Saturday, May 21, 2016

एक डाकू जिसके पैर सोने के थे।

चंबल की इन घाटियों में हजारों पैरों की आमद हुई। कभी पुलिस के आगे तो कभी पुलिस के पीछे। कभी बंदूकों के साथ दौड़ते हुए तो कभी बंदूकों के लिए दौड़ते हुए। मौत और जिंदगी की लबीं दौड़ चंबल की कहानी है। डाकुओं और पुलिस की चूहे-बिल्ली की दौड़ में डाकुओं के पैरों की अऩगिनत छाप चंबल के बीहड़ों में दर्ज है। चबंल को शायद ही कुछ पैरों की आहट याद होगी लेकिन चंबल अगर आज भी किसी को याद करती है तो एक ऐसे शख्स के पैरों को जिसकी आवाज सोने के पैरों की आवाज थी। जीं हां सोने के पैर। चंबल की सर जमीं पर एक बागी के पैरों को चंबल अगर कोई नाम देना चाहे तो यही कह सकते है कि उसके पैरों में सोना था। कभी सेना केबीच में अपनी रेजींमेंट को सोना दिलाने के लिए ट्रैक पर दौड़ा तो कभी देश को सोना दिलाने के लिए दुनिया के ट्रैक पर दौड़ा। जीं हां चंबल के सोने के पैर बाले बागी पानसिंह तोमर की कहानी फिल्मीं पर्दे की कहानी है। और ये कहानी इतनी असली थी कि पर्दे पर उतरी तो भी कही से नकली नहीं लगी। ये हैडाकू पानसिंह तोमर की जिंदगी की रील जिसमें सबकुछ रीयल है रील कुछ भी नहीं। 
 पानसिंह तोमर। चंबल के बीहड़ों के गांवों में छिपी एक ऐसी कहानी जिसको निकलने के लिए सालों का इतंजार करना पड़ा। पानसिंह तोमर की आंखें जैसे आपसे सवाल कर रही हो। कई सारे सवाल। एक गांव की गलियों से शुरू हुई जिंदगी का कहानी का अंत कहा जाकर हुआ। एक दूसरे में लिपटते-चिपकते हुए सवाल। क्या कोई रास्ता नहीं था जो पानसिंह को चंबल की इन घाटियों से जिंदा निकाल पाता। या कहा जाएं कि दुनिया के अलग-अलग शहरों में घूम चुके पानसिंह के पैरों में चंबल की मिट्टी चिपकी हुई थी और उसके अंत की कहानी शायद गांव की जमीन में ही लिखी जा रही थी। चंबल की सबसे दर्दनाक कहानियों में एक कहानी मानी जाती है पानसिंह तोमर की। गांव की किसानी से बाहर निकल देश की सेना में पहुंचने का सफर ही कम नहीं था फिर सेना के बीच एक एथलीट की सफर शुरू हुआ। पहले सेना और फिर देश के लिए रिकॉर्ड़ों का अंबाल लगाने के बाद पानसिंह तोमर का नाम एशियन खेलों में जा पहुंचा। एशियन गेम्स में हिंदुस्तान की ओर से दौड़ते हुए पानसिंह ने खूब दौड़ लगाई। एक छोटे से गांव से सपनों का ये सफर चल ही रहा था कि जैसे किस्मत ने पलटा खा लिया। पैरों में पंख बांधकर ट्रैक पर दौड़ रहे पानसिंह के कदम गांव में पड़े तो वक्त का पहिया उल्टा ही घूम गया। और कुछ दिन पहले अखबारों की सुर्खियों में रहा पानसिंह इस बार भी सुर्खियों में था लेकिन कुछ दूसरे अंदाज में। पदक के लिए ट्रैक पर दौड़ने वाला पानसिंह अब बदले के लिए चंबल के बीहड़ों में दौड़ रहा था। और इस बार के ट्रैक जिंदा वापसी का कोई तरीका नहीं था। डाकू पानसिंह और एथलीट पानसिंह के बीच सिर्फ एक खबर का फासला था और वो भी आ गई। डाकू पानसिंह गैंग और पुलिस की मुठभेड़। डाकू पानसिंह की मौत।  एक अक्तूबर 1981 को गोलियों ने पानसिंह को छलनी कर दिया था। और गोलियों की आवाज पर दौड़ने वाले पानसिंह की ये आखिरी दौड़ थी जिंदगी से मौत तक के सफर की आखरी दौड़। लेकिन ये कहानी काफी लंबी है उस पर बात करते है। 
पोरसा- भिडौसा। चबंल के बीहड़ों में बसा सैकड़ों दूसरे गांव के जैसा एक छोटा सा गांव। मुरैना शहर से पचास किलोमीटर दूर और ग्वालियर से लगभग 100 किलोमीटर दूर तक का रास्ता काफी उबड़-खाबड़ है। बीहड़ों से होकर गुजरता है। कुछ खेतों में फसल और कुछ में सिर्फ मिट्टी ही मिट्टी ये बताती हुई चलती है कि यहां के लोगो के लिए ऊपजाऊ जमीन की कीमत इंसान की कीमत से कही ज्यादा है। भिडौंसा गांव पहुंचते ही सड़क के ठीक सामने एक कच्चा घर आपकी निगाह अपनी ओर खींच लेता है। नीले रंग से पुता हुआ ये घर पानसिंह का घर है। पुलिस रिकॉर्ड में डाकू पानसिंह, अचूक निशानेबाज पानसिंह, फरार डाकू पानसिंह जैसे कितने शब्दों से नवाजा गये पानसिंह का घर। और खुद को चंबल का शेर डकैत सूबेदार पानसिंह कहने वाले पानसिंह का घर। घर में ऐसा कुछ भी नहीं है कि आपका ध्यान अपनी ओर खींच ले। लेकिन सुनसान पड़े इस घर की दीवारें गारे से बनी है और छत में लकड़ी की कड़िया है। मिट्टी की बनी सीढि़यां चढ़ कर आप जैसे ही ऊपर पहुंचते है तो कमरे के अंदर एक छोटा सा कमरा उल्टे हाथ पर दिखता है। और फिर खुला हुआ सहन।  सीधे हाथ पर एक कमरा। लैंटर की छत और दीवारों पर सीमेंट का प्लास्टर। सहन में उपलों के बिटौड़े जो परिवार के लोगो के है। कुछ बबूल और कीकर के पेड़ और फिर नीचे बिसुली नदी। घर में अब कोई नहीं रहता। दुश्मनी में पानसिंह बीहड़ बीहड़ से ऊपर चला गया लेकिन दुश्मनी गांव में अभी भी बसी हुई है। पानसिंह के बेटों में से कोई यहां नहीं रहता था। दूर शहर में अपनी जिंदगी जी रहे है।
चंबल के इसी गांव में पानसिंह का जन्म 1931 में हुआ था। गांव के स्कूल में पढ़ाई और उसके बाद पानसिंह ने इलाके के ज्यादतर छात्रों की तरह हिंदुस्तानी फौंज में भर्ती की तैयारी शुरू कर दी। और पानसिंह के घरवालों की दुआ थी कि घर का लड़का फौंज में भर्ती हो जाएं ताकि घर में एक लाईसेंसी बंदूक हो जाएं। किस्मत ने भी साथ दिया और पानसिंह सन 1949 में फौंज में भर्ती हो गयापानसिंह की किस्मत उसको अर्श पर बैठाने के लिए तैयार थी। पानसिंह की कद- काठी पहले से ही एक नैसर्गिक एथलीट की तरह थी। फौंज के अनुशासन ने उसकी मेहनत को और निखार दिया था। कहते है कि छह फीट एक इंच लंबे पानसिंह को भूख काफी लगती थी। बचपन में भी घर के तमाम लोगों से ज्यादा खाने वाले पानसिंह को फौंज की नियमित डाईट से थोडा परेशानी हुई तो फौंज के दोस्तों ने समझाना शुरू कर दिया कि अगर खाने की अपनी भूख मिटानी है तो फिर फौंज में खिलाड़ी बन जाओं।
छह दशक पहले की कहानी की असलियत बताने वाला तो कोई नहीं है लेकिन एक सजा के तौर पर दौंड़ लगाने के किस्से ने पानसिंह के फौंज में एक खिलाड़ी के तौर पर उभरने में मदद की। पानसिंह  फौंज में धावक बन गया। स्टेमिना और तेजी दोनो पानसिंह को खेल के मैदान में तारीफ दिलाने लगी। पानसिंह के स्टेमिना ने को देखते हुए  कोच ने पहले पानसिंह 5000 मीटर की दौंड़ में उतार। अब इस बात का शायद ही कोई मतलब रहे किपानसिंह और इस देश के उडनसिख मिल्खासिंह की भर्ती फौंज में लगभग एक साथ ही हुई थी। और दोनों ने अपने खेल जीवन की शुरूआत भी लगभग साथ ही साथ ही। पानसिंह ने ट्रैक पर रिकॉर्ड बनाने शुरू कर दिए।
फ्लाईँग सिख मिलखा सिंह और पानसिंह हिंदुस्तानी फौंज के ऐसे दो नाम बनकर उभर रहे थे जिनसे अब फौंज को ही नहीं बल्कि देश को खेलों की दुनिया में पदक की उम्मीद लगने लगी थी। तभी पानसिंह तोमर को पांच हजार मीटर से स्टीपलचेज में तब्दील कर दिया गया। पानसिंह तोमर ने इस खेल को भी शानदार तरीके से खेला। और रिकॉर्ड तोड़ने और नए बनाने का सिलसिला बनाएं रखा। और पानसिंह की किस्मत सितारों से होड़ कर रही थी। अभी उसको कई और जहान का रास्ता तय करना था। 
पानसिंह ट्रैक पर दौड़ रहा था और उसके साथ दौड़ रहे थे रिकॉर्ड। 50 से 60 के दशक में पानसिंह अपनी रेस में सबसे आगे रहा। पानसिंह की ट्रैक पर बादशाहत की गवाही उसका रिकॉर्ड देता है। लगातार सात साल तक राष्ट्रीय चैंपियन रहे पानसिंह का रिकॉर्ड भी उसके ट्रैक से विदा होने के दस साल बाद ही टूटा। 1956 के कॉमनवेल्थ खेल हो या फिर 1958 के टोक्यो एशियन गेम्स पानसिंह को पदक भले ही हासिल न हुआ हो लेकिन उसका प्रदर्शन बेहतरीन रहा। ट्रैक पर उसकी ख्याति देश और विदेश के खेल जगत में हो गई। 1958 में भी उसने मुन्नास्वामी का रिकॉर्ड तोड़ दिया था। लेकिन शायद ये ही पानसिंह की जिंदगी की कहानी की आखिरी ऊंचाईंया थी।
फौंज में पानसिंह की तरक्की हो रही थी तो गांव में जिंदगी के रास्ते अलग दिशा में मुड़ते जा रहे थे। फौंज उसकी अहमियत खेल के मैदान में जानती थी लिहाजा उसको 1962 में चीन के साथ हुए युद्द और 1965 में पाकिस्तान के साथ हुए युद्द में भाग नहीं लेने दिया गया। लेकिन अब पानसिंह ट्रैक से उतर अपनी जिंदगी शुरू करना चाहता था। और आखिरकार सूबेदार पानसिंह ने बंगाल इंजीनियर्स रूड़की से अपना रिटायरमेंट ले लिया। और पानसिंह चल दिया अपनी नई जिंदगी की तरफ, अपनो के बीच।
पानसिंह भिडौंसा अपने घर आ पहुंचा। गांव में अपनी पुश्तैनी जमीन में खेती करने। जमीन बहुत ज्यादा तो नहीं थी लेकिन पानसिंह को अपनी मेहनत पर भरोसा था उसी मेहनत पर जिसने उसको गांव की गलियों से निकाल कर टोकियों के ट्रैक तक पहुंचा दिया था। लेकिन पानसिंह की सीधी जिंदगी में एक बड़ा मोड आ ही गया।
सवा दो बीघा जमीन। बस जमीन का इतना सा टुकड़ा और ढेर सा स्वाभिमान। इस बात से शुरू हुई गांव की अपने ही परिवार की रंजिश। एक ही खानदान के दो हिस्सों में जमीन को लेकर टकराव शुरू हो गया। पानसिंह के बड़े भाई मातादीन ने पानसिंह की फौंज में नौकरी के दौरान कर्ज लेकर जमीन अपने खानदानी और आर्थिक तौर पर मजबूत बाबू सिंह के परिवार को दे दी थी। बाबू सिंह का परिवार गांव का सबसे ताकतवर परिवार था। गांव की कहावत के हिसाब से हल और हाली या लाठी और लठैत दोनों में मजबूत। 250 लोगों का मजबूत परिवार और सात-सात लाईसेंसी बंदूकें। ये गांव में किसी को हुकुम बना देती है। लिहाजा मातादीन की दी गई जमीन पर कब्जा कर लिया गया। 
गांव में झगड़े के हालात बन गये। अपनी जवानी को देश को न्यौछावर कर चुके पानसिंह को यकीन था कि कानून उसकी ओर खड़ा होगा। देश का नाम ऊंचा करने वाले फौंजी का सिर को देश का कानून नीचा नहीं होने देगा। लेकिन उससे पहले वो गांव के पंच परमेश्वर से इंसाफ लेना चाहता था। एक ऐसा इंसाफ जिससे उसको अपनी जिंदगी आसानी से जीने की मोहलत मिल सके। लिहाजा पानसिंह ने पंचायत में पंचों के दर पर दस्तक दी। पंचायत भी गांव के बीच में हुई। और इस पंचायत में पहुंचे जिले के मुखिया। कलक्टर साहिब और पुलिस कप्तान साहब। दोनों की मौजूदगी में हुई पंचायत ने तो पानसिंह का माथा ही हिला दिया।   
पंचायत में पैसे की गर्मी ने अपना खेल कर दिया। और खेल के मैदान का बेजोड़ खिलाडी पानसिंह तो जैसे रेस में कही टिक ही नहीं पाया। लेकिन पंचायत के आदेश को मान कर पैसे दे दिये गए। लेकिन ये कहानी तो यहां से शुरू हो रही थी। बाबू सिंह को पैसे नहीं पानसिंह की बेईज्जती चाहिए थी। और शायद यही वो मोड़ था जहां से चंबल का पानी फिर से एक और कहानी देखने वाला था।
 पानसिंह ने कानून के दरवाजे पर दस्तक दी। पंचायत में हुए फैसले को बाबू सिंह परिवार ने अहमियत नहीं दी। आखिर चंबल का उसूल है कि जो कमजोर होता है वही झुकता है। पानसिंह के लिए गोली की आवाज का मतलब ट्रैक पर दौड़ना होता था लेकिन चंबल में गोली की आवाज का मतलब बदल जाता है। पानसिंह ने अपनी जमीन बचाने के लिए पंचायत की थी लेकिन पंचायत ने उसकी पगड़ी ही उछाल दी। कलेक्टर और पुलिस कप्तान के लिए एक रोजमर्रा का मामला था जिसका फैसला अक्सर चंबल में बंदूकों की आवाजें खुद कर लेती है।
पानसिंह को पंचायत से मायूसी मिली तो बाबू सिंह का हौंसला आसमान पर था। और एक दिन पानसिंह के बेटे की सरेराह पिटाई कर दी। बात बढ़ी और बाबू सिंह का परिवार पानसिंह के घर पर हथियारों सहित चढ़ आया। पानसिंह घर से बाहर था और घर के भीतर पानसिंह का बेटा था। जान बचाने के लिए फायर किया तो भीड़ ने भी चढ़ाई कर दी। बेटा जान बचा कर निकला तो बाबू सिंह ने बुजुर्ग मां की पिटाई कर दी।
पानसिंह की समझ में कुछ नहीं आ रहा था लिहाजा वो फिर से कानून के दरवाजें पर जा पहुंचा। लेकिन चंबल के किस्सों में पुलिस की कहानियां जिस तरह दर्ज है पुलिस ने उसी तरह से काम किया। कहते है कि पुलिस अधिकारी ने पहले तो स्टीपलचेज का मतलब ही नहीं समझा और मारपीट और गोलीबारी तो तब तक बेकार बताया जब तक तीन-चार लाशें न गिर जाएं।बुरी तरह से टूटा हुआ पानसिंह घर लौटा तो मां ने कहा कि अगर वो उसकी बेईज्जती का बदला नहीं ले पाता वो अपना खून माफ नहीं करेंगी। और बस यही सब्र की हद थी। और पानसिंह ने वो राह पकड़ ली जिसमें कभी वापसी नहीं होती। इसके बाद पानसिंह ने बंदूक उठाई और ट्रिगर पर उंगिलयां जमा दी।
सेना के अनुशासन और धावक की चपलता दोनो ने पानसिंह के सीने में जल रही आग को और भड़का दिया। बदले की आग में सबसे पहले तो पानसिंह का सुनहरा अतीत जला और फिर उसके दुश्मनों के घर जलने शुरू हो गए।
पहले जंडेल सिंह, उसके भाई हवलदार सिंह और आखिर में बाबू सिंह के सीने में गोलियां उतार दी। पानसिंह के बीहड़ों में उतरने के साथ ही बाबू सिंह ने पुलिस सुरक्षा हासिल कर ली थी लेकिन पानसिंह को धुन लग चुकी थी। उसको बाबू सिंह की मौत चाहिए थी। लिहाजा एक दिन जैसे ही उसको खबर लगी कि बाबू सिंह आ चुका है तो वो अपने आदमियों के जा धमका। और बाबू सिंह ने भाग कर जान बचाने की कोशिश की लेकिन चंबल के बीहड़ों का सबसे बड़ा धावक उसका दुश्मन था लिहाजा उसकी दौड़ ज्यादा दूर तक न चल पाई। और पानसिंह ने उसको भी भून दिया। लेकिन दुश्मनी की दौड़ में पानसिंह शामिल तो हो गया लेकिन वो ये भी जानता था कि अब उसको मौत ही इन जंगलों से जुदा कर सकती है। पानसिंह ने कहा कि थाने में समर्पण कर नहीं सकता, गांव में रह नहीं सकता और सरकार से कोई मदद नहीं तो जिंदगी बस अब मारना और मरना इसके सिवा कुछ भी नहीं। और अब पानसिंह ने एक नई दौंड़ में हिस्सा ले लिया और ये दौड़ थी चंबल का दस्यु सम्राट बनने की। चंबल का बादशाह बनने की और चंबल का शेर कहलाने की। यानि ये कहावत सोने से कोयला बन कर जलने की दौड़ थी।डाकू पानसिंह का गैंग चंबल के बीहड़ों में एक और नया गैंग नहीं था। बल्कि बिलकुल नया गैंग था। जिसका सरदार डाकू पानसिंह नहीं डाकू सूबेदार पानसिंह कहलाना पसंद करता था। पानसिंह को हथियार चाहिए थे। हथियार के लिए पैसा चाहिए था। और पैसे के लिए बीहड़ में सिर्फ डकैती, अपहरण और फिरौती ही रास्ता थे। और पानसिंह ने वो रास्ता पकड़ लिया।
पानसिंह के अंदर डर नहीं था। एक के बाद एक दुस्साहसिक वारदात। चंबल थर्रा उठा। ये वो दौर था जब चंबल में डाकू मलखान सिंह, मानसिंह, फक्कड बाबा, और फूलन देवी का गैंग चल रहा था। ऐसे में पानसिंह ने एक के बाद एक बडी पकड़ करनी शुरू कर दी। और इसके लिए नए नए फिल्मी तरीके इस्तेमाल किए। ऐसी ही कहानी सुनाई पानसिंह के दाहिने हाथ बलवंता उर्फ बलवंत सिंह ने। बलवंता पानसिंह के भाई का बेटा है। और पानसिंह के आखिरी एनकाउंटर में सिर्फ वही था जो नीम के पत्तों में लिपट कर आने से बच गया था।
एक के बाद एक पकड़ और डकैती की वारदात से चंबल का इलाका हिल उठा। चंबल का शेर कहलाने का जुनून अब पानसिंह के सिर पर था। ये जुनून उसको ट्रैक की बादशाहत जितना प्यारा लग रहा था। हर पकड़ या फिर एनकाउंटर के बाद माईक पर एनाउंस करता हुआ पानसिंह अपने गैंग का ऐलान करता था कि ये गैंग है चंबल के शेर डकैत सूबेदार पानसिंह का। पुलिस ने गैंग का नाम रख दिया A। और पानसिंह पुलिस फाईलों में दर्ज हो गया A-10 के नाम से। चंबल की पुलिस का इससे पहले ऐसे गैंग से पाला नहीं पड़ा था जो मुठभेड़़ में इतना साहस दिखाता हो। पानसिंह माईक पर चिल्ला चिल्ला कर पुलिस वालों से मैदान छोड़ कर भागने को कहता रहता था।
लेकिन पुलिस लगातार पानसिंह का पीछा कर रही थी। और पानसिंह को भी डकैंतों के तौर-तरीके उस तरीके नहीं आते थे जिनसे चंबल में दशकों तक डाकू अपने आप को पुलिस की गोली का निशाना बनने से बचते रहते है। गैंग काफी बड़ी हो चुकी थी। एक वक्त पानसिंह के गैंग में 28 हथियार बंद डकैंत शामिल थे। हथियार चलाने और भागने की ट्रैनिंग खुद पानसिंह देता था
चंबल का दस्युराज कहलाने की ललक रात दिन पानसिंह को एक से एक नया अपराध करने लिए के लिए मजबूर कर रही थी। पानसिंह खुद को चंबल का शेर दस्युराज पान सिंह कहलाने लगा था। पुलिस की रणनीति को काउंटर करने खूबी पानसिंह की को खतरनाक बना रही थी। अब पुलिस ने इनिमी नंबर 1 मान लिया पानसिंह को और उसके गैंग को खत्म करने सबसे पहली प्राथमिकता मान ली
इलाके के सर्किल इँस्पेक्टर मानसिंह चौहान ने ये बीड़ा उठाया। ए 10 गैंग यानि पुलिस डायरी में पानसिंह के गैंग का चार्ट। मानसिंह चौहान को पता चला कि रथियापुरा गांव में गैंग कई बार रूका है। बस मानसिंह जा पहुंचा रथियापुरा। गांव दलितों का था। मानसिंह को थोड़ी सी मशक्कत के बाद ही रास्ता मिल गया। मुखिया को ईनाम और उसके बच्चों को पुलिस की नौकरी। और पानसिंह के लिए फंदा तैयार। 
1 अक्तूबर 1981। पानसिंह का गैंग चंबल पार कर इस गांव में घुस रहा था तो भैंस पर बैठे हुए एक लड़के को देखकर पानसिंह के भतीजे बलवंता ने कहा कि चाचा आज यहां रूकना ठीक नहीं शगुन सही नहीं दिख रहे है। लेकिन पानसिंह ने मानने से इंकार कर दिया। रथियापुर गांव के मुखिया मोती ने गर्मजोशी से स्वागत किया।  और बकरा बनाकर एक शराब गैंग को परोस दी। बलवंता को वो दिन आज भी याद है
गैंग के पिछले कुछ दिन ठीक नहीं थे। कुछ दिन पहले ही उसके चार सदस्य एक मुठभेड़ में मारे गए थे और दस लोग अपने मूल ठिकाने पर थे। 14 लोग जब दारू और खाने के बाद लेटे हुए थे तभी बलवंता चिल्लाया कि यहां पुलिस आ चुकी है। पानसिंह उनको उड़ाना चाहता था लेकिन मोती ने मनुहार कर उसको मना लिया। और पानसिंह ने गांव से निकलने की तैयारी शुरू कर दी। लेकिन उसको मालूम नहीं था कि गांव की हर गली मोहल्ले में पुलिस वाले तैनात है। गांव के पीछे से निकलने की प्लान के बीच ही उसको पता चल गया कि पुलिस ने गांव को एक पिंजरे में बदल दिया है अब चारो तरफ पुलिस वाले है। लेकिन पानसिंह ने समर्पण की बजाय पुलिस पर हमले का रास्ता चुना।
शाम सात बजे से रात भर फायरिंग चलती रही। बीच बीच में पानसिंह मेगाफोन से पुलिस वालो पर चीखता रहा कि दाल खाने वालों अपनी जान बचाकर निकल लो ये  सूबेदार पान सिंह तोमर भिडौसा की गैंग है तुम सब मारे जाओंगे। और इसी मेगाफोन की आवाज से पुलिस को अंदाजा हो गया कि पानसिंह तोमर गांव के पास की नहर पार कर बीहड़ों में घुस जाने वाला है। पुलिस ने उस तरफ की गारद को सावधान किया और वहां से निकलने से पहले ही फायरिंग ने पानसिंह गैंग के लोगो को चीर कर रख दिया। उस मुठभेड़ से बच निकलने वाला बलवंता के लिए जैसे वो कल की बात थी। बाईट बलवंता। 
सुबह के उजाले में पुलिस को पानसिंह गैंग के दस लोगो की लाशें नहर के किनारे पड़ी मिली। और उनमें से एक लाश पानसिंह की थी। वही पानसिंह जिसके पैरों के सहारे सेना और  देश ने कितने मैडल जीते थे अब इस लाश के सहारे पुलिस पार्टी को मैडल मिलना था। पानसिंह गैंग को निबटाने का मैडल। लेकिन पानसिंह की कहानी चंबल की ऐसी दर्दनाक कहानियों में से एक है जो फर्श से अर्श और अर्श से फर्श के सफर को हकीकत में दिखाती है। मुठभेड़ के बाद गैंग में कुछ बचा नहीं और बलवंता ने भी समपर्ण कर दिया। और आज चंबल में पानसिंह की कहानी बची है या फिर इस कहानी को सुनाता हुआ बलवंता। 

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