Thursday, November 28, 2013

गिरगिट

रात को करवट बदलता  हूं
दिन में देह, भाषा और  पाला,
सुबह के साथ शुरू करता हूं
जबान की कसरत
दिमाग का व्याभिचार
रीढ़ को झुकाने की होड़
इनमें निडर दौडता हुआ मैं
रात की सीढ़ियों में अकबका जाता हूं
एक के बाद एक घिरते अंधेंरे में चीखता हूं मैं
कोई आवाज दो,
मुझे मत समझो अकेला
कुछ नहीं किया है मैंने ऐसा या वैसा
लेकिन कहीं से कोई जवाब नहीं आता
लौटती है मेरी आवाज और भी गूंज के साथ
बोलना चाहता हूं मैं, एक के बाद एक
कई ऐसी भाषायें
जिसमें छिप जाये मेरा डर
मेरी कायरता
मेरी मक्कारियां
लेकिन कोई डिक्शनरी ऐसी नहीं मिली
जो चोरी को ईमानदारी
कायरता को बहादुरी
व्याभिचार को सदाचार
दीवार पर थूकने को शहादत
बताती हो.
मेरे हाथ पैरों  में जकड़न भर जाती है
उसी पैर में जिससे मैंने लगाये दिन भर सैल्यूट
अंधेंरे में भी दिखता है शीशा
चेहरे पर चमकते है दिन के झूठ
जेबों से टपकता है लहूं
चीख  देती है वो सब रास्ते
जिनके सहारे
फिर मैं लौटता हूं
उसी औरत की गोद में सहमा सा
जिसे दिन भर - महज देह मानता हूं
उस बच्चें को पकड़ कर सहारा खोजता हूं
जिसे समझता हूं मैने जनमा है
बिस्तर के ठीक सामने लटकी
दिन की ड्रैस
पानी के गिलास के साथ
झटकता हूं सिर को
अलार्म बजता है
उगते दिन के साथ उगता है नया चेहरा.
फिर से लौट आती है जबान
..उठो जल्दी मुझे आज बोर्ड मीटिंग्स में जाना है।

3 comments:

Unknown said...

bahut khoobsurat hai...aatma ki awaz ...

Dr. Tanzeem Ali said...

Beautiful depiction...achcha shabdon ko piroya hai dear...Welldone..!!!

Anonymous said...

achchhi kavita hai.
bhavpreet