिन मेरे जैसे मूर्ख को कौन समझा सकता है।
एक कहानी और मुझे याद आती है कि एक गांव के लोगों को उस गांव के जमींदार के घर होने वाली दावत का इंतजार रहता था। दावत में उसके यहां बाहर के मेहमान आते थे। दावत में जो मांस पकता था उसकी खुशबू से पूरा गांव महकता रहता था। दावत खत्म होती थी और बचा हुआ मांस और हड्डियां जमींदार के नौकर गांव के लोगों में बांट देते थे। लेकिन हर बार दावत से पहले आस-पास के गांवों से कुछ बच्चे गायब हो जाते थे। जब वो दूसरे गांव वाले इस गांव में आकर छानबीन करना चाहते थे तो जमींदार के गांव के लोग उन्हें गांव में कदम भी नहीं रखने देते थे। और अब जमींदार के गांव वाले इस बात इंतजार करते है कि कब आस-पास से बच्चे के गायब होने की खबर आये और कब जमींदार के यहां से बचा हुआ मांस और हड्डियां का खाना उनको परोसा जाये।