Sunday, June 21, 2009

सिक्का बदल गया क्या ?

बचपन की एक कहानी की याद आती है ,कहानी का लेखक हो सकता आपको याद आ जाये,..सिक्का बदल गया। कहानी का समय है जब देश को आजादी मिलने वाली थी और देश में पूरे तौर पर उसकी गहमा-गहमी का माहौल था,
इसी दौरान एक अंग्रेज की बदतमीजी पर एक तांगेवाला उससे भिड़ पडता है तो उसे देशी सिपाही जो अंग्रेजी राज की देन थे गिरफ्तार कर लेते है और हवालात में पहुंचा देते है। हवालात में तांगेवाले को पहले से बंद कुछ स्वतंत्रता सेनानी मिलते है आजादी के बाद देश के बदलने वाले हालात की चर्चा कर रहे होते है। तांगेवाले को वो बातें अबूझी लगती है। जब वो आजादी के बारे में जानने की कोशिश करता है तो वो कार्यकर्ता उसके बारे में उसको बस इतना समझाते है कि आजादी का मतलब है सिक्का बदल जाना, यानि अब अंग्रेजों का नहीं बल्कि हिंदुस्तानियों का सिक्का चलेगा और कोई भी बदतमीजी के बाद बेगुनाह आदमी जेल में बंद नहीं होगा। कुछ दिन बाद तांगेवाला रिहा हो जाता है और देश को भी आजादी मिल जाती है। कुछ दिनों बाद फिर उसी अंग्रेज से तांगेवाले का सामना होता है और अंग्रेज की बदतमीजी का विरोध करने पर फिर वही सिपाही उसी तांगेवाले को गिरफ्तार कर लेते है तो तांगेवाला चिल्ला-चिल्ला कर पूछता है कि अब तो सिक्का बदल गया। लेकिन इस बात का जवाब देने वाला कोई नहीं होता कि सिक्का बदल गया तो किसका चल रहा है,महारानी की विदाई के बाद देश का भाग्यविधाता कौन है। कहानी तो खत्म हो गयी लेकिन बचपन से इस कहानी ने दिलो-दिमाग में कुछ सवाल छोड़ दिये । सालों बाद भी जब पत्रकारिता में काम करना शुरू किया तो भी इस सवाल का जवाब नहीं मिल पाया। देश की आजादी के वक्त देश के स्वतंत्रता सेनानियों को इस लड़ाई में नायक बनाने वाले थे देश के करोड़ों हिंदुस्तानी जो गरीब. अनपढ़ और दूरदराज इलाकों में रहने वाले थे। और इस लड़ाई का नेतृत्व था महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, जिन्ना और सुभाषचन्द्र बोस और दूसरे ऐसे नेताओं के हाथ में जिनकी शिक्षा-दीक्षा देश में नहीं बल्कि विदेशों में हुयी। आजादी के लिये लड़ी जा रही पूरी जंग में पहली कतार के सेनानियों में वल्लभ भाई पटेल जैसे कुछ ही लोग होंगे जो अपनी पूरी पहचान के लिये गांव पर निर्भर थे। दशकों तक लंबी चली इस आजादी की निर्णायक लडाई 1920 के दशक में शुरू हो चुकी थी। नेताओं को भी यकीन था कि आजादी उनकी जिंदगी में ही हासिल हो जायेगी। इस दौरान देश के संविधान को बनाने की कार्रवाई शुरू हुयी। देश के ढ़ांचे पर विचार किया गया जो आजादी के बाद अंग्रेजों से देश की बागडोर संभालने वाला था। लेकिन नौकरशाही. और न्यायिक सेवाओं में अंग्रेजी राज की सेवा और वफादारी की शपथ लेकर काम करने वाले लाखों सरकारी कर्मचारियों के बदलाव के लिये कोई विचार-विमर्श नहीं हुआ।
देश को आजादी मिल गयी, देश के नेताओं को देश की बागड़ोर। लेकिन नेहरू और दूसरे तमाम राजनेताओं को जो बात अटपटी नहीं लगी वो ये कि तिलकमार्ग थाने का थानेदार 15 अगस्त 1947 को भी वही था जो 14 अगस्त 1947 को था। बात अटपटी जरूर है लेकिन समझ से बाहर नहीं। यूनियन जैक की हिफाजत और सम्मान के लिये लाखों हिंदुस्तानियों को मौत के घाट उतारने वाले और अंग्रेजी राज की हिमायत करने वाले लाखों हिंदुस्तानियों और अंग्रेज सरकारी कर्मचारी ज्यों के त्यों अपने पदों पर बने थे। और ये बात किसी को अटपटी नहीं लगी सिवाय उनके जो आजादी की इस लड़ाई में सिर्फ प्यादे थे यानि देश के करोड़ों देसवासी। आप सिर्फ कल्पना करके देखिये कि आजादी की लडाई में हिस्सा लेने वाले एक आदमी को साल दर साल सिपाहियों से डंडे, प्रताडना और अपमान झेलना पड़ा और किसी -किसी के लिये तो परिवार के किसी सदस्य को मौत भी मिली इन्हीं पुलिसवालों से। लेकिन आजादी की धुन में वो इंसान लड़ता रहा और आखिर वो दिन भी आगया जिसका एक देश दो सौ सालों से इंतजार कर रहा था। 15 अगस्त 1947 देश के इतिहास का अमिट दिन। जोश और आजादी के खुमार में वो आदमी जब लालकिला अपने देश के नेताओं का भाषण सुनने पहुंचता है तो उसका सामना होता है उन्हीं सिपाहियों से जो अब तक उस पर आजादी के आंदोलन में हिस्सा लेने पर लाठियां बजा रहे थे और अब भाषण सुनने के लिये एक लाईन में करने के लिये लाठियां बजा रहे है।उस इंसान के बारे में सोचिये जो किसी न्यायधीश से सिर्फ इसलिये सजा पाया हो क्योंकि उसने देश की आजादी के लिये नारे लगाये थे और आजादी मिलने के साल भर बाद उसी न्यायधीश से इस लिये सजा पा रहा हो कि उसने तिंरगे को सही तरह से नहीं फहराया। ये सिर्फ बानगी भर है जिन अदालतों से सजा और थानों में गिरफ्तारी आजादी के दीवानों ने पायी होंगी वहां 14 अगस्त और 15 अगस्त के बीच कोई बदलाव नहीं था सिर्फ एक ऐसी तस्वीर के जिसे पहले इंग्लैंड की महारानी के नाम पर फिर बापू के नाम पर लगा दिया गया था। यहां सवाल ये ही खड़ा होता है कि इतने बड़े बदलाव के लिये देश तैयार था कि नहीं, और किसी नेता से हमको कोई गिला-शिकवा नहीं है लेकिन देश की जनता की नब्ज पहचानने वाले महात्मा गांधी कैसे ये चूक कर गये कि हिंदुस्तानी जनमानस इस बात को पचा नहीं पायेगा कि कभी अंग्रेजी राज की हिमायत करने वाला सरकारी कर्मचारी बाद में भी देश के कानून को लागू करने की जिम्मेदारी ले। आम हिंदुस्तानी का साबका पूरी जिंदगी में एक बार भी शायद संविधान की किताब से पड़ता हो लेकिन मोहल्ले का दरोगा, बिजली विभाग का कर्मचारी और अस्पताल का बाबू उसकी जिंदगी की धड़कनों से जुडे रहे है लेकिन उसी में बदलाव नहीं था। यानि सिर्फ गद्दी पर बैठने वाले राजनेताओं को स्वायत्ता हासिल हुयी लेकिन आम हिंदुस्तानी को नहीं। स्वायत्ता शब्द इसलिये इस्तेमाल कर रहा हूं कि ये नेता 1935 से मंत्रीमंडल में थे और ब्रिटिश वायसराय के अधीन अपना शासन चला रहे थे। मैं अभी भी उस ब्यौरे की तलाश कर रहा हूं जिसमें घोर हिंदुस्तानी विरोधी मानसिकता के अधिकारियों बर्खास्त कर दिया गया हो आजादी के आंदोलन से तपकर निकले किसी आम हिंदुस्तानी को उसका चार्ज दिया गया हो। कहानी अपने आप में साफ है कि आजादी के नाम पर हिंदुस्तानी आम जनता को वो झुनझुना पकड़ा दिया गया जिसे वो भूख और प्रता़डना के वक्त बजा सकता है। इस कहानी के कई किरदारों से मेरी मुलाकात नहीं हुयी लेकिन जब भी किसी पुराने राजनेता या फिर नौकरशाह से बात हुयी तो उन्होंने कमोबेश एक ही सफाई दी कि नौसिखिये हिंदुस्तानियों को काम-काज की बागडोर कैसे सौंप दी जाती और इन लाखों सरकारी कर्मचारियों का क्या होता। हालात शायद इराक से भी बदतर हो जाते लेकिन इस बात की परवाह किसे है कि हालात तब इतने न बिगड़ते कि थानों में बेटी के साथ बलात्कार की रिपोर्ट लिखाने गये आम आदमी को अपनी बेटी को पुलिस की बदनजर से बचाने की जद्दोजहद से जूझना पड़े। अदालत में भ्रष्ट्राचार के नंगे नाच को बेबसी से देखना न पड़ता।

3 comments:

समयचक्र said...

sachamuch badal gaya hai . badhiya post.

P.N. Subramanian said...

सिक्का जरूर बदल गया है. लेकिन चलन वही है. सुन्दर प्रविष्टि. आभार.

Somya MANAN said...

सिक्का बदला जरूर है परन्तु टकसाल पुरानी है।