बचपन में दोस्तों के बीच लडाई होने पर भी ग्रुप के बाकि दोस्तों को अपनी लाईन लेनी होती थी। और जिसका साथ देना होता था उसको गरियाना शुरू किया जाता था। उधर दोनों के बीच वाद-विवाद बढ़ते बढ़ते हाथापाई में बदल जाता था। और ऐसे ही वक्त जिस को पिटवाना होता था उसको हाथों में बांध कर बार बार कहा जाता था कि लड़ना नहीं है उधर जिसके हाथ पिटवाना होता था उसके हाथ खुले होते थे। ऐसे में वो दूसरे दोस्त का मुंह अपने घूंसों से लाल कर देता था। बाद में काफी देर बाद पिटने वालें को अपने साथियों की हकीकत समझ में आती थी लेकिन उस वक्त किया क्या जा सकता था। ये कहानी आजकर मुलायम सिंह के कुनबें में दोहराई जा रही है। मुलायम सिंह के इशारे साफ है, शिवपाल सिंह के हाथ बांधे हुए है और उधर अखिलेश यादव वार पर वार किए जा रहे है। शिवपाल की समझ में अभी आ ही नहीं रहा है कि मुलायम उनका साथ दे रहे है या उनका सफाया कर रहे है। प्रेस क्रांफ्रैंस में बेचारे बड़ी उम्मीद से भाई मुलायम सिंह के साथ आएं थे कि भाई कुछ बड़ा ऐलान करेंगे। भाई मुलायम सिंह ने साफ कहा कि पत्रकारों की बात सुन रहे है मुख्यमंत्री उनको लेना होगा तो ले लेंगे नहीं लेना तो उनकी मर्जी शिवपाल सिंह ने तो मंत्री पद की मांग नहीं की है।
अखिलेश यादव पिछले चार साल से सरकार का चेहरा है। एनसीआर में रहने वाले जब भी अपने घर के लिए निकलते है या फिर घर से निकलते है तो उनके एफएम पर युवा मुख्यमंत्री का इतना गुणगान होता है कि कान कान नहीं रह जाते। राज्य के हर शहर और चौराहों पर मुख्यमंत्री के मुस्कुराते हुए फोटों आपका पीछा नहीं छोड़ते है। हर तरफ युवा नेतृत्व का शोर है। ऐसे में फिर ये कहानी कहां से पैदा हो गई कि मुख्यमंत्री को काम ही नहीं करने दिया गया। चेहरा मुख्यमंत्री ही थे और है। पूरी ताकत उनके पास थी और है।
ऐसे में अगर चुनाव में पार्टी हारती( इस ड्रामें को हटा दे तब कि स्थिति) तब हारे हुए कार्यकर्ताओं को हमेशा कि तरह ( हर हारने वाली पार्टी का ये यक्ष प्रश्न होता है) एक सिर चाहिए था जिससे फुटबाल खेलकर वो अपनी हार का गम भूल सके और अगले पांच साल बाद की उम्मीद बनाएं रखे। इस सारे खेल में अखिलेश के अलावा किसी का चेहरा पार्टी के सामने नहीं था, लिहाजा सारी बंदूकों के निशाने पर पार्टी के सबसे उजले चेहरे अखिलेश यादव होते। तब कार्यकर्ताओं की आलोचनाओं का निशाना उन्हीं को बनना था। लेकिन अब कार्यकर्ताओं के सामने अगर हार होती है तो एक खलनायक पेश कर दिया गया है। पार्टी क्यों हारी क्योंकि शिवपाल सिंह ने हल्ला कर दिया। जिस भाई ने पार्टी खड़ी की उसी को पार्टी के भविष्य की नींव बना दिया गया है।
मुलायम सिंह की राजनीतिक समझ आज भी इस देश के चंद राजनीतिज्ञों से बेहद महीन है और उन हजारों पत्रकारों से सौ गुना बेहतर जो कुछ नेताओं के पास बैठकर उत्तरप्रदेश को आंवला मानकर भविष्य बांचने लगते है। इसीलिए इस नाटक को जिस तरह लिखा गया उसमें शिवपाल आखिर तक समझने की हालत में नहीं रहे।
इस वक्त कार्यकर्ताओं के लिए सबसे बड़ा नाम अखिलेश यादव है। विधायक उनके साथ है। आम कार्यकर्ता उनके साथ है। और मुख्यमंत्री पद उनके पास है। ऐसे में शिवपाल से पास क्या है। शिवपाल को आम पार्टी कार्यकर्ताओं की नजर में खलनायक के तौर पर बदलने में मुलायम सिंह के ज्यादा किसी का हाथ नहीं है।
गजब की स्क्रिप्ट है। मुलायम सिंह अपने साथ बैठाएं हुए है शिवपाल सिंह को, पार्टी को अपनी बता रहे है, घर को अपना बता रहे है, अखिलेश की कोई हैसियत नहीं बता रहे है, लेकिन शिवपाल को कुछ दे नहीं रहे है। अगर किसी ने यूपी बोर्ड से पढ़ाई की है तो उसको एक कहानी वसीयत याद कर लेनी चाहिएं। जिसमें पंडित जी पूरे परिवार को गालियां देते है लेकिन लाखों रूपए देते है। घर,मकान और जायदाद देते है सिर्फ एक दामाद और अपनी बेटी की इतनी तारीफ करते है और जब उनके देने के नाम के कॉलम में सिर्फ आशीर्वाद निकलता है। माल तो जिनको गालियां दे रहे थे उनको सौंप दिया गया। इस मामले मेें वो कहानी पूरी तरह से याद आ रही है।
मुलायम सिंह यादव की तरफदारी पर शिवपाल सिंह सवाल भी नहीं कर सकते। और शिवपाल सिंह अपना दर्द बता भी नहीं सकते। दांव इतना महीन कि शिवपाल सिंह और उनके समर्थक भी कह रहे है कि नेताजी के खिलाफ कुछ सुना नहीं जाएंगा और अखिलेश भी कह रहे है कि नेताजी के खिलाफ कुछ सुना नहीं जाएंगा।
रही बात रामगोपाल सिंह की। दांव तो अच्छा चला रामगोपाल यादव ने लेकिन मुलायम के चरखा दांव के सामने कुछ नहीं। मुलायम सिंह की राजनीति की सबसे खास बात है मौके का चुनाव। रामगोपाल ने अखिलेश का साथ देकर अपने आप को भविष्य के समीकरण मेे अपने को फिट करने की कोशिश की थी लेकिन मुलायम तो भविष्य पर ही दांव लगा रहे है लिहाजा एक ही झटके में उनको ठिकाने लगा दिया। क्योंकि मुलायम जानते है कि चेहरा और भविष्य जरूर अखिलेश है लेकिन आज शिवपाल पॉवर शेयर कर रहे है तो कल रामगोपाल करेंगे लिहाजा 2022 का फैसला लेने के लिए आज ही दांव चल दिया है।
मुलायम सिंह की राजनीतक समझ पर लोगों को शक हो वो हाल ही में बिहार चुनाव के वक्त बनाए गए मोर्चे की हालत देख ले। उससे थोड़़ा पहले जाएं तो उनको मुलायम सिंह के घऱ में राष्ट्रपति के लिए उनका समर्थन लेने पहुंची ममता बनर्जी और देवेगौड़ा का चेहरा तो याद होगा। उससे पहले वामंपथियों ने न्यूक्लियर डील पर मुलायम सिंह का लौहा देखा था, सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री पद तक पहुंचने से पहले का मुलायम दांव भी कांग्रेसियों को याद होगा। उससे पहले जाने वाले भी मायावती सरकार और उससे पहले वीपी सिंह का प्रकरण काफी लंबी कहानी है। लेकिन मैं एक बात आपको माननी होगी कि मुलायम सिंह को समझना आसान नहीं है। हालांकि दांव को लेकर आप रिसर्च कर सकते है लेकिन अखाड़ें में तो उसकी मास्टरी मुलायम सिंह के पास ही है। चरखा बना दिया सबकों अपने चरखा दांव से।
No comments:
Post a Comment