Monday, June 22, 2009

मेरा और सरकार का रिश्ता।

सरकार यानि देश को चलाने वाले लोग जिन्हें मैं चुनता हूं और मेरे बीच क्या रिश्ता है। एक सप्ताह भऱ पहले एक पुलिस कप्तान के साथ बातचीत के दौरान सवाल उभरा। बात पुलिस और आम पब्लिक के बीच बढ़ती दूरी पर शुरू हुयी। पुलिस कप्तान बहुत दुख से बता रहे थे कि पुलिस पर काम का बेहद बोझ है। पुलिस डिपार्टमेंट अंडरस्टाफ है। उनके आदमी बेहद तनाव में है। बात आगे बढ़ी, मैंने उनसे एक सवाल पूछा वही सवाल जो मैं आपसे भी कर सकता हूं।
सरकार मतलब देश में कानून-व्यवस्था चलाने वाले लोग। हर आदमी के लिये रोटी,कपड़ा और मकान देने वाली एजेंसी और सुरक्षा और शिक्षा देने वाली एजेंसी। मैं एक आम आदमी की जिंदगी से शुरू करता हूं। दूसरे ज्यादातर लोगों की तरह से मैं भी एक छोटे शहर से राजधानी पहुंचा। नौकरी की तलाश में। पढ़ाई-लिखाई छोटे शहर में हुयी, मेरे मातापिता के पैसों से। प्राईवेट स्कूल में।
यहां आने के बाद मैंने नौकरी हासिल की। प्राईवेट नौकरी। मालिक और मेरे बीच के रिश्ते में सरकार को इतना करना था कि मेरे साथ मानवीय रिश्ता रखते हुये मालिक अपने लाभ को नजर में रखे। और यदि इस बैलेंस में कुछ गड़बड़ हो तो सरकार ठीक करे। मालिक ने साईन कराया कुछ और दिया कुछ। मेरे हिस्से का पीएफ भी मेरी तनख्वाह से और मालिक का भी हिस्सा भी मेरी ही तनख्वाह से। लेकिन सरकार मेरे से टीडीएस काटती थी खैर दो साल बाद मैंने संस्थान बदल लिया और बेहतर संस्थान में चला आया।
मालिक और नौकरीशुदा आदमी के बीचऐसा ही रिश्ता है कि वो मालिक हर तरीके से अपने फायदे के लिये नौकर को इस्तेमाल करता है और सरकार से उसके नाम का फायदा भी लेता रहता है।
किराये के मकान की डीड किरायेदार और मकानमालिक के बीच। मकान मालिक तीन महीने का एडवांस ले या तीन साल का सरकार का कोई दखल नहीं। आफिस से घर तक की दूरी तय करने के लिये प्राईवेट बस है। सरकार के पास पर्याप्त बस नहीं है। प्राईवेट बस में जानवर के मानिंद रोज जिंदा रहने और अपनी इज्जत बचा कर घर में घुसने तक घरवालों की निगाह दरवाजे तक ही रहती है। हर आदमी की निगाह में दिल्ली की ब्लू लाईन बस के दरिंदे है। सरकार और उनके बीच का क्या रिश्ता है ये फिर कभी।
घर के लिये सरकार के पास अमला औऱ जमीन नहीं। आम आदमी प्राईवेट बिल्डर के सहारे। वही बिल्डर जिसके ब्रोशर पर खूबसूरत लड़कियां, घने जंगल में बने आलीशान मकान और स्विमिंग पूल में नहाते बच्चे होते है। हकीकत क्या है महानगर के करोड़ों लोग जानते है। सरकार को संपत्ति शुल्क और रजिस्ट्री दे दिया। बिल्डर के लिये अरबों रूपया खाने का सरकार ने पक्का बंदोबस्त किया। लाईट नहीं है लिहाजा हर घर में इनवर्टर है या फिर जेनरेटर पूल है। पानी के लिये सप्लाई नहीं है। जिनकी जेब में पैसा है वो पानी के जार मंगाये। जार में पानी कैसा है ये ईश्वर जानता है सरकार का कोई लेना-देना नहीं। सड़क पर मरने वाले साईकिल वाले और भागकर पैदल सड़क पार करने वालों के अलावा हर आदमी रोड़ टैक्स देता है लेकिन रोड़ है ही नहीं, बाकि जहां रोड़ है वहां टोल टैक्स के नाम पर दलालों के हवाले सड़क। बच्चा पब्लिक स्कूल में। स्कूल में जितनी हवा बच्चा लेता है उसका पैसा भी लुटेरों की तरह वसूलते है पब्लिक स्कूल। और सरकार पब्लिक स्कूलों को फ्री की जमीन देती है। अब बचा घर सिक्योरिटी का सवाल तो उसके लिये निजी सिक्योरटी एजेंसी को सोसायटी ने हायर किया हुआ है। इस रोज की जिंदगी में सरकार कहीं आती है तो किसकी हमदर्द बन कर।
बात चूंकि पुलिस से शुरू हुयी थी तो जब भी पुलिस की जरूरत पड़ती है तो वो सिर्फ और सिर्फ बेईमान और बदतमीज के अलावा कुछ और नजर नहीं आती। रात दिन सड़क पर पैसे वसूलते टैफिक पुलिस के सिपाही हो या फिर ठेले वालों औऱ मकान मालिकों से पैसे वसूलते बीट कांस्टेबल।
अब मैंने सिर्फ कप्तान साहब से ये ही सवाल किया था कि मेरे और सरकार के रिश्ते को क्या नाम देना चाहिये। मेरी जिंदगी में सरकार का क्या दखल है। या एक आदमी के लिये सरकार का क्या मतलब है।

1 comment:

परमजीत सिहँ बाली said...

हम सरकार के लिए बधुआ मजदूर हैं जो मजबूर है यह सब सहने को।........अब पेट का सवाल जो है....वैसे किसी को दोष क्या देना.......६० सालों से ज्यादा समय से हमी तो उन्हें चुन रहे हैं.....