चंबल में पचास के दशक में जैसे बागियों की एक पूरी बाढ़ आई थी। मानसिंह, रूपा, लाखन, गब्बर, सुल्ताना जैसे डाकूओं से चंबल थर-थर कांप रही थी। साठ के दशक की शुरूआत में इनमें से ज्यादातर डाकू पुलिस की गोलियों का निशाना बन चुके थे या फिर उनके गैंग छोटे हो चुके थे। लेकिन इस दशक में एक नाम ऐसा उभरा जिसने बाकि सब नामों की चमक को फीका कर दिया। ये नाम था मोहर सिंह का। डाकू मोहर सिंह साठ के दशक में चंबल का राजा।
चंबल के बीहड़ों ने हजारों डाकुओं को पनाह दी होगी। सैंकड़ों गांवों की दुश्मनियां चंबल में पनपी होंगी और उन दुश्मनियों से जन्में होंगे हजारों डाकू। लेकिन एक दुश्मनी की कहानी ऐसी बनी कि दुश्मनी गुम हो गई, दुश्मन फना हो गए लेकिन दुश्मनी से जनमा डाकू चंबल का बादशाह बन बैठा। ऐसा बादशाह जिसके पास चंबल में अबतक की सबसे बड़ी डाकुओं की फौंज खड़ी हो गई।
मानसिंह के बाद चंबल घाटी का सबसे बड़ा नाम था मोहर सिंह का। मोहर सिंह जिसके पास डेढ़ सौं से ज्यादा डाकू थे। मोहर सिंह चंबल घाटी में उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश और राजस्थान की पुलिस फाईलों में E-1 यानि दुश्मन नंबर एक के तौर पर दर्ज था। साठ के दशक में चंबल में मोहर सिंह की बंदूक ही फैसला थी और मोहर सिंह की आवाज ही चंबल का कानून।
चंबल में पुलिस की रिकॉड़ चैक करे तो 1960 में अपराध की शुरूआत करने वाले मोहर सिंह ने इतना आतंक मचा दिया था कि पुलिस चंबल में घुसने तक से खौंफ खाने लगी थी। एनकाउंटर में मोहर सिंह के डाकू आसानी से पुलिस को चकमा देकर निकल जाते थे। मोहर सिंह का नेटवर्क इतना बड़ा था कि पुलिस के चंबल में पांव रखते ही उसको खबर हो जाती थी। और मोहर सिंह अपनी रणनीति बदल देता था।
1958 में पहला अपराध कर पुलिस रिकॉर्ड में दर्ज होने वाला मोहर सिंह ने जब अपने कंधें से बंदूक उतारी तब तक वो ऑफिसियल रिकॉर्ड में दो लाख रूपए का ईनामी था और उसका गैंग 12 लाख रूपए का इनामी गैंग था। 1970 में इस रकम को आज के हिसाब से देंखें तो ये रकम करोड़ों का हिसाब पार कर सकती है। पुलिस फाईल में 315 मामले मोहर सिंह के सिर थे और 85 कत्ल का जिम्मेदार मोहर सिंह था। मोहर सिंह के अपराधों का एक लंबा सफर था लेकिन अचानक ही इस खूंखार डाकू बंदूकों को रखने का फैसला कर लिया।
मोहर सिंह चंबल की डांग में बसे हुए गांवों में एक छोटा सा गांव अनाम सा लड़का। गांव कुछ जमीन और खेती बाड़ी। चंबल में नाइँसाफी और बदले के जुनून की सैकड़ों कहानियां बिखरी हुई है। लेकिन हर कहानी का रिश्ता जाकर जुड़ जाता है एक ही कहानी से। यानि जमीन को लेकर जंग से। मोहर की जिंदगी में भी अपनी छोटी सी जमीन को बचाने की जंग थी और नाकामयाब मोहर सिंह की जिंदगी की बटिया भी बीहड़ में भटक गई।
झाड़ियां ही झाड़ियां और बीच में एक सफेद रंग से पुता हुआ एक मंदिर। ये सत्तर साल पहले एक भरा-पूरा गांव था। लेकिन अब सिर्फ बीहड़ ही बीहड़ है। गांव अब इससे लगभग एक किलोमीटर दूर जाकर बस गया है और पुराना गांव बिसुली नदी के कछार में समा गया है। लेकिन इसी गांव से शुरू हुई एक डाकू मोहर सिंह की कहानी।
मोहर सिंह इसी गांव का रहने वाला एक छोटा सा किसान था। गांव में छोटी सी जमीन थी। जिंदगी मजे से चल रही थी। लेकिन चंबल के इलाके का इतिहास बताता है कि किसानों की जमीनों में फसल के साथ साथ दुश्मनियां भी उगती है। जमीन के कब्जें को मोहर के कुनबे में एक झगड़ा शुरू हुआ। और इसी झगड़े में मोहर सिंह की जमीन का कुछ हिस्सा दूसरे परिवार ने दबा लिया। गांव में झगड़ा हुआ। पुलिस के पास मामला गया। और पुलिस ने उस समय की चंबल में चल रही रवायत के मुताबिक पैसे वाले का साथ दिया। केस चलता रहा। इस मामले में मोहर सिंह गवाह था।
गांव में मुकदमें में गवाही देना दुश्मनी पालना होता है। जटपुरा में एक दिन मोहर सिंह को उसके मुखालिफों ने पकड़ कर गवाही न देने का दवाब डाला। कसरत और पहलवानी करने के शौंकीन मोहर सिंह ने ये बात ठुकरा दी तो फिर उसके दुश्मनों ने उसकी बुरी तरह पिटाई कर दी। घायल मोहर सिंह ने पुलिस की गुहार लगाई लेकिन थाने में उसकी आवाज सुनने की बजाय उस पर ही केस थोप दिया गया।
बुरी तरह से अपमानित मोहर सिंह को कोई और रास्ता नहीं सूझा और उसने चंबल की राह पकड़ ली। 1958 में गांव में अपने इसी मंदिर पर मोहर सिंह ने अपने दुश्मनों को धूल में मिला देने की कसम खाई और चंबल में कूद पड़ा।
मोहर सिंह ने पहला शिकार अपने गांव के दुश्मन को किया। उसके बाद बंदूक के साथ मोहर सिंह जंगलों में घूम रहा था। शुरू में उसने बाकि बागियों के गैंग में शामिल होने की कोशिश की। दो साल तक जंगलों में भटकते हुए मोहर सिंह की किसी गैंग में पटरी नहीं बैठी तो मोहर सिंह ने फैसला कर लिया कि वो खुद का गैंग बनाएंगा और गैंग भी ऐसा जिससे चंबल थर्रा उठे।
गांव में ताकतवर लोगो से बदला लेने में ना कानून साथ देता है, ना भगवान और न ही अदालत की चौखट। चंबल में हर कमजोर के लिए ताकत हासिल करने का एक ही शॉर्ट कट है और वो है चंबल की डांग में बैठकर राईफलों के सहारे अपने दुश्मनों पर निशाना साधना। मोहर सिंह की बदूंकें आग उगर रही थी और निशाना बन रहे थे दुश्मन।
वीओ—चंबल के मोहर सिंह ने अपना गैंग बनाया तो उस वक्त कई गैंग चंबल में अपना खौंफ बनाएं हुए थे। मानसिंह गैंग की कमान लोकमन दीक्षित उर्फ लुक्का पंडित के हाथों में थी। लाखन, माधों सिंह, हरविलास, छोटे सिंह जैसे गैंग पूरे चंबल में घूम रहे थे। और मोहर सिंह को इन्ही के बीच अपना रास्ता बनाना था। मोहर सिंह ने अपने साथियों के साथ पहले छोटी छोटी वारदात करना शुरू किया। और पुलिस के रिकॉर्ड में उसकी एंट्री शुरू हुई।
मेहगांव थाने में 140/60 पहला अपराध था जो मोहर सिंह गैंग के खिलाफ पुलिस रिकॉर्ड में दर्ज हुआ।
1960 में ही गौहद थाने में दूसरा अपराध दर्ज हुआ हत्या के प्रयास का।
1961 में गौहद में पहला कत्ल का केस दर्ज हुआ।
और इसके बाद की कहानी कत्लों का एक सिलसिला है।
मोहर सिंह ने पहले तो भिंड और आसपास के इलाके में अपराध किए लेकिन जैसे जैसे गैंग बढ़ने लगा मोहर सिंह ने भी अपना दायरा बढ़ाना शुरू कर दिया। मोहर सिंह अपने गैंग के अनुशासन को लेकर बेहद सतर्क था। मोहर सिंह का गैंग बढ़ रहा था उधर दूसरी और पुलिस एक एक कर चंबल के दूसरे गैंग का सफाया कर रही थी। मोहर सिंह ने इसका तोड़ निकाल लिया था। मोहर सिंह ने चंबल में ऐलान कर दिया था कि जो कोई भी उनके गैंग की मुखबिरी करेंगा उसका पूरे परिवार को साफ कर दिया जाएंगा। और इस पर उसने कड़ाई से अमल शुरू कर दिया। मुखबिरों को निबटाने में मोहर सिंह बेहद खूंखार हो जाता था।
मुखबिरों को और उनके परिवार पर मोहर सिंह शिकारी की तरह से टूट पड़ता था। मोहर सिंह के गैंग के ऊपर ज्यादातर मुखबिरों के कत्ल के मामले बन रहे थे। लेकिन चंबल में मोहर सिंह का खौंफ पुलिस और उसके मुखबिरों पर लगातार बढ़ता जा रहा था। और इसका फायदा मिल रहा था मोहर सिंह को। मोहर सिंह का नाम मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश और राजस्थान में फैल गया था। जहां दूसरे गिरोहों को किसी भी गांव में रूकते वक्त मुखबिरी का डर रहता था वही मोहर सिंह का गैंग बेखटके अपनी बिरादरी के गांवों में ठहरता और पुलिस को खबर होने से पहले ही निकल जाता था।
मोहर सिंह ने अपने गैंग को सबसे बड़ा गैंग बनाने के साथ-साथ कुछ कठोर नियम भी बना दिये थे। मोहर सिंह गैंग में किसी भी महिला डाकू को शामिल करने के खिलाफ था। और इसके साथ ही उसके गैंग को सख्त हिदायत थी कि वो किसी भी लडकी और औरत की और आंख उठाकर न देखे नहीं तो मोहर सिंह उसको खुद सजा देगा। ये बात पुलिस अधिकारियों को आज भी याद है
और इस बात को आज भी चवालीस साल बाद भी मोहर सिंह याद रखता है कि उसके गैंग के ऊपर किसी भी गांव में बहू-बेटी को छेड़ने या परेशान करने का कोई मामला कभी कही दर्ज नहीं हुआ।
अब मोहर सिंह चंबल के डाकू सरदारों में एक प्रमुख नाम बन गया। पुलिस के साथ उसके एनकाउंटर रोजमर्रा की बात हो गये थे। लेकिन मोहर सिंह इससे बेपरवाह था। क्योंकि पैसे आने के साथ ही मोहर सिंह ने पुलिस से भी बेहतर हथियार उस वक्त हासिल कर लिए थे। और मोहर सिंह ने अपने गैंग को बचाने और वारदात करने के नए तरीके खोजने शुरू कर दिये।
मोहर सिंह का गैंग इतना बड़ा हो चुका था कि चंबल ने इससे पहले इतना बडा़ गैंग कभी देखा नहीं था। डेढ़ सौ आदमी और वो भी हथियारबंद । एक से एक आधुनिक हथियार और मोहर सिंह का पुलिस से सीधी टक्कर लेने का दुस्साहस मोहर सिंह को चंबल का बेताज बादशाह बना चुका था। पूरे गैंग पर 12 लाख से ज्यादा का ईनाम। 1960 के दशक के 12 लाख रूपए आज के कितने है ये आप सिर्फ हिसाब लगाईंये।
मोहर सिंह चंबल में दूसरे गैंग के साथ मिलकर भी पुलिस को चकमा देने और वारदात करने का ट्रैंड शुरू कर दिया था। मोहर सिंह, माधो सिंह , सरू सिंह, राम लखन मास्टर और देवीलाल के गिरोह चंबल में इकट्ठा होकर वारदात करने लगे थे। पुलिस टीम भी 100-200 की संख्या में इकट्ठा हथियारबंद डाकुओं से मुकाबला करने में बचती थी।
मोहर सिंह का सिर अब पुलिस के लिए बेहद कीमती बन चुका था। लेकिन मोहर सिंह छलावा बन चुका था। एक गांव में वारदात करता और फिर गायब हो जाता। पुलिस के मुखबिर गैंग की किसी भी मूवमेंट की सटीक जानकारी हासिल करने में बिलकुल नाकाम हो गए थे। एक से एक बड़ी डकैतियां और एक से एक बड़े कारनामे। पुलिस मोहर सिंह को थामना चाहती और मोहर सिंह बहता हुआ पानी साबित हो रहा था जो पुलिस के हाथों में रूक ही नहीं रहा था। पुलिस निराशा में बार बार मोहर सिंह के गांव पहुंच जाती जहां उसके हाथ कुछ भी नहीं लगता था।
चंबल में डकैतों ने एक तरह का राज कायम कर लिया था। हालांकि पुलिस भी एक एक करके गैंग को निबटाती जाती थी लेकिन चंबल का ये दौर बड़े गैंग का दौर बन चुका था। पुलिस ने जिन बड़े गैंग को 60 के दशक की शुरूआत में निबटाया था वो
1963 में कुख्यात डकैत सरगाना फिरंगी सिंह को मार गिराया गया
1964 में देवीलाल शिकारी गैंग को सरगना सहित साफ किया।
1964 में ही पुलिस ने छक्की मिर्धा को भी गोलियों का निशाना बनाया
1965 में स्योसिंह को पुलिस की गोलियों ने ठंडा कर दिया।
1965 में रमकल्ला भी पुलिस के हाथों मारा गया ।
लेकिन 1965 में मोहर सिंह के साथी नाथू सिंह ने एक प्लॉन बनाया। मोहर सिंह को भी ये प्लान जच गया। चंबल के इलाके में उस वक्त किसी ने ये सोचा भी नहीं था कि दिल्ली के भी किसी आदमी को पकड़ बनाया जा सकता है। दिल्ली के मूर्ति तस्कर शर्मा के बारे में मोहर सिंह के आदमियों को जानकारी थी कि वो चोरी की मूर्तियां खरीदने कही तक जा सकता है। बस यही से पूरा प्लान बन गया। दिल्ली से शर्मा को एक शख्स ये कहकर लाया कि कुछ एंटीक मूर्तियां है जो चोरी की गई है चंबल में एक शख्स से मिल सकती है।मूर्ति तस्कर झांसे में आ गया। पहले उसने अपना एक आदमी चंबल में भेजा। उस आदमी को गिरोह ने पकड़ लिया और फिर उसके सहारे मूर्ति तस्कर को संदेश भेजा गया कि माल सही है। शर्मा साहब प्लेन से ग्वालियर पहुंचे। वहां से एक कार में बैठाकर मूर्तियां दिखाने के बहाने मोहर के लोग चंबल की डांग में ले आए। जंगल में अपने को डाकुओं से घिरा देखकर शर्मा को समझ आ गया कि वो डाकुओं के चंगुल में फंस चुका है।
शर्मा की पहचान बड़े लोगो से थी। दिल्ली से भोपाल संदेश गया और केन्द्र से भी मुरैना पुलिस को त्वरित कार्रवाई करने के निर्देश दिए गए थे। लेकिन पुलिस को शर्मा की परछाई भी नहीं मिल पाई। और आखिर में शर्मा के परिवार को 05 लाख रूपए मोहर सिंह को देने पड़े। चंबल में इतनी बड़ी रकम इससे पहले कभी किसी पकड़ से हासिल नहीं की गई थी। हालांकि मोहर सिंह इस रकम को 26 लाख रूपए बताते है।
मोहर सिंह पुलिस की डायरी में एक ऐसा नाम बन गया जिसको पुलिस डिपार्टमेंट चलता-फिरता भूत कहने लगा। हर बड़ी वारदात के पीछे पुलिस पहले अपने गैंग चार्ट के एनिमी 1 यानि दुश्मन नंबर एक यानि मोहर सिंह का हाथ देखती थी। पुलिस और मोहर सिंह की ये आंख-मिचौली पूरे चंबल में एक दिलचस्प कहानी बन रही थी। तभी कहानी में एक मोड़ आ गया। और पूरी कहानी ने ट्विस्ट ले लिया।
चंबल में राज कर रहा मोहर सिंह भले ही पढ़ा लिखा इतना न हो लेकिन ये जानता था कि गोली का अंत गोली से होता है। 28 साल की उम्र तक इतना कुख्यात हो चुका मोहर मौत को अपने आस-पास मंडराते हुए देखता था। और मौत की छाया को दूर करने का सहारा उसको दिखा तो उसने वो लपक लिया। कल का डाकू मोहर सिंह आज के समाजसेवी नेताजी मोहर सिंह के रास्ते में मोहर सिंह ने कई उतार-चढ़ाव देखे है।
वीओ- चंबल में मोहर सिंह और माधों सिंह की दोस्ती एक मिसाल मानी जाती है। मोहर सिंह और माधों सिह पुलिस रिकॉर्ड में भी दोस्त के तौर पर दर्ज थे यानि एनिमी नंबर 1 मोहर सिंह और एनिमी नंबर दो माधों सिहं। दोनो के गैंग चंबल के सबसे बड़े गैंग थे। चंबल में डकैतों से लोग कराह उठे थे तो सरकार की चूलें भी हिल उठी।
नेट
हत्या, लूट और डकैती की खबरें चंबल की रोजमर्रा जिंदगी का एक हिस्सा बन चुकी थी।
ग्राफिक्स इन
1. 1965 में 151 डकैती,46 हत्याएं और 114 अपहरण
2. 1966 में 102 डकैतियां, 40 हत्याएं और 125 अपहरण
3. 1967 में 90 डकैतियां, 63 हत्याएं और 105 अपहरण
4. 1969 में हत्याओं की संख्या 80 और अपहरण लगभग 200
ग्राफिक्स आउट
मध्यप्रदेश सरकार इस समस्या को लेकर बेहद चिंतित हुई तो उसने एक सदस्यीय आयोग बना दिया।
चंबल में राज कर रहा मोहर सिंह भले ही पढ़ा लिखा इतना न हो लेकिन ये जानता था कि गोली का अंत गोली से होता है। 28 साल की उम्र तक इतना कुख्यात हो चुका मोहर मौत को अपने आस-पास मंडराते हुए देखता था। और मौत की छाया को दूर करने का सहारा उसको दिखा तो उसने वो लपक लिया। कल का डाकू मोहर सिंह आज के समाजसेवी नेताजी मोहर सिंह के रास्ते में मोहर सिंह ने कई उतार-चढ़ाव देखे है। चंबल में मोहर सिंह और माधों सिंह की दोस्ती एक मिसाल मानी जाती है। मोहर सिंह और माधों सिह पुलिस रिकॉर्ड में भी दोस्त के तौर पर दर्ज थे यानि एनिमी नंबर 1 मोहर सिंह और एनिमी नंबर दो माधों सिहं। दोनो के गैंग चंबल के सबसे बड़े गैंग थे। चंबल में डकैतों से लोग कराह उठे थे तो सरकार की चूलें भी हिल उठी।
हत्या, लूट और डकैती की खबरें चंबल की रोजमर्रा जिंदगी का एक हिस्सा बन चुकी थी।
1. 1965 में 151 डकैती,46 हत्याएं और 114 अपहरण
2. 1966 में 102 डकैतियां, 40 हत्याएं और 125 अपहरण
3. 1967 में 90 डकैतियां, 63 हत्याएं और 105 अपहरण
4. 1969 में हत्याओं की संख्या 80 और अपहरण लगभग 200
मध्यप्रदेश सरकार इस समस्या को लेकर बेहद चिंतित हुई तो उसने एक सदस्यीय आयोग बना दिया। पुलिस पर दबाव बढ़ने लगा। एक के बाद एक एनकाउंटर मोहर सिंह और पुलिस के होने लगे। मोहर सिंह के मुताबिक लगभग 14 साल तक के उसके दस्यु जीवन में लगभग 76 बार उसका और पुलिस का आमना-सामना हुआ और हर बार मोहरसिंह बच निकला। लेकिन मोहरसिंह भी समझ रहा था कि पुलिस का घेरा बढ़ रहा है। बीहड़ों की आंख-मिचौली किसी भी दिन उसकी सांसों को बदन से जुदा कर सकती है।
मोहरसिंह ये सोच ही रहा था कि एक दिन माधों सिंह ने उसको चौंका दिया। माधौं सिंह ने कहा कि जय प्रकाश नारायण चंबल में एक बड़ा समर्पण करा रहे है। 1960 में विनोबा भावे एक बड़ा समर्पण करा चुके थे जिसमें लोकमन दीक्षित और मानसिंह गैंग के काफी लोगों ने समर्पण किया था और जो आराम से अपनी जिंदगी जी रहे थे। मोहर सिंह ने एक तरफा फैसला ले लिया कि गोलियों का वहशी खेल अब और नहीं।
जौरा का ये डैम चंबल के इतिहास के सबसे बड़े समर्पण का गवाह है। 500 से ज्यादा डाकुओं ने जय प्रकाश नारायण के चरणों में अपनी बंदूकें रख दी।
जिस वक्त मोहर सिंह समर्पण करने आया था तो उस वक्त हजारों की भीड़ उसका स्वागत करने जौरा के गांधी आश्रम पहुंची थी। news.google.com/newspapers?nid=1755&dat=19720418&id...
थी। मोहर सिंह जेल में सजा काटने के बाद मेहगांव लौट आया। आज भी मोहर सिंह लोगो के बीच में उस वक्त की याद जब मोहर सिंह का नाम चंबल का नहीं देश का सबसे बड़ा खौंफ जगाने वाला नाम था। और देश में सबसे बड़ा ईनाम उसके सर पर था।
3 comments:
अबे वीओ और ग्राफिक्स तो हटा देता...अच्छे खासे ब्लॉग की मां बहन एक कर दी....।
MOHAR SINGH GUJJAR,THE NUMBER 1 DACOIT OD INDIAN HISTORY,N NIRBHAY SINGH GUJJAR THE 2ND BEST
Mohar singh is great man right information is mohar singh life salute mohar singh ji . Hamari gurjar samaj ka name roshan kiya aapne , jai gurjar samaj
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