Monday, June 13, 2016

मथुरा- बौंने - पुलिस और दहकते हुए सवाल

मथुरा में जवाहर पार्क है। दो सालों से वहां कब्जा है। उपरी अदालत तक मामला चला गया। सत्याग्रही है हजारों की तादाद में। फिर एक दिन टीवी चैनलों पर चलने लगा। पुलिस पर पथराव। सत्याग्रहियों को निकालने के लिए पुलिस ऐक्शन में एसपी सिटी और फरह के थानाध्यक्ष की मौत। इसके बाद पता चलता है और फिर सब कुछ आग के हवाले। आग से निकलती है दो दर्जन से ज्यादा लाशें। पहचान होना मुश्किल है। डीजीपी भी मौके पर पहुंचे। फिर अगले दिन तक देश के मीडिया को सुध आ गई। इसको और सरल शब्दों में कहे तो सूंघ आ गई टीआरपी की। और तमाम चैनल चल पड़े टीआरपी से सुर्खरूं होने। फिर अखबारों में भी लिख रहे पत्रकारनुमा लोगो को जोश आया। और फिर शुरू हुआ एक शख्स का टीकाकरण। किताबों में ब्रह्मराक्षस के जितने गुण हो सकते थे सबसे नवाज दिया। मैं अखबारों को पढ़ रहा था और सैकड़ों मील दूर बैठा हुआ कांप रहा था। हे भगवान। इतना ताकतवर शख्स वहां बैठा था। पूरा प्लॉन तैयार था। देश पर कब्जा करना था। लग रहा था कि मथुरा से शुरू होकर ये शख्स जल्दी ही दिल्ली पर कब्जा करने वाला था। पार्क में उसकी सत्ता चल रही थी। सैंकड़ों की तादाद में हथियार थे। फिर सुर्खियों में आया कि रॉकेट लांचर भी मिल गया। अमेरिका में बना हुआ। कुछ बच्चों के खिलौने जल गए होंगे आग में नहीं तो टैंक भी मिलना चाहिए था। कुछ लोगो ने उसको नक्सल से लिंक की जांच एमएचए से करा दी। गजब का उत्साह चल रहा था एक दूसरे से आगे बढ़ कर खबर लिखने का। लेकिन कुछ दिन पहले तक इस सब का कुछ पता नहीं था इन पत्रकारों को। ये पार्क शहर के भीतर ही था। एसपी और डीएम के दफ्तरों के करीब। शहर के बीचोंबीच। जहां रोज ये महान खोजी पत्रकार अपनी बाईक लगाकर किसी दफ्तर में बैठ कर साहब लोगो को नमस्ते करने जाते थे। और साहब लोग वो जो मथुरा जैसे जिले में समाजवाद के नायकों के प्रसाद स्वरूप इस जिले में पोस्टिंग का मजा लूट रहे थे। लेकिन किसी को लगा नहीं कि लादेन का गुरू यही रहता है। किसी को लगा नहीं नक्सलवाद के नायकों से भी बड़ा नायक सामने पार्क में जन्म ले रहा है। लेकिन क्या ये सच है। क्या झूठ के धुएं में सच को इतना पीछे नहीं धकेल दिया गया है कि इस घटना के लिए दिल्ली से कुछ घंटों या कुछ दिनों की मोहलत लेकर रिपोर्टिंग करने पहुंचे बौंनों की आंखों पर लगे रेबैन के चश्मों से दिखना मुमकिन नहीं रहा । लेकिन रिपोर्ट तो करनी थी। शहादत हो चुकी थी। पुलिसअधिकारी मर चुके थे घटना में। आखिर ये शहादत कम तो नहीं है। ऐसे में लाशों की गिनती करना बेकार है। 
अब दिल्ली से पहुंचे पत्रकारों की सूचना का स्रोत क्या होगा। लोकल के वे लोग जो पुलिस के करम के मोहताज है। जो टीवी पर चेहरा और अखबार में नाम छपवाने के लिए कुछ भी बोल सकते है। वो लोग जिनको पुलिस अब गवाह बना देंगी। वो लोग जो पार्क में थे और अब पुलिस की निगरानी में, हिरासत में अस्पतालों में बंद है। उनकी जिंदगी अचानक किसी की दया पर अटकी है। और दयानायकों के साथ आएं हुए बौंनों की भीड़ सच जानना चाहती है। सच जो मुफीद हो दयानायकों के लिए। खैर ये भी सच है कि बौंनों की इस टीम का हिस्सा मैं भी हूं। और दोनो तरफ से गालियां खाता हुआ मैं सच के करीब कभी ही पहुंच पाता हूं। अपने जमीर से भी और खबर देखने और पढ़ने वालों से भी। इस कहानी के हर पहलू में अब रामवृक्ष खलनायक है। उसके फोटो दिख रहे है। उसकी कहानियां अखबारों में छप रही है। एक के बढ़कर एक। एक अखबार ने लिखा जींस नहीं पहनने देता था और खुद जींस पहनने वाली महिलाओं से मिलता था रामवृक्ष यादव। किसी को लगा कि पुलिस बिछी हुई थी यादव के सामने। किसी ने लिखा बहुत लंबे प्लॉन के साथ वहां टिका था यादव। लेकिन सवालों का घेरा इस तरह है कि किसी को भी चोट न पहुंचे। जो मर गया सारा दोष उसी के माथे लिपट जाएं।
लेकिन सवाल है कि वो मर कैसे गया। किसने आग लगा दी उन सिलेंडरों को। किसने आग लगा दी उन टैंटों को। कैसे पसलियां टूटी मिली रामवृक्ष की। मौत पिटाई से कि जलने से। वो कौन लोकल थे जिन्होंने इतना बहादुराना काम किया कि पुलिस से आगे बढ़कर इतने बड़े हथियारबंद लोगो की पिटाई कर दी। ये बहादुर इतने दिन तक कहां छिपे हुए थे। उन लोगो की लाशों की शिनाख्त क्यों नहीं हुई। आखिरी सत्ताईस लाशों का सच क्या है। किसने मारा उनको। पुलिस के बयानों पर कितना यकीन करना चाहिए। उसी पुलिस के जिसकी टोपी समाजवादी परिवार की सेवा में लगी रहती है। रामवृक्ष का सवाल अपने आप में एक जाल है सवालों का। हर बार ऐसे सवाल उठते है लेकिन बौंनों के समर्पण के साथ ही खत्म हो जाते है। एक आईजी पुलिस तैयारी में था लेकिन तैयारी नहीं थी। एक एसपी और थानेदार मरता है। और फिर दो दर्जन से ज्यादा लोग जल मरते है। फिर पता लगना शुरू हो जाता है कि इतना हथियार था और इतना खतरनाक था। किस-किस राजनीतिज्ञ के साथ उसका रिश्ता था ये कहानी चलने लगती है। जांच सीबीआई से नहीं कराना या नही कराना राजनीति लगता है। क्या आपको लगता है कि उन लोगो ने खुद आग लगाई होगी। क्या आपको लगता है कि टैंट में आग लगाकर मरने वाले औरते और बच्चें फिदाईन थे। क्या आपको लगता है कि रामवृक्ष खुद ही जलना चाहता था। उसके परिवार को किसके क्रोध ने जला डाला। एक बाप के साथ बेटी और उसका पति और बेटा और बच्चें कैसे गायब हो गए। जैसे इंसान नहीं थे बल्कि धुआं था और पुलिस की सीटियों की हवा से गुम हो गया। कहां और कैसे जिंदा जला दिया गया इन सबको। कैसा और किसका गुस्सा खा गया इनको। 
पुलिस की जांच कभी हो नहीं सकती। पुलिस के टुकड़ों पर पलने वाले बौने सच को इतना धुंधला कर देते है कि उसके पार कुछ देखना असंभव हो जाता है। अब कोई ये नहीं बता पाएंगा कि औरतों और बच्चों से भरे हुए पार्क में इस तरह का पुलिस एक्शन गोलियों और बंदूकों के साथ होना था। एक ड्राईवर के दसहजार करोड़ के आश्रम की सत्ता संभालने के पीछे किस समाजवादी नायक का हाथ था। क्या उस का इसके साथ कोई रिश्ता था या नहीं। अब किसी भी सवाल को उठाने पर आपको गालियां मिलेगी क्योंकि लोग अपनी जाति के हिसाब से खबर का अर्थ तय कर लेते है। और पुलिस यही चाहती है। हर बार उसकी तरफ उठने वाले सवालों का रूख वो फिर से जातियों की आपसी लड़ाई की ओर मोड़ देती है। इस बार भी ऐसा ही हुआ। नहीं तो कम से कम 27 जिंदा लोगो को लाश में बदलने वालों को कुछ तो सबक दिये जाते। 
बहुत सारे लोगो को गालियां देने से पहले रामपुर तिराहा कांड, विक्टोरिया पार्क और रामलीला मैदान को याद करना चाहिए। इन सबके नायक पुलिस वाले ही थे।
आजकल एक समाजवादी एसएसपी की चिट्ठियों को बहुत से बौंने बहुत सुंदर मानकर शेयर कर रहे है बस इस सरकार के आने के बाद उन साहब की पोस्टिंग देख ले और फिर जरा सोचे कि कितना दम है साहब की कथनी और करनी में। एक कविता थोड़ी लंबी है लेकिन जिन्होंने इस लेख को इतना पढ़ने में वक्त खराब किया है शायद उनको चंद्रकात जी की ये कविता कुछ बता दे।
डर पैदा करो/ भयभीत लोग जब बड़ी तादाद में इकट्ठे हो जाएंगे/तो खून-खच्चर-आगजनी का फायदा मिलेगा/हर वक्त हमें लोहा लेना है अमन-चैन से /सुरक्षित मानसिकता सबसे बड़ी दुश्मन है/इसके विरुध्द पर्चियां, पैम्फलेट,गुमनाम खत,टेलीफोन/ और अफवाह फैलाने वाली कानूफूसी/सबसे कारगर हथियार है/पेट्रोल और आग घरों और इंसानों पर ही काफी नहीं/उनके सोच, सपनों और नींद तक पर हमले की /सूक्ष्म कार्यविधि पर अमल हो/ होना ये चाहिए कि लोग कुछ भी तय न कर पाएं/असमंजस,अटकलें ,अफवाह से बस्ती और बाजार ही नहीं/आदमी के भीतर का चप्पा-चप्पा गर्म रहे /असल मकसद है डर पैदा करना/फिर आग अपने करतब खुद दिखाएंगी
5
साफ-साफ कह दिया गया था/कि हरकत में कुछ भी ना बचे/सिर्फ लपटों और धुएं के सिवा/चीख तक नहीं मुंह में डुच्चा दिया जाए/पत्थर हो जाएं आंखों में आंसू/होंठों पर कातर पुकार/चेहरे पर दहशत/बचाओं का चीत्कार टूटे हुए पंख की मानिन्द/लटक जाए वहीं होंठ के नीचे/ पर मिले है सबूत लापरवाही के/हिल रहे थे कटे स्तन बह रहा था दूध/पास ही फड़फड़ा रहे थे बच्चे के चीथड़ा होठ/पहला आपत्ति हरकत में पाया जाना इनका/दूसरे कोई शिनाख्त नहीं बची/ हलाक हुए मां-बच्चे की/मुश्किल हो रहा था मर्दुमशुमारी में/इनकी धर्म जाति भाषा का जान पाना/इस बाबत सख्त चेतावनी दी है ऑपरेशन प्रकोष्ठ के/सरदार क्रमांक दो ने/क्योंकि गड़बड़ा जाते है आंकडे़/किस खाते में डाला जाएं ऐसी वारदात को।

3 comments:

Anonymous said...

We are urgently in need of Organs Donors, Kidney donors,Female Eggs,Kidney donors Amount: $500.000.00 Dollars
Female Eggs Amount: $500,000.00 Dollars
WHATSAP: +91 91082 56518
Email: : customercareunitplc@gmail.com
Please share this post.

Anonymous said...

We are urgently in need of Kidney donors with the sum of $500,000.00,
Email: customercareunitplc@gmail.com


हमें तत्काल $ 500,000.00 की राशि वाले किडनी दाताओं की आवश्यकता है,
ईमेल: customercareunitplc@gmail.com

Unknown said...

गुर्दा दान के लिए वित्तीय इनाम
We are currently in need of kidney donors for urgent transplant, to help patients who face lifetime dialysis problems unless they undergo kidney transplant. Here we offer financial reward to interested donors. kindly contact us at: kidneytrspctr@gmail.com