19 सितंबर को बटला हाउस में एनकाउंटर हुआ था। दो संदिग्ध आतंकवादी और एक पुलिस इंस्पेक्टर इस मुठभेड़ में मारे गये।
इससे पहले एक ऐसा ही एनकाउंटर बटला हाउस में 26 दिसंबर 2000 को भी हुआ था। लालकिला कांड के आरोपी आतंकवादी अबू सामल और उसके साथी के साथ दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल का एनकाउंटर हुआ और दोनो आरोपी मारे गये। एनकांउटर में स्पेशल सेल की ड्रीम टीम काम कर रही थी। डीसीपी अशोक चांद, एसीपी राजबीर सिंह और इंसपेक्टर मोहन चंद शर्मा और उनके साथी इस एनकाउंटर में शामिल थे। मुठभेड के बाद बटला हाउस में धरना प्रदर्शन हुआ। लोगों को शक था कि ये मुठभेड़ फर्जी है और दोनों कश्मीरी लडको को उठा कर मारा गया। वक्त के साथ बात यादों के गर्त में चली गयी। लेकिन इस बार की मुठभेड़ में कुछ बाते ऐसी हो गयी जिंदगी की किताब में सूखा हुआ फूल बनने को तैयार नहीं है। मुठभेड़ के बाद सबसे पहली मुलाकात एल-18 के पीछे वाले मकान में रहने वाले सज्जन से हुयी जो इस बात को बता रहे थे कि यहां रहने वाले लड़कों को उन्होंने पहली रात ही डांटा था, वो लोग गली में कूड़ा न फेंका करे। भीड़ में भारी नाराजगी थी कि मीडिया मस्जिद खलीलुल्लाह का नाम आतंकवादियों के साथ जोड़कर चला रहा है। हालांकि मीडिया का इशारा इस मकान की पहचान के लिये मस्जिद के नजदीक बताना भर था। शुक्रवार का दिन था और धीरे-धीरे भीड़ नमाज पढ़ने के लिये मस्जिद में फिर वहां से घटना स्थल के पर इकट्ठा हो रही थी। भीड़ का मानना था कि ये पूरी मुठभेड़ एक ड्रामे का हिस्सा भर थी और बेगुनाह मुस्लिम लड़को को इंडियन मुजाहिदीन के आतंकवादी के तौर पर मार गिराया। पत्रकारों की भीड़ उस पूरे वाक्ये को अपने शब्दों और कैमरों में कैद करने में लगी थी। संदेह के साये में पत्रकार भी घूम रहे थे। और अगर उस वक्त के लाईव चैट पर नजर दौड़ाई जाये तो अहसास होता है कि जैसे स्टूडियों और चैनल्स में मुठभेड़ पर सवाल खडे करने की होड़ लगी थी। फ्लैट आंखों के सामने था। और उसकी लोकेशन दो आरोपियों के आसानी से भाग जाने की गवाही देने को तैयार नही थी। चार बजे प्रेस क्रांफ्रेस हुयी और उसमें दिल्ली पुलिस कमिश्नर ने ऐलान किया कि मरने वाला आतिफ उर्फ बशीर इंडियन मुजाहिदीन के सबसे एक्टिव मॉड्यूल का मास्टरमाईंड था। मुठभेड में मारा गया दूसरा लडका साजिद था जो बम बनाने में कारीगर था। दिल्ली पुलिस के अधिकारियों ने तब बताया कि मोहन चंद शर्मा और एक हैड कास्टेंबल घायल है। इस समय तक देश मीडिया के माध्यम से जान चुका था कि पूरे देश को सीरियल्स बम धमाकों से दहलाने वाले खतरनाक आतकंवादियों का गिरोह पकड़ा जा चुका है। मीडिया ने ऐलान कर दिया था कि सैकडों लोगों की मौत के जिम्मेदार ये ही लोग है। मीडिया के पास जादुई कसौटी थी जिस पर दोपहर से पहले पूरी मुठभेड फर्जी लग रही थी लेकिन शाम तक मोहनचंद शर्मा के मरने की खबर के साथ ही शहीद मोहनचंद शर्मा के नारों से देश के मीडिया चैनल गूंजने लगे। उनकी बेमिसाल बहादुरी के किस्से फिजाओं में गूंजने लगे। दोपहर तक मोहनचंद शर्मा की करोड़ो की संपत्ति और देश के नंबर दो माफिया डान के साथ उसके करीबी रिश्ते बताने वाले पत्रकार अचानक गमजदा दिखने लगे और बहादुरी का देशप्रेमी गीत शुरू हो गया।
और शायद यही से पहली बार दिखायी दी देश के एक बड़े हिस्से की दूसरे से दरार की गहराई। लगा जैसे दोनों के बीच कुछ दरक गया। सभी आरोपी आतंकवादियों का आजमगढ़ से रिश्ता और उनकी उम्र, पढ़ाई और दूसरे सवालों को लेकर मुस्लिमों को लग रहा था कि उन्हें जानबूझकर निशाना बनाया जा रहा है, तो दूसरी तरफ एक बड़ा हिस्सा मोहनचंद शर्मा की मौत को अप्रतिम शहादत में तब्दील करने में लग गया। सवाल करने पर दोनों ओर से पांबदी लगा दी गयी। लेकिन हम लोग शुरूआत करते है जामिया नगर, आजमगढ़ और देश भर में मुस्लिमों के एक हिस्से की ओर से।
1.मोहनचंद शर्मा ने पूरी मुठभेड़ को जिस तरह से अंजाम दिया क्या वो एक ऐसे ऑफिसर से उम्मीद की जा सकती थी जिसने न सिर्फ दिल्ली में बल्कि पूरे देश के अलग-अलग हिस्सों में मशहूर बदमाशों सहित खूंखार आतंकवादियों का सफाया किया हो।
2. भले ही ये सवाल बचकाना लगे और बार-बार दोहराया सा लगे लेकिन जितने मुस्लिम दोस्तों को मैं जानता हूं और जितनी भी भीड़ से मैंने राब्ता किया सबके लिये पहला सवाल है कि बुलेट प्रूफ जैकेट न पहनने की वजह क्या थी। बुलेट प्रूफ सरकार ने दी थी और मोहनचंद शर्मा की गाड़ी में उनका पीएसओ वो जैकेट रखे हुये था। यदि जैकेट बहुत वजनी थी तो पुलिस कमिश्नर हो या फिर ज्वाईंट सीपी इसका जवाब क्यों नहीं दे रहे थे कि वजनी होने की वजह से सिर्फ इंस्पेक्टर मोहनचंद शर्मा ने ही जैकेट नहीं पहनी थी। पहचान होने की बात सवाल इस लिये खड़े किये जा रहे है क्योंकि धर्मेंद्र सिंह पहले ही फ्लैट में जाकर वैरीफिकेशन कर चुका था कि उस फ्लैट में आतिफ और साजिद मौजूद है।
3. रमजान के दिनों में इस इलाके को बेहद संवेदनशील मानने वाली पुलिस के एक इस्पेक्टर ने अपने एसीपी और डीसीपी के बिना ही इतनी बड़ी कार्रवाई को अंजाम दिया या फिर वो लोग साथ में थे।
4.फ्लैट से निकल कर दो आतंकवादी उस मकान से फरार हो गये जहां नीचे जाने के रास्ते में पुलिस खड़ी थी और बाकी तीनों जगहों से भाग निकलने का कोई रास्ता नहीं है।
5. पुलिस की मंशा क्या थी, क्या वो लोग आसानी से उन लोगों को साथ अपने साथ लेकर आने वाले थे जिनपर देश में सैकड़ों कत्लों को अंजाम देने का आरोप था। पुलिस के मुताबिक वो इन लोगों की मूवमेंट पर तीन दिन से निगाह रखे थे तब क्या बिना किसी कार्डन आफ के या फिर फ्लैट की घेराबंदी के इस तरह की कार्रवाई लापरवाही या फिर दिलेरी का एक नायाब नमूना।
6.क्या दो आरोपी आतंकवादियों की मौत से दो आरोपी आतंकवादियों के भाग जाने के सवाल को बिलकुल खत्म कर दिया।
इन सब सवालों के साथ जामिया नगर की आबादी या फिर आजमगढ़ के लोग अपनी नाराजगी जताने के लिये खुलेआम सामने आ रहे थे।
उन लोगों का कहना था कि आखिर कितने मास्टर माईंड इस देश में जो आजमगढ़ से चलते है। देश के लोगों ने पहले ही अलग-अलग राज्य की पुलिस के अलग-अलग मास्टर माईंड को देख लिया था। हर बार मीडिया गर्व से इस बात का इजहार कर रहा था कि मास्टरमाईंड चढ़ा पुलिस के शिकंजे मे। लेकिन जो सबसे संदेहजनक बात थी वो ये कि ये तमाम मास्टर माईंड आपम में एक दूसरे से मिले बिना एक ही बम धमाकों को अंजाम दिये जा रहे थे।
लेकिन सवाल इस मुठभेड़ पर पुलिस की लाईन का सर्मथन करने वाले के पास भी थे। उन लोगों का कहना था कि हर बार एनकाउंटर के बाद इस तरह की घटनायें होती है। और आतंकवादियों को आसानी से अल्पसंख्यकों की आबादी में शरण मिलती है। क
क्या फर्जी मुठभेड़ में कोई पुलिस इसपेक्टर शहीद होता है।
धमाकों में मरे बेगुनाह लोगों के लिये कोई संगठन सामने क्यों नहीं आता।
जामिया मिलिया इस्लामिया के वाईस चांसलर मुशीरूल हक के बयान ने तो बहुत से लोगों को गुस्से से लाल कर दिया। मुशीरूल हक साहब ने कहा कि वो जामिया मिलिया से संबद्द उन लड़को की कानूनी मदद करेंगे जिन्हें दिल्ली पुलिस ने देश भर में धमाकों को अंजाम देने के आरोप में पकड़ा है।
देश भर में इस बात को लेकर बहस शुरू हो चुकी है कि क्या इस बार की दरार जो दिख रही है वो भर पायेगी या नहीं ................................आगे फिर