किसी भी तारीख को मैं हो सकता था,
वो तारीख भी दोहराई जाती हजारों लाखों बार,
लिहाजा किसी एक तारीख का तुमको याद दिलाना कुछ भी नहीं,
मैंने तुमको लाखों शब्द कहे होंगे,
लेकिन एक भी ऐसा नहीं जो कहा न गया हो,
मैं तुमको जीना चाहता था इस तरह से जैसे किसी को जिया न गया हो,
लेकिन ऐसा कोई भी तरीका मैं खोज नहीं पाया।
हर बार याद आ गयी किसी और की जो इस तरह से गुजर गया।
जिंदगी भर किसी काम को करना चाहा इस तरह,
जो सिर्फ मैं ही कर पाऊ
कोई और न सोच सके न कर सके।
लेकिन मैं ऐसा कुछ भी न कर पाया
जीना एक इंसान के जिस्म में सबसे मुश्किल था
और इसे आसान बनने में बीत गया एक पूरा जीवन।
कुछ तो होगा / कुछ तो होगा / अगर मैं बोलूँगा / न टूटे / तिलस्म सत्ता का / मेरे अदंर / एक कायर टूटेगा / टूट मेरे मन / अब अच्छी तरह से टूट / झूठ मूठ मत अब रूठ।...... रघुबीर सहाय। लिखने से जी चुराता रहा हूं। सोचता रहा कि एक ऐसे शहर में रोजगार की तलाश में आया हूं, जहां किसी को किसी से मतलब नहीं, किसी को किसी की दरकार नहीं। लेकिन रघुबीर सहाय जी के ये पंक्तियां पढ़ी तो लगा कि अपने लिये ही सही लेकिन लिखना जरूरी है।
Tuesday, December 30, 2008
Wednesday, October 22, 2008
सटोरियों की जय-जय, लुटेरों की जय-जय
देश के सटोरिये संकट में है। देश के प्रधानमंत्री की नींद टूट गयी है। वित्त मंत्री अचानक रूआँसे नजर आने लगे है। एक-एक दिन में सटोरियों की संपत्ति गायब होने लगी है। क्या होगा देश का। शेयर बाजार गिर गया है धड़ाम से। तमाम मीडिया रोने पर उतारू हो गया। देश के भिखमंगे शर्मिंदा होने लगे। उन्होंने फोन कर वित्त मंत्री से पूछा क्या वो अपनी लंगोटी उतार कर दे दे, या फिर अपने बच्चों का खून बेचकर कुछ चंदा इकट्ठा कर कुछ पैसे शेयर बाजार में लगाये।
देश के सटोरिये संकट में है। देश के प्रधानमंत्री की नींद टूट गयी है। वित्त मंत्री अचानक रूआँसे नजर आने लगे है। एक-एक दिन में सटोरियों की संपत्ति गायब होने लगी है। क्या होगा देश का। शेयर बाजार गिर गया है धड़ाम से। तमाम मीडिया रोने पर उतारू हो गया। देश के भिखमंगे शर्मिंदा होने लगे। उन्होंने फोन कर वित्त मंत्री से पूछा क्या वो अपनी लंगोटी उतार कर दे दे, या फिर अपने बच्चों का खून बेचकर कुछ चंदा इकट्ठा कर कुछ पैसे शेयर बाजार में लगाये।
Friday, October 10, 2008
देश का शेयर
प्रश्न जितने बढ़ रहे,
घट रहे उतने जवाब,
होश में भी एक पूरा देश यह बेहोश है......सर्वेश्वरदयाल सक्सेना।
अभी तक तो सिर्फ दफ्तर या फिर मीडिया की सुर्खियों में सुन रहा हूं कि शेयर बाजार डूब रहा है। बैंक डूब रहे है और दुनिया में डूब रही है बड़ी कंपनियां। मेरा किसी शेयर मार्किट से कभी कोई ताल्लुक नहीं रहा है सिर्फ एक खबर को छोड़ कर जो पूरी नहीं कर पाया। लेकिन देश में मीडिया की सुर्खियां इस बात को बयान कर रही है कि हम जैसे एक बड़े संकट से दो-चार हो रहे है, और हम जैसे नादान लोगों को मालूम ही नहीं। मैं इतना तो जानता हूं कि मीडिया में जहां मैं काम करता हूं वो भी शेयर मार्किट के उपर-नीचे होने से प्रभावित होता है। लेकिन ऐसे कई सवाल है जो मैं आज तक नहीं समझ पाया हूं और जब भी शेयर के उपर नीचे होने से परेशान या खुश होते अपने दोस्तों को देखता हूं और उलझ जाता हूं। मैं अपने सवाल सोचता हूं कि आपके सामने रख दूं बिना किसी शर्म या झिझक के।
1. रोज एक ही कंपनी में इतना बदलाव कैसे हो जाता है क्या उसके प्रोडक्शन में रोज में इतना बदलाव आता है।
2. एक ही दिन में कई बार कंपनियों के रेट में उतार-चढाव क्यों आता है।
3. शेयर मार्किट के उपर नीचे होने के क्या कारण है।
4. सरकार पर शेयर मार्किट के गिरने और चढ़ने का कितना फर्क पड़ता है।
5. सट्टेबाजी, जुए( गैंबलिंग),लाटरी, और शेयर मार्किट में कितना अंतर है।
5. और भूखे से मरते किसानों पर फैसला लेने में सरकार को भले ही महीनों लगते हो लेकिन शेयर मार्किट के गिरते ही सरकार कुछ ही घंटों में रिरियाने लगती है, ऐसा क्यों होता है।.............................
और भी जाने कितने ऐसे ही सवाल जो कभी आगे मैं कर सकता हूं। देश की तरक्की का आईना अगर कोई है मीडिया की नजर में तो वो मुंबई की दलाल स्ट्रीट। नाम भी खूब है दलाल स्ट्रीट देश के कई हिस्सों में इस मार्किट के नाम को ही गाली के तौर पर इस्तेमाल किया जा सकता है।
अप्टन सिनक्लेयर की एक कालजयी किताब जंगल में एक वाक्या लिखा है जिसमें एक बैंक ऐसे ही शेयर मार्किट में डूब जाता है और उसके शेयरों के भाव पूरी तरह मिट्टी में मिल जाते है। बैंक में इलाके के मजदूरों का पैसा जमा होता है। बैंक के बाहर अपना पैसा निकालने वालों की भारी भीड़ जमा हो जाती है। उसी भीड़ में शामिल एक मजदूर की सास है जिसकी रात-दिन की कमाई उस बैंक में जमा है अब वो परेशान है कि उसका पैसा कैसे डूब गया है। वो बार-बार भीड़ से पूछती है कि उसकी आंखों के सामने बैंक में बड़े बक्शों में पैसा रखा गया है ऐसे में बैंक डूब कैसे सकता है। कुछ लोग उसे समझाते है और वो समझ नहीं पाती है। ऐसा ही कुछ हम लोगों के साथ होता है। मुझे आज एक ऐसा ही नौजवान मिला जिसकी नौकरी शायद इसी की भेट चढ़ गयी है। उसके साथ कंपनी ने तेरह लोगों की छुट्टी कर दी है। मेरा इस सच्चाई से पहला ऐनकाउंटर है। दुनिया की महाशक्ति होने का ख्वाब पाले देश की अर्थव्यवस्था को चंद सटोरियों गिरा सकते है, ये बात और कोई नहीं यही दलाल स्ट्रीट कई बार साबित कर चुकी है। अब ठीक-ठीक आंकडा तो नहीं मालूम लेकिन मुझे याद है कि जब हर्षद मेहता का निधन हुआ तब उस पर लगभग 52 अरब रूपये की देनदारी थी और वो जो संपत्ति का इस्तेमाल कर रहा था वो लगभग 12 अरब रूपये की थी। यानि एक सड़क छाप आदमी देश के कानून का कबाड़ा करके जब चाहे देश के करोड़ो लोगों को नंगा कर सकता है और खुद कुछ महीने जेल में बीता कर मौज में उसी पैसे के सहारे अदालतों में अपने शिकार लोगों को एडियां रगड़-रगड़ कर मरते हुए देख सकता है। ये बात सिर्फ इसी बाजार के चलते संभव है। क्या ये एक ऐसी सट्टेबाजी नहीं है जिसमें महज सरकार का दिखावे के तौर पर दखल है और उसके असली मालिक हजारों लाखों करोड़ रूपये का काला धन रखने वाले है। जो कुछ सरकारी दलालों के दम पर हजारों करोड़ रूपया खाकर चले जाते है। फिर आते है और फिर से चले जाते है। लेकिन फिर एक कहावत याद आती है कि लालचियों के गांव में ठग भूखे नहीं मरते है। ये बाजार है क्या देश का इससे कितना मतलब है और आम आदमी की जिंदगी को ये कितना प्रभावित करता है जब तक ये मुझे समझ नहीं आयेगा मैं कभी नहीं समझ पाउंगा कि शेयर बाजार में देश का शेयर कितना है। ...........................
घट रहे उतने जवाब,
होश में भी एक पूरा देश यह बेहोश है......सर्वेश्वरदयाल सक्सेना।
अभी तक तो सिर्फ दफ्तर या फिर मीडिया की सुर्खियों में सुन रहा हूं कि शेयर बाजार डूब रहा है। बैंक डूब रहे है और दुनिया में डूब रही है बड़ी कंपनियां। मेरा किसी शेयर मार्किट से कभी कोई ताल्लुक नहीं रहा है सिर्फ एक खबर को छोड़ कर जो पूरी नहीं कर पाया। लेकिन देश में मीडिया की सुर्खियां इस बात को बयान कर रही है कि हम जैसे एक बड़े संकट से दो-चार हो रहे है, और हम जैसे नादान लोगों को मालूम ही नहीं। मैं इतना तो जानता हूं कि मीडिया में जहां मैं काम करता हूं वो भी शेयर मार्किट के उपर-नीचे होने से प्रभावित होता है। लेकिन ऐसे कई सवाल है जो मैं आज तक नहीं समझ पाया हूं और जब भी शेयर के उपर नीचे होने से परेशान या खुश होते अपने दोस्तों को देखता हूं और उलझ जाता हूं। मैं अपने सवाल सोचता हूं कि आपके सामने रख दूं बिना किसी शर्म या झिझक के।
1. रोज एक ही कंपनी में इतना बदलाव कैसे हो जाता है क्या उसके प्रोडक्शन में रोज में इतना बदलाव आता है।
2. एक ही दिन में कई बार कंपनियों के रेट में उतार-चढाव क्यों आता है।
3. शेयर मार्किट के उपर नीचे होने के क्या कारण है।
4. सरकार पर शेयर मार्किट के गिरने और चढ़ने का कितना फर्क पड़ता है।
5. सट्टेबाजी, जुए( गैंबलिंग),लाटरी, और शेयर मार्किट में कितना अंतर है।
5. और भूखे से मरते किसानों पर फैसला लेने में सरकार को भले ही महीनों लगते हो लेकिन शेयर मार्किट के गिरते ही सरकार कुछ ही घंटों में रिरियाने लगती है, ऐसा क्यों होता है।.............................
और भी जाने कितने ऐसे ही सवाल जो कभी आगे मैं कर सकता हूं। देश की तरक्की का आईना अगर कोई है मीडिया की नजर में तो वो मुंबई की दलाल स्ट्रीट। नाम भी खूब है दलाल स्ट्रीट देश के कई हिस्सों में इस मार्किट के नाम को ही गाली के तौर पर इस्तेमाल किया जा सकता है।
अप्टन सिनक्लेयर की एक कालजयी किताब जंगल में एक वाक्या लिखा है जिसमें एक बैंक ऐसे ही शेयर मार्किट में डूब जाता है और उसके शेयरों के भाव पूरी तरह मिट्टी में मिल जाते है। बैंक में इलाके के मजदूरों का पैसा जमा होता है। बैंक के बाहर अपना पैसा निकालने वालों की भारी भीड़ जमा हो जाती है। उसी भीड़ में शामिल एक मजदूर की सास है जिसकी रात-दिन की कमाई उस बैंक में जमा है अब वो परेशान है कि उसका पैसा कैसे डूब गया है। वो बार-बार भीड़ से पूछती है कि उसकी आंखों के सामने बैंक में बड़े बक्शों में पैसा रखा गया है ऐसे में बैंक डूब कैसे सकता है। कुछ लोग उसे समझाते है और वो समझ नहीं पाती है। ऐसा ही कुछ हम लोगों के साथ होता है। मुझे आज एक ऐसा ही नौजवान मिला जिसकी नौकरी शायद इसी की भेट चढ़ गयी है। उसके साथ कंपनी ने तेरह लोगों की छुट्टी कर दी है। मेरा इस सच्चाई से पहला ऐनकाउंटर है। दुनिया की महाशक्ति होने का ख्वाब पाले देश की अर्थव्यवस्था को चंद सटोरियों गिरा सकते है, ये बात और कोई नहीं यही दलाल स्ट्रीट कई बार साबित कर चुकी है। अब ठीक-ठीक आंकडा तो नहीं मालूम लेकिन मुझे याद है कि जब हर्षद मेहता का निधन हुआ तब उस पर लगभग 52 अरब रूपये की देनदारी थी और वो जो संपत्ति का इस्तेमाल कर रहा था वो लगभग 12 अरब रूपये की थी। यानि एक सड़क छाप आदमी देश के कानून का कबाड़ा करके जब चाहे देश के करोड़ो लोगों को नंगा कर सकता है और खुद कुछ महीने जेल में बीता कर मौज में उसी पैसे के सहारे अदालतों में अपने शिकार लोगों को एडियां रगड़-रगड़ कर मरते हुए देख सकता है। ये बात सिर्फ इसी बाजार के चलते संभव है। क्या ये एक ऐसी सट्टेबाजी नहीं है जिसमें महज सरकार का दिखावे के तौर पर दखल है और उसके असली मालिक हजारों लाखों करोड़ रूपये का काला धन रखने वाले है। जो कुछ सरकारी दलालों के दम पर हजारों करोड़ रूपया खाकर चले जाते है। फिर आते है और फिर से चले जाते है। लेकिन फिर एक कहावत याद आती है कि लालचियों के गांव में ठग भूखे नहीं मरते है। ये बाजार है क्या देश का इससे कितना मतलब है और आम आदमी की जिंदगी को ये कितना प्रभावित करता है जब तक ये मुझे समझ नहीं आयेगा मैं कभी नहीं समझ पाउंगा कि शेयर बाजार में देश का शेयर कितना है। ...........................
Thursday, October 2, 2008
बटला हाउस , सवाल करना देशद्रोह नहीं है
कोई टोकता तक नहीं
इस डर से
कि मगध में
टोकने का रिवाज न बन जाए .....श्रीकांत वर्मा (मगध)
बात वहीं से शुरू करता हूं जहां कल अधूरी छोड़ दी थी। ईद का त्यौहार पूरे देश में मनाया जा रहा है। जामिया नगर में गया रिपोर्टर अपनी कवरेज के बाद वापस लौटा।
क्या माहौल था।
सवाल का जवाब देने के लिये उसने पूरा समय लिया सोचा और फिर कहा कि माहौल ठीक नहीं था। लोगों में बेहद नाराजगी थी।
किसको एनकाउंटर को लेकर।
वो बात तो अब पुरानी हो गयी फिर क्या बात थी।
रिपोर्टर का जवाब था कि लोग मीडिया कवरेज को लेकर नाराज थे।
नाराजगी इतनी थी कि उन लोगों ने इलाके की किसी भी मस्जिद से लाईव तक नहीं करने दिया। और ये नाराजगी किसी एक अकेले टीवी चैनल या रिपोर्टर को लेकर नहीं थी, बल्कि पूरे मीडिया से थी। वहां मौजूद एक रिपोर्टर ने अपने मुस्लिम नाम के साथ हमदर्दी दिखाने की कोशिश की तो उसको भी भीड़ ने झिड़क दिया। भीड़ का कहना था कि आप हमारे दर्द को समझ नहीं सकते हों। मस्जिद के बाहर ही काले रिबन बंट रहे थे और काले रिबन बांधे लोग कह रहे थे कि आप लोगों ने हमारे उपर लेबलिंग कर दी है। आप लोग हमारे शोक के कोई सहानुभूति रखने की बजाय पुलिस की कहानी को पत्थर की लकीर मान कर चला रहे है।
एक दूसरा रिपोर्टर दिल्ली के जामिया नगर से सैकड़ो मील दूर आजमगढ़ के संजरपुर गांव में मौजूद था। बातचीत हुयी तो पता चला कि गांव के लोगों ने ईद पढ़ी और एक दूसरे से गले मिल कर मुबारकबाद देना तो दूर हाथ तक नहीं मिलाया। मीडिया से वही बेरूखी, नाराजगी बरकरार थी। गांव वालों का कहना था कि मीडिया ने पूरे गांव को इस तरह से दिखाया कि गांव वाले आतंकवादियों को तैयार कर देश को उडाने में लगे है। उन लोगों का कहना था कि हमने अपने बच्चों को जामिया यूनिवर्सिटी पढ़ने के लिये भेजा था ताकि वो अच्छे इंसान बने। अव्वल तो वो लोग बेगुनाह थे और अगर उनमें से कोई आतंकवादी भी बन गया था तो उसमें संजरपुर कितना और कहां से गुनाहगार ठहरता है ये बात तो मीडिया समझाये। पूरे गांव में ईद के नाम पर न शीर बनी न सिवईंयां।
ये दो बाते इस बात की ओर इशारा कर रही थी कि कही न कही दोनों ओर के लोगों के बीच अविश्वास की खाई काफी बढ़ गयी। बात इतनी ही नहीं थी कि, शहर में दूसरे समुदाय के लोगों से बात की तो अहसास हुआ कि उन लोगों को लग रहा है कि शहर में दिल्ली की प्रतिक्रिया में कुछ न कुछ होगा। क्या होगा या कितना होगा इस बारे में कोई ठोस जानकारी उनके पास नहीं है। एक ऐसे इलाके जहां अल्पसंख्यकों की आबादी काफी तादाद में है से ताल्लुक होने के नाते इस बात का अहसास मुझे भी है कि एक दूसरे से डर और अविश्वास का माहौल शहरों की शांति पर कितना भारी पड़ता है।
दरअसल पिछले कुछ सालों में एक के बाद एक धमाके हुये और अलग-अलग राज्यों की पुलिस ने इस मामले में कुछ मास्टर माईंड लोगों को गिरफ्तार कर केस खोलने के दावे भी किये और फिर एक के बाद एक मास्टरमाईंड लोगों की गिरफ्तारियों का सच क्या है और उस सच से मुठभेड़ में मारे गये औऱ मौके से फरार आतंकवादियों का । उधर पुलिस की लाईन को पूरी तौर पर सही मानने वाले लोग या फिर पत्रकार इस बात से बेहद उत्तेजित है कि पिछले सालों में धमाकों की दर और उनमें मरने वाले लोगों की तादाद लगातार बढ़ती जा रही है। और मासूम लोगों का खून उनकी भावनाओं को सवालों से दूर कर रहा है। उनका कहना है कि अदालतों से मिलने वाले इंसाफ में इतना वक्त लगता है या फिर सालों बाद भी आंतकवादी छूट जाते है लिहाजा उनका विकल्प गोली ही है। और इस मामले में आतंकवादियों का मसूंबा इतना साफ होता है कि वो मेल करके धमाकों की जानकारी पहले ही दे देते है। इस बात को सिस्टम से जोड़ने वाले लोगों को कुछ पत्रकारों या फिर दूसरे धंधों से जुडे लोगों का सवाल खड़ा करना तीर की तरह से चुभ रहा है। वो सवाल खड़ा करने वालों को सीधा आतंकवादियों का समर्थक या फिर दलाल की भूमिका में खड़ा कर देना चाहते है। एक साथी से बातचीत के दौरान पुलिस की लाईन पर कुछ सवाल ही उठाये थे कि देश के सबसे बेहतरीन पत्रकारों में शुमार उस दोस्त ने गुस्से में कहा कि भगवान अगली बार बम फटे तो उसमें ऐसे पचास-साठ पत्रकारों के परिवार वाले मरे तब मैं उनसे सवाल पूछूंगा कि आतंकवादी कैसे लगते है। कुछ लोगों का कहना है कि सवाल उठाने वाले पत्रकारों ने कभी गोली को हाथ में लेकर भी नहीं देखा होगा गोलियों के बीच रिपोर्टिंग करना तो दूर है। इतना तो तय है कि ये लोग बेगुनाह लोगों से बेहद नफरत और अपने देश से बेहद प्यार करते है। और मासूम लोगों की लाशों की कवरेज और फोटो ने इन लोगों को इतना उत्तेजित कर दिया कि पुलिस पर उठाया गया कोई भी सवाल इनको देश के साथ गद्दारी लगता है। लेकिन ऐसी कई बाते है जो लगातार मुझे इस बात पर मजबूर करती है कि कैसे भी हालात हो हम पत्रकारों को सवाल उठाने के अपने मूल काम से मुंह नहीं मोड़ना चाहिये। सवाल सिर्फ सवाल करने के लिये नहीं बल्कि देश की एक बड़ी आबादी के वो सवाल जिनसे जांच अधिकारी मुंह मोड़ना चाहते है। इस पूरे मामले की देश भर में जिस तरह की प्रतिक्रिया हुयी है उसकी सही तस्वीर आने वाले कई सालों में ही साफ हो पायेगी। लेकिन इस बात पर मैं पूरी तरह आश्वत हूं कि दिल्ली के ब्लास्ट से शुरू हुये इस खौफनाक खेल में जांच एजेंसियों के खिलाफ काफी सवाल तो खडे होते है।
मुंबई ट्रेन ब्लास्ट की पूरी जांच कर मुंबई एटीएस ने उसके आरोपियों को गिरफ्तार कर अदालत में चार्जशीट भी कर दिया। फरार लोगों को पाकिस्तानी मूल का घोषित कर दिया। अब मुंबई की ही क्राईम ब्रांच ने पांच लोगों को गिरफ्तार किया और साफ कहा कि ये है मास्टरमाईंड मुंबई ट्रेन ब्लास्ट के। पाकिस्तानी लोग इसमें शामिल ही नहीं थे बल्कि ये पांच लोग ही पाकिस्तानियों के तौर पर उस ब्लास्ट के मास्टरमाईंड से मिले थे। अब आप सवाल उठा सकते है कि एक घटना को साथ में अंजाम देने वाले कितने मास्टर माईंड हो सकते है जो एक दूसरे से बिलकुल अनजान है। एक के बाद एक कई राज्यों की पुलिस ने इतने मास्टर माईंड खोज लिये जो एक दूसरे को नहीं जानते लेकिन घटनाओं को अंजाम दिये जा रहे है। क्या हर बार पुलिस अधिकारियों के दिये गये प्रेस नोट्स को मीडिया ने अदालत के फैसलों की तर्ज पर नहीं चलाया। क्या किसी को याद रहा कि सिमी के किसी भी कार्यकर्ता के खिलाफ मामला अभी प्रूव नहीं हुआ। यहां तक कि सिमी के फर्स्ट बांबर के तौर पर मीडिया में छाये रहे मुबीन की उस मामले में रिहाई भी मीडिया की नजर में नहीं आयी। ........................बात अभी बाकी है......
इस डर से
कि मगध में
टोकने का रिवाज न बन जाए .....श्रीकांत वर्मा (मगध)
बात वहीं से शुरू करता हूं जहां कल अधूरी छोड़ दी थी। ईद का त्यौहार पूरे देश में मनाया जा रहा है। जामिया नगर में गया रिपोर्टर अपनी कवरेज के बाद वापस लौटा।
क्या माहौल था।
सवाल का जवाब देने के लिये उसने पूरा समय लिया सोचा और फिर कहा कि माहौल ठीक नहीं था। लोगों में बेहद नाराजगी थी।
किसको एनकाउंटर को लेकर।
वो बात तो अब पुरानी हो गयी फिर क्या बात थी।
रिपोर्टर का जवाब था कि लोग मीडिया कवरेज को लेकर नाराज थे।
नाराजगी इतनी थी कि उन लोगों ने इलाके की किसी भी मस्जिद से लाईव तक नहीं करने दिया। और ये नाराजगी किसी एक अकेले टीवी चैनल या रिपोर्टर को लेकर नहीं थी, बल्कि पूरे मीडिया से थी। वहां मौजूद एक रिपोर्टर ने अपने मुस्लिम नाम के साथ हमदर्दी दिखाने की कोशिश की तो उसको भी भीड़ ने झिड़क दिया। भीड़ का कहना था कि आप हमारे दर्द को समझ नहीं सकते हों। मस्जिद के बाहर ही काले रिबन बंट रहे थे और काले रिबन बांधे लोग कह रहे थे कि आप लोगों ने हमारे उपर लेबलिंग कर दी है। आप लोग हमारे शोक के कोई सहानुभूति रखने की बजाय पुलिस की कहानी को पत्थर की लकीर मान कर चला रहे है।
एक दूसरा रिपोर्टर दिल्ली के जामिया नगर से सैकड़ो मील दूर आजमगढ़ के संजरपुर गांव में मौजूद था। बातचीत हुयी तो पता चला कि गांव के लोगों ने ईद पढ़ी और एक दूसरे से गले मिल कर मुबारकबाद देना तो दूर हाथ तक नहीं मिलाया। मीडिया से वही बेरूखी, नाराजगी बरकरार थी। गांव वालों का कहना था कि मीडिया ने पूरे गांव को इस तरह से दिखाया कि गांव वाले आतंकवादियों को तैयार कर देश को उडाने में लगे है। उन लोगों का कहना था कि हमने अपने बच्चों को जामिया यूनिवर्सिटी पढ़ने के लिये भेजा था ताकि वो अच्छे इंसान बने। अव्वल तो वो लोग बेगुनाह थे और अगर उनमें से कोई आतंकवादी भी बन गया था तो उसमें संजरपुर कितना और कहां से गुनाहगार ठहरता है ये बात तो मीडिया समझाये। पूरे गांव में ईद के नाम पर न शीर बनी न सिवईंयां।
ये दो बाते इस बात की ओर इशारा कर रही थी कि कही न कही दोनों ओर के लोगों के बीच अविश्वास की खाई काफी बढ़ गयी। बात इतनी ही नहीं थी कि, शहर में दूसरे समुदाय के लोगों से बात की तो अहसास हुआ कि उन लोगों को लग रहा है कि शहर में दिल्ली की प्रतिक्रिया में कुछ न कुछ होगा। क्या होगा या कितना होगा इस बारे में कोई ठोस जानकारी उनके पास नहीं है। एक ऐसे इलाके जहां अल्पसंख्यकों की आबादी काफी तादाद में है से ताल्लुक होने के नाते इस बात का अहसास मुझे भी है कि एक दूसरे से डर और अविश्वास का माहौल शहरों की शांति पर कितना भारी पड़ता है।
दरअसल पिछले कुछ सालों में एक के बाद एक धमाके हुये और अलग-अलग राज्यों की पुलिस ने इस मामले में कुछ मास्टर माईंड लोगों को गिरफ्तार कर केस खोलने के दावे भी किये और फिर एक के बाद एक मास्टरमाईंड लोगों की गिरफ्तारियों का सच क्या है और उस सच से मुठभेड़ में मारे गये औऱ मौके से फरार आतंकवादियों का । उधर पुलिस की लाईन को पूरी तौर पर सही मानने वाले लोग या फिर पत्रकार इस बात से बेहद उत्तेजित है कि पिछले सालों में धमाकों की दर और उनमें मरने वाले लोगों की तादाद लगातार बढ़ती जा रही है। और मासूम लोगों का खून उनकी भावनाओं को सवालों से दूर कर रहा है। उनका कहना है कि अदालतों से मिलने वाले इंसाफ में इतना वक्त लगता है या फिर सालों बाद भी आंतकवादी छूट जाते है लिहाजा उनका विकल्प गोली ही है। और इस मामले में आतंकवादियों का मसूंबा इतना साफ होता है कि वो मेल करके धमाकों की जानकारी पहले ही दे देते है। इस बात को सिस्टम से जोड़ने वाले लोगों को कुछ पत्रकारों या फिर दूसरे धंधों से जुडे लोगों का सवाल खड़ा करना तीर की तरह से चुभ रहा है। वो सवाल खड़ा करने वालों को सीधा आतंकवादियों का समर्थक या फिर दलाल की भूमिका में खड़ा कर देना चाहते है। एक साथी से बातचीत के दौरान पुलिस की लाईन पर कुछ सवाल ही उठाये थे कि देश के सबसे बेहतरीन पत्रकारों में शुमार उस दोस्त ने गुस्से में कहा कि भगवान अगली बार बम फटे तो उसमें ऐसे पचास-साठ पत्रकारों के परिवार वाले मरे तब मैं उनसे सवाल पूछूंगा कि आतंकवादी कैसे लगते है। कुछ लोगों का कहना है कि सवाल उठाने वाले पत्रकारों ने कभी गोली को हाथ में लेकर भी नहीं देखा होगा गोलियों के बीच रिपोर्टिंग करना तो दूर है। इतना तो तय है कि ये लोग बेगुनाह लोगों से बेहद नफरत और अपने देश से बेहद प्यार करते है। और मासूम लोगों की लाशों की कवरेज और फोटो ने इन लोगों को इतना उत्तेजित कर दिया कि पुलिस पर उठाया गया कोई भी सवाल इनको देश के साथ गद्दारी लगता है। लेकिन ऐसी कई बाते है जो लगातार मुझे इस बात पर मजबूर करती है कि कैसे भी हालात हो हम पत्रकारों को सवाल उठाने के अपने मूल काम से मुंह नहीं मोड़ना चाहिये। सवाल सिर्फ सवाल करने के लिये नहीं बल्कि देश की एक बड़ी आबादी के वो सवाल जिनसे जांच अधिकारी मुंह मोड़ना चाहते है। इस पूरे मामले की देश भर में जिस तरह की प्रतिक्रिया हुयी है उसकी सही तस्वीर आने वाले कई सालों में ही साफ हो पायेगी। लेकिन इस बात पर मैं पूरी तरह आश्वत हूं कि दिल्ली के ब्लास्ट से शुरू हुये इस खौफनाक खेल में जांच एजेंसियों के खिलाफ काफी सवाल तो खडे होते है।
मुंबई ट्रेन ब्लास्ट की पूरी जांच कर मुंबई एटीएस ने उसके आरोपियों को गिरफ्तार कर अदालत में चार्जशीट भी कर दिया। फरार लोगों को पाकिस्तानी मूल का घोषित कर दिया। अब मुंबई की ही क्राईम ब्रांच ने पांच लोगों को गिरफ्तार किया और साफ कहा कि ये है मास्टरमाईंड मुंबई ट्रेन ब्लास्ट के। पाकिस्तानी लोग इसमें शामिल ही नहीं थे बल्कि ये पांच लोग ही पाकिस्तानियों के तौर पर उस ब्लास्ट के मास्टरमाईंड से मिले थे। अब आप सवाल उठा सकते है कि एक घटना को साथ में अंजाम देने वाले कितने मास्टर माईंड हो सकते है जो एक दूसरे से बिलकुल अनजान है। एक के बाद एक कई राज्यों की पुलिस ने इतने मास्टर माईंड खोज लिये जो एक दूसरे को नहीं जानते लेकिन घटनाओं को अंजाम दिये जा रहे है। क्या हर बार पुलिस अधिकारियों के दिये गये प्रेस नोट्स को मीडिया ने अदालत के फैसलों की तर्ज पर नहीं चलाया। क्या किसी को याद रहा कि सिमी के किसी भी कार्यकर्ता के खिलाफ मामला अभी प्रूव नहीं हुआ। यहां तक कि सिमी के फर्स्ट बांबर के तौर पर मीडिया में छाये रहे मुबीन की उस मामले में रिहाई भी मीडिया की नजर में नहीं आयी। ........................बात अभी बाकी है......
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सच के पहरूये ?
खबर कवर करनी थी। समय हाथ से निकलता जा रहा था। मुझे लग रहा था कि ड्राईवर जान-बूझकर गाड़ी धीमें चला रहा है। गुस्से में मैने ड्राईवर को कड़े शब्दों में डांटा। आप समझ सकते है कि किसी अपने से छोटी सामाजिक हैसियत वाले आदमी को हम कहते वक्त कडे किन शब्दों को कहते है। ये मेरे साथ पहली बार हो रहा था कि मैं किसी स्टाफ से इस तरह से पेश आ रहा था, ऐसा नहीं था कि मैं पहली बार इस ड्राईवर के साथ जा रहा था। लेकिन उस दिन ही ऐसा लगा कि ये ड्राईवर कुछ धीमा चला रहा है। खैर मैं किसी तरह समय पर प्रेस कांफ्रैस में शामिल हुआ। खबर खत्म कर वापस लौटा तो मैंने अपने ड्राईवर से कहा कि माफ करना यार सुबह मैं गुस्से में काफी कुछ बोल गया लेकिन तुम इस तरह से क्यों चला रहे थे। तब उस ड्राईवर ने जवाब दिया कि कोई बात नहीं साहब मैं थोड़ी नींद में था। क्योंकि पिछले 22 घंटे से ड्यूटी पर हूं। क्या मतलब तुम 22 घंटे से गाड़ी चला रहे हो। जीं हां सर रिलीवर छुट्टी पर है इसी लिये में चला रहा हूं। लेकिन क्या इस तरह से तुम हमारी और अपनी जान खतरे में नहीं डाल रहे हो। सर ये तो हफ्ते में एक दो बार होता ही है।
तब मुझे पहली बार पता चला कि किसी ड्राईवर को हफ्ते में कोई छुट्टी नहीं मिलती। और जिन इश्तिहारों में मैने 24*7 खुला हुआ लिखा देखा था उसका असली मतलब समझा। फिर मैंने उन सब ड्राईवरों से बात की जिनको मैं जानता था पता चला कि सब किसी भी ड्राईवर का हफ्ते में एक भी दिन छुट्टी का नहीं है। साथ ही आप जान ले कि आठ घंटे का समय उनके लिये नहीं वो पूरे बारह घंटे की ड्यूटी करते है। रोजाना, सातों दिन और पूरे महीने साल भर। हां वो छुट्टी पर भी जाते है तब या तो रिलीवर को छुट्टी के बदले पैसै या फिर उसके लिये आकर ड्यूटी करने के बदले। पूरी दिल्ली में लाख से ज्यादा ड्राईवर होंगे , और उनकी जिंदगी इस तरह से ही चलती है। बिना किसी लेबर लॉ या फिर देश में तेजी से आ रही विकास की आंधी से अनछुई सी। कोई खबर उनकी जिंदगी पर नहीं। जानते सब है लेकिन बोलता कोई नहीं ज्यादातर ये लोग ट्रांसपोर्टरों की कारों पर काम कर रहे है और जानते है कि इस नौकरी के अलावा कोई विकल्प नहीं है।
एक बात जरूर है कि उस बात को गुजरे तीन साल हो चुके है और मैं जब भी टैक्सी में बैठता हूं तो ये नहीं बोलता कि मैं बदलाव के लिये काम करने वाला पत्रकार हूं एक क्लर्क नहीं, क्योंकि हकीकत वो आगे बैठा आदमी जानता है।
तब मुझे पहली बार पता चला कि किसी ड्राईवर को हफ्ते में कोई छुट्टी नहीं मिलती। और जिन इश्तिहारों में मैने 24*7 खुला हुआ लिखा देखा था उसका असली मतलब समझा। फिर मैंने उन सब ड्राईवरों से बात की जिनको मैं जानता था पता चला कि सब किसी भी ड्राईवर का हफ्ते में एक भी दिन छुट्टी का नहीं है। साथ ही आप जान ले कि आठ घंटे का समय उनके लिये नहीं वो पूरे बारह घंटे की ड्यूटी करते है। रोजाना, सातों दिन और पूरे महीने साल भर। हां वो छुट्टी पर भी जाते है तब या तो रिलीवर को छुट्टी के बदले पैसै या फिर उसके लिये आकर ड्यूटी करने के बदले। पूरी दिल्ली में लाख से ज्यादा ड्राईवर होंगे , और उनकी जिंदगी इस तरह से ही चलती है। बिना किसी लेबर लॉ या फिर देश में तेजी से आ रही विकास की आंधी से अनछुई सी। कोई खबर उनकी जिंदगी पर नहीं। जानते सब है लेकिन बोलता कोई नहीं ज्यादातर ये लोग ट्रांसपोर्टरों की कारों पर काम कर रहे है और जानते है कि इस नौकरी के अलावा कोई विकल्प नहीं है।
एक बात जरूर है कि उस बात को गुजरे तीन साल हो चुके है और मैं जब भी टैक्सी में बैठता हूं तो ये नहीं बोलता कि मैं बदलाव के लिये काम करने वाला पत्रकार हूं एक क्लर्क नहीं, क्योंकि हकीकत वो आगे बैठा आदमी जानता है।
Wednesday, October 1, 2008
बटला हाउस मुठभेड़ कहानी, हकीकत, फसाना
19 सितंबर को बटला हाउस में एनकाउंटर हुआ था। दो संदिग्ध आतंकवादी और एक पुलिस इंस्पेक्टर इस मुठभेड़ में मारे गये।
इससे पहले एक ऐसा ही एनकाउंटर बटला हाउस में 26 दिसंबर 2000 को भी हुआ था। लालकिला कांड के आरोपी आतंकवादी अबू सामल और उसके साथी के साथ दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल का एनकाउंटर हुआ और दोनो आरोपी मारे गये। एनकांउटर में स्पेशल सेल की ड्रीम टीम काम कर रही थी। डीसीपी अशोक चांद, एसीपी राजबीर सिंह और इंसपेक्टर मोहन चंद शर्मा और उनके साथी इस एनकाउंटर में शामिल थे। मुठभेड के बाद बटला हाउस में धरना प्रदर्शन हुआ। लोगों को शक था कि ये मुठभेड़ फर्जी है और दोनों कश्मीरी लडको को उठा कर मारा गया। वक्त के साथ बात यादों के गर्त में चली गयी। लेकिन इस बार की मुठभेड़ में कुछ बाते ऐसी हो गयी जिंदगी की किताब में सूखा हुआ फूल बनने को तैयार नहीं है। मुठभेड़ के बाद सबसे पहली मुलाकात एल-18 के पीछे वाले मकान में रहने वाले सज्जन से हुयी जो इस बात को बता रहे थे कि यहां रहने वाले लड़कों को उन्होंने पहली रात ही डांटा था, वो लोग गली में कूड़ा न फेंका करे। भीड़ में भारी नाराजगी थी कि मीडिया मस्जिद खलीलुल्लाह का नाम आतंकवादियों के साथ जोड़कर चला रहा है। हालांकि मीडिया का इशारा इस मकान की पहचान के लिये मस्जिद के नजदीक बताना भर था। शुक्रवार का दिन था और धीरे-धीरे भीड़ नमाज पढ़ने के लिये मस्जिद में फिर वहां से घटना स्थल के पर इकट्ठा हो रही थी। भीड़ का मानना था कि ये पूरी मुठभेड़ एक ड्रामे का हिस्सा भर थी और बेगुनाह मुस्लिम लड़को को इंडियन मुजाहिदीन के आतंकवादी के तौर पर मार गिराया। पत्रकारों की भीड़ उस पूरे वाक्ये को अपने शब्दों और कैमरों में कैद करने में लगी थी। संदेह के साये में पत्रकार भी घूम रहे थे। और अगर उस वक्त के लाईव चैट पर नजर दौड़ाई जाये तो अहसास होता है कि जैसे स्टूडियों और चैनल्स में मुठभेड़ पर सवाल खडे करने की होड़ लगी थी। फ्लैट आंखों के सामने था। और उसकी लोकेशन दो आरोपियों के आसानी से भाग जाने की गवाही देने को तैयार नही थी। चार बजे प्रेस क्रांफ्रेस हुयी और उसमें दिल्ली पुलिस कमिश्नर ने ऐलान किया कि मरने वाला आतिफ उर्फ बशीर इंडियन मुजाहिदीन के सबसे एक्टिव मॉड्यूल का मास्टरमाईंड था। मुठभेड में मारा गया दूसरा लडका साजिद था जो बम बनाने में कारीगर था। दिल्ली पुलिस के अधिकारियों ने तब बताया कि मोहन चंद शर्मा और एक हैड कास्टेंबल घायल है। इस समय तक देश मीडिया के माध्यम से जान चुका था कि पूरे देश को सीरियल्स बम धमाकों से दहलाने वाले खतरनाक आतकंवादियों का गिरोह पकड़ा जा चुका है। मीडिया ने ऐलान कर दिया था कि सैकडों लोगों की मौत के जिम्मेदार ये ही लोग है। मीडिया के पास जादुई कसौटी थी जिस पर दोपहर से पहले पूरी मुठभेड फर्जी लग रही थी लेकिन शाम तक मोहनचंद शर्मा के मरने की खबर के साथ ही शहीद मोहनचंद शर्मा के नारों से देश के मीडिया चैनल गूंजने लगे। उनकी बेमिसाल बहादुरी के किस्से फिजाओं में गूंजने लगे। दोपहर तक मोहनचंद शर्मा की करोड़ो की संपत्ति और देश के नंबर दो माफिया डान के साथ उसके करीबी रिश्ते बताने वाले पत्रकार अचानक गमजदा दिखने लगे और बहादुरी का देशप्रेमी गीत शुरू हो गया।
और शायद यही से पहली बार दिखायी दी देश के एक बड़े हिस्से की दूसरे से दरार की गहराई। लगा जैसे दोनों के बीच कुछ दरक गया। सभी आरोपी आतंकवादियों का आजमगढ़ से रिश्ता और उनकी उम्र, पढ़ाई और दूसरे सवालों को लेकर मुस्लिमों को लग रहा था कि उन्हें जानबूझकर निशाना बनाया जा रहा है, तो दूसरी तरफ एक बड़ा हिस्सा मोहनचंद शर्मा की मौत को अप्रतिम शहादत में तब्दील करने में लग गया। सवाल करने पर दोनों ओर से पांबदी लगा दी गयी। लेकिन हम लोग शुरूआत करते है जामिया नगर, आजमगढ़ और देश भर में मुस्लिमों के एक हिस्से की ओर से।
1.मोहनचंद शर्मा ने पूरी मुठभेड़ को जिस तरह से अंजाम दिया क्या वो एक ऐसे ऑफिसर से उम्मीद की जा सकती थी जिसने न सिर्फ दिल्ली में बल्कि पूरे देश के अलग-अलग हिस्सों में मशहूर बदमाशों सहित खूंखार आतंकवादियों का सफाया किया हो।
2. भले ही ये सवाल बचकाना लगे और बार-बार दोहराया सा लगे लेकिन जितने मुस्लिम दोस्तों को मैं जानता हूं और जितनी भी भीड़ से मैंने राब्ता किया सबके लिये पहला सवाल है कि बुलेट प्रूफ जैकेट न पहनने की वजह क्या थी। बुलेट प्रूफ सरकार ने दी थी और मोहनचंद शर्मा की गाड़ी में उनका पीएसओ वो जैकेट रखे हुये था। यदि जैकेट बहुत वजनी थी तो पुलिस कमिश्नर हो या फिर ज्वाईंट सीपी इसका जवाब क्यों नहीं दे रहे थे कि वजनी होने की वजह से सिर्फ इंस्पेक्टर मोहनचंद शर्मा ने ही जैकेट नहीं पहनी थी। पहचान होने की बात सवाल इस लिये खड़े किये जा रहे है क्योंकि धर्मेंद्र सिंह पहले ही फ्लैट में जाकर वैरीफिकेशन कर चुका था कि उस फ्लैट में आतिफ और साजिद मौजूद है।
3. रमजान के दिनों में इस इलाके को बेहद संवेदनशील मानने वाली पुलिस के एक इस्पेक्टर ने अपने एसीपी और डीसीपी के बिना ही इतनी बड़ी कार्रवाई को अंजाम दिया या फिर वो लोग साथ में थे।
4.फ्लैट से निकल कर दो आतंकवादी उस मकान से फरार हो गये जहां नीचे जाने के रास्ते में पुलिस खड़ी थी और बाकी तीनों जगहों से भाग निकलने का कोई रास्ता नहीं है।
5. पुलिस की मंशा क्या थी, क्या वो लोग आसानी से उन लोगों को साथ अपने साथ लेकर आने वाले थे जिनपर देश में सैकड़ों कत्लों को अंजाम देने का आरोप था। पुलिस के मुताबिक वो इन लोगों की मूवमेंट पर तीन दिन से निगाह रखे थे तब क्या बिना किसी कार्डन आफ के या फिर फ्लैट की घेराबंदी के इस तरह की कार्रवाई लापरवाही या फिर दिलेरी का एक नायाब नमूना।
6.क्या दो आरोपी आतंकवादियों की मौत से दो आरोपी आतंकवादियों के भाग जाने के सवाल को बिलकुल खत्म कर दिया।
इन सब सवालों के साथ जामिया नगर की आबादी या फिर आजमगढ़ के लोग अपनी नाराजगी जताने के लिये खुलेआम सामने आ रहे थे।
उन लोगों का कहना था कि आखिर कितने मास्टर माईंड इस देश में जो आजमगढ़ से चलते है। देश के लोगों ने पहले ही अलग-अलग राज्य की पुलिस के अलग-अलग मास्टर माईंड को देख लिया था। हर बार मीडिया गर्व से इस बात का इजहार कर रहा था कि मास्टरमाईंड चढ़ा पुलिस के शिकंजे मे। लेकिन जो सबसे संदेहजनक बात थी वो ये कि ये तमाम मास्टर माईंड आपम में एक दूसरे से मिले बिना एक ही बम धमाकों को अंजाम दिये जा रहे थे।
लेकिन सवाल इस मुठभेड़ पर पुलिस की लाईन का सर्मथन करने वाले के पास भी थे। उन लोगों का कहना था कि हर बार एनकाउंटर के बाद इस तरह की घटनायें होती है। और आतंकवादियों को आसानी से अल्पसंख्यकों की आबादी में शरण मिलती है। क
क्या फर्जी मुठभेड़ में कोई पुलिस इसपेक्टर शहीद होता है।
धमाकों में मरे बेगुनाह लोगों के लिये कोई संगठन सामने क्यों नहीं आता।
जामिया मिलिया इस्लामिया के वाईस चांसलर मुशीरूल हक के बयान ने तो बहुत से लोगों को गुस्से से लाल कर दिया। मुशीरूल हक साहब ने कहा कि वो जामिया मिलिया से संबद्द उन लड़को की कानूनी मदद करेंगे जिन्हें दिल्ली पुलिस ने देश भर में धमाकों को अंजाम देने के आरोप में पकड़ा है।
देश भर में इस बात को लेकर बहस शुरू हो चुकी है कि क्या इस बार की दरार जो दिख रही है वो भर पायेगी या नहीं ................................आगे फिर
इससे पहले एक ऐसा ही एनकाउंटर बटला हाउस में 26 दिसंबर 2000 को भी हुआ था। लालकिला कांड के आरोपी आतंकवादी अबू सामल और उसके साथी के साथ दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल का एनकाउंटर हुआ और दोनो आरोपी मारे गये। एनकांउटर में स्पेशल सेल की ड्रीम टीम काम कर रही थी। डीसीपी अशोक चांद, एसीपी राजबीर सिंह और इंसपेक्टर मोहन चंद शर्मा और उनके साथी इस एनकाउंटर में शामिल थे। मुठभेड के बाद बटला हाउस में धरना प्रदर्शन हुआ। लोगों को शक था कि ये मुठभेड़ फर्जी है और दोनों कश्मीरी लडको को उठा कर मारा गया। वक्त के साथ बात यादों के गर्त में चली गयी। लेकिन इस बार की मुठभेड़ में कुछ बाते ऐसी हो गयी जिंदगी की किताब में सूखा हुआ फूल बनने को तैयार नहीं है। मुठभेड़ के बाद सबसे पहली मुलाकात एल-18 के पीछे वाले मकान में रहने वाले सज्जन से हुयी जो इस बात को बता रहे थे कि यहां रहने वाले लड़कों को उन्होंने पहली रात ही डांटा था, वो लोग गली में कूड़ा न फेंका करे। भीड़ में भारी नाराजगी थी कि मीडिया मस्जिद खलीलुल्लाह का नाम आतंकवादियों के साथ जोड़कर चला रहा है। हालांकि मीडिया का इशारा इस मकान की पहचान के लिये मस्जिद के नजदीक बताना भर था। शुक्रवार का दिन था और धीरे-धीरे भीड़ नमाज पढ़ने के लिये मस्जिद में फिर वहां से घटना स्थल के पर इकट्ठा हो रही थी। भीड़ का मानना था कि ये पूरी मुठभेड़ एक ड्रामे का हिस्सा भर थी और बेगुनाह मुस्लिम लड़को को इंडियन मुजाहिदीन के आतंकवादी के तौर पर मार गिराया। पत्रकारों की भीड़ उस पूरे वाक्ये को अपने शब्दों और कैमरों में कैद करने में लगी थी। संदेह के साये में पत्रकार भी घूम रहे थे। और अगर उस वक्त के लाईव चैट पर नजर दौड़ाई जाये तो अहसास होता है कि जैसे स्टूडियों और चैनल्स में मुठभेड़ पर सवाल खडे करने की होड़ लगी थी। फ्लैट आंखों के सामने था। और उसकी लोकेशन दो आरोपियों के आसानी से भाग जाने की गवाही देने को तैयार नही थी। चार बजे प्रेस क्रांफ्रेस हुयी और उसमें दिल्ली पुलिस कमिश्नर ने ऐलान किया कि मरने वाला आतिफ उर्फ बशीर इंडियन मुजाहिदीन के सबसे एक्टिव मॉड्यूल का मास्टरमाईंड था। मुठभेड में मारा गया दूसरा लडका साजिद था जो बम बनाने में कारीगर था। दिल्ली पुलिस के अधिकारियों ने तब बताया कि मोहन चंद शर्मा और एक हैड कास्टेंबल घायल है। इस समय तक देश मीडिया के माध्यम से जान चुका था कि पूरे देश को सीरियल्स बम धमाकों से दहलाने वाले खतरनाक आतकंवादियों का गिरोह पकड़ा जा चुका है। मीडिया ने ऐलान कर दिया था कि सैकडों लोगों की मौत के जिम्मेदार ये ही लोग है। मीडिया के पास जादुई कसौटी थी जिस पर दोपहर से पहले पूरी मुठभेड फर्जी लग रही थी लेकिन शाम तक मोहनचंद शर्मा के मरने की खबर के साथ ही शहीद मोहनचंद शर्मा के नारों से देश के मीडिया चैनल गूंजने लगे। उनकी बेमिसाल बहादुरी के किस्से फिजाओं में गूंजने लगे। दोपहर तक मोहनचंद शर्मा की करोड़ो की संपत्ति और देश के नंबर दो माफिया डान के साथ उसके करीबी रिश्ते बताने वाले पत्रकार अचानक गमजदा दिखने लगे और बहादुरी का देशप्रेमी गीत शुरू हो गया।
और शायद यही से पहली बार दिखायी दी देश के एक बड़े हिस्से की दूसरे से दरार की गहराई। लगा जैसे दोनों के बीच कुछ दरक गया। सभी आरोपी आतंकवादियों का आजमगढ़ से रिश्ता और उनकी उम्र, पढ़ाई और दूसरे सवालों को लेकर मुस्लिमों को लग रहा था कि उन्हें जानबूझकर निशाना बनाया जा रहा है, तो दूसरी तरफ एक बड़ा हिस्सा मोहनचंद शर्मा की मौत को अप्रतिम शहादत में तब्दील करने में लग गया। सवाल करने पर दोनों ओर से पांबदी लगा दी गयी। लेकिन हम लोग शुरूआत करते है जामिया नगर, आजमगढ़ और देश भर में मुस्लिमों के एक हिस्से की ओर से।
1.मोहनचंद शर्मा ने पूरी मुठभेड़ को जिस तरह से अंजाम दिया क्या वो एक ऐसे ऑफिसर से उम्मीद की जा सकती थी जिसने न सिर्फ दिल्ली में बल्कि पूरे देश के अलग-अलग हिस्सों में मशहूर बदमाशों सहित खूंखार आतंकवादियों का सफाया किया हो।
2. भले ही ये सवाल बचकाना लगे और बार-बार दोहराया सा लगे लेकिन जितने मुस्लिम दोस्तों को मैं जानता हूं और जितनी भी भीड़ से मैंने राब्ता किया सबके लिये पहला सवाल है कि बुलेट प्रूफ जैकेट न पहनने की वजह क्या थी। बुलेट प्रूफ सरकार ने दी थी और मोहनचंद शर्मा की गाड़ी में उनका पीएसओ वो जैकेट रखे हुये था। यदि जैकेट बहुत वजनी थी तो पुलिस कमिश्नर हो या फिर ज्वाईंट सीपी इसका जवाब क्यों नहीं दे रहे थे कि वजनी होने की वजह से सिर्फ इंस्पेक्टर मोहनचंद शर्मा ने ही जैकेट नहीं पहनी थी। पहचान होने की बात सवाल इस लिये खड़े किये जा रहे है क्योंकि धर्मेंद्र सिंह पहले ही फ्लैट में जाकर वैरीफिकेशन कर चुका था कि उस फ्लैट में आतिफ और साजिद मौजूद है।
3. रमजान के दिनों में इस इलाके को बेहद संवेदनशील मानने वाली पुलिस के एक इस्पेक्टर ने अपने एसीपी और डीसीपी के बिना ही इतनी बड़ी कार्रवाई को अंजाम दिया या फिर वो लोग साथ में थे।
4.फ्लैट से निकल कर दो आतंकवादी उस मकान से फरार हो गये जहां नीचे जाने के रास्ते में पुलिस खड़ी थी और बाकी तीनों जगहों से भाग निकलने का कोई रास्ता नहीं है।
5. पुलिस की मंशा क्या थी, क्या वो लोग आसानी से उन लोगों को साथ अपने साथ लेकर आने वाले थे जिनपर देश में सैकड़ों कत्लों को अंजाम देने का आरोप था। पुलिस के मुताबिक वो इन लोगों की मूवमेंट पर तीन दिन से निगाह रखे थे तब क्या बिना किसी कार्डन आफ के या फिर फ्लैट की घेराबंदी के इस तरह की कार्रवाई लापरवाही या फिर दिलेरी का एक नायाब नमूना।
6.क्या दो आरोपी आतंकवादियों की मौत से दो आरोपी आतंकवादियों के भाग जाने के सवाल को बिलकुल खत्म कर दिया।
इन सब सवालों के साथ जामिया नगर की आबादी या फिर आजमगढ़ के लोग अपनी नाराजगी जताने के लिये खुलेआम सामने आ रहे थे।
उन लोगों का कहना था कि आखिर कितने मास्टर माईंड इस देश में जो आजमगढ़ से चलते है। देश के लोगों ने पहले ही अलग-अलग राज्य की पुलिस के अलग-अलग मास्टर माईंड को देख लिया था। हर बार मीडिया गर्व से इस बात का इजहार कर रहा था कि मास्टरमाईंड चढ़ा पुलिस के शिकंजे मे। लेकिन जो सबसे संदेहजनक बात थी वो ये कि ये तमाम मास्टर माईंड आपम में एक दूसरे से मिले बिना एक ही बम धमाकों को अंजाम दिये जा रहे थे।
लेकिन सवाल इस मुठभेड़ पर पुलिस की लाईन का सर्मथन करने वाले के पास भी थे। उन लोगों का कहना था कि हर बार एनकाउंटर के बाद इस तरह की घटनायें होती है। और आतंकवादियों को आसानी से अल्पसंख्यकों की आबादी में शरण मिलती है। क
क्या फर्जी मुठभेड़ में कोई पुलिस इसपेक्टर शहीद होता है।
धमाकों में मरे बेगुनाह लोगों के लिये कोई संगठन सामने क्यों नहीं आता।
जामिया मिलिया इस्लामिया के वाईस चांसलर मुशीरूल हक के बयान ने तो बहुत से लोगों को गुस्से से लाल कर दिया। मुशीरूल हक साहब ने कहा कि वो जामिया मिलिया से संबद्द उन लड़को की कानूनी मदद करेंगे जिन्हें दिल्ली पुलिस ने देश भर में धमाकों को अंजाम देने के आरोप में पकड़ा है।
देश भर में इस बात को लेकर बहस शुरू हो चुकी है कि क्या इस बार की दरार जो दिख रही है वो भर पायेगी या नहीं ................................आगे फिर
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Tuesday, May 6, 2008
Wednesday, February 20, 2008
थम गया है वक्त
दिन-रात सपने देखते हुये लोग। हर वक्त अपने में खोये हुए लोग। उंची-उंची इमारतों के आगे बौने लोग। और भी जाने कितने नाम है जो मुंबईवासियों को अलग-अलग आदमी अपने आप देता है। इस शहर की खासियत है कि लोग खो जाते हैं सपनों में दिक्ततों में प्यार में या फिर रोजगार में। आदमी को ढूंढना शहर के समुंदर में सीप ढूंढना। देश के तमाम शहरों में इस शहर ने अपनी एक अलग जगह बनायी। देश के हर आदमी से जिसका आधुनिक कम्यूनिकेशन से जरा भी वास्ता है मुंबई का एक खास रिश्ता है। हजारों फिल्मों के सहारे मुंबई उस आदमी से भी संवाद करता है जो कभी नक्शे पर भी नहीं बता सकता कि मुंबई आखिर है कहां। अब सपनों का शहर है तो शहर में अच्छे बुरे लोग दोनों ही होंगे। आप का साबका किससे पड़ता हैं हर बार आप ये तय नहीं कर सकते। टैक्सी ड्राईवर हो या फिर बोझा ढोते हुये मजदूर अगर आप उत्तर भारतीय है तो अचानक आप के चारों ओर बात करते लोगों की भीड़ से कुछ हाथ उठे और हमलावरों की बाहों में तब्दील हो गये। टैक्सी वालों को पीटते हुये देखते हुये करोडों उत्तर भारतीयों को लगा कि केन्या उनसे दूर नहीं है यही कही उनके आस पास आ गया। अभी आसाम और नार्थ ईस्ट में लाशों के ढ़ेर में तब्दील गरीब उत्तर भारतीयों की तस्वीरे लोगों के जेहन से उतरी भी नहीं कि ये नया मामला आ खड़ा हुया। ऐसा नहीं है कि ये पहली बार हो रहा है लेकिन पहली बार इस तरह से करोड़ों उन उत्तर भारतीयों के सामने जा रहा है जो कभी मुंबई न गये है न ही उनको जाना है। लेकिन मुंबई उनकी निगाह में ऐसा शहर तो हो ही गया जो उत्तर भारतीयों को अपना निशाना बनाता है। एक सवाल जरूर है जो उत्तर भारतीय अब सबसे पूछ रहे है कि क्या कोई ये बताये कि भारत के बलिदान देने की बारी सिर्फ उत्तर भारतीयों की है। या देश नाम का मतलब भी सिर्फ उत्तर भारतीय को ही मालूम है।
दिन-रात सपने देखते हुये लोग। हर वक्त अपने में खोये हुए लोग। उंची-उंची इमारतों के आगे बौने लोग। और भी जाने कितने नाम है जो मुंबईवासियों को अलग-अलग आदमी अपने आप देता है। इस शहर की खासियत है कि लोग खो जाते हैं सपनों में दिक्ततों में प्यार में या फिर रोजगार में। आदमी को ढूंढना शहर के समुंदर में सीप ढूंढना। देश के तमाम शहरों में इस शहर ने अपनी एक अलग जगह बनायी। देश के हर आदमी से जिसका आधुनिक कम्यूनिकेशन से जरा भी वास्ता है मुंबई का एक खास रिश्ता है। हजारों फिल्मों के सहारे मुंबई उस आदमी से भी संवाद करता है जो कभी नक्शे पर भी नहीं बता सकता कि मुंबई आखिर है कहां। अब सपनों का शहर है तो शहर में अच्छे बुरे लोग दोनों ही होंगे। आप का साबका किससे पड़ता हैं हर बार आप ये तय नहीं कर सकते। टैक्सी ड्राईवर हो या फिर बोझा ढोते हुये मजदूर अगर आप उत्तर भारतीय है तो अचानक आप के चारों ओर बात करते लोगों की भीड़ से कुछ हाथ उठे और हमलावरों की बाहों में तब्दील हो गये। टैक्सी वालों को पीटते हुये देखते हुये करोडों उत्तर भारतीयों को लगा कि केन्या उनसे दूर नहीं है यही कही उनके आस पास आ गया। अभी आसाम और नार्थ ईस्ट में लाशों के ढ़ेर में तब्दील गरीब उत्तर भारतीयों की तस्वीरे लोगों के जेहन से उतरी भी नहीं कि ये नया मामला आ खड़ा हुया। ऐसा नहीं है कि ये पहली बार हो रहा है लेकिन पहली बार इस तरह से करोड़ों उन उत्तर भारतीयों के सामने जा रहा है जो कभी मुंबई न गये है न ही उनको जाना है। लेकिन मुंबई उनकी निगाह में ऐसा शहर तो हो ही गया जो उत्तर भारतीयों को अपना निशाना बनाता है। एक सवाल जरूर है जो उत्तर भारतीय अब सबसे पूछ रहे है कि क्या कोई ये बताये कि भारत के बलिदान देने की बारी सिर्फ उत्तर भारतीयों की है। या देश नाम का मतलब भी सिर्फ उत्तर भारतीय को ही मालूम है।
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