Thursday, July 30, 2009

कारगिल हार भी जाते तो क्या होता ?

विजय समारोह से
लौटते वक्त
एक राष्ट्रीय स्मारक की दीवार पर
एक युवक को पेशाब करते देखा
एक ख्याल आया
कारगिल हार भी जाते तो क्या होता।

Saturday, July 11, 2009

मां को चिट्ठी 01

मां
तुमने रोक क्यों नहीं लिया,
मुझे इस शहर आने से
कितना आसान था
तेरे पास
सच को सच
झूठ को झूठ कहना
तुम्हारे आशीष सदा सच बोलने के
चुभ रहे है
अब...
किसका सच बोलूं
दफ्तर का
घर का
रास्तों का
किससे सच बोलूं
बॉस से
दोस्त से
दुकानदार से
प्रेमिका से
या
इन सबसे अलग
अपने आप को
शीशे में देखकर सच बोलूं
दिन भर जो शरीर गतिमान रहता है
रात को घावों से टपकता दर्द बन जाता है
कितना आसान था
मां
विश्वास कर लेना
सहजता से
दुख
सुख
प्यार
या नफरत पर
जाने क्यों
अब विश्वास नहीं होता
भीख मांगते भिखारी की दयनीयता पर
झुंझला सा जाता हूं
मदद के अनुग्रह पर
मां
कितना मुश्किल था
तेरे पास ये मान लेना
कि चोर दिन में भी निकलते होंगे
जीत शेर की नहीं
सियार की होंगी
खरगोश जिंदा नहीं रहेगे
बिना दांतों के
यहां
अब
कितना सहज हो गया हूं
रोज मरते हुये
लोगों के बीच से गुजरते हुये
मां
याद ही नहीं आती
तेरी सुनायी हुई कहानी
कि
आखिर में जीत हुयी सही इंसान की
कितना सरल था
दोस्त.दुश्मन पहचानना
मां
मुझे रोक लेती
तो
अब बहुत कठिन नहीं रहता
मुझे सच और झूठ के बीच निकलना
मां
वहां
आज भी डरता ..मैं
पेड़ों पर उल्टे लटके चमगादडों से
गांव के कोनों पर बनीं बांबियों से
दिन में कहानी सुनने से
अब
ये सब बकवास लगते है
मां तुमने रोक क्यों नहीं लिया
मुझे शहर आने से
....................
कल एक ब्लाग में किसी ने लिखा कि कवियों को मां शहर में आकर ही क्यों याद आती है। बात तो सही थी। मैंने भी जब शहर में नया-नया आया था, मां को याद किया। लेकिन ये कहना शायद ज्यादती होंगी कि लोग मां को सिर्फ लिखने के लिये ही याद करते है। मां घने पेड़ की तरह होती है जब तक उसकी छांव में रहते है तो पेड़ से कितना फल मिलता है ये सोचते है लेकिन छांव को याद नहीं करते। और जैसे ही तेज धूप में जाते है तो सिर्फ पेड़ की छांव याद रहती है फल नहीं।

Friday, July 10, 2009

खुले घूम रहे हैं आठ लाख हत्यारें :

हर साल मिलती है चालीस हजार लावारिस लाशे। ये संख्या उन लाशों की है जिनकी हत्या हुई होती है। ऐसी लाशें जो गली-सड़ी मिलती है। पोस्टमार्टम रिपोर्ट इशारा करती है कि मौत कैसे हुई। पुलिस पूरे तौर पर कानून का पालन करती है। यानि गली-स़ड़ी लाश को 72 घंटे तक कार्रवाई शिनाख्त के लिये रखती है। फिर अंतिम संस्कार कर देती है। सबूत ए शिनाख्त के तौर पर उसके कपड़े थाने के एक बंद कमरे में या फिर छत पर फेंक दिये जाते है। मौसम एक दो साल में उसे चट कर जाता है। इस तरह से हमारी तरह जीते-जागते इंसान की कहानी खत्म हो जाती है।
ये कहानी हिंदुस्तान में हर साल मिलने वाली चालीस से साठ हजार लाशों की है। इसमें वो लाशें शामिल नहीं है जो नहरों और नदियों में बहा दी जाती है। उन लाशों का ज्यादातर हिस्सा मछलियां या फिर कछुएं खा जाते है। कभी ये लाशें मिलती भी है तो कर्तव्यनिष्ठ पुलिस वाले के मुखबिर इन्हें अगले थाने के लिये बहा देते हैं।
मैं पुलिस की कहानी नहीं बता रहा हूं। ये फिर कभी। इन लोगों की गुमशुदगी की रिपोर्ट थानों के रजिस्टर में कभी-कभी दर्ज होती है। लगभग सारी लाशें गरीब और समाज के निचले तबके से रिश्ता रखने वालो की होती है। यानि उनकी रिपोर्ट न लिखी जाये तब भी कोई हाय-तौबा नहीं। घर वाले पांच दिन तक थाने के चक्कर लगाने के बाद अपनी रोटी की तलाश में इधर-उधर निकल जाते है।
यदि आपराधिक वारदात का विश्लेषण करे तो औसतन एक हत्या में दो लोग शामिल होते है। इसका मतलब हर साल 40 हजार लाश मिले तो 80 हजार हत्यारें भी पैदा हो जाते है। लेकिन पुलिस को कभी नहीं मिलते। पुलिस के पास उनकी तलाश के लिये वक्त भी नहीं होता। ऐसा संयोग कई बार हुआ है कि किसी मामले में कोई आदमी पुलिस की गिरफ्त में आये और वो पुरानी हत्याओं की बात भी कबूल कर ले। लेकिन ऐसा एक-दो बार ही होता है।
इसका मतलब है कि पिछले दस सालों की बात करें तो लगभग 8 लाख हत्यारे है जो हमारे आपके आस-पास फ्री घूम रहे है। कानून उन तक कभी नहीं पहुंच पायेगा।
मारे गये आदमी के फोटो के अलावा पुलिस के पास कुछ नहीं रह जाता। न उसका डीएनए सैंपल न उसकी पहचान के लिये कोई दूसरा तरीका। पुलिस मॉर्डनाईजेशन के नाम पर हजारों करोड़ रूपया डकारने वाले इस बात की ओर कोई ध्यान देना तो दूर सोचते भी नहीं है कि क्या लावारिस आदमी का डीएनए नहीं कराया जा सकता। और उसको रिकार्ड में रख कर देश के तमाम थानों तक भेज दिया जाये। गुमशुदा लोगों के रिश्तेदार आसानी से अपना रिश्ता बता कर ये चेक कर सकते है कि मारा गया बदनसीब उनका अपना खून था।

Thursday, July 9, 2009

पांच लाये दो मारे फिर भी पांच जेल में ?

..............>उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर का परौर थाना। शाम के सात बजे जीप थाने में पहुंची। थानेदार के सामने उन्होंने अपना परिचय दिया। जीप में सादी वर्दी में यूपी पुलिस की टीम थी। इस टीम में मेरठ और बागपत थाने के पुलिस वाले शामिल थे। टीम मिशन पर आयी थी। रात के अंधेंरे में ये टीम परौर थाने के गांव में पहुंची। वहां से ग्राम प्रधान को साथ लेकर गांव के बाहर की बस्ती से घूमंतू जाति(बावविये, सांसी, पंखी) के पांच लोगों को उठा कर ले आयी। परौर थाना इंचार्ज ने इन लोगों की हिरासत को रिकार्ड में दर्ज करने की बात कही तो टीम लोकल थाने पर गर्म होने लगी। और बिना इंट्री किये पांच लोगों को लेकर निकल गयी।
बागपत जिले की सदर कोतवाली में देर रात पांच आदमी पुलिसया टार्चर को झेल रहे थे। नशे में धुत्त पुलिस वालों ने वहशियत की सारी सीमाये पार कर ली थी। इसमें दो लोगों की सांसे बंद हो गयी। पुलिस वालों की नींद टूटी। रात में कस्वे के डाक्टर की कार मंगायी गयी। और नदी के किनारे मिट्टी के तेल से दो लाशों को जला दिया गया। बाकी बचे तीन लोगों को क्या किया जाये ये सवाल पुलिस के सामने आ खड़ा हुआ।
अगले दिन अलसुबह गौतमबुध्द नगर के सूरजपुर थाने में पुलिस की एक मुठभेड़ हुई। और बहादुर पुलिस ने पांच पंखियों को गिरफ्तार कर लिया। उनसे भारी मात्रा में अस्लाह भी बरामद मिला। पुलिसिया पूछताछ में पांचों पंखियों ने मेरठ मंडल में हुई दर्जनों डकैतियों, चोरी और लूट में अपना हाथ मान लिया।
अब तक आप इस कहानी के किसी सिरे को नहीं समझें होंगे। मैं अब इसे आसान कर देता हूं। परौर थाने से लेकर आये पंखियों की इंट्री थानेदार ने रोजनामचे में कर दी थी। इतना ही नहीं उसने पांचों लोगों के नाम भी रोजनामचे में दर्ज किये थे। पंखियों के रिश्तेदारों ने कई तार मानवाधिकार आयोग को किये थे।
सूरजपुर मुठभेड़ में गिरफ्तार तीन लोग वहीं थे जिनको मुठभेड़ में शामिल पुलिसवाले परौर से उठा कर लाये थे। किसी आला अफसर को मालूम नहीं कि अपनी हिरासत में रखे लोगों से पुलिस के बहादुर सिपाही किस तरह से मुठभेड़ कर पाये।
बागपत सदर थाने में इस बात कि कोई इंट्री नहीं है कि वहां किसी आदमी को उस दौरान हिरासत में रखा गया था। लेकिन इस घटना में मारे गये एक युवक की पत्नी शहाना ने मानवाधिकार आयोग को पूरी घटना का ब्यौरा लिख कर दिया था। उस पर आयोग ने जांच की। लेकिन तब तक शहाना गायब हो चुकी थी। कहां कोई नहीं जानता। बागपत जिले के एक एसपी कृष्णैया ने जांच की लेकिन वो फाईळों में कैद हो गयी।
अंत कथा इतनी कि इस घटना में शामिल एक सब इंस्पेक्टर ने अपनी बहादुरी को फिर दोहराया। तीन मासूम बच्चों को हिरासत में यातना दे कर मौत के घाट उतार दिया। दरोगा जी के साथ पूरा थाना सस्पैंड हुआ। और फरार हुआ। लेकिन आज वो सब लोग फिर से थानों में कानून की रक्षा करने में व्यस्त है। एक बात और उस वक्त उन पंखियों और मासूम बच्चों की तरफदारी करने वाले लोग आज सत्ता में है। सत्ता अब उन्हीं वर्दी वाले हत्यारों को बचाने में लगी है जिनका विऱोध विपक्ष में रहते हुये कर रहे थे।..................आगे

Tuesday, July 7, 2009

एक बदमाश दो एनकाउंटर दो थानों का ईनाम

जनवरी 1997 की रात। उत्तर प्रदेश के मेरठ जिले के सरधना थाने में एक एनकाउंटर हुआ। मुठभेड़ में दो शातिर बदमाशों को बहादुर पुलिस ने मार गिराया। मुठभेड़ में मारे गये हजारों बदमाशों की तरह से इन दोनों ने भी तमचों के दम पर पुलिस पार्टी पर हमला किया। देर रात के अंधेरें में आबादी से दूर बदमाशों को पुलिस पार्टी की जीप दुश्मन दिखायी देती है जिसे वो आसानी से गुजर जाने दे सकते थे। बदमाश की शिनाख्त हुयी कुख्यात नौशाद और मुईन पहलवान के तौर पर। लाश की शिनाख्त पुलिस के अलावा बदमाशों के पिताओं ने भी की। नौशाद लाख रूपये ईनामी बदमाश था और उसका दोस्त मुईन भी इलाके की पुलिस के लिये सरदर्द बने हुये थे। पुलिस पार्टी को इनाम के अलावा शासन की ओर से आउट ऑफ टर्न प्रमोशन जैसे मनोवांछित इनाम की घोषणा भी हुयी।
लगभग छह महीने बाद जून 1997 में मेरठ मंडल के गाजियाबाद जिले का विजयनगर थाना। रात को एक बदमाश ने अपने अज्ञात साथियों के साथ पुलिस पार्टी पर हमला किया। शहर से दूर अंधेंरे में बहादुर पुलिस पार्टी ने जवाब दिया। एकतरफा( तमंचा चल नहीं सकता था) गोलीबारी में पुलिस ने एक बदमाश को मार गिराया बाकी साथी अंधेंरे का लाभ उठा कर भाग गये। लाश की शिनाख्त हुयी। शिनाख्त की मारे गये बदमाश के पिता ने। ये बदमाश भी ईनामी नौशाद निकला। पुलिस पार्टी के बहादुर जवानों को ईनाम मिला आउट टर्न प्रमोशन की फीती की घोषणा भी हुयी।
अब कहानी का दूसरा सिरा सुनने से पहले ये जान ले कि नौशाद कौन था। मुजफ्फरनगर जिले के थाना चरथावल का रहने वाला नौशाद यूपी, दिल्ली और हरियाणा में कई दर्जन आपराधिक वारदात में शामिल था। तीनों राज्यों में पुलिस को उसकी तलाश थी। लेकिन ऐसा दुनिया में कोई दूसरा बदमाश नहीं हुआ जो एक बार नहीं दो-दो बार एनकाउंटर हुआ हो। दोनो बार पुलिस पार्टी को ईनाम-ईकराम मिला हो।
वारदात के अगले दिन चश्मदीदों ने अखबार वालों को बताया कि पुलिस वाले रात में एक युवक को पकड़ कर लाये थे और उसके बाद उन्होंने अगले दिन पुलिस की बहादुरी के किस्से सुने।
अखबार में फोटो छपी देख कर मुजफ्फरनगर जिले के थाना ककरौली गांव का एक किसान बेचारा थाने पहुंचा। और उसने कहा ये फोटो उसके बेटे मेहरबान की है जो दिल्ली के जामा मस्जिद इलाके में एक होटल में नौकरी करता था। विपक्षी नेताओं ने खूब हो हल्ला किया। सहानुभूति बटोरी और चल दिये। मामला देश की सर्वोच्च अदालत तक पहुंचा लेकिन बाप को मालूम ही नहीं हुआ कि मामले में वकील पेश न होने के नाते अदालत ने उस मामले को खारिज कर दिया।
विकसित देश तो बहुत दूर की बात है किसी अफ्रीकी देश में भी ये वारदात हुयी होती थी सरकार चौंक जाती। लेकिन इस देश की सरकार तो दूर की बात राज्य सरकार ने इस बात की ओर कान नहीं दिया। एक मामला अल्पसंख्यक समुदाय के लड़के से जुड़ा था। उस पर दोनों ही मामलों में मुद्दई डाउन मार्केट मामला था।
आपको आज भी हिंदुस्तानी अदालत और पुलिस का ये कारनामा आज भी रिकार्ड में दर्ज है। एक ही मंडल के दो थानों में अलग-अलग मामला दर्ज है। सरधना पुलिस का रिकार्ड इस बात की गवाही दे रहा है कि उसके जाबांजों ने नौशाद का सफाया किया। इस बात की गवाही चरथावल थाने का रिकार्ड भी दे रहा है। दूसरी और विजयनगर पुलिस का रिकार्ड भी उसके साहसिक कारनामे की गवाही दर्ज है। लेकिन आपको यदि मेहरबान के बाप से मिलना हो तो ककरौली जा कर उसकी नवजात बच्ची और बीबी से मिल सकते है जो हिंदुस्तान की कसम खाते है कि खुदा किसी पुलिस वाले को उनके घर न भेंजे...................। कल)

Monday, July 6, 2009

वर्दी में हत्यारे ?

रणबीर सिंह। रण में वीरता दिखाने वाला शेर। मां-बाप ने यही नाम रखा था। देहरादून पुलिस ने रणबीर की हत्या कर दी। रणबीर या उसके मां-बाप को मालूम नहीं था रण में नहीं घर में मार देंगे वर्दी वाले गुंडे उसे। लाश गवाह थी कि रणबीर को कितनी यातनायें दी गयी थी। पोस्टमार्टम रिपोर्ट में भी इस बात के सबूत मिल गये। संवैधानिक हत्यारों ने 14 गोलियों से बेध दिया एक मां का बेटा, बाप का शेर, बहन का भरोसा और भाई का सहारा। लेकिन सरकार के कानों पर जूं नहीं रेंगी। कागज इस बात का भरोसा देते है कि एक सरकार वहां काम कर रही है। पुलिस ने मारने के बाद दावा किया कि एक बदमाश को मार गिराया। बाकी दो साथी भाग गये। थानेदार और सिपाही एक ही जूते में पांव रखे हुये थे। एसएसपी पर जिम्मेदारी थी कि वो इस बात की तफ्तीश कर ले कि उसकी पुलिस ने किसका काम तमाम कर दिया। लेकिन एसएसपी को डेयरिंग एसएसपी कहलाना था। लिहाजा उसने अपने हत्यारों की बात को तस्दीक कर दिया। और मेहनत से भरी कामयाबी हासिल कर रही एक जिंदगी बस याद में तब्दील हो गयी।

पहले तो सरकार ने इस बात को मानने से इंकार कर दिया कि मुठभेड़ फर्जी थी। लेकिन बाद में हो हल्ला मचा। सबूत चीख-चीख कह रहे थे कि सरकारी गुंडों ने वर्दी के नशे में हत्या कर दी।

सरकार ने कार्रवाई के नाम पर कुछ पुलिस वालों को लाईन हाजिर कर दिया। एसएसपी को मुख्यालय भेज दिया। जीं हां यही कार्रवाई हुई जनता की सरकार की ओर से। हत्यारों को खुली छूट दी गयी कि वो बदल दे रिपोर्ट और डरा-धमका दे गवाहों को और बाईज्जत वापस लौट आये लूटमार और वसूली के अपने धंधें पर। क्योंकि अंग्रेजों की पुलिस की नजर में हिंदुस्तानियों की औकात कुत्ते से ज्यादा कुछ नहीं है। ये वही वर्दी है जो आज भी अंग्रेजी कानून से चलती है। नेता जीत कर सत्ता में आता है तो उसके इशारे पर लाठी-गोली चलती है और जब विपक्ष में होता है तो उसके उपर चलती है। लेकिन जनता के पास कोई रास्ता नहीं है इस बात का कि वो हत्यारे पुलिस वालों के खिलाफ किसी कार्रवाई में शामिल हो।

पिछले दस सालों के अनुभव ने मुझे कई ऐसे मामलों से रू ब रू कराया जो देश की सबसे बड़ी अदालत तक पहुंचे और पुलिसिया दबाव में बिखर गये। ऐसे कई मामले है जो इस बात का सबूत है कि कानून को किस तरह हत्यारे अपने लिये इस्तेमाल कर रहे है। .......................................।