Sunday, May 15, 2016

डाकू माधौं सिंह, चंबल का जादूगर जो डाकुओं का मास्टर था।

चंबल नदी का पानी जितना शांत और ठहरा हुआ है दिखता है उसके उलट चंबल के बीहड़ों में जिंदगी उतनी ही उलटफेर से भरी दिखती है। बीहड़ों और गारो से बहता हुआ पानी चंबल में मिलता है उसी तरह डाकुओं के किस्से कही से शुरू हो चंबल में आ जुड़ते है। लेकिन इस बार चंबल ने एक ऐसा डाकू देखा जिसकी उंगलियां एसएलआर या राईफल पर जितनी तेजी से चलती थी उससे भी तेज चलता था उसका दिमाग। चंबल के डाकू की कहानी पांच दशक बाद भी लोगो के जेहन में आज भी ताजा है।
माधौं सिह। एकफौंजी, कंपाउंडर, डाकू, जादूगर, या अभिनेता माधौं सिंह ने अपनी जिंदगी में इन सब किरदारों को निबाहा और हर किरदार में एक अलग छाप।  चंबल की कहावतों के उलट एक डकैत जो दिल से नहीं दिमाग से काम लेता था। चंबल में कहावत है कि डाकू दिमाग से नहीं दिल से काम लेता है। चंबल में माधौं सिंह की कहानी एक बदले की कहानी से शुरू हुई और हाथों में बंदूक थामने तक पहुंची। लेकिन ये एक आम डाकू नहीं बल्कि ऐसा डाकू जिसे चंबल ने कभी चंबल सरकार कहा तो किसी ने मास्टर जी। 
चंबल से कूदने से पहले इंसान के जख़्मों पर मरहम रखने वाले माधौं सिंह ने जमीर पर जख्म खाएं तो फिर खून की बारिश करने वाला वेरहम डाकू माधौं सिंह बन गया। चंबल सरकार माधौं सिंह। चंबल के डाकुओं के इतिहास में मानसिंह, रूपा, लाखन, मोहर सिंह जैसा नाम चंबल सरकार माधौ सिंह का। दुश्मनी का खात्मा करने के कत्ल किया और फिर चंबल में आतंक और खौंफ का ऐसा साम्राज्य खडा़ कर दिया कि तीन तीन राज्यों की पुलिस रात दिन उसके सफाएं का ख्वाब देखने लगी। 
11साल के बीहड़ों के जीवन में दर्ज सैकड़ों मुकदमें माधौं सिंह और उसके गैंग पर दर्ज हुए। और पुलिस मुठभेड़ों से बार बार बच निकलने वाले माधौं सिंह ने जब समर्पण किया तो अकेले नहीं 550 बागियों ने उसके साथ बंदूके रख दी। लेकिन माधौं सिंह ने इस बार भी एक नए रूप में जनता के सामने आ गया। और ये था चंबल सरकार डाकू माधौं सिंह दुनिया का सबसे बड़ा जादूगर माधौं सिंह। और बन गया असली जादूगर जिसकी कलाकारी देखने के लिए इलाकों में भीड़ लग जाया करती थी। आज ऐसे ही जादूगर की कहानी के सच तक आपको ले कर चलते है। देखते है माधौं सिंह का सफर कहां से शुरू हुआ कहां तक पहुंचा और फिर कैसे खत्म हुआ।
ये चंबल का इस पार का इलाका है। इस पार यानि उत्तरप्रदेश का हिस्सा। आगरा जिले का पिनाहट थाना। इसी थाने के का गांव गढ़िया बघरैना। चंबल के बीहड़ों में बसे दूसरे छोटे से गांव जैसा। गांव से सटा हुआ बीहड़। 
गांव के अंदर जाने पर कुछ पानी सूखने से बस नाम भर के रह गए कुएं और फिर एक पुराने पेड़ के नीचे बना हुआ मंदिर। मंदिर के सामने खुलता हुआ ये दरवाजा। घर को देखकर शायद ही कोई ये अंदाजा लगा सकता है कि इस घर से शुरू हुई चंबल के एक खतरनाक डाकू की कहानी। 
माधौं सिंह किसान परिवार में पैदा हुआ। माधौं सिंह के परिवार के पास थोड़ी बहुत खेती की जमीन थी लेकिन परिवार की गांव में काफी ईज्जत थी। गांव में बचपन सही से बीत रहा था। माधौं सिंह के पुराने साथी बताते है कि बचपन से ही माधौं सिंह को एक धुन थी कि उसको कोई बड़ा काम करना है। माधौं सिंह ने बड़ा़ काम करने के लिए कोई उल्टा रास्ता नहीं पकड़ा बल्कि मेहनत का रास्ता अख्तियार किया। गांव की शुरूआती पढ़ाई के बीच खेलकूद में अच्छा होने के चलते माधौं सिंह को फौंज में नौकरी मिल गई।
राजपूताना राईफल्स की मेडिकल कोर में माधौं सिंह कंपाउंडर के तौर पर भर्ती हो गया। यहां तक सब कुछ ठीक चल रहा था। गांव में कच्चे मकान में पकी हुई ईंटे लगने लगी। लेकिन गांव में परिवार के ही कुछ लोगो को इस कदर बढ़ना अच्छा नहीं लगा। माधौं सिंह को नौकरी करते -करते सात साल के करीब का समय हुआ था और गांव में दुश्मनी का दायरा बढ़ता जा रहा था। 
इसी बीच माधौं सिंह एक लंबी छुट्टी लेकर गांव आ पहुंचा। गांव में आकर भी माधौं सिंह ने सेना की मेडीकल कोर में सीखी हुई चिकित्सा का काम आसपास के गांव में शुरू कर दिया। माधौं सिंह की व्यहारकुशलता ने यहां भी सफलता के रास्तें उसके लिए खोल दिये। इससे गांव की दुश्मनी और बढ़ गई और फिर एक दिन घर के ही दुश्मनों ने माधौं सिंह पर चोरी का इल्जाम धर दिया। 
माधौं सिंह ने गांव में सफाई दी लेकिन कोई सुनने वाला नहीं था। चंबल के इन इलाकों में पुलिस और कानून को लेकर हमेशा से लोगो की एक ही धारणा रही है कि वो चांदी के जूते के हिसाब से चलते है। माधौं सिंह को समझ नहीं आ रहा था कि उसकी हाथों की रेखाएं किस और उसे खींच कर ले जा रही है। उसकी सफाई मानी नहीं जा रही थी पहले इल्जाम और फिर गांव में घेर कर मारने की साजिश। अब माधौं सिंह को लग गया था कि गांव की चौहद्दी के भीतर उसकी आसान जिंदगी का सफर पर अब फुलस्टाप लग गया है। 
और फिर एक दिन माधौं सिंह के सब्र का प्याला भर गया। माधौं सिंह ने बंदूक उठाई और जा पहुंचा अपने दुश्मन के दरवाजे। गांव में हुई फायरिंग की आवाजों ने चंबल को इशारा कर दिया था कि फिर से किसी ने अपनी दुश्मनी को आग को बुझाने के लिए अपने गुस्से के बादलों से इंसानी खून की बारिश कर दी है। माधौं सिंह को पुलिस रिकॉर्ड में इंट्री तो पहले ही उसके दुश्मनों ने करा दी थी और अब अपने दो दुश्मनों की हत्या कर माधौं सिंह ने भी अपने हाथ से पुलिस फाईलों में अपना नाम लिख दिया था 
गांव में दुश्मनी, उबलता हुआ खून, किस्सों में बहादुरी और चंबल का पानी माधौं सिंह को बीहड़ में ले आया।
चंबल में डकैतों के गैंग्स हमेशा इंतजार करते रहते है कि कब कोई इंसान कानून की हद पार कर चंबल की सरहद में घुस आए। माधौं सिंह भी अब कानून तोड़ चुका था और उसको चंबल की शरण चाहिए थी। चंबल में उस वक्त दर्जनों गैंग ऑपरेट कर रहे थे लेकिन माधौं सिंह को शऱण मिली जंगा यानि जंगजीत सिंह के गैंग में। जंगजीत सिंह का गैंग उस वक्त उत्तरप्रदेश के इलाके में एक आंतक का बॉयस बना हुआ था। माधौं सिंह ने कुछ दिन तक इसी गैंग में काम किया। और जल्दी ही अपना रास्ता भी तलाश करना शुरू कर दिया। सेना में भले ही माधौं सिंह मेडीकल कोर में था लेकिन उसने सेना के हथियारों की ट्रैनिंग ली थी। फौंज का अनुशासन उसको यहां भी काम आ रहा था। जल्दी ही माधौं सिंह ने कुछ आदमियों को अपने साथ लिया और एक नया गैंग खडा कर लिया। इस गैंग को माधौं सिंह के दिमाग ने एक बड़े गैंग में तब्दील कर दिया।
चंबल में पचास के आखिरी दशक में एक के बाद एक हुए बड़े एनकाउंटर्स ने बागियों की एक पूरी खेप का सफाया कर दिया था। मानसिंह, रूपा, पुतली, सुल्ताना जैसे दुर्दांत बागियों को ठिकाने लगाया जा चुका था, ऐसे में माधौं सिंह ने तय कर लिया कि वो अब सिर्फ एक गैंग का नहीं चंबल का सरदार बनेगा। गैंग ने नए ऩए हथियार इकट्ठा करना शुरू कर दिया। माधौं सिंह अपने गांव में धावा बोलकर फिर से अपने दुश्मनों का सफाया कर चुका था। इस दुश्मनी में आठ लोगों का कत्ल हो चुका था। लेकिन अब वापसी की कोई राह नहीं थी सो माधौं सिंह ने अब अपने गैंग से वारदात करना शुरू कर दिया। पहले उत्तरप्रदेश के इलाके को और फिर चंबल पार कर मध्यप्रदेश और उसके बाद राजस्थान के इलाकों में भी अपने पैर जमा लिए। लूट, डकैती और कत्ल गैंग का काम तो यही था लेकिन माधौं सिंह जानता था कि जितनी बार अपनी पनाहगाह से वारदात करने गैंग बाहर निकलेगा उतनी बार पुलिस की निगाह उन पर होगी। इसके अलावा साठ के दशक में डाकुओं का सामना करने के लिऐ सरकार ने गांव गांव में लाईँसेसी हथियार दिए थे लिहाजा गांववाले भी कई बार गैग का सामना कर उठते थे और इससे गैंग को कई बार बड़ा नुकसान हो सकता था। लिहाजा माधौं सिंह ने एक दूसरा आसान रास्ता पकड़ा। पकड यानि अपहरण का धंधा। पहले एक पकड़ फिर दूसरी पकड़ और फिर तीसरी। ये पकड़ का काम माधौं सिंह को रास आ गया।  
पकड़ का काम शुरू हुआ तो बढ़ता ही गया। माधौं सिंह गैंग का नाम फैलता जा रहा था। इस वक्त चंबल में एक दूसरा बड़ा गैंग मोहर सिंह का था। जल्दी ही मोहर सिंह के साथ साथ बीहड़ों में माधौंसिंह का नाम भी गूंजने लगा था। 
चंबल में माधौं सिंह ने पकड़ को एक उद्योग में बदल दिया। पैसा कमाने का आसान तरीका। और इसके लिए भी ऐसा जाल तैयार करना कि शिकार खुद शिकार के पास चल कर आ जाएं। चंबल में माधौं सिंह का सिक्का चल रहा था। पुलिस के पास सिर्फ ईनाम बढ़ाने से ज्यादा कुछ भी नहीं रह गया था। हजार की रकम के जमाने में लाखों का ईनाम। चंबल में माधौं सिंह डेढ़ लाख का ईनामी डाकू जिंदा या मुर्दा।   माधौं सिंह ने अपना ठिकाना शिवपुरी के जंगलों में बना लिया था। पकड़ करने के बाद फिरौंती की रकम हासिल करने के नए ऩए तकीरे इस्तेमाल करना शुरू किया। कत्ल और डकैती की वारदात करने की बजाय माधौं सिंह ने पकड़ करने के लिए दुस्साहस दिखाना शुरू कर दिया। एक एक दो की बजाय सामूहिक पकड़ करने के तरीके ने पुलिस फोर्स को सकते में ला दिया। माधौं सिंह ने पकड़ करने के लिए एक से एक तरीके ईजाद कर लिये थे। यहां तक पिकनिक करने आएं हुए लोगो का सामूहिक अपरण करने से गुरेज नहीं किया। 
माधौं सिंह ने पुलिस के अधिकारी की वर्दी पहनी और कुंड पर पिकनिक कर रहे लोगो में से एक के किसी वारदात में शामिल होने की बात कही। अपने साथ एक मुखबिर से उसकी पहचान कराने की बात भी कही। मौंके पर मौजूद पुलिस अधिकारी ने माम लोगो को इकट्ठा कर माधौं सिंह के सामने पेश कर दिया। लेकिन असली पुलिस को देखकर मुखबिर फरार हो चुका था अब माधौं सिंह ने फैसला किया कि इन तमाम लोगो को ही पकड बना लिया जाएं। लेकिन इतने लोगो को साथ कैसे ले जाया जाएं। तब माधौं सिंह ने असली पुलिस की मदद ली।माधो सिंह ने कहा कि इन लोगों को सेंटर पर ले जाकर पूछताछ करनी होगी। जिन लोगो को उसने अपने ताबे में लिया उनके हाथ देख कर ये फैसला किया गया था कि ये किस तरह के परिवार से रिश्ता रखता है। अब इतने लोगो को एक जीप में नहीं ले जाया जा सकता है इसीलिए पुलिस के अधिकारी से माधौं सिंह ने पुलिस का ट्रक मांगा. अधिकारी ने आनाकानी की तो माधौं सिंह ने उसको अपने सेना में सीखे गए अधिकारियों के बातचीत के तरीके से विश्वास दिला दिया कि वो एक उच्चाधिकारी है औऱ फिर पुलिस का ट्रक लिया उसमें बैठाकर साथ ले कर चल दिए. कुछ दूर जाने के बाद माधौ सिंह के साथियों को लगा कि पीछे आ रहा एक ट्रक जिसमें भेडे लदी थी पुलिस का है तब माधों सिंह ने ट्रक के ड्राईवर के पीछे बनी रहने वाली खिड़की से राईफल निकाल कर निशाना लगाया और गोली ने सीधा पीछे वाले ट्रक ड्राईवर का सीना चीर दिया। जैसे ही ट्रक का एक्सीडेंट हुआ तो तमाम शहर में खबर हो गई कि पुलिस के वर्दी में डाकू दर्जनों लोगो को लेकर निकल गए। 
पुलिस में हड़कंप मच गया। लेकिन माधौं सिह तो पकड़ लेकर फरार हो चुका था। अब सिर्फ पकड़ का पैसा जाना था सो वो माधौं सिंह के पास चला गया। शिवपुरी के अजय मित्तल जी अब लगभग 80 साल के है लेकििन उनको आज भी याद है कि किस तरह से उनको माधों सिंह ने दो महीने तक जंगलों में रखा। रात भर डकैत चंबल में चलते रहते थे। एक महीने तक नंगे पैर चंबलों के उन बीहड़ों में कांटों ने पकड़ों के हााल खराब कर दिए थे। एक महीने बाद उनको मुरैना के जंगलों मे ंजाकर जूते नसीब हुए थे।अजय जी को याद है कि जिस भी इलाके में माधों सिंह का गैंग पहुंचता था उस इलाके तमाम गैंग आकर माधो सिंह से मिलकर उसका सम्मान करते थे। माधों सिंह से मिलने आने वाले डाकू अपनी हैसियत के हिसाब से कई खेत पहले जूते उतार कर ही माधों सिंह से मिलने पहुंचते थे और मुलाकात के बाद माधों सिंह से उसका निशाना दिखाने के जिद भी करते थे। माधों सिंह आंख पर पट्टी बांध कर फिर तीन आदमियों के बीच में रखे हुए किसी एक बजूके पर निशाना लगाता था अजय जी का कहना है  उन्होंने कई बार ये अपनी आंखों से देखा और एक बार बी माधों सिंह का निशाना नहीं चूका था। अजय सिंह दस हजार रूपए के पहुंचने तक माधों सिंह के साथ घूमते रहे। उनके मुताबिक गांव वालों का माधों सिंह को बहुत सपोर्ट था जिस इलाके में भी जाता था गांव वाले अपनी कहानी माधौं सिंह को सुनाने आते थे।माधौं सिंह के अपरहण की कहानी चंबल के बाहर तक आने लगी थी तो फिर माधौं सिंह ने बाहर से भी पकड़ कर ली। इस बार उसका निशाना बना एक मशहूर मूर्ति तस्कर मोहन। माधौं सिंह एक बार दिल्ली में गया था तो वहां उसकी मुलाकात एक होटल में मूर्ति तस्कर से हुई थी। माधौं सिंह ने उसको अपना परिचय मूर्ति चोर के तौर पर दिया। और कहा कियदि उसको मूर्ति चाहिएं तो वो दिलवा सकता है। लालच में मोहन ग्वालियर आ पहुंचा।ग्वालियर आने पर शहर से मुखबिर उसको लेकर ग्वालियर के जंगल में पहुंचा। सड़क से कुछ किलोमीटर जाते ही उसोक दिख गया कि ये लोग तो डाकू है लेकिन उसके हाथ में अब कुछ नहीं था। ड्राईवर को वापस भेज दिया गया और मोहन के बदले उस वक्त तीन लाख रूपए की फिरौती वसूली गई थी। पुलिस ने इस मामले में भागदौड बहुत की लेकिन वो माधौं सिंह के गैंग तक नहीं पहुंचे।
माधौं सिंह गैंग्स पांच सौ से ज्यादा पकड़ कर चुका था। लेकिन पुलिस भी एनिमी नंबर दो यानि दुश्मन नंबर दो बन चुके माधौं सिंह को साफ करना चाहती थी। हर तरफ से पुलिस के मुखबिर माधौं सिंह की तलाश में जंगल जंगल की खाक छानने लगे। इस पर माधौं सिंह ने भी अपनी योजना में तब्दीली करने की सोची। लेकिन उससे पहले ही एक बड़ी मुठभेड़ उसकी पुलिस से हो गई। और मुठभेड़ भी ऐसी की दिन में अंधेरा छा गया। गोलियां ही गोलियों। लगभग तीस घंटें चली इस मुठभेड़ में गैंग में से सिर्फ माधौंसिंह और उसका एक साथी ही निकल पाएं बाकि सभी पुलिस की गोलियों का निशाना बन गए। -घंटों की इस मुठभेड़ में अखबारों में लिखा गया कि माधों सिंह को पुलिस की गोलियों ने छलनी कर दिया है। लेकििन अगले ही दिन माधों सिंह गैंग का एक आदमी परिवार के पास पहुंचा और बताया कि पुलिस की गोलियों से इसब बार भी मास्टर बच निकला लेकिन इस मुठभेड़ ने माधौं सिंह का हौंसला जमीन से मिला दिया। वो 
यही से माधौं सिंह ने रणनीति बदल ली। अब वो विजयपुर के जंगलों में पहुंच गया जहां उस तक सिर्फ कुछ ही लोग पहुंच सकते थे। यहां तक गैंग के मेंबर ही सीधे उस तक नहीं पहुंच सकते थे माधौं सिंह ने वारदात का अपना तरीका बदल लिया। इस वक्त तक चंबल सरकार बन चुका माधौं सिंह का एक खत भी किसी भी संपन्न आदमी की रीढ़ कंपा देता था। माधौं सिंह को नए -नए हथियारों की कमी नहीं थी। पुलिस को जो हथियार 1971 के बाद मिले वो पहले से ही माधौं सिंह के पास थे।
लेकिन 11 साल के चंबल के बीहड़ों के सफर ने माधौं सिंह को थका दिया था। जंगल में रहना है तो जंगल का कानून मानने के हिसाब से माधौं सिंह अब गैंग तो चला रहा था लेकिन उसका मन बीहड़ के बाहर ज्यादा लगने लगा था। माधौं सिंह अब कभी कभी अपने मरने की खबर फैला कर इस दौरान अपने परिजनों के साथ शहरों में रहने चला जाता था या फिर परिवार को अपने पास बुला लिया करता था।
पुलिस के साथ मुठभेड़ें रोज का किस्सा हो गयी थी। उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश और राजस्थान पुलिस की एक संयुक्त कमान चंबल में डाकुओं के खात्में के लिए पुरजोर कोशिशों में लगी थी। एक के बाद एक मुठभेड़ में डाकू मारे जा रहे थे तो दूसरी और पुलिस डाकुओं का मुखबिर तंत्र तोड़ने में कामयाब हो चुकी थी। गैंग के अंदर पुलिस के मुखबिर धंस चुके थे। ऐसी ही एक मुठभेड़ की प्लानिंग करने वाले आर एल वर्मा जी खुद बता रहे है कि उस दिन क्या हुआ जब चंबल के इतिहास में दर्ज एक बड़ी मुठभेड़ की तैयारी की गई।13 मार्च 1971 की इस मुठभेड़ में पुलिस ने माधौं सिंह के गैंग के सबसे भरोसे के आदमी कल्याण उर्फ कल्ला, गर सिंह , चिंतामण, बाबू, और विशंबर सिंह जैसे 13 डकैतों को ठिकाने लगा दिया। पुलिस ने इस घटना की खबर माधौं सिंह तक पहुंचाने के लिए एक खास इंतजाम किया। आकाशवाणी से ये समाचार सुना
माधौं सिंह कहा था कि रोट खऊवां बच गएं गैंग तो पूरी निबट गई। इस एनकाउंटर ने माधौं सिंह की कमर तोड़़ कर रख दी। माधौं सिंह की सिक्स्थ सेंस ने उसे बता दिया कि चंबल में अब उसकी जिंदगी का कोई भरोसा नहीं है। और तब उसने एक फैसला कर लिया। ये फैसला था बागी जीवन से रिश्ता तोड़ देने का।लेकिन ये काम इतना आसान नहीं। चंबल की सबसे मशहूर कहावतों में से एक कहावत है चंबल में कूदने की तारीख के बाद किसी बागी की जिंदगी में दूसरी तारीख नीम के पत्तों में लिपट कर शहर आने की ही होती है। मुठभेड़ में मारे गए बागियों की लाशों को नीम के पत्तों में लपेट कर ही रखा जाता था। माधौं सिंह को मालूम था कि नीम के पत्तों में लिपटने से बचना है तो योजना कोई शानदार ही होनी चाहिए। और कुछ दिन में ये योजना भी तैयार हो गई। 
 माधौं सिंह ने सरेंडर करने की सोच ली। चंबल का सबसे बड़ा बागी अब कानून के हाथों में जाना चाहता था। लेकिन पुलिस और कानून तो उसकी तलाश में था ऐसे में फिर माधौं सिंह के शातिर दिमाग ने ऐसी चाल चली कि एक दो दस नहीं बल्कि पांच सौ से ज्यादा बागियों को कानून के सामने ला खड़ा किया। हिंदुस्तान के सबसे बड़े समर्पण की पटकथा लिखने में माधौं सिंह ने फिल्मी उतार-चढ़ाव को भी मात दे दी। माधौं सिंह को याद था कि संत विनोबा भावे चंबल में डाकुओं को समर्पण करा चुके थे। मानसिंह के गैंग के लोकमन दीक्षित और दूसरे डाकुओं ने विनोबा जी के सामने हथियार डाले थे और वो अपनी सामान्य जिंदगी जी रहे थे। और फिर एक दिन संत विनोबा भावे के सामने रामसिेह नाम का शख्स जा पहुंचा और उसने कहा कि चंबल के खूंखार डाकू बंदूकें रखना चाहते है। बिनोबा जी ने कहा कि अब उनका शरीर साथ नहीं दे रहा है लिहाजा वो जे पी को एक खत लिख रहे है चाहे तो वो वहां जासकते है। 
रामसिंह जेपी यानि जय प्रकाश नारायण जी के पास पटना जा पहुंचा। जेपी ने पूछा कि आप कौन है और आपका डाकुओं के क्या रिश्ता है।यहां भी तीन दिन तक माधो सिंह ने अपना परिचय राम सिंह ठेकेदार के तौर पर ही दिया लेकिन जब उसन ेदेखा कि जयप्रकाश जी ज्यादा बात नहीं कर रहे है तो उसने खुद खड़ा होकर कहा कि वही कुख्यात डाकू माधों सिंह है
जयप्रकाश जी ये सुनकर चौंक उठे कि ये सामने खड़ा हुआ शख्स और कोई नहीं बल्कि चंबल का सबसे बडा ईनामी डाकू माधौं सिंह है। जिसकी तलाश में पुलिस चंबल का जर्रा-जर्रा छान रही है वो शख्स बेखौंफ उनके सामने खड़ा है। जे पी इस पर तैयार हो गए। लेकिन शर्त रख दी कि ज्यादा से ज्यादा समर्पण हो सिर्फ माधौं सिंह का गैंग नहीं। इस नामुमकिन से काम को भी माधौं सिंह ने अपने हाथ में ले लिया।
सबसे बडा़ रोड़ा था मोहर सिंह। मोहर सिंह पर चंबल के इतिहास का सबसे बड़ा ईनाम था। सबसे बड़ा गैंग था। सबसे ज्यादा मुठभेडे़ पुलिस के साथ थी। कत्ल की इतनी वारदात के बाद मोहर सिंह को लग रहा था कि शायद फांसी का फंदा या फिर पुलिस की गोली ही उसकी नियति है लेकिन माधौं सिंह ने उसको मनाने के लिए कई हथकड़ें आजमाए और आखिर में तैयार कर लिया।
माधौं सिंह ने अपने बेटे सहदेव सिंह के सिर पर हाथ रख कर मोहर सिंह के सामने कसम काई कि अगर उन लोगो को कुछ हुआ तोजे पी अनशन पर चले जाएंगे।मुरैना के पगारा डैम पर इस समर्पण की तैयारी हुई। हजारों की भीड़ डाकुओं को देखने पहुंची। माधौं सिंह और मोहर सिंह सहित 550 डाकुओं ने हथियार डाले। डाकुओं के लिए शर्तों मनवाने के बाद माधौं सिंह ने डाकुओं के शिकार लोगो के लिए भी मुआवजे और मदद की मांग की थी जिसने उसके खिलाफ ज्यादातर लोगों की नफरत खत्म हो गई। 
माधौं सिंह को जेल हुई और उसने मुंगावली खुली जेल में अपनी सजा काटी। लेकिन माधौं सिंह हमेशा कुछ नया करने की धुन में रहता था तो यहां भी उसने एक नया काम सीख लिया। लोगो को जादू दिखाने का। चंबल सरकार जो कभी लोगों में खौंफ जगाता था अब वो उनको हैरान कर रहा था अपने जादू की कला से। 
माधौं सिंह की कहानी चंबल की हैरंतअगेंज हकीकतों में से एक है। एक सीधे-साधे इंसान के डाकू बनने और फिर डाकू से वापस अकेले नहीं सैकड़ों लोगो को वापस इंसान बनाने की कहानी। पुलिस अधिकारी भी मानते है कि चंबल के उस ऐतिहासिक समर्पण में माधौं सिंह की भूमिका अहम थी
तो ये थी फौंजी माधौं सिंह के चंबल का सरदार माधौं सिंह और फिर जादूगर सम्राट माधौं सिंह बनने की हकीकत। माधौ सिंह ने सालो तक अपनी जादूगरी के कारनामों से लोगो का दिल बहलाया। अपने शो में वो पुलिस वालों को फ्री इंट्री देता था। सालों तक एक दूसरे से खौंफ खाने वाले दुश्मनों की शायद ये नई दोस्ती थी। 1991 में माधों सिंह की मौत हो गई।

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