अन्ना के रामलीला ग्राउंड पर किये गये अनशन के बाद पहली बार दिल्ली वोट कर रही है। इस वोट और अनशन दोनो के बीच यमुना में पानी बहा या नहीं, बता नहीं सकते है क्योंकि यमुना अब दुनिया के नक्शे पर नाम के लिये नदी है - असलियत में वो नाला ज्यादा है। कहने का मतलब है कि वक्त काफी बदल गया। आज अन्ना के अर्जुन यानि अरविंद उनके साथ नहीं है। अन्ना चैनलों की उपेक्षा से क्रोधित होकर कोप भवन में बैठे है लेकिन उनके पास कोई शिष्य नहीं है जो कैमरों को उनकी ओर कर सके और उनको योग करने से लेकर सोने जाने तक टीवी पर दिखाता रहे। और ना ऐसा शिष्य जो उनके बागी अर्जुन को नाथ सके। अन्ना की नयी टोली में है अपनी हरकतों से हारा जनरल-दलाली की परंपरा में पारंगत संपादक और ना मालूम इरादों के साथ घूम रहे दर्जन भर लोग। कभी-कभी स्टूडियों में बैठे ऐंकरों के पीछे की ताकत यानि प्रोड्यूसर को याद आता है अरविंद केजरीवाल के खिलाफ कोई बाईट चाहिये तो मसाले के तौर पर उनके स्ट्रिंगर एक औसत प्रतिभा के इस गांधीवादी की बाईट भेज देता है और वो पैकेज में लग जाती है। अन्ना की बाईट हैडलाईंस नहीं रही। चमत्कार की उम्मीद करने वाले भ्रष्ट्र नौकरीपेशा लोग हालात पर अपना ज्ञान और ऑफिस में कामचोरी के लिये की जाने वाली बहस में अन्ना का नाम नहीं उछालते है। गुजरा जमाना हो गया है। लगता है इतिहास ने इस पन्ने को कुछ ज्यादा तेजी से अपने आगोश में समेट लिया है।
लेकिन बात अन्ना के अर्जुन की। ऐतिहासिक परंपरा में अरविंद केजरीवाल किसी तरह से अन्ना के अर्जुन का दावा नहीं कर सकते है। लेकिन साईबर ऐज है। सीरियल्स में जैसा है वैसा अर्जुन तो आप उनको कह ही सकते है। कुछ हजार मोबाईल सदी का सबसे बडा व्यक्ति करार दे सकते है। अरविंद में भी काफी बदलाव आ गया है। अब वो अपनी आरटीआई छपवाने के लिये किसी पत्रकार की चिरौरी के मोहताज नहीं है। परिवर्तन हुआ है लेकिन उनकी परिवर्तन संस्था कहां गई शायद उनको भी मालूम नहीं होगा। पहचान के लिये आरटीआई लगा कर उसे छपवाने की जरूरत नहीं। अभी एक चैनल की पत्रकार ने फोन किया इंटरव्यू के लिये तो अरविंद का जवाब कुछ यूं था कि मैं आपके एडिटर से बात करूंगा। बात सही अरविंद टीवी का ब्रांड है। अरविंद ने दिल्ली की राजनीति का वैक्यूम भरा है। दिल्ली में कभी भी तीसरा मोर्चा नहीं था। लूट का बंटवारा शांतिप्रियता से हो रहा था। हां लूट को बांटने की जिम्मेदारी कभी पंजे के पास होती है तो कभी कमल के पास। अरविंद की कई बातों का मैं शैंदाई हूं। एक तो वो किसी औपचारिकता की निशानी नहीं ओढ़ते है। वो बोलते है शीला ऐसा बोलती है। शीला ये कहती है। शीला ने लूटा है दिल्ली को। सीधा संवाद जनता से। उनकी रैलियों की एक विशेषता है कि वो तिरंगें से पटी होती है। ये काफी खूबसूरत लगता है टीवी पर लहरते हुए। आखिरकार हॉलीवुड की फिल्मों की हिंदी कॉपियों में या फिर घर में लगे चैनल्स के सहारे जनता जानती है देश का झंडा भावुक कर देता है थोड़ी देर के लिये।
बात बहुत लंबी हो रही है। वापस पहुंचते है कि क्या हो सकता है इस चुनाव में। अरविंद सरकार बना सकते है या नहीं। कुछ लाईनें अरविंद के नाम पर। उनकी पत्नी अभी भी उसी करप्ट सिस्ट्म में काम कर रही है और बकौल अरविंद उस पोजिशन पर रह कर कोई भी आदमी करोड़ों बना रहा है। मतलब कि उनकी पत्नी करोड़ों बना रही होगी। ये कोई मैं आरोप नहीं लगा रहा हूं अरविंद के बयान के साथ एक अंदाज लगा रहा हूं। बच्चें उसी स्कूल में शिक्षा पा रहे होंगे जिसमें अरविंद के नौकरी छोडने से पहले से पा रहे होंगे। और शायद वही गाड़ी घोड़ा और घर होगा जिसमें अरविंद पहले से रह रहे है। यानि कम शब्दों में अरविंद के रहन सहन में इस आंदोलन ने कोई फर्क नहीं डाला है जो पूरे देश के भविष्य में और वर्तमान में फर्क पैदा करने वाला है। चलिये ये तो व्यक्तिगत आक्षेप हो सकते है।
टीवी चैनलों में कई मैनेजिंग एडीटर्स के अगर आप जंतर-मंतर और रामलीला मैदान के लाईव्स निकलवा कर देंखें तो आपको ये मालूम हो जायेंगा कि झूठ और मक्कारी भी कैसे पद का ताकत के साथ ज्ञान में बदल जाती है। उस वक्त की आंधी और क्रांति अब की राजनीतिक बयार में बदल गयी है। काफी जल्दी है अरविंद को। और काफी कुछ जल्दी है टीवी चैनल्स के इन बुद्धिमानों को। क्योंकि बुलेटिन बदलता है तो खबर बदलती है और पद बदलता है तो औकात बदल जाती है। अरविंद को काफी कुछ बदलना है। दिल्ली की किसी भी विधानसभा को जीतने के लिये 30,000 से ज्यादा वोट चाहिये। क्या अरविंद के बदलाव की परिभाषा लोगों को इतना दुरूस्त लग रही है कि वो अपने जिच तोड़कर आप पार्टी का वोटों का बक्सा भर देंगे।
अगर हम देंखें तो अरविंद के सपोर्ट बेस में दो किस्म के लोग है। एक वो लोग जो सोशल मीडिया पर इस क्रांत्रि को रात दिन जिलाये हुए है। कॉल सेंटर से लेकर मल्टीनेशनल कंपनियों में काम कर रहे ये युवा काफी ज्यादा प्रभावित है अरविंद के क्रांत्रि रूप से। और अरविंद का तमाम करिश्माई व्यक्तित्व इन युवा मेधावों की कारगुजारियों पर टिका है चाहे वो दिल्ली के सबसे काबिल मुख्यमंत्री होने वाले हो या फिर सदी के देश के सबसे बड़ी प्रतिभा। सवाल ये है क्या ये वोट देते है। क्या कॉल सेंटर से एक दिन की छुट्टी लेकर वो इस क्रांत्रि को कार्यरूप देने की गुजाईँस में होंगे। अभी तक का अनुभव कहता है कि नहीं। इसके साथ साथ एक बड़ा तबका ऐसा भी है जो अन्ना के नाराज होने से काफी नाराज भी है। ऐसे में वोट बूथ को उनकी तलाश रहेंगी।
अरविंद समर्थकों को दूसरा तबका है आर्थिक रूप से कमजोर लोगों का जैसे ऑटोवाले या झुग्गी बस्तियों का। अरविंद के बिजली और पानी जैसे मुद्दों पर सबसे ज्यादा समर्थन इसी समूह का है। लेकिन इस समूह के लिये एक दिन की आमदनी बड़ी अहम है। और अगर एक दिन की मजदूरी उनको घर मिल जाती है तो कई लोग बूथ तक जाने में बदल सकते है। अब इस समूह में कितना कमिटमेंट पैदा कर पाये है अरविंद ये देखना इस इलेक्शन का सबसे रोचक क्षण होगा। लेकिन सबसे ज्यादा अरविंद की चर्चा करने वाला वर्ग है मध्यम वर्ग। टीवी चैनल्स पर आने वाले विज्ञापनों का सबसे बड़ा खरीददार अपने सपनों के लिये सबसे ज्यादा सौदें और समझौते करने वाला वर्ग। भ्रष्ट्राचार से नाराज औऱ पूरी तरस उसमें डूबा ये वर्ग अनीति पर चलो और नीति पर बहस बनाये रखों का मंत्र हमेशा अपनी जेब में रखता है। समाज में इस वक्त सबसे ज्यादा मुखर और सबसे ज्यादा संघर्षरत इस वर्ग के वोटरों के टैक्स से ज्यादातर देश चलता है। केजरीवाल की शुरूआती अपील इसी वर्ग को माफिक आती है लेकिन पिछले कुछ दिनों से इस वर्ग को अरविंद में नहीं नरेन्द्र मोदी में मसीहा दिख रहा है। दोनों की रैलियों में भीड़ का अंतर दिख सकता है। खैर हम अरविंद की रैली की भीड़ की किसी भी राजनेता की रैली से तुलना कर नहीं सकते है क्योंकि अरविंद क्रांत्रि का आगाज कर रहे है औऱ राजनेता अपनी राजनीति।
आखिर में लगता है कि 8 तारीख को जब वोट बक्से से सपने आकंडों की शक्ल में निकलेंगे तो लगता है कि अरविंद को सत्ता की मछली हाथ से फिसली मिलेंगी। बदलाव की भाषा तो उनकी जंतर-मंतर पर अन्ना से निकलते ही बदल गयी थी। कभी अरविंद को लगता था कि अन्ना अगर कहेंगे तो वो पार्टी नहीं बनायेंगे। लेकिन पार्टी बनी फिर सत्ता के लिये तमाम टोटके किये। हर चीज लगातार उन्हें राजनीति की कीचड़ में लपेटती रही।
अगर अरविंद ने बाकी सभी पार्टियों किसी को परिवार पर टिकी तो किसी को तानाशाही पर चलता हुआ करार दिया तो आप आम आदमी पार्टी का हाल भी देख सकते है। सारी ताकत के हकदार है अरविंद केजरीवाल, उनके समर्थकों की नजर में कोई दूसरा आदमी कागज के एक रद्दी टुकड़े से ज्यादा कुछ भी नहीं है। सारे नारों का हाल अरविंद केजरीवाल। मुख्यमंत्री पद का हकदार अरविंद केजरीवाल। स्वराज किताब का लेखक अरविेंद केजरीवाल। हर पोस्टर का चेहरा अरविंद केजरीवाल। लोग इस बात पर नाराज हो सकते है कि दूसरी पार्टी के नेताओं के बारे में कुछ नहीं सिर्फ अरविंद पर टिप्पणी लेकिन इसका कारण है कि सबको गाली देना अरविंद का शगल है और वो सबसे उजली कमीज बता कर बदलाव का नारा बुलंद कर रहे है। लेकिन अरविंद को उस दलाल पत्रकार को धन्यवाद देना चाहिये जिसने दलाली खायी और काम भी ठीक से नहीं किया। फर्जी स्टिंग्स का पर्दा जल्दी ही फट गया और अरविंद के इस आरोप को कि राजनीतिक पार्टियां उसके खिलाफ साजिश कर रही है थो़ड़ी सी विश्वसनीयता दे दी है।
चुनाव में अरविंद की पार्टी को अगर दो सीटों पर अपनी जमानत बचाने में कामयाबी हाथ लगी तो ये एक ऐसी पार्टी की बड़ी सफलता होगी जो सड़कछाप जुमलों और नारों के साथ इतना सफर इतनी जल्दी कर पायी। हालांकि अपना आकलन है कि इस पार्टी को कोई सीट नहीं मिल रही है और कहीं जमानत भी नहीं बच पायेगी। क्योंकि इतिहास को जितनी जल्दी अरविंद को अपने किताब में एक पन्ना देने की है उससे कही ज्यादा जल्दी अरविंद को इतिहास को कूड़ेदान में फेंक देने की है।
तो अपना आकलन यही है कि दोस्तों इस चुनाव के बाद अन्ना को उनका अर्जुन वापस मिल जायेगा। उसकी जुबान के तरकश के तीर भोथरे हो चुके होंगे। उसके साथ जुटी भीड तब तक नये नारों की तलाश में कहीं ओर जा चुकी होगी।
अन्ना, अरविंद और जनलोकपाल आंदोलन पर ब्लॉगर का पिछला पोस्ट पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें - और वो दिन आ ही गया
लेकिन बात अन्ना के अर्जुन की। ऐतिहासिक परंपरा में अरविंद केजरीवाल किसी तरह से अन्ना के अर्जुन का दावा नहीं कर सकते है। लेकिन साईबर ऐज है। सीरियल्स में जैसा है वैसा अर्जुन तो आप उनको कह ही सकते है। कुछ हजार मोबाईल सदी का सबसे बडा व्यक्ति करार दे सकते है। अरविंद में भी काफी बदलाव आ गया है। अब वो अपनी आरटीआई छपवाने के लिये किसी पत्रकार की चिरौरी के मोहताज नहीं है। परिवर्तन हुआ है लेकिन उनकी परिवर्तन संस्था कहां गई शायद उनको भी मालूम नहीं होगा। पहचान के लिये आरटीआई लगा कर उसे छपवाने की जरूरत नहीं। अभी एक चैनल की पत्रकार ने फोन किया इंटरव्यू के लिये तो अरविंद का जवाब कुछ यूं था कि मैं आपके एडिटर से बात करूंगा। बात सही अरविंद टीवी का ब्रांड है। अरविंद ने दिल्ली की राजनीति का वैक्यूम भरा है। दिल्ली में कभी भी तीसरा मोर्चा नहीं था। लूट का बंटवारा शांतिप्रियता से हो रहा था। हां लूट को बांटने की जिम्मेदारी कभी पंजे के पास होती है तो कभी कमल के पास। अरविंद की कई बातों का मैं शैंदाई हूं। एक तो वो किसी औपचारिकता की निशानी नहीं ओढ़ते है। वो बोलते है शीला ऐसा बोलती है। शीला ये कहती है। शीला ने लूटा है दिल्ली को। सीधा संवाद जनता से। उनकी रैलियों की एक विशेषता है कि वो तिरंगें से पटी होती है। ये काफी खूबसूरत लगता है टीवी पर लहरते हुए। आखिरकार हॉलीवुड की फिल्मों की हिंदी कॉपियों में या फिर घर में लगे चैनल्स के सहारे जनता जानती है देश का झंडा भावुक कर देता है थोड़ी देर के लिये।
बात बहुत लंबी हो रही है। वापस पहुंचते है कि क्या हो सकता है इस चुनाव में। अरविंद सरकार बना सकते है या नहीं। कुछ लाईनें अरविंद के नाम पर। उनकी पत्नी अभी भी उसी करप्ट सिस्ट्म में काम कर रही है और बकौल अरविंद उस पोजिशन पर रह कर कोई भी आदमी करोड़ों बना रहा है। मतलब कि उनकी पत्नी करोड़ों बना रही होगी। ये कोई मैं आरोप नहीं लगा रहा हूं अरविंद के बयान के साथ एक अंदाज लगा रहा हूं। बच्चें उसी स्कूल में शिक्षा पा रहे होंगे जिसमें अरविंद के नौकरी छोडने से पहले से पा रहे होंगे। और शायद वही गाड़ी घोड़ा और घर होगा जिसमें अरविंद पहले से रह रहे है। यानि कम शब्दों में अरविंद के रहन सहन में इस आंदोलन ने कोई फर्क नहीं डाला है जो पूरे देश के भविष्य में और वर्तमान में फर्क पैदा करने वाला है। चलिये ये तो व्यक्तिगत आक्षेप हो सकते है।
टीवी चैनलों में कई मैनेजिंग एडीटर्स के अगर आप जंतर-मंतर और रामलीला मैदान के लाईव्स निकलवा कर देंखें तो आपको ये मालूम हो जायेंगा कि झूठ और मक्कारी भी कैसे पद का ताकत के साथ ज्ञान में बदल जाती है। उस वक्त की आंधी और क्रांति अब की राजनीतिक बयार में बदल गयी है। काफी जल्दी है अरविंद को। और काफी कुछ जल्दी है टीवी चैनल्स के इन बुद्धिमानों को। क्योंकि बुलेटिन बदलता है तो खबर बदलती है और पद बदलता है तो औकात बदल जाती है। अरविंद को काफी कुछ बदलना है। दिल्ली की किसी भी विधानसभा को जीतने के लिये 30,000 से ज्यादा वोट चाहिये। क्या अरविंद के बदलाव की परिभाषा लोगों को इतना दुरूस्त लग रही है कि वो अपने जिच तोड़कर आप पार्टी का वोटों का बक्सा भर देंगे।
अगर हम देंखें तो अरविंद के सपोर्ट बेस में दो किस्म के लोग है। एक वो लोग जो सोशल मीडिया पर इस क्रांत्रि को रात दिन जिलाये हुए है। कॉल सेंटर से लेकर मल्टीनेशनल कंपनियों में काम कर रहे ये युवा काफी ज्यादा प्रभावित है अरविंद के क्रांत्रि रूप से। और अरविंद का तमाम करिश्माई व्यक्तित्व इन युवा मेधावों की कारगुजारियों पर टिका है चाहे वो दिल्ली के सबसे काबिल मुख्यमंत्री होने वाले हो या फिर सदी के देश के सबसे बड़ी प्रतिभा। सवाल ये है क्या ये वोट देते है। क्या कॉल सेंटर से एक दिन की छुट्टी लेकर वो इस क्रांत्रि को कार्यरूप देने की गुजाईँस में होंगे। अभी तक का अनुभव कहता है कि नहीं। इसके साथ साथ एक बड़ा तबका ऐसा भी है जो अन्ना के नाराज होने से काफी नाराज भी है। ऐसे में वोट बूथ को उनकी तलाश रहेंगी।
अरविंद समर्थकों को दूसरा तबका है आर्थिक रूप से कमजोर लोगों का जैसे ऑटोवाले या झुग्गी बस्तियों का। अरविंद के बिजली और पानी जैसे मुद्दों पर सबसे ज्यादा समर्थन इसी समूह का है। लेकिन इस समूह के लिये एक दिन की आमदनी बड़ी अहम है। और अगर एक दिन की मजदूरी उनको घर मिल जाती है तो कई लोग बूथ तक जाने में बदल सकते है। अब इस समूह में कितना कमिटमेंट पैदा कर पाये है अरविंद ये देखना इस इलेक्शन का सबसे रोचक क्षण होगा। लेकिन सबसे ज्यादा अरविंद की चर्चा करने वाला वर्ग है मध्यम वर्ग। टीवी चैनल्स पर आने वाले विज्ञापनों का सबसे बड़ा खरीददार अपने सपनों के लिये सबसे ज्यादा सौदें और समझौते करने वाला वर्ग। भ्रष्ट्राचार से नाराज औऱ पूरी तरस उसमें डूबा ये वर्ग अनीति पर चलो और नीति पर बहस बनाये रखों का मंत्र हमेशा अपनी जेब में रखता है। समाज में इस वक्त सबसे ज्यादा मुखर और सबसे ज्यादा संघर्षरत इस वर्ग के वोटरों के टैक्स से ज्यादातर देश चलता है। केजरीवाल की शुरूआती अपील इसी वर्ग को माफिक आती है लेकिन पिछले कुछ दिनों से इस वर्ग को अरविंद में नहीं नरेन्द्र मोदी में मसीहा दिख रहा है। दोनों की रैलियों में भीड़ का अंतर दिख सकता है। खैर हम अरविंद की रैली की भीड़ की किसी भी राजनेता की रैली से तुलना कर नहीं सकते है क्योंकि अरविंद क्रांत्रि का आगाज कर रहे है औऱ राजनेता अपनी राजनीति।
आखिर में लगता है कि 8 तारीख को जब वोट बक्से से सपने आकंडों की शक्ल में निकलेंगे तो लगता है कि अरविंद को सत्ता की मछली हाथ से फिसली मिलेंगी। बदलाव की भाषा तो उनकी जंतर-मंतर पर अन्ना से निकलते ही बदल गयी थी। कभी अरविंद को लगता था कि अन्ना अगर कहेंगे तो वो पार्टी नहीं बनायेंगे। लेकिन पार्टी बनी फिर सत्ता के लिये तमाम टोटके किये। हर चीज लगातार उन्हें राजनीति की कीचड़ में लपेटती रही।
अगर अरविंद ने बाकी सभी पार्टियों किसी को परिवार पर टिकी तो किसी को तानाशाही पर चलता हुआ करार दिया तो आप आम आदमी पार्टी का हाल भी देख सकते है। सारी ताकत के हकदार है अरविंद केजरीवाल, उनके समर्थकों की नजर में कोई दूसरा आदमी कागज के एक रद्दी टुकड़े से ज्यादा कुछ भी नहीं है। सारे नारों का हाल अरविंद केजरीवाल। मुख्यमंत्री पद का हकदार अरविंद केजरीवाल। स्वराज किताब का लेखक अरविेंद केजरीवाल। हर पोस्टर का चेहरा अरविंद केजरीवाल। लोग इस बात पर नाराज हो सकते है कि दूसरी पार्टी के नेताओं के बारे में कुछ नहीं सिर्फ अरविंद पर टिप्पणी लेकिन इसका कारण है कि सबको गाली देना अरविंद का शगल है और वो सबसे उजली कमीज बता कर बदलाव का नारा बुलंद कर रहे है। लेकिन अरविंद को उस दलाल पत्रकार को धन्यवाद देना चाहिये जिसने दलाली खायी और काम भी ठीक से नहीं किया। फर्जी स्टिंग्स का पर्दा जल्दी ही फट गया और अरविंद के इस आरोप को कि राजनीतिक पार्टियां उसके खिलाफ साजिश कर रही है थो़ड़ी सी विश्वसनीयता दे दी है।
चुनाव में अरविंद की पार्टी को अगर दो सीटों पर अपनी जमानत बचाने में कामयाबी हाथ लगी तो ये एक ऐसी पार्टी की बड़ी सफलता होगी जो सड़कछाप जुमलों और नारों के साथ इतना सफर इतनी जल्दी कर पायी। हालांकि अपना आकलन है कि इस पार्टी को कोई सीट नहीं मिल रही है और कहीं जमानत भी नहीं बच पायेगी। क्योंकि इतिहास को जितनी जल्दी अरविंद को अपने किताब में एक पन्ना देने की है उससे कही ज्यादा जल्दी अरविंद को इतिहास को कूड़ेदान में फेंक देने की है।
तो अपना आकलन यही है कि दोस्तों इस चुनाव के बाद अन्ना को उनका अर्जुन वापस मिल जायेगा। उसकी जुबान के तरकश के तीर भोथरे हो चुके होंगे। उसके साथ जुटी भीड तब तक नये नारों की तलाश में कहीं ओर जा चुकी होगी।
अन्ना, अरविंद और जनलोकपाल आंदोलन पर ब्लॉगर का पिछला पोस्ट पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें - और वो दिन आ ही गया
15 comments:
mujhe lagta hai is lekh ko likhne wale kalpanik duniya me jee rahe hai...ye to wakt batayega ki result kya aata hai... writer ke rukh se to yahi lagta hai ki jis parliament ne anna ko bharosha diya ki jan lokpal layenge wo sahi hai kyoki anna ko dubara anshan ki jaroorat pari... mujhe lagta hai aapki is post per koi comment karana bhi jaroori nahi samjhta...
kis kalpanik duniya me ji rahe hain lekhak babu....khair 8 tarikh ko bhi kuch lekh likhiyega, par 30 nov ki modi ji ki rally ke baad ek baat to aap bhi maan hi rahe honge ki Anna ke prati AAP ko chod kar har ek party ko badi hamdardi hai, arvind ne to maan liya unke kehne par ki unka naam istemal nahi karenge janlokpal bolne me, par baki kab manenge...
Article seems like BJP propaganda, why don't you write something on Modi who terminated lokayukta, why Kejriwal, who says he will bring powerful lokayukta for which Anna went on anshan... Never knew Anna's supporters have so much ego and their ego and lust for popularity will be above their goal and nation
Mr writer,aap sirf so called intellectual bnne ka natak kr rhe h...coz ye ek trend h ki jo chal rha h usk against bolo jo limelight mein...mera b ek cousin h aap hi ki tarah ka..hungry fr fame...aap mein jra b dimag hota to har taraf ki burai krne ki jagah kuch kaam ka likhte..mr pessimistic
Such a bullshit article. I wasted my time reading this. People like you are living in a world of false promises and dreams. People like you are incapable of doing anything than corruption. Goodluck
mr.lekhak aapne jo bio likha h usse swam bhi pad le aisa lagta h ki sabhi log aapki tarah egoistic h. kisi ke uppar kichad uchal ke ya kisi ko nicha dikha ke aap ki lekheni aur samajh mei koi izafa nhi hone walla apito aisa lagta h aap bhot hi sankid vichar dhara wale admi h....
bhai saheb ye jo aapne likha hain iske liye BJP walo ne kitne paise dalali me diye hain. ARVIND KEJRIWAL hare ya jite uski koi chinta nhi hain mughe magar ek bat kahunga wo delhi hi nhi pure desh ki jarurat hain.pahle trend tha congress aur bjp batchut kar desh ka khajana kha ja rahe the aur jo bachta tha wo choti moti party congress or bjp se mil kar kha jati thi.ab kejriwal ji ke rajnitik me aane se sabhi ko patla paikhana ho raha hain.
The writer has a clarity of thought, people may agree or not agree with him, but he surely gives a perspective and also adds analysis to support his claims.
For people who are abusing him on the blog, i request that if you have a different view, you too write an article instead of questioning the writer's motives.
Good piece !
dear aapne achchi tarah se AAP ko analyse kiya hai.Aapki kaafi baaton se mai sehmat hoon.
Lekin ek baat hai ki agar kejriwal ji ne Anna andolan ke baad apni party banai , yaani agar unki political aspiration thee ya wo wakai corruption ko mitana chahtein hai, to ye baat bhi sahi hai ki bina satta mai aaye ye possible nahi hai. mujhe unke party banane mai koi burai nazar nahi aati.
Dusri baat rahi unki party ke jeetne ke asaar kya hain. Yahan mai apse ittifaaq rakhat hoon ke AAP ko support karna ek thoda fashion ban gaya hai, apne aap ko alag dikhane ka, social media mai thoda highlight hone ka.
Ek baat aur aapne sahi kahi ki iss party (AAP) ka daaromadar bhi bhi sirf kejriwal ji par hee hai. wo bhi BSP or SP ki tarah apni party mai doosre neta ka kad badhne nahi dete.Kejriwal ji ko khud limelight chahiye, media attaraction chahiye.
Kul milakar iss election main party ko 2-3 seats mil jayein to kaafi hain
KYA HUA LEKHAK BABU?? DEKH LIYA RESULTS?
Sir mai maan leta hoo. Aap ki taqat hum pehchan nahi payay.
kuch bhi ho lekin dalal patrkar wali baat sabse achi thi....
hahahaha....Any comment now Mr. Writer....you proved to be a biggest stupid based on election results....I don't know where you will go to save your face....People like you are the real traitors of the this beautiful nation....Congress/Bjp just using you at their will...Shame...Shame...Shame...
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