Friday, April 29, 2016

डाकू मोहर सिंह


चंबल में पचास के दशक में जैसे बागियों की एक पूरी बाढ़ आई थी।  मानसिंह, रूपा, लाखन, गब्बर, सुल्ताना जैसे डाकूओं से चंबल थर-थर कांप रही थी। साठ के दशक की शुरूआत में इनमें से ज्यादातर डाकू पुलिस की गोलियों का निशाना बन चुके थे या फिर उनके गैंग छोटे हो चुके थे। लेकिन इस दशक में एक नाम ऐसा उभरा जिसने बाकि सब नामों की चमक को फीका कर दिया। ये नाम था मोहर सिंह का। डाकू मोहर सिंह साठ के दशक में चंबल का राजा। 

चंबल के बीहड़ों ने हजारों डाकुओं को पनाह दी होगी। सैंकड़ों गांवों की दुश्मनियां चंबल में पनपी होंगी और उन दुश्मनियों से जन्में होंगे हजारों डाकू। लेकिन एक दुश्मनी की कहानी ऐसी बनी कि दुश्मनी गुम हो गई, दुश्मन फना हो गए लेकिन दुश्मनी से जनमा डाकू चंबल का बादशाह बन बैठा। ऐसा बादशाह जिसके पास चंबल में अबतक की सबसे बड़ी डाकुओं की फौंज खड़ी हो गई।
मानसिंह के बाद चंबल घाटी का सबसे बड़ा नाम था मोहर सिंह का। मोहर सिंह जिसके पास डेढ़ सौं से ज्यादा डाकू थे। मोहर सिंह चंबल घाटी में उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश और राजस्थान की पुलिस फाईलों में E-1 यानि दुश्मन नंबर एक के तौर पर दर्ज था। साठ के दशक में चंबल में मोहर सिंह की बंदूक ही फैसला थी और मोहर सिंह की आवाज ही चंबल का कानून। 
चंबल में पुलिस की रिकॉड़ चैक करे तो 1960 में अपराध की शुरूआत करने वाले मोहर सिंह ने इतना आतंक मचा दिया था कि पुलिस चंबल में घुसने तक से खौंफ खाने लगी थी। एनकाउंटर में मोहर सिंह के डाकू आसानी से पुलिस को चकमा देकर निकल जाते थे। मोहर सिंह का नेटवर्क इतना बड़ा था कि पुलिस के चंबल में पांव रखते ही उसको खबर हो जाती थी। और मोहर सिंह अपनी रणनीति बदल देता था। 
1958 में पहला अपराध कर पुलिस रिकॉर्ड में दर्ज होने वाला मोहर सिंह ने जब अपने कंधें से बंदूक उतारी तब तक वो ऑफिसियल रिकॉर्ड में दो लाख रूपए का ईनामी था और उसका गैंग 12 लाख रूपए का इनामी गैंग था। 1970 में इस रकम को आज के हिसाब से देंखें तो ये रकम करोड़ों का हिसाब पार कर सकती है। पुलिस फाईल में 315 मामले मोहर सिंह के सिर थे और 85 कत्ल का जिम्मेदार मोहर सिंह था। मोहर सिंह के अपराधों का एक लंबा सफर था लेकिन  अचानक ही इस खूंखार डाकू बंदूकों को रखने का फैसला कर लिया। 
मोहर सिंह चंबल की डांग में बसे हुए गांवों में एक छोटा सा गांव अनाम सा लड़का। गांव कुछ जमीन और खेती बाड़ी। चंबल में नाइँसाफी और बदले के जुनून की सैकड़ों कहानियां बिखरी हुई है। लेकिन हर कहानी का रिश्ता जाकर जुड़ जाता है एक ही कहानी से। यानि जमीन को लेकर जंग से। मोहर की जिंदगी में भी अपनी छोटी सी जमीन को बचाने की जंग थी और नाकामयाब मोहर सिंह की जिंदगी की बटिया भी बीहड़ में भटक गई।
झाड़ियां ही झाड़ियां और बीच में एक सफेद रंग से पुता हुआ एक मंदिर।  ये सत्तर साल पहले एक भरा-पूरा गांव था। लेकिन अब सिर्फ बीहड़ ही बीहड़ है। गांव अब इससे लगभग एक किलोमीटर दूर जाकर बस गया है और पुराना गांव बिसुली नदी के कछार में समा गया है। लेकिन इसी गांव से शुरू हुई एक डाकू मोहर सिंह की कहानी।
मोहर सिंह इसी गांव का रहने वाला एक छोटा सा किसान था। गांव में छोटी सी जमीन थी। जिंदगी मजे से चल रही थी। लेकिन चंबल के इलाके का इतिहास बताता है कि किसानों की जमीनों में फसल के साथ साथ दुश्मनियां भी उगती है। जमीन के कब्जें को मोहर के कुनबे में एक झगड़ा शुरू हुआ। और इसी झगड़े में मोहर सिंह की जमीन का कुछ हिस्सा दूसरे परिवार ने दबा लिया। गांव में झगड़ा हुआ। पुलिस के पास मामला गया। और पुलिस ने उस समय की चंबल में चल रही रवायत के मुताबिक पैसे वाले का साथ दिया। केस चलता रहा। इस मामले में मोहर सिंह गवाह था। 
गांव में मुकदमें में गवाही देना दुश्मनी पालना होता है। जटपुरा में एक दिन मोहर सिंह को उसके मुखालिफों ने पकड़ कर गवाही न देने का दवाब डाला। कसरत और पहलवानी करने के शौंकीन मोहर सिंह ने ये बात ठुकरा दी तो फिर उसके दुश्मनों ने उसकी बुरी तरह पिटाई कर दी। घायल मोहर सिंह ने पुलिस की गुहार लगाई लेकिन थाने में उसकी आवाज सुनने की बजाय उस पर ही केस थोप दिया गया। 
बुरी तरह से अपमानित मोहर सिंह को कोई और रास्ता नहीं सूझा और उसने चंबल की राह पकड़ ली। 1958 में गांव में अपने इसी मंदिर पर मोहर सिंह ने अपने दुश्मनों को धूल में मिला देने की कसम खाई और चंबल में कूद पड़ा।  
मोहर सिंह ने पहला शिकार अपने गांव के दुश्मन को किया। उसके बाद बंदूक के साथ मोहर सिंह जंगलों में घूम रहा था। शुरू में उसने बाकि बागियों के गैंग में शामिल होने की कोशिश की। दो साल तक जंगलों में भटकते हुए मोहर सिंह की किसी गैंग में पटरी नहीं बैठी तो मोहर सिंह ने फैसला कर लिया कि वो खुद का गैंग बनाएंगा और गैंग भी ऐसा जिससे चंबल थर्रा उठे। 
गांव में ताकतवर लोगो से बदला लेने में ना कानून साथ देता है, ना भगवान और न ही अदालत की चौखट। चंबल में हर कमजोर के लिए ताकत हासिल करने का एक ही शॉर्ट कट है और वो है चंबल की डांग में बैठकर राईफलों के सहारे अपने दुश्मनों पर निशाना साधना।  मोहर सिंह की बदूंकें आग उगर रही थी और निशाना बन रहे थे दुश्मन। 
वीओ—चंबल के मोहर सिंह ने अपना गैंग बनाया तो उस वक्त कई गैंग चंबल में अपना खौंफ बनाएं हुए थे। मानसिंह गैंग की कमान लोकमन दीक्षित उर्फ लुक्का पंडित के हाथों में थी। लाखन, माधों सिंह, हरविलास, छोटे सिंह जैसे गैंग पूरे चंबल में घूम रहे थे। और मोहर सिंह को इन्ही के बीच अपना रास्ता बनाना था। मोहर सिंह ने अपने साथियों के साथ पहले छोटी छोटी वारदात करना शुरू किया। और पुलिस के रिकॉर्ड में उसकी एंट्री शुरू हुई। 
मेहगांव थाने में 140/60 पहला अपराध था जो मोहर सिंह गैंग के खिलाफ पुलिस रिकॉर्ड में दर्ज हुआ। 
1960 में ही गौहद थाने में दूसरा अपराध दर्ज हुआ हत्या के प्रयास का। 
1961 में गौहद में पहला कत्ल का केस दर्ज हुआ। 
और इसके बाद की कहानी कत्लों का एक सिलसिला है।
मोहर सिंह ने पहले तो भिंड और आसपास के इलाके में अपराध किए लेकिन जैसे जैसे गैंग बढ़ने लगा मोहर सिंह ने भी अपना दायरा बढ़ाना शुरू कर दिया। मोहर सिंह अपने गैंग के अनुशासन को लेकर बेहद सतर्क था। मोहर सिंह का गैंग बढ़ रहा था उधर दूसरी और पुलिस एक एक कर चंबल के दूसरे गैंग का सफाया कर रही थी। मोहर सिंह ने इसका तोड़ निकाल लिया था। मोहर सिंह ने चंबल में ऐलान कर दिया था कि जो कोई भी उनके गैंग की मुखबिरी करेंगा उसका पूरे परिवार को साफ कर दिया जाएंगा। और इस पर उसने कड़ाई से अमल शुरू कर दिया। मुखबिरों को निबटाने में मोहर सिंह बेहद खूंखार हो जाता था। 
मुखबिरों को और उनके परिवार पर मोहर सिंह शिकारी की तरह से टूट पड़ता था। मोहर सिंह के गैंग के ऊपर ज्यादातर मुखबिरों के कत्ल के मामले बन रहे थे। लेकिन चंबल में मोहर सिंह का खौंफ पुलिस और उसके मुखबिरों पर लगातार बढ़ता जा रहा था। और इसका फायदा मिल रहा था मोहर सिंह को। मोहर सिंह का नाम मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश और राजस्थान में फैल गया था। जहां दूसरे गिरोहों को किसी भी गांव में रूकते वक्त मुखबिरी का डर रहता था वही मोहर सिंह का गैंग बेखटके अपनी बिरादरी के गांवों में ठहरता और पुलिस को खबर होने से पहले ही निकल जाता था।
मोहर सिंह ने अपने गैंग को सबसे बड़ा गैंग बनाने के साथ-साथ कुछ कठोर नियम भी बना दिये थे। मोहर सिंह गैंग में किसी भी महिला डाकू को शामिल करने के खिलाफ था। और इसके साथ ही उसके गैंग को सख्त हिदायत थी कि वो किसी भी लडकी और औरत की और आंख उठाकर न देखे नहीं तो मोहर सिंह उसको खुद सजा देगा। ये बात पुलिस अधिकारियों को आज भी याद है
और इस बात को आज भी चवालीस साल बाद भी मोहर सिंह याद रखता है कि उसके गैंग के ऊपर किसी भी गांव में बहू-बेटी को छेड़ने या परेशान करने का कोई मामला कभी कही दर्ज नहीं हुआ। 
अब मोहर सिंह चंबल के डाकू सरदारों में एक प्रमुख नाम बन गया। पुलिस के साथ उसके एनकाउंटर रोजमर्रा की बात हो गये थे। लेकिन मोहर सिंह इससे बेपरवाह था। क्योंकि पैसे आने के साथ ही मोहर सिंह ने पुलिस से भी बेहतर हथियार उस वक्त हासिल कर लिए थे। और मोहर सिंह ने अपने गैंग को बचाने और वारदात करने के नए तरीके खोजने शुरू कर दिये। 
मोहर सिंह का गैंग इतना बड़ा हो चुका था कि चंबल ने इससे पहले इतना बडा़ गैंग कभी देखा नहीं था। डेढ़ सौ आदमी और वो भी हथियारबंद । एक से एक आधुनिक हथियार और मोहर सिंह का पुलिस से सीधी टक्कर लेने का दुस्साहस मोहर सिंह को चंबल का बेताज बादशाह बना चुका था। पूरे गैंग पर 12 लाख से  ज्यादा का ईनाम। 1960 के दशक के 12 लाख रूपए आज के कितने है ये आप सिर्फ हिसाब लगाईंये।
मोहर सिंह चंबल में दूसरे गैंग के साथ मिलकर भी पुलिस को चकमा देने और वारदात करने का ट्रैंड शुरू कर दिया था। मोहर सिंह, माधो सिंह , सरू सिंह, राम लखन मास्टर और देवीलाल के गिरोह चंबल में इकट्ठा होकर वारदात करने लगे थे। पुलिस टीम भी 100-200 की संख्या में इकट्ठा हथियारबंद डाकुओं से मुकाबला करने में बचती थी।
मोहर सिंह का सिर अब पुलिस के लिए बेहद  कीमती बन चुका था। लेकिन मोहर सिंह छलावा बन चुका था। एक गांव में वारदात करता और फिर गायब हो जाता। पुलिस के मुखबिर गैंग की किसी भी मूवमेंट की सटीक जानकारी हासिल करने में बिलकुल नाकाम हो गए थे। एक से एक बड़ी डकैतियां और एक से एक बड़े कारनामे। पुलिस मोहर सिंह को थामना चाहती और मोहर सिंह बहता हुआ पानी साबित हो रहा था जो पुलिस के हाथों में रूक ही नहीं रहा था। पुलिस निराशा में बार बार मोहर सिंह के गांव पहुंच जाती जहां उसके हाथ कुछ भी नहीं लगता था।  
चंबल में डकैतों ने एक तरह का राज कायम कर लिया था। हालांकि पुलिस भी एक एक करके गैंग को निबटाती जाती थी लेकिन चंबल का ये दौर बड़े गैंग का दौर बन  चुका था। पुलिस ने जिन बड़े गैंग को 60 के दशक की शुरूआत में निबटाया था वो 
1963 में कुख्यात डकैत सरगाना फिरंगी सिंह को मार गिराया गया
1964 में  देवीलाल शिकारी गैंग को सरगना सहित साफ किया। 
1964 में ही पुलिस ने छक्की मिर्धा को भी गोलियों का निशाना बनाया
1965 में स्योसिंह को पुलिस की गोलियों ने ठंडा कर दिया। 
1965 में रमकल्ला भी पुलिस के हाथों मारा गया । 
लेकिन 1965 में मोहर सिंह के साथी नाथू सिंह ने एक प्लॉन बनाया। मोहर सिंह को  भी  ये प्लान जच गया। चंबल के इलाके में उस वक्त किसी ने ये सोचा भी नहीं था कि दिल्ली के भी किसी आदमी को पकड़ बनाया जा सकता है। दिल्ली के मूर्ति तस्कर शर्मा के बारे में मोहर सिंह के आदमियों को जानकारी थी कि वो चोरी की मूर्तियां खरीदने कही तक जा सकता है। बस यही से पूरा प्लान बन गया। दिल्ली से शर्मा को एक शख्स ये कहकर लाया कि कुछ एंटीक मूर्तियां है जो चोरी की गई है चंबल में एक शख्स से मिल सकती है।मूर्ति तस्कर झांसे में  आ गया।  पहले उसने अपना एक आदमी चंबल में भेजा। उस आदमी को गिरोह ने पकड़ लिया और फिर उसके सहारे मूर्ति तस्कर को संदेश भेजा गया कि माल सही है। शर्मा साहब प्लेन से ग्वालियर पहुंचे। वहां से एक कार में बैठाकर मूर्तियां दिखाने के बहाने मोहर के लोग चंबल की डांग में ले आए। जंगल में अपने को डाकुओं से घिरा देखकर शर्मा को समझ आ गया कि वो डाकुओं के चंगुल में फंस चुका है।
शर्मा की पहचान बड़े लोगो से थी। दिल्ली से भोपाल संदेश गया और केन्द्र से भी मुरैना पुलिस को त्वरित कार्रवाई करने के निर्देश दिए गए थे। लेकिन पुलिस को शर्मा की परछाई भी नहीं मिल पाई। और आखिर में शर्मा के परिवार को 05 लाख रूपए मोहर सिंह को देने पड़े। चंबल में इतनी बड़ी रकम इससे पहले कभी किसी पकड़ से हासिल नहीं की गई थी। हालांकि मोहर सिंह इस रकम को 26 लाख रूपए बताते है। 
मोहर सिंह पुलिस की डायरी में एक ऐसा नाम बन गया जिसको पुलिस डिपार्टमेंट चलता-फिरता भूत कहने लगा। हर बड़ी वारदात के पीछे पुलिस पहले अपने गैंग चार्ट के एनिमी 1 यानि दुश्मन नंबर एक यानि मोहर सिंह का हाथ देखती थी। पुलिस और मोहर सिंह की ये आंख-मिचौली पूरे चंबल में एक दिलचस्प कहानी बन रही थी। तभी कहानी में एक मोड़ आ गया। और पूरी कहानी ने ट्विस्ट ले लिया।  
चंबल में राज कर रहा मोहर सिंह भले ही पढ़ा लिखा इतना न हो लेकिन ये जानता था कि गोली का अंत गोली से होता है। 28 साल की उम्र तक इतना कुख्यात हो चुका मोहर मौत को अपने आस-पास मंडराते हुए देखता था। और मौत की छाया को दूर करने का सहारा उसको दिखा तो उसने वो लपक लिया। कल का डाकू मोहर सिंह आज के समाजसेवी नेताजी मोहर सिंह के रास्ते में मोहर सिंह ने कई उतार-चढ़ाव देखे है। 
वीओ- चंबल में मोहर सिंह और माधों सिंह की दोस्ती एक मिसाल मानी जाती है। मोहर सिंह और माधों सिह पुलिस रिकॉर्ड में भी दोस्त के तौर पर दर्ज थे यानि एनिमी नंबर 1 मोहर सिंह और एनिमी नंबर दो माधों सिहं। दोनो के गैंग चंबल के सबसे बड़े गैंग थे। चंबल में डकैतों से लोग कराह उठे थे तो सरकार की चूलें भी हिल उठी।
नेट
 हत्या, लूट और डकैती की खबरें चंबल की रोजमर्रा जिंदगी का एक हिस्सा बन चुकी थी। 
ग्राफिक्स इन
1.        1965 में 151 डकैती,46 हत्याएं और 114 अपहरण
2.        1966 में 102 डकैतियां, 40 हत्याएं और 125 अपहरण
3.        1967 में 90 डकैतियां, 63 हत्याएं और 105 अपहरण
4.        1969 में हत्याओं की संख्या 80 और अपहरण लगभग 200
ग्राफिक्स आउट
मध्यप्रदेश सरकार इस समस्या को लेकर बेहद चिंतित हुई तो उसने एक सदस्यीय आयोग बना दिया। 
चंबल में राज कर रहा मोहर सिंह भले ही पढ़ा लिखा इतना न हो लेकिन ये जानता था कि गोली का अंत गोली से होता है। 28 साल की उम्र तक इतना कुख्यात हो चुका मोहर मौत को अपने आस-पास मंडराते हुए देखता था। और मौत की छाया को दूर करने का सहारा उसको दिखा तो उसने वो लपक लिया। कल का डाकू मोहर सिंह आज के समाजसेवी नेताजी मोहर सिंह के रास्ते में मोहर सिंह ने कई उतार-चढ़ाव देखे है।  चंबल में मोहर सिंह और माधों सिंह की दोस्ती एक मिसाल मानी जाती है। मोहर सिंह और माधों सिह पुलिस रिकॉर्ड में भी दोस्त के तौर पर दर्ज थे यानि एनिमी नंबर 1 मोहर सिंह और एनिमी नंबर दो माधों सिहं। दोनो के गैंग चंबल के सबसे बड़े गैंग थे। चंबल में डकैतों से लोग कराह उठे थे तो सरकार की चूलें भी हिल उठी।
 हत्या, लूट और डकैती की खबरें चंबल की रोजमर्रा जिंदगी का एक हिस्सा बन चुकी थी। 
1.        1965 में 151 डकैती,46 हत्याएं और 114 अपहरण
2.        1966 में 102 डकैतियां, 40 हत्याएं और 125 अपहरण
3.        1967 में 90 डकैतियां, 63 हत्याएं और 105 अपहरण
4.        1969 में हत्याओं की संख्या 80 और अपहरण लगभग 200
मध्यप्रदेश सरकार इस समस्या को लेकर बेहद चिंतित हुई तो उसने एक सदस्यीय आयोग बना दिया। पुलिस पर दबाव बढ़ने लगा। एक के बाद एक एनकाउंटर मोहर सिंह और पुलिस के होने लगे। मोहर सिंह के मुताबिक लगभग 14 साल तक के उसके दस्यु जीवन में लगभग 76 बार उसका और पुलिस का आमना-सामना हुआ और हर बार मोहरसिंह बच निकला। लेकिन मोहरसिंह भी समझ रहा था कि पुलिस का घेरा बढ़ रहा है। बीहड़ों की आंख-मिचौली किसी भी दिन उसकी सांसों को बदन से जुदा कर सकती है। 
मोहरसिंह ये सोच ही रहा था कि एक दिन माधों सिंह ने उसको चौंका दिया। माधौं सिंह ने कहा कि जय प्रकाश नारायण चंबल में एक बड़ा समर्पण करा रहे है। 1960 में विनोबा भावे एक बड़ा समर्पण करा चुके थे जिसमें लोकमन दीक्षित और मानसिंह गैंग के काफी लोगों ने समर्पण किया था और जो आराम से अपनी जिंदगी जी रहे थे। मोहर सिंह ने एक तरफा फैसला ले लिया कि गोलियों का वहशी खेल अब और नहीं।
जौरा का ये डैम चंबल के इतिहास के सबसे बड़े समर्पण का गवाह है। 500 से ज्यादा डाकुओं ने जय प्रकाश नारायण के चरणों में अपनी बंदूकें रख दी।
जिस वक्त मोहर सिंह समर्पण करने आया था तो उस वक्त हजारों की भीड़ उसका स्वागत करने जौरा के गांधी आश्रम पहुंची थी। news.google.com/newspapers?nid=1755&dat=19720418&id...
 थी। मोहर सिंह जेल में सजा काटने के बाद मेहगांव लौट आया। आज भी मोहर सिंह लोगो के बीच में उस वक्त की याद जब मोहर सिंह का नाम चंबल का नहीं देश का सबसे बड़ा खौंफ जगाने वाला नाम था। और देश में सबसे बड़ा ईनाम उसके सर पर था। 

डाकू मलखान सिंह

छह फीट लंबा कद। चेहरे से बाहर निकलती मूंछे और खाकी वर्दी।एक हाथ में अमेरिकन सेल्फ लोड़िंग राईफल तो दूसरे हाथ में लाऊडस्पीकर। सालों तक ये चेहरा चंबल के इलाकों में खौंफ की तस्वीर बना रहा। अपहरण, लूट, डकैती, हत्या और हत्या के प्रयास के सैकड़ों मामले मलखान सिंह के सिर पर रहे। लेकिन मलखान सिंह बेखौंफ घूमता रहा। 
चंबल में मौहर सिंह, माधौं सिंह, पंचम सिंह जैसे डाकुओं के समर्पण के बाद चंबल में शांति की उम्मीद कर रहे लोगो की उम्मीद जल्दी ही टूट गई थी। चंबल के बीहड़ों को भी जैसे अपने लिए एक हीरो की तलाश रहती हो। गांव में दुश्मनी का सिलसिला और पुलिस और पटवारी के बीच पिसते हुए आम आदमी को चंबल से हमेशा संबल मिलता है। 
मलखान सिंह ने शुरूआत तो की गांव की दुश्मनी में अपनी जान बचाने से लेकिन जल्दी ही चंबल में लोग उसके नाम से थर्राने लगे। पुलिस के साथ आधार दर्जन मुठभेड़ों के बीच जिंदा बचा रहे मलखान सिंह को चंबल में हीरो का दर्जा हासिल हो गया। पुलिस उसके पीछे लगी रही लेकिन मळखान तो दूर की बात है उसकी परछाईं को भी पुलिस कभी छू नहीं पाई। सैकडों मुकदमों पुलिस रिकॉर्ड में दर्ज है तो ऐसे मामलों की संख्या भी कम नहीं जिसमें मलखान के खौंफ के चलते लोगो ने पुलिस में मामला दर्ज कराने की जरूरत तक महसूस नहीं की। आखिर कैसे शुरू हुआ चंबल के गांव में एक छोटे से किसान के बेटे का गांव से चंबल के दस्यु स्रमाट का ये सफर।  
चंबल के सैकड़ों- हजारों गांव में घर का पिछला दरवाजा बीहड़ों में खुलता है। चंबल में शायद ही किसी को याद हो कि घर के पीछे बीहड़ में भी एक दरवाजा खुला रखना चाहिएं। लेकिन इस दरवाजे से जाने कितने लोगो ने घर से बीहड़ का सफर तय किया। चंबल में बसे हुए दूसरे सैंकड़ों गांवों की तरह ही बिलाव। उमरी थाने का बिलाव गांव।
गांव के इस घर के ऊपर की लगी पत्थर की नेम प्लेट पर लिखा है दस्यु सम्राट मलखान सिंह। लेकिन मलखान सिंह का पुश्तैनी घर थोड़ा सा आगे की ओर है। घर के इस दरवाजे के अंदर जाने के बाद ही आप मलखान के पुश्तैनी घर में घुस पाते है। चालीस साल बाद आज भी इस घर के उस कमरे में में आप देख सकते है कि टूटा हुआ कमरा और चंबल एक दूसरे से इस तरह हिले-मिले हुए है कि जैसे एक दूसरे को अलग करना नामुमकिन हो। लेकिन इसी घर में रहने वाले 17 साल के एक लड़के मलखान सिंह ने गांव के जमींदार के खिलाफ आवाज उठाई थी। 
गांव में कैलाश पंडित का दबदबा था। खांगर ठाकुरों के कुलपुरोहित परिवार के पास गांव की ज्यादातर जमीन थी। सालों से सरपंची पर भी इसी परिवार का कब्जा था। मलखान सिंह भी गांव के ज्यादातर दूसरे लड़कों की तरह पंडित कैलाश के पास ही उठा-बैठा करता था। लेकिन कई बार वो कैलाश पंडित की बातों का सरेआम विरोध कर देता था। और ये बात कैलाश पंडित को चुभने लगी।
रिश्तों में दरार पड़नी शुरू हो गई। मलखान सिंह को मालूम नहीं था कि उसका एक छोटा सा कदम उसकी जिंदगी में बड़ा सा बदलाव कर देगा। कैलाश पंडित ने पुलिस को इशारा कर दिया। और पुलिस ने एक केस में मलखान को अंदर कर दिया। मलखान के मुताबिक पुलिस ने एक झूठा केस बनाया था।मलखान कुछ दिन बाद जमानत पर लौटा। लेकिन जमानत पर लौटे मलखान ने अब कुर्ता- पहनना शुरू कर दिया था। अब वो भरी पंचायत में कैलाश पंडित पर सवाल उठाने लगा। मामला बन गया था मंदिर की जमीन पर अवैध। सिंध नदी के किनारे बने इस मंदिर की सौ बीघा जमीन पंडित के लोग बो और काट रहे थे। लेकिन मलखान सिंह ने पंचायत में इस मंदिर की जमीन को वापस मंदिर को देने के लिए कहा। अब दरार दुश्मनी में बदल रही थी। 
पडिंत कैलाश को ये बात और नागवार गुजरी। थानेदार .....को बताया कि मलखान सिंह मशहूर डकैत गिरदारिया का सफाया करा सकता है। पुलिस ने फिर मलखान सिंह को उठा लिया। मलखान मजबूर था उसने थानेदार को झूठा सच्चा पता बताया लेकिन थानेदार को गिरदावरिया हाथ नहीं लगा तो उसने मलखान को सबक सिखाने की सोच ली। और यही से मलखान की जिंदगी दांव पर लग गई। 
मलखान सिंह मलखान एक दिन अपने घर में सो रहा था कि पुलिस पार्टी ने रेड डाली। इससे पहले कि मलखान सिंह कुछ समझ पाएं उसको पुलिस पार्टी ने अपने कब्जें में ले लिया। इसके बाद मलखान को इतना मारा कि मलखान अपने पैरों पर चल नहीं पा रहा था। घायल मलखान को इससे बड़ी चोट तब लगी जब पुलिस ने ले जाकर उसे कैलाश पंडित के पैरों में ले जा पटका। पुलिस का इरादा मलखान की कहानी को हमेशा के लिए खत्म करने का था। पुलिस और कैलाश दोनो ही इस कांटे को निकाल देना चाहते थे। लेकिन गांव वालों के सामने किसी एनकाउंटर में फंसने के डर से पुलिस थाने ले गई। 
गांव में राजनीति के चलते दुश्मनी बढ़ रही थी और मलखान की किस्मत उसे चंबल के बीहड़ों में खींच रही थी। 1970 में मलखान ने भी पंच का चुनाव जीत लिया। अब कैलाश को मलखान से सीधा खतरा होने लगा। सरपंच के चुनाव की लड़ाई में कैलाश पंडित के एक कट्टर दलित समर्थक पंच का कत्ल हो गया। पुलिस ने एक बार फिर मलखान और उसके साथी को नामजद कर दिया। और इस मामले में मलखान और उसके साथी को उम्र कैद की सजा सुना दी। और गांव में दलितों ने मलखान के गुरू जगन्नाथ उर्फ हिटलर सरेआम मार दिया। 
होली के दिन हुई इस हत्या से मलखान पूरी तरह से टूट गया। लाश पर फूट फूट कर रोते हुए मलखान ने कसम खाई कि जब तो अपने जगन्नाथ की मौत का बदला नहीं ले लेता वो होली नहीं खेलेगा। 
मलखान की जिंदगी रोज ब रोज खतरे में थी। गांव में दुश्मन मलखान को मौत के घाट उतार देना चाहते थे और मलखान रोज डर के साए में सोता था। और इसी बीच मार्च 1976 में एक रात मलखान सिंह सो रहा था कि उसके घर पर गोलियां चलने लगी। और मलखान ने चंबल के बीहड़ में कूद कर अपनी जान बचाई। 
इस घटना के बाद मलखान ने चंबल के बीहड़ को अपना भाग्य मान लिया। और दशकों से चल रही दुश्मनी का सामना करने का फैसला ले लिया। और कुछ दिन मलखान सिंह गांव में कैलाश पंडित के घर पहुंचा और चिल्ला कर कहा कि कैलाश बचों अगर बच सकते हो तो। मलखान ने अपनी स्टेनगन से गोलियों की बौछार कर दी। कैलाश पंडित को तीन गोलियां लगी और उसके साथ के आदमी के सीने में बाकि की गोलियां समा गई। 
कैलाश बच गया लेकिन पुलिस ने मलखान को मार गिराने के लिए रात दिन एक कर दिये। मलखान समझ चुका था कि अब उसके लिए समाज के रास्ते बंद हो चके है और अब चंबल ही उसका एक ठिकाना बन चुका है। पुलिस ने मलखान के गैंग को पुलिस गैंग चार्ट में नंबर दिया ई-49 यानि दुश्मन नंबर 49। और मलखान पर 1000 रूपए का इनाम भी घोषित कर दिया।
चंबल में मलखान के गैंग में सबसे पहले उसके रिश्ते के भाई और दोस्त ही शामिल हुए। हथियार हासिल करने के लिए पकड़ यानि अपहरण का रास्ता इस्तेमाल किया गया।  मलखान ने जंगल में भी धार्मिक मान्यताओं के अनुसार चलता था। पहली पकड़ का पैसा मंदिर को ठीक कराने के लिए दान कर दिया गया। 
गांव में मलखान के फरार होने पर दुश्मनों ने हार नहीं मानी। मलखान के रिश्तेदार प्रभु की हत्या कर दी गई। और पुलिस ने चंबल में नया गैंग पनपने से पहले निबटाने के लिए प्रभु की तेरहवी के दिन ही मलखान के गैंग को ठंडा करने के लिए जाल बिछा दिया। लेकिन मलखान पुलिस के इस जाल से बच निकला। 
मलखान की वारदात बढ़ रही थी तो उस पर इनाम भी बढ़ रहा था पांच महीने में मलखान के ऊपर ईनाम बढ़ाकर 5000 रूपए कर दिया गया। पुलिस हर दांव का आजमा रही थी। और इसके लिए पुलिस ने चंबल के सबसे बड़े डाकू मोहर सिंह  से पैरोल बढ़ाने के बदले मलखान का खात्मा कराने में मदद मांग ली। मोहर सिंह ने तलाश में मदद की लेकिन मलखान तक पुलिस के हाथ नहीं पहुंच पाएं।
उसी साल मलखान ने दो दलितों की हत्या कर अपने गुरू की मौत का बदला ले लिया। पुलिस ने भी मलखान को निबटाने के लिए उसके गैंग के एक सदस्य को तोड़ लिया लेकिन मलखान ने उसका भी सफाया कर दिया। पुलिस हर हथकंडा आजमा रही थी लेकिन मलखान का खौंफ चंबल में बढ़ता जा रहा था. यहां तक कि एक साल के भीतर ही मलखान का नंबर गैंग चार्ट में ई-49 से बढ़कर ए- 3 पर पहुंच गया। गैंग ने पकड़ शुरू की। लेकिन पकड़ की रकम को लेकर गैंग में बंटवारा हो गया। गैंग के पांच लोग मलखान को छोड़कर चले गए। एक डकैत बाबू गुर्जर मलखान की पसंदीदा राईफल विनचेस्टर लेकर फरार हो गया। 
मलखान गैंग डकैती से ज्यादा पकड़ करने ज्यादा जुट गया। चंबल के इलाके में मलखान का खौंफ तारी हो गया। लखनपुरा, बारपुरा जैसे गांवों से पकड़ की गई और मोटी रकम वसूली गई। इसी बीच मलखान ने अपने एक गैंग मेंबर को मुखबिरी के शक में ठिकाने लगा दिया। मलखान गैंग का हौसला बढ़ता जा रहा था और अब उन्होंने पुलिस को भी अपना निशाना बनाना शुरू कर दिया। पीएसी के एक कांस्टेबल की हत्या कर दी। इसके बाद मलखान और उसका टूटा हुआ गैंग फिर से चंबल के बीच इकट्ठा हुआ और छह साल बाद मलखान सिंह ने होली जश्न कुछ और पकड़ से रकम हासिल कर मनाया
अब मलखान अपने रंग में आ चुका था। चंबल में दस्यु सम्राट कहलाने के लिए मलखान पुलिस से सीधा एनकाउंटर करने से बाज नहीं आ रहा था। और चंबल में लालपुरा के बीहड़ों में पुलिस के साथ पहला बड़ा एनकाउंटर हुआ। घंटों तक पुलिस के साथ सीधी गोली बारी करके भी गैंग बिना किसी नुकसान के बच निकला। पुलिस समझ चुकी थी कि चंबल में एक बार फिर एक डाकू बोतल से बाहर चुका है। मलखान को ठिकाने लगाने के लिए मध्यप्रदेश और उत्तरप्रदेश की पुलिस ने पहला साझा अभियान शुरू किया। लेकिन अभियान के बीच ही मलखान गैंग पकड़ करता रहा। एक महीने के भीतर ही सिलुआ घाट में एक और बड़ा अपहरण कर गैंग ने पुलिस को सीधी चुनौती दी। और पुलिस ने फिर से मलखान को चंबल में जा घेरा। लेकिन मलखान चतुराई से अपने गैंग को लेकर झांसी जिले के समथर के जंगलों से साफ लेकर निकल गया। अब पुलिस को सिर्फ मलखान दिखाई दे रहा था और मलखान चंबल में खुला खेल खेल रहा था। 
मलखान के दुश्मन गांव छोड़ चुके थे। कैलाश पंडित का परिवार भी गांव छोड़कर शहर में पुलिस की संगीनों के साएं में अपने दिन बिता रहा था। मलखान का खौंफ पूरे चंबल में फैल रहा था। यहां तक कि चंबल के दूसरे गैंग भी अब मलखान से डरने लगे थे और मलखान को नाराज करने से बचने लगे थे। मलखान अपने गद्दार बाबू गुर्जर को नहीं भूला था और एक दिन बीहड़ में उसके गांव जा धमका। बाबू तो नहीं मिला लेकिन उसके पिता, चाचा और चचेरे भाई सहित तीन लोगो को गोलियों से भून दिया और एक भाई का अपहरण कर अपने साथ ले गया। 
चंबल मे मलखान का विश्वास हासिल करने के लिए फूलन देवी और विक्रम मल्लाह ने बाबू गुर्जर को मार गिराया। और मलखान की पसंदीदा राईफल विनचेस्टर उसको वापस कर दी। इधर अखबार में छप रहे मलखान के कारनामों से पुलिस दबाव में आ चुकी थी और उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश पुलिस ने मलखान के गैंग को खत्म करने के लिए फिर से साझा प्रयास शुरू कर दिये थे। मलखान ने चालाकी के साथ ये इलाका छोड़ दिया और वो पहुंच गया राजस्थान में। और जाते ही पकड़ का धंधा शुरू कर दिया। लेकिन पुलिस ने भरतपुर में फिर से मलखान को घेर लिया लेकिन मलखान फिर पुलिस के घेरे से निकल भागा।
इधर मलखान का खौंफ बढ़ रहा था तो पुलिस का दवाब भी बढ़ रहा था। और इसके चलते मलखान के गैंग में एक बार फिर से बंटवारा हो गया। मलखान के पांच लोग फिर से गैंग छोड़कर नए गैंग में चले गए। लेकिन मलखान इससे बेपरवाह चंबल में पकड़ से फिरौती वसूलने में लगा हुआ था। चंबल में मलखान का सिक्का बोलने लगा था अब जो भी मलखान के खिलाफ पंख फड़फड़ाता था उसको मलखान मौंत के दरवाजे  भेज देता था। इसी कड़ी में बाह में तीन डकैतों को मौत की नींद सुला दिया।
मलखान गैंग ने चंबल के हर रास्ते पर जैसे अपनी आंखें गड़ा दी हो। हर तरफ से पकड़ की खबरें पुलिस को मिल रही थी।
1.        अक्तूबर 30 को असाई से किडनैपिंग
2.        दिसंबर 22 को तीन लोगों की हत्या
3.         दिसंबर 26 को किशान की गढ़ियां से अपहरण
4.        मार्च 11 को बिनातकिपुरा से किडनैप
5.        मार्च 27 को अस्थपुरा अपहण
6.         मई 3 नवादा किडनैपिंग
7.        जून 1 तेहानगुर अपहरण
पुलिस के लिए मलखान की पहेली अबूझ होती जा रही थी। एक बार फिर से पुलिस ने मलखान के सिर पर इनाम बढ़ा कर 40,000 रूपए कर दिया। अब पुलिस ने एक बार फिर सोची समझी योजना के तरीके मलखान गैंग को घेरने के लिए चक्रानगर घेरा लगाना शुरू कर दिया। लेकिन मलखान के पर नहीं कतरे जा सके। पुलिस के लिए मलखान एक जिन्न बन चुका था और इस को ठिकाने लगाने के लिए तीन राज्यों ने पुलिस महानिरीक्षकों के नेतृत्व एक साझा कमांड बनाने का फैसला किया। लेकिन मलखान के खिलाफ पुलिस का कोई भी प्लान कामयाब नहीं हो रहा था। मलखान पुलिस की हर मूव्हमेंट का जवाब फिर कोई बड़ी पकड़ कर या फिर किसी ठिकाने लगा कर देता रहा। चंबल में मलखान चंबल का शेर कहलाने लगा लेकिन दस्यु सम्राट कहलाने के शौकिन मलखान के सीने में अभी तक बदले की आग सुलग रही थी और मलखान हर हालत में अपना बदला पूरा करना चाहता था।
चंबल में आतंक बना मलखान कैलाश पंडित को भूला नहीं था। कैलाश की तलाश में मलखान चंबल की खाक छान रहा था। लेकिन कैलाश को पुलिस ने जालौन में एक अभेद सुरक्षा कवच में रखा हुआ था। मलखान कैलाश से बदला लेने के लिए छटपटा रहा था ।मलखान सिंह की छवि एक अलग तरह के दस्यु सरगना की बन चुकी थी। चंबल के उसूलों वाले डकैतों की परंपरा के आखिरी दस्यु सम्राट कहलाना मलखान को पंसद था। चंबल की भरकों में एक किस्सा बेहद चर्चित है जिसमें कहा जाता है कि एक बार कैलाश पंडित की लड़की को गांव आते समय मलखान गिरोह के सदस्यों ने पकड़ लिया था तो उन्होंने पूरे गिरोह को फटकार लगाई थी और पैर छूने के साथ-साथ भेंट देकर लड़की को विदा किया था। 
गैंग के लोगो को भी इस बात की सख्त हिदायत दी हुई थी कि किसी भी औरत या बहू-बेटी से बदतमीजी ना हो और यदि कोई गैंग मेंबर इस तरह की किसी हरकत में शामिल होता था तो उसकी सजा सिर्फ मौत तय थी। मलखान को चंबल के गांव में हीरो की इमेज मिल चुकी थी। गांव गांव में मलखान को दद्दा के नाम से पुकारा जाने लगा था। 
बाईट मलखान सिंह की बाईट
चंबल के बीहड़ में कैलाश को मौत के घाट उतारने का संकल्प लेकर उतरे मलखान को एक दिन वो खबर मिल ही गई जिसको सुनने के लिए उसके कान सालों से तरस रहे थे। काशीराम लुहार नाम के मलखान के गैंग मेंबर ने जालौन में स्पेशल आर्म्ड पुलिस के पहरे में छिपे हुए मौत के घाट उतार दिया। 

चंबल के डाकू

चंबल के डाकू-
चंबल मध्य भारत के बीच बहती एक खूबसूरत नदी।  तीन राज्यों के बीच बहती हुई ये नदी 900 किलोमीटर का रास्ता तय करती हुई यमुना में मिल जाती है। लेकिन नदी की लंबाई से ज्यादा लंबी है इसकी कहानी। नदी के सफर से लंबा है इसके किस्सों का सफर। नदी के पानी से ज्यादा चर्चित नदी के पानी की तासीर चंबल  घाटी की कहानी देश के हर हिस्से में पढ़ी और सुनी जाती है।  चंबल की कहानी नदी के साथ दौड़ते इन टीलो और जंगली झाडियों, घने पेड़ों और गहरे गारों की कहानी है। ये चंबल है और ये चंबल की घाटी है। 
 चंबल की कहानी चंबल जितनी ही पुरानी । सत्ता से दुश्मनी का सफर नदी के सफर जितना ही पुराना है। पिंडारियों, ठगों, बागियों और डाकूओं तक का ये सफर जिनता खौंफनाक है उतना ही दर्दनाक भी है। चंबल के इन टीलों में सदियों से इंसानों की चींखें दफन है तो इनमें दफन है खूंखार, और दुर्दांत इंसानों की दास्ताने। कभी ठग, कभी पिंडारी, कभी बागी तो कभी डाकू बस नाम और गांव बदलते रहे कहानियां नहीं। कुछ लोगो को लगता है कि चंबल का पानी ही ऐसा है। 
लेकिन बात ऐसी भी नहीं है। चंबल शुरू होती है मध्यप्रदेश के मुहु जिले से। लेकिन एक लंबे रास्ते में उसके आपपास के लोगो को इसके पानी से बगावत की खाद नहीं मिलती है। जाने क्या हो जाता है इस पानी में जैसे ही ये राजस्थान के धौलपुर से घुसकर इस इलाके में बहने लगती है। पानी जैसे बगावत के तेजाब में बदल जाता है। और पानी की इस बदली तासीर की गवाही कोई एक दो दस नहीं बल्कि सदियों की कहानियां देती है। नदी के एक और राजस्थान तो दूसरी और मध्यप्रदेश। एक और मध्यप्रदेश तो दूसरी और उत्तरप्रदेश।  और इस हजारो किलोमीटर के इलाके में हर तरफ बागी और डाकूओं के किस्से। 
चंबल के इन्हीं किस्सों, कहानियों के बीच छिपे सच को सामने लाएगा न्यूज नेशन। किस्सों के बीच दर्द और दुस्साहस के किस्सों के बीच के ताने-बाने को आपके सामने लाने की कोशिश करता है।
मानसिंह, डोंगर, बटरी , रूपा महाराज, लोकमन दीक्षित उर्फ लुक्का, लाखन, अमृतलाल , मोहर सिंह, मलखान सिंह और ......और ... और । ये एक अतंहीन फेहरिस्त है। जो कहां से शुरू होती है और कहां खत्म होगी ठीक से कोई नहीं बता सकता है। चंबल की रूखी पहा़डियों में बंदूकों और बारूद की गंध के बीच में सिर्फ आदमियों की क्रूरता के किस्से ही नहीं है बल्कि इसकी घाटियों ने महिला डकैतों की एक परंपरा देखी है। बागियों के दलो में भले ही किसी महिला को शामिल न किया जाता हो लेकिन चंबल में एक ऐसी प्रेम कहानी भी पनपी जिससे जनमी चंबल के किस्सों की सबसे पहली महिला डाकू पुतलीबाई। और एक हाथ से निशाना लगाने में मशहूर पुतलीबाई से चंबल में गूंजी महिला डकैतों की बंदूकों को फूलन, कुसुमा नाईन, और सीमा परिहार जैसी महिला डकैतों ने संभाले रखा।
चंबल की कहानी पुराणों में महाभारत काल तक पहुंचती है। तो इतिहास में पृथ्वीराज चौहान के शासन में पनपे इस इलाके के बागियों तक जाती है।। सदियों तक इस इलाके से गुजरने वाले यात्रियों को पिंडारियों और ठगो ने मौत बांटी है।  ठगो ने अपने आतंक से इस इलाके को इतना दहला दिया था कि अंग्रेजों ने बाकायदा आदेश जारी कर दिया था कि गिरफ्तार किए गए ठग को उसी के गांव में सरेआम फांसी दे दी जाए और उसके परिवार को गुलाम बना लिया जाए। 
ठगों की कहानी तो ब्रिटिश राज में ही खत्म हो गई लेकिन ठगो की जगह चंबल के बीहड़ो में एक नया शब्द गूंजने लगा और ये शब्द था बागी। 19वीं सदी से चंबल में बागियों की बंदूकें गरजने लगी।  और बागियों से शुरू हुआ सफर चंबल के मौजूदा डाकूओं तक जा पहुंचा। लेकिन सफर के साथ किस्सों में दिलचस्पी बढती जाती है। चंबल का ये सफर इतना किस्सागोई से भरा है कि कई बार किस्सों और हकीकत में अंतर करना मुश्किल हो जाता है।