अरूंधती रॉय के खिलाफ सबूत है, लेकिन सरकार मुकदमा दर्ज करके उसे हीरो बनने का मौका नहीं देना चाहती एक तथाकथित राष्ट्रीय अखबार ने सूत्रों के हवाले से छापा।कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर फारूख के पिता और केन्द्रीय मंत्री फारूख अब्दुल्ला साहब ने फरमाया अभिव्यक्ति की आजादी की भी एक सीमा है। दिल्ली के तथाकथित नेशनल मीडिया की खबरों पर जाएं तो लगेगा कि देश लगभग उबल रहा है। मुख्य विपक्षी पार्टी बीजेपी ने अपना धर्म निबाहा। अखबारों और न्यूज चैनलों को इंटरव्यूज देकर। पार्टी के नेताओं ने एक दो नेशनल चैनल्स की बहस में शामिल होकर भी निंदा की अरूंधती रॉय की। कुछ लोगों को हैरानी हुई कि आखिर अरूंधती चाहती क्या है।
हमारा अरूंधती रॉय के बयान से कतई इत्तफाक नहीं है। क्योंकि कश्मीर पूरे तौर पर देश का हिस्सा है इसके बारे में हमें कोई संदेह नहीं है।
लेकिन ऐसा क्या कह दिया है अरूंधती रॉय ने कि देश के गृहमंत्री से लेकर कानून मंत्री और राष्ट्र के प्रति देशभक्ति का सारा ठेका अपने सर पर ढ़ोने वाली बीजेपी एक ही जबान बोल रहे है। अरूंधती रॉय का मंतव्य कश्मीर की आजादी के पक्ष में था। अरूंधति राय की इस राय से सहमति रखने वाले लोगों की संख्या उँगलियों पर ही होगी इस बारे में किसी को शक नहीं हो सकता। कश्मीर के चंद अलगाववादियों और आतंकवादियों के अलावा किसी की इस राय से सहमति नहीं हो सकती। लेकिन इस बात का ऐसा बंतगड़ बनाया गया कि जैसे दिल्ली में आसमान टूट गया और किसी की नजर इस पर नहीं है। और तथाकथित नेशनल मीडिया ने इसी बात को लेकर ऐसे तमाम लोगो को हीरो बना दिया जिनके कर्मों की वजह से कश्मीर की ये हालत हुई है। ऐसे तमाम लोग जो देश की सत्ता पर काबिज है और जिनका कश्मीर से इंच मात्र भी लेना-देना नहीं है सिर्फ बयानबाजी करके देशभक्ति दिखाते है, इन तमाम बयानवीरों को लगा कि हीरो बनने का इससे शानदार मौका नहीं मिलेगा। लेकिन कोई इनसे पूछेगा कि भाई देश का कानून यदि टूटा है तो क्या वो भी आपके आदेश से ही रिपोर्ट लिखेगा ये काम तो अदालतों का था लेकिन केन्द्रीय मंत्रियों को न्यायालय की ताकत भी अपने खीसे में खोंसने का शौक चर्रा गया है लिहाजा वो कह रहे है कि सबूत है लेकिन वो अरूंधति को हीरो बनने का मौका नहीं देना चाहते। उद्योगपतियों और बिल्डर माफियाओं के इशारों पर नाचने वाले तथाकथित नेशनल मीडिया को भी लगा कि जैसे बैठे-बैठे देशभक्ति दिखाने का इससे अच्छा मौका नहीं मिलेगा। आखिर राज्यों को लूटने में शामिल मुख्यमंत्रियों और कानून को ठेंगे पर रखने वाले उद्योगपतियों के खिलाफ इस खबर में कुछ नहीं है लिहाजा ऐडवर्टाईजमेंट छीनने का भी खतरा नहीं है और अरूंधती को कोसते हुए कार्टून तक इन अखबारों में दिखाईं देने लगे।
हमारा मानना है कि इस बारे में दिमाग साफ कर लिया जाएं कि तथाकथित नेशनल मीडिया का देश कितना है। चुनावों में पैसे लेकर खबरें लिखने वाले इस नेशनल मीडिया का देश वहीं तक है जहां तक मैकडोनाल्ड बर्गर या फिर पिज्जा हट्स है। दिल्ली के सत्तर हजार लोगों का देश जो कॉमनवेल्थ में कलमाडी के भाषण पर ताली बजाता है। वहीं देश जो लूट के उत्सव में शामिल होकर उस मीडिया को गरियाता है जो अपनी टीआरपी के लिये ही सही लेकिन कभी-कभी भ्रष्ट्राचार की खबरें दिखाता है।
देश का कश्मीर लेकर क्या रूख है वो तो साफ दिख सकता है। किसी नेशनल अखबार को नहीं दिखता जब तिरंगें के सम्मान की रक्षा करते हुए कश्मीर में मारे गये सुरक्षाकर्मियों की लाशें उनके गांव जाती है। अंदर के पन्नों में कुछ लाईनों में सिमटी खबर में उस शहीद का नाम तक नहीं होता फोटों छपने की बात तो दूर है। रही बात देश के उन नौजवानों की जिनकी अरूंधती के खिलाफ प्रतिक्रियाएं आपको ट्वीटर में फेस बुक या दूसरी सोशल साईट्स पर दिख रही है तो उनमें से ज्यादातर को कश्मीर में कितने जिले है ये बात तो दूर है कश्मीर लद्दाख और जम्मू में क्या अंतर ये भी मालूम नहीं है। ऐसे सभी नौजवानों की आंखों में विदेशी नौकरियों के सपने बसे रहते है। देश से भागने के लिेये भले ही फर्जी कागज तैयार करने हो या फिर किसी नंबर दो के रास्ते का सहारा लेना हो ये हर पल तैयार रहते है। ये लोग देश के खिलाफ अरूंधती के बयान पर सबसे ज्यादा उबल रहे है। देश की फैशन मॉडलों के मारे जाने में मोमबत्तियों के साथ गेटवे ऑफ इंडिया से लेकर इंडिया गेट तक प्रदर्शन करने वाले इन फैशनेबल नौजवानों ने क्या कभी कश्मीर में चल रही आतंकवादी गतिविधियों के खिलाफ आवाज निकाली है। देश भर में आईआईटी, मेडीकल या फिर दूसरी यूनिवर्सिटीस हो होठों से होठों पर लिपिस्टिक लगाने की होड़ लगी हैं लेकिन किसी छात्र यूनियन ने एक भी प्रस्ताव कश्मीर में लड़ रहे जवानों के हक में पास किया हो ऐसा सुनाई नहीं पड़ा। जंतर-मंतर पर रोज धऱना प्रदर्शनों में कभी कश्मीर में लड़ने के नाम पर देश के इन तथाकथित नौजवानों ने धावा बोला हो ऐसा भी नहीं हुआ। तो इनको क्यों लगता है कि अरूंधती रॉय ने देश को तोड़ने का काम किया है। अपने को फिर से लगता है कि अरूंधती के बयान के बहाने देश की सत्ता में बैठे लोग, दोनों हाथों से देश को लूट रहे लोग, गरीबों के खून से अपने घर को सजाने में जुटे लोग अब अभिव्यक्ति पर भी ताला लगाना चाहते है। वो चाहते है कि कोई आदमी अब इस लूट के खिलाफ भी एक आवाज भी नहीं लगा सके। आज भले ही वो आवाज अरूंधती की दबाई जा रही है कल इस ताकत का इस्तेमाल गरीब के हकों में नारें लगाने वालों के गले दबाने में किया जाएंगा। देश के दलाल मीडिया की ताकत हमेशा से सत्ता के बौनों और दलालों को हासिल होती रही है लेकिन देश को शायद सोचना चाहिये कि एक ऐसी आवाज को भी जिसका कोई तलबगार नहीं है दबाने की ताकत इन बौनों को नहीं दी जानी चाहिये। आखिर में एक बात पूरे जोर से दोहराना चाहूंगा जो दुनिया भर में जनतंत्र की आत्मा मानी जाती है " मैं आपकी कही बात के हर एक शब्द से पूरी तरह से असहमत हूं लेकिन आपके कहने के अधिकार की रक्षा के लिये अपने खून की आखिरी बूंद तक बहा दूंगा "
कुछ तो होगा / कुछ तो होगा / अगर मैं बोलूँगा / न टूटे / तिलस्म सत्ता का / मेरे अदंर / एक कायर टूटेगा / टूट मेरे मन / अब अच्छी तरह से टूट / झूठ मूठ मत अब रूठ।...... रघुबीर सहाय। लिखने से जी चुराता रहा हूं। सोचता रहा कि एक ऐसे शहर में रोजगार की तलाश में आया हूं, जहां किसी को किसी से मतलब नहीं, किसी को किसी की दरकार नहीं। लेकिन रघुबीर सहाय जी के ये पंक्तियां पढ़ी तो लगा कि अपने लिये ही सही लेकिन लिखना जरूरी है।
Saturday, October 30, 2010
Monday, October 25, 2010
ईश्वर अब इस देश में नहीं रहता
कॉमनवेल्थ गेम्स खत्म हो गये हैं। दुनिया ने भारत की ताकत को जान लिया है। उन लोगों के मुंह पर ताले लग गये जो भारत को पिछड़ा या कमजोर देश मानते हैं। देश ने भारत की तरक्की के बारे में जान लिया है
.................ऐसे सैकड़ों नहीं हजारों की तादाद में समाचार पत्रों के हैडिंग्स आपकी निगाहों से गुजरें होंगे। देश के तथाकथित राष्ट्रीय मीडिया में ऐसी खबरों की आंधी चल रही है। इसके बाद इसकी जांच की खबरों पर भी लोगों की निगाहें टिकी हुई है। लेकिन तथाकथित नेशनल मीडिया की हाल की दो खबरों पढ़ने के बाद लगा कि देश को लेकर आम आदमी और तथाकथित मीडिया के बीच किस तरह की खाई उभर आई है।
देश के सबसे ज्यादा बिकने का दावा करने वाले इन अखबारों में खबरें छपीं कि दिल्ली के अनवांटेड़ लोग लौट आएं हैं। अनवांटेड़ की श्रेणी में शामिल किये गये दिल्ली की सड़कों पर भीख मांगने वाले लाखों की तादाद में ट्रैफिक लाईटों पर सामान बेचकर अपना घर चलाने वाले या फिर ठेली और रोजमर्रा के काम करने वाले मजदूर। इन नेशनल अखबारों ने तो इस बारे में पुलिस को कोसते हुए कहा कि दिल्ली पुलिस अब इन लोगों के आने पर न रोक लगा रही है न उन पर सख्ती दिखा रही है। दोनों खबरों को अलग
-अलग अखबारों ने छापा साथ में रिपोर्टर के नाम भी छापे गये। कॉमनवेल्थ खेल के दौरान कई सौ करोड़ के विज्ञापन भी तथाकथित नेशनल मीडिया को मिले।
ऐसे में तथाकथित नेशनल मीडिया ने बाकी देश से आंखें बंद कर ली। और मीडिया से सच जानने के आदी हो चुके आम आदमी को इस बात का जरा भी अंदेशा नहीं हुआ कि कैसे मीडिया उसको खबरों की दुनिया से अलग कर रहा है। एनसीआर के शहरों में डेंगू के मरीजों के चलते अस्पतालों में भारी भीड़ जमा थी। लेकिन दिल्ली में भी काफी मंहगें प्राईवेट हास्पीटल्स में बेड दिलवाने के लिये सिफारिशों की जरूरत पड़ रही थी। दिल्ली में हर अस्पताल में डेंगू बुखार से पीड़ित मरीजों की भीड़ दिखाईं पड़ रही थीं। लेकिन देश के सम्मान की लड़ाई लड़ रहे मीडिया को इससे कोई लेना-देना नहीं था। और जहां मीडिया की नजर नहीं है वहां सत्ता में बैठे लोगों की नजर क्यूं कर जाएं। मुजफ्फरनगर, मेरठ, गाजियाबाद और नौएड़ा के सरकारी अस्पतालों की तो दूर प्राईवेट वार्डस में जाकर देखियें किस तरह से डेंगू एक महामारी में तब्दील हो चुका है। आंकड़ों पर नजर रखने वाले चाहे तो चैक कर सकते है कि कैसे अलग-अलग प्राईवेट अस्पताल ने करोड़ रूपये कमायें। लेकिन सत्ता में बैठे लोगों की निगाहों में रतौंधी उतर आई थी। और तथाकथित नेशनल मीडिया एडवर्टाईजमेंट की मलाई काट रहा था लिहाजा इस खबर को ही खा गया। मुजफ्फरनगर में कुछ अखबारों में विज्ञापनों पर निगाह पड़ी तो हैरानी हुई कि बाकायदा डॉक्टरों ने एड दिया है कि मरीज अपने फोल्डिंग्स लेकर आएं। डाक्टरों ने मरीजों की भर्ती के लिए धर्मशाला ही बुक करा लीं। हर मरीज से बीस-बीस हजार रूपये पहले ही एडवांस के तौर पर जमा करा लिए गये। लेकिन किसी नेशनल चैनल और अखबार को दिल्ली में ये खबर नजर नहीं आई। कॉमनवेल्थ की विरूदावली गाने के बाद दिल्ली के अखबारों को खबर नजर कि किस तरह से भिखारी और दिहाड़ी मजदूर दिल्ली वापस आ रहे है।
किसी संपादक को ये नहीं लगा कि क्या ये लोग हिंदुस्तानी नहीं है। अगर ये लोग दिल्ली में अनवांटे़ड है तो लखनऊ, जयपुर या फिर इलाहाबाद में कैसे वांटे़ड़ हो सकते है। यदि इन लोगों को रोटी नहीं मिल पा रही है तो इसमें किसका दोष है। कौन सी व्यवस्था है जो लगातार अमीरों को अमीर बना रही है और ज्यादा से ज्यादा आबादी को भूखमरी और अकाल मौत की ओर धकेल रही है। लेकिन तथाकथित नेशनल मीडिया ने छाप दिया कि ये वापस लौट रहे है। क्या अखबार और उनके रिपोर्टर ये इशारा कर रहे है कि इन लोगों को पागलखाने या फिर गैस चैंबरों में भेज दिया जाएं। यदि अखबार और मीडिया ये कर रहा है तो मुझे और कुछ नहीं एक दूसरी चीज याद आ रही है।
बीसवी शताब्दी का नायक कौन है इस बारे में दुनिया सैकड़ों नाम नहीं तो दर्जनों नाम तो ले सकती है। लेकिन शताब्दी का खलनायक कौन है इस बारे में एक ही नाम सामने आयेगा। एडोल्फ हिटलर। जर्मनी के इस तानाशाह से भी दुनिया की नफरत की वजह युद्ध छेड़ना नहीं बल्कि दुनिया से यहूदियों की कौम का नामों
-निशान मिटा देने की कोशिश के चलते ज्यादा है। साठ लाख के करीब यहूदियों को नये बने गैस चैंबरों से लेकर फायरिंग स्क्वाड जैसे पारंपरिक तरीकों से मौत के घाट उतार दिया गया। ये बातें इतिहास का हिस्सा हैं। लेकिन जिस बात पर जर्मनी या फिर यूरोप के बाहर की आम जनता ने ध्यान नहीं दिया था वो बात थीं किस तरह से हिटलर इतना ताकतवर हो गया कि एक पूरी कौम या फिर पूरा राष्ट्र उसके पीछे आंखें मूंद कर चलने लगा था। अगर आप लोग उस वक्त के जर्मनी के तथाकथित नेशनल मीडिया को देंखें तो वो जर्मन कौम के अहम को मजबूत करने में लगे थे। हिटलर के कदमों का विरोध करने वालों के गायब होने की खबरें भी मीडिया से गायब हो चुकी थीं।
अब के हालात में ये ही कह सकते है कि हिंदुस्तान में अभी कोई हिटलर तो नहीं है लेकिन उसके चाहने वालों की कमी नहीं है। देश का तथाकथित मीडिया उसके निर्माण में जुट गया है। देश के मौजूदा हालात को देखकर कोई भी सिर्फ यहीं कह सकता है कि ईश्वर ने इस देश को छोड़ दिया है
.................ऐसे सैकड़ों नहीं हजारों की तादाद में समाचार पत्रों के हैडिंग्स आपकी निगाहों से गुजरें होंगे। देश के तथाकथित राष्ट्रीय मीडिया में ऐसी खबरों की आंधी चल रही है। इसके बाद इसकी जांच की खबरों पर भी लोगों की निगाहें टिकी हुई है। लेकिन तथाकथित नेशनल मीडिया की हाल की दो खबरों पढ़ने के बाद लगा कि देश को लेकर आम आदमी और तथाकथित मीडिया के बीच किस तरह की खाई उभर आई है।
देश के सबसे ज्यादा बिकने का दावा करने वाले इन अखबारों में खबरें छपीं कि दिल्ली के अनवांटेड़ लोग लौट आएं हैं। अनवांटेड़ की श्रेणी में शामिल किये गये दिल्ली की सड़कों पर भीख मांगने वाले लाखों की तादाद में ट्रैफिक लाईटों पर सामान बेचकर अपना घर चलाने वाले या फिर ठेली और रोजमर्रा के काम करने वाले मजदूर। इन नेशनल अखबारों ने तो इस बारे में पुलिस को कोसते हुए कहा कि दिल्ली पुलिस अब इन लोगों के आने पर न रोक लगा रही है न उन पर सख्ती दिखा रही है। दोनों खबरों को अलग
-अलग अखबारों ने छापा साथ में रिपोर्टर के नाम भी छापे गये। कॉमनवेल्थ खेल के दौरान कई सौ करोड़ के विज्ञापन भी तथाकथित नेशनल मीडिया को मिले।
ऐसे में तथाकथित नेशनल मीडिया ने बाकी देश से आंखें बंद कर ली। और मीडिया से सच जानने के आदी हो चुके आम आदमी को इस बात का जरा भी अंदेशा नहीं हुआ कि कैसे मीडिया उसको खबरों की दुनिया से अलग कर रहा है। एनसीआर के शहरों में डेंगू के मरीजों के चलते अस्पतालों में भारी भीड़ जमा थी। लेकिन दिल्ली में भी काफी मंहगें प्राईवेट हास्पीटल्स में बेड दिलवाने के लिये सिफारिशों की जरूरत पड़ रही थी। दिल्ली में हर अस्पताल में डेंगू बुखार से पीड़ित मरीजों की भीड़ दिखाईं पड़ रही थीं। लेकिन देश के सम्मान की लड़ाई लड़ रहे मीडिया को इससे कोई लेना-देना नहीं था। और जहां मीडिया की नजर नहीं है वहां सत्ता में बैठे लोगों की नजर क्यूं कर जाएं। मुजफ्फरनगर, मेरठ, गाजियाबाद और नौएड़ा के सरकारी अस्पतालों की तो दूर प्राईवेट वार्डस में जाकर देखियें किस तरह से डेंगू एक महामारी में तब्दील हो चुका है। आंकड़ों पर नजर रखने वाले चाहे तो चैक कर सकते है कि कैसे अलग-अलग प्राईवेट अस्पताल ने करोड़ रूपये कमायें। लेकिन सत्ता में बैठे लोगों की निगाहों में रतौंधी उतर आई थी। और तथाकथित नेशनल मीडिया एडवर्टाईजमेंट की मलाई काट रहा था लिहाजा इस खबर को ही खा गया। मुजफ्फरनगर में कुछ अखबारों में विज्ञापनों पर निगाह पड़ी तो हैरानी हुई कि बाकायदा डॉक्टरों ने एड दिया है कि मरीज अपने फोल्डिंग्स लेकर आएं। डाक्टरों ने मरीजों की भर्ती के लिए धर्मशाला ही बुक करा लीं। हर मरीज से बीस-बीस हजार रूपये पहले ही एडवांस के तौर पर जमा करा लिए गये। लेकिन किसी नेशनल चैनल और अखबार को दिल्ली में ये खबर नजर नहीं आई। कॉमनवेल्थ की विरूदावली गाने के बाद दिल्ली के अखबारों को खबर नजर कि किस तरह से भिखारी और दिहाड़ी मजदूर दिल्ली वापस आ रहे है।
किसी संपादक को ये नहीं लगा कि क्या ये लोग हिंदुस्तानी नहीं है। अगर ये लोग दिल्ली में अनवांटे़ड है तो लखनऊ, जयपुर या फिर इलाहाबाद में कैसे वांटे़ड़ हो सकते है। यदि इन लोगों को रोटी नहीं मिल पा रही है तो इसमें किसका दोष है। कौन सी व्यवस्था है जो लगातार अमीरों को अमीर बना रही है और ज्यादा से ज्यादा आबादी को भूखमरी और अकाल मौत की ओर धकेल रही है। लेकिन तथाकथित नेशनल मीडिया ने छाप दिया कि ये वापस लौट रहे है। क्या अखबार और उनके रिपोर्टर ये इशारा कर रहे है कि इन लोगों को पागलखाने या फिर गैस चैंबरों में भेज दिया जाएं। यदि अखबार और मीडिया ये कर रहा है तो मुझे और कुछ नहीं एक दूसरी चीज याद आ रही है।
बीसवी शताब्दी का नायक कौन है इस बारे में दुनिया सैकड़ों नाम नहीं तो दर्जनों नाम तो ले सकती है। लेकिन शताब्दी का खलनायक कौन है इस बारे में एक ही नाम सामने आयेगा। एडोल्फ हिटलर। जर्मनी के इस तानाशाह से भी दुनिया की नफरत की वजह युद्ध छेड़ना नहीं बल्कि दुनिया से यहूदियों की कौम का नामों
-निशान मिटा देने की कोशिश के चलते ज्यादा है। साठ लाख के करीब यहूदियों को नये बने गैस चैंबरों से लेकर फायरिंग स्क्वाड जैसे पारंपरिक तरीकों से मौत के घाट उतार दिया गया। ये बातें इतिहास का हिस्सा हैं। लेकिन जिस बात पर जर्मनी या फिर यूरोप के बाहर की आम जनता ने ध्यान नहीं दिया था वो बात थीं किस तरह से हिटलर इतना ताकतवर हो गया कि एक पूरी कौम या फिर पूरा राष्ट्र उसके पीछे आंखें मूंद कर चलने लगा था। अगर आप लोग उस वक्त के जर्मनी के तथाकथित नेशनल मीडिया को देंखें तो वो जर्मन कौम के अहम को मजबूत करने में लगे थे। हिटलर के कदमों का विरोध करने वालों के गायब होने की खबरें भी मीडिया से गायब हो चुकी थीं।
अब के हालात में ये ही कह सकते है कि हिंदुस्तान में अभी कोई हिटलर तो नहीं है लेकिन उसके चाहने वालों की कमी नहीं है। देश का तथाकथित मीडिया उसके निर्माण में जुट गया है। देश के मौजूदा हालात को देखकर कोई भी सिर्फ यहीं कह सकता है कि ईश्वर ने इस देश को छोड़ दिया है
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Sunday, October 24, 2010
खेल खत्म पैसा हजम
खेल खत्म पैसा हजम। बचपन में मदारी के खेल देखें और मदारी जब अपना ताम-झाम समेटता था तो बच्चों को बहका कर हासिल किये गये पैसे अपने जेंब में रखतें हुए यही कहता था। कॉमनवेल्थ खेलों का समापन हुआ और लगा कि खेल खत्म पैसा हजम। लेकिन अच्छा नहीं लगा। बचपन में जो पैसा जेंब में होता था वो मेरी जेब खर्च का होता था लेकिन अब जो मेरी जेब में पैसा होता है वो मेरे परिवार के लिये जिंदगी के जीने के लिए के लिये जरूरी होता है। ऐसे में मेरी जेंब से चालाकी से हासिल पैसे को लेकर बेशर्मी से ये कहना कि खेल खत्म पैसा हजम अच्छा नहीं लगा।
लेकिन सत्ता में बैठे लोग इस बात को अपने माथे पर नहीं रखना चाहते है। देश के बेबस ईमानदार प्रधानमंत्री जी ने भारत के पदक विजेताओं के सम्मान में किये गये समारोह में माननीय कलमाड़ी साहब को नहीं बुलाया। और अगली खबर मीडिया को मिली कि शुंगलु साहब की अध्यक्षता में एक कमेटी बनाई गयी है जो इस पूरे खेल में हुए खर्चे की जांच करेंगी। तीन महीने में कमेटी इस बारे में अपनी सिफारिश देंगी। देश का अनुभव इस बात का गवाह है कि ऐसी समितियों का ट्रैक रिकार्ड क्या रहा है। और इस बारे में ठेकेदारों के रिश्तें किस पार्टी से रहे है इस बात का असर भी जांच पड़ेगा।
नेहरू स्टेडियम भीड़ को देखने वाली बात ये थी कि किस तरह से साठ से सत्तर हजार आदमी देश के नाम पर नारा लगा सकते थे नाच सकते थे और हर बार भारत का नाम आने से तालियां बजा सकते थे। इन लोगों ने टिकट खरीदें थे चार हजार आठ हजार या इससे भी ज्यादा के टिकट। इस दौरान दिल्ली के अस्पतालों में डेंगूं के मरीजों की भीड़ बुरी तरह से जमा थी। हर अस्पताल में लंबी लाईनों में खड़े मरीज इस बात को दिखा रहे थे कि डेंगू इस वक्त एक महामारी के तौर पर राजधानी दिल्ली में पसर गयी है। लेकिन राज्य की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को गेम्स में ईज्जत की इतनी परवाह थी कि वो डेंगूं को लेकर बिलकुल बेपरवाह रही। देश के स्वास्थ्य मंत्री को इस वक्त कश्मीर में चल रही उठा-पठक से फुर्सत नहीं है। सरकारी अस्पतालों में वो मरीज पहुंच रहे है जो प्राईवेट अस्पतालों का खर्च उठाने की हैसियत में नहीं है। और प्राईवेट अस्पतालों में लूट का एक नया कीर्तिमान लिखा जा रहा है। दिल्ली के आस-पास के शहरों में हालात और बुरे है. गाजियाबाद, गौतमबुद्ध नगर, मेरठ, और मुजफ्फरनगर में हालात काबू से बाहर है। प्राईवेट लैब्स एक-एक दिन में पचास हजार से लेकर पांच लाख रूपये कमा रहे है। लेकिन दिल्ली में लोगों के हालात की किसी को परवाह नहीं है तो दिल्ली के बाहर तो उपर वाला ही उनका रखवाला है।
लेकिन सत्ता में बैठे लोग इस बात को अपने माथे पर नहीं रखना चाहते है। देश के बेबस ईमानदार प्रधानमंत्री जी ने भारत के पदक विजेताओं के सम्मान में किये गये समारोह में माननीय कलमाड़ी साहब को नहीं बुलाया। और अगली खबर मीडिया को मिली कि शुंगलु साहब की अध्यक्षता में एक कमेटी बनाई गयी है जो इस पूरे खेल में हुए खर्चे की जांच करेंगी। तीन महीने में कमेटी इस बारे में अपनी सिफारिश देंगी। देश का अनुभव इस बात का गवाह है कि ऐसी समितियों का ट्रैक रिकार्ड क्या रहा है। और इस बारे में ठेकेदारों के रिश्तें किस पार्टी से रहे है इस बात का असर भी जांच पड़ेगा।
नेहरू स्टेडियम भीड़ को देखने वाली बात ये थी कि किस तरह से साठ से सत्तर हजार आदमी देश के नाम पर नारा लगा सकते थे नाच सकते थे और हर बार भारत का नाम आने से तालियां बजा सकते थे। इन लोगों ने टिकट खरीदें थे चार हजार आठ हजार या इससे भी ज्यादा के टिकट। इस दौरान दिल्ली के अस्पतालों में डेंगूं के मरीजों की भीड़ बुरी तरह से जमा थी। हर अस्पताल में लंबी लाईनों में खड़े मरीज इस बात को दिखा रहे थे कि डेंगू इस वक्त एक महामारी के तौर पर राजधानी दिल्ली में पसर गयी है। लेकिन राज्य की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को गेम्स में ईज्जत की इतनी परवाह थी कि वो डेंगूं को लेकर बिलकुल बेपरवाह रही। देश के स्वास्थ्य मंत्री को इस वक्त कश्मीर में चल रही उठा-पठक से फुर्सत नहीं है। सरकारी अस्पतालों में वो मरीज पहुंच रहे है जो प्राईवेट अस्पतालों का खर्च उठाने की हैसियत में नहीं है। और प्राईवेट अस्पतालों में लूट का एक नया कीर्तिमान लिखा जा रहा है। दिल्ली के आस-पास के शहरों में हालात और बुरे है. गाजियाबाद, गौतमबुद्ध नगर, मेरठ, और मुजफ्फरनगर में हालात काबू से बाहर है। प्राईवेट लैब्स एक-एक दिन में पचास हजार से लेकर पांच लाख रूपये कमा रहे है। लेकिन दिल्ली में लोगों के हालात की किसी को परवाह नहीं है तो दिल्ली के बाहर तो उपर वाला ही उनका रखवाला है।
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