चुनाव के नतीजें आ गये। लोकसभा चुनावों के लिये सेमीफाईनल माने जा रहे इन चुनाव के नतीजों ने काफी लोगों को गलत साबित कर दिया। लोग मोदी के कद को काफी आंक रहे थे। लेकिन मोदी के यशोगान से आकाश गुंजा रहे बीजेपी के लोग भी जानते है कि मोदी के विजयी रथ के पहिये दिल्ली में थम गये है। पहियों में झाड़ू फंस गयी है। झाड़ू की ताकत का आकलन करने में आम तौर पर विश्लेषक और पत्रकार फेल रहे। जनता ने नये ड्रीम मर्चेंट का चुनाव कर लिया । मोदी का विकास के सपने को ठुकरा कर आम आदमी पार्टी की तान पर दिल्ली थिरकने लगी। 8 दिसंबर को दिल्ली की सड़कों से गुजरते वक्त आदमियों को देखता रहा और सोचता रहा कि क्या ये वही लोग है जिन्होंने इतना बड़ा फैसला इतनी चुपचाप से ले लिया। किसी को कानो-कान तक खबर नहीं हुई। या कान मोदी की वंदना सुनने में बहरे हो चुके थे। कुछ भी हो। झाड़ू की जीत का सबसे पहला असर चमत्कारी होगा ये मालूम नहीं था। भ्रष्ट्राचार के प्रतीक बन चुके येदुयेरप्पा को गले लगाने में जुटे मोदी ने इशारा किया,और बीजेपी के मैले कपड़ों ने उजली चमक दिखानी शुरू कर दी। “हम जोड़तोड़ कर सरकार नहीं बनायेंगे।“ बीजेपी बहुमत से तीन सीट दूर है। लेकिन घोषणा कर रही है कि वो जनता के फैसले का सम्मान करती है। और विपक्ष में बैठेगी। ये वही बीजेपी है जिसने यूपी में पहली बार हरिशंकर तिवारी,अमरमणि, राजा भैय्या जैसे माफियाओं को साथ लेकर सरकार बचायी थी। सालों तक केसरीनाथ त्रिपाठी ने संसदीय मर्यादाओं के साथ लगभग बलात्कार करते हुए विधायकों की असवैधानिक टूट पर फैसला लटका कर पांच साल तक लूली लंगडी लूटेरी सरकार चलायी थी। पार्टी के मुंह से ये सुनना अच्छा लगा कि वो किसी जोड़ तोड़ की राजनीति में नहीं पड़ेगी। ये ही केजरीवाल की केसरीनुमा बीजेपी की पॉलिटिक्स को पहली चोट है।
केजरीवाल ने सत्ता के दंभ में डूबी राजनीतिक जमात को एक बड़ी मात दी है। लेकिन क्या ये एक अनूठा प्रयोग है। क्या इससे पहले ऐसा नहीं हुआ है। क्या इसका स्थायी प्रभाव होगा। ऐसे बहुत से सवाल हवा में तैर रहे है। कुछ सवालों के जवाब तो वक्त से मिलेंगे और कुछ के लिये आप इतिहास की मदद ले सकते है। इस चुनाव में जो हुआ और आम आदमी पार्टी के इस अभ्युदय के पीछे आम आदमी की कौन सी आकांक्षायें काम कर रही थी उन पर बात की जा सकती है।
चुनाव में कांग्रेस मोदी पर दांव खेल रही थी, और मोदी औद्योगिक घरानों पर। दोनों पार्टियां आम आदमी से राब्ता करना सालों पहले छोड़ चुकी है। कांग्रेस को लग रहा था कि मोदी का हौव्वा उसके बक्शों में वोट भर देगा और वोट के बक्से उसके नेताओं की तिजौरियां। दलाली की परंपरा में प्रवीण हो चुकी एक पूरी जमात अंग्रेजी भाषी नेताओं से भरी हुई जिनकी डिग्रियों पर सिर्फ नाम हिंदुस्तानी है। चुनाव लड रहे उसके नेताओं के औसत हैसियत करोड़ों में हैं। दिल्ली सरकार में मंत्री की हैसियत से 15 साल राज करने वाले एक मंत्री साहब के जूते लाख रूपये को छूते थे और उनकी घड़ियां लाखों में आती थी। ये अलग बात है कि उनको मंत्रिमंडल में शामिल किया गया था दलित-पिछड़ों और कमजोर तबकों को ताकत देने के नाम पर।
मोदी आजकल विकास के नारे पर सवार है। रात दिन उनकी प्रचार एजेंसियां उनके आकंड़ों को हवा में घुमाने में लगी है। गुजरात की जनता पर उनका जादू चलता है। विकास के नाम पर या फिर अल्पसंख्यकों पर नियंत्रण करने वाले मर्दवादी नेता के नाम पर। आंकड़े ये साफ नहीं करते। लेकिन देश भर में उनके विकास पुरूष के चेहरे को बेचा जा रहा है। ये अलग बात है छत्तीसगढ़ में भीड़ उनके नारों का जबाव नहीं दे रही थी। गुजरात के विकास के नाम पर वहां उन्होंने सपने बेचने की कोशिश की। बस्तर की उन रैलियों में हर हर मोदी घर घर मोदी का जवाब जनता नहीं दे रही थी क्योंकि वहां मुस्लिम वोटो की तादाद बहुत कम थी लिहाजा मोदी का जादू चल नहीं रहा था। अगर आप मोदी की रैलियों का विश्लेषण करेंगे तो आप को साफ मालूम हो जायेगा कि मोदी का जादू यूपी, बिहार के लोगों पर अगर सर चढ़ कर बोलता दिख रहा है तो इसका कारण है कि वहां कि क्षेत्रीय सरकारों का रवैया। मोदी के नारों पर लाखों आवाज अगर साथ दे रही है तो ये नजारा उन इलाकों में चल रहा है जहां कि जनता को वहां की सरकारों का रवैया बहुसंख्यकों के खिलाफ भेदभावपूर्ण लग रहा है। यूपी में मुजफ्फरनगर के दंगों में अखिलेश सरकार का एकतरफा रवैया वहां के बहुंसख्यंक लोगों के मन में रोष भर रहा है। ये बात बीजेपी के नेता अंदरूनी तौर पर जानते और मानते है। बाकि सब जगह उनकी सभाओं में भीड़ जुट रही है लोग सुन रहे है तो इसकी जड़ में कांग्रेस का कुशासन ज्यादा है उनका पॉजीटिव एजेंडा कम है।
केजरीवाल की विजय की वजह तलाशने में तो शायद काफी लंबा वक्त लगेगा। लेकिन कुछ चीजें जरूर है जो केजरीवाल को लोगों की इस गुपचुप क्रांत्रि का नायक बनने की वजह लग सकती है। आम आदमी के लिये तो दूर की बात है, देश के राजनीति के विश्लेषको को भी इस बात को याद करने में लंबा वक्त लगेगा कि आखिरी बार किस राजनेता ने किसी औद्योगिक घराने की लूट को कोसा हो। या फिर बिजनेसमैन्स के लालच के आगे समर्पण करती सरकारों की आलोचना की हो। लेकिन याद करने पर ये जरूर याद आ जायेगा कि 1991 से पहले भले ही राजनेता बिजनेस घरानों को गालियां न देते हो लेकिन लूट के लिये खुला मैदान नहीं छोड़ा था। 91 के बाद के भारत में एक बात साफ दिख रही थी कि कि तरह से भारत के बिजनेसमैंस दुनिया भर के बाजारों मे पैसा लगा रहे थे। किस तरह से रातों रात कुछ करोड़ की कंपनियां हजारों करोड़ की कपनियों में तब्दील हो रही थी। और उनकी तारीफ के कशीदें पढ़ रहा था मीडिया। अगर किसी उद्योगपति पर कोई छापा डलता था तो कहा जा रहा था कि ये छापा इंवेस्टमेंट का रास्ता रोक देगा। इंफ्रास्ट्रक्चर के नाम पर करोड़ों किसानों को भूमिहीन बना कर बड़े बिल्डर घराने तैयार कर दिये गये। इस बेढ़ब विकास की आड़ में लूट का वातावरण तैयार कर दिया। और राजनेताओं ने लूट की इस आँधी में अपना हिस्सा लिया। पूरी राजनीति से जैसे आम आदमी कही गायब हो गया। कॉमनवेल्थ की लूट के बीच में अचानक सोशल मीडिया की शुरूआत हुई और इसने लूट के खेल को आम आदमी के बीच की चीज बना दिया। सोशल मीडिया ने आम आदमी को अपनी बात कहने का हौसला और रास्ता दिया। कॉमनवेल्थ, 2जी, देवास एंट्रिक्स और फिर कोयला घोटाला। हर कोई घोटाला एक के बाद एक दूसरे को पछाड़ता हुआ। और मध्यमवर्ग ने अपने आप को अकेला और असहाय पा लिया। धर्म और धर्म निरपेक्षता के नाम पर हर लूट को जायज ठहरा कर मुलायम,माया, जगन जैसे नेता उभर आये।इसी बीच दशकों से संसद के गलियारों में चक्कर काट रहे एक बिल को लेकर सोशल मीडिया पर चर्चा शुरू होती है। कुछ वालिंटियर्स मिलकर संगठन खड़ा करते है। और अन्ना के सहारे खड़ा होता है एक नया आंदोलन। अन्ना के बाद केजरीवाल और किरण बेदी का नाम इस मुहिम का चेहरा बनजाता।
अरविंद केजरीवाल ने इस मुहिम में सबसे आगे बढ़कर लूट के मूल कारण यानि औद्योगिक घऱानों के बेशुमार लालच को अपना निशाना बनाया। पिछले दो दशक से इस देश के वित्त मंत्री को कठपुतली मानने वाले अंबानी भाईयों पर सीधा हमला बोल कर अरविंद ने आम आदमी को समस्या की जड़ बतायी। बात आम आदमी की समझ में नहीं आती अगर घोटालों के साथ अरविंद ने बिजली और प्राईवेटाईजेशन के बाद लूट में लगी कंपनियों की बैलेंसशीट और सरकार के साथ समझौते के दस्तावेज प्रेस कांफ्रैस और सोशल मीडिया के जरिये उन तक न पहुंचाई होती। दिल्ली शायद देश का अकेला राज्य होगा जहां 100 परसेंट आबादी सेटेलाईट टीवी और फोन से जुडी है।लिहाजा चर्चा होती गई और आम आदमी पार्टी का पर्चा भी आगे बढ़ता गया। बिजली पानी और भ्रष्ट्राचार जैसे साधारण मुद्दों ने महंगाई की मार झेल रहे मध्यम वर्ग को भी अंदर से हिलाया हुआ था।
वीपी सिंह के अस्त होने के बाद से किसी भी आंदोलन से अपने को अलग रख रहे युवाओँ को केजरीवाल ने उम्मीद दी कि वो देश की तकदीर बदलने की हैसियत और हिम्मत रखते है। और युवाओं ने इस आवाज में अपनी आवाज मिला दी।
लेकिन बात फिर से वहीं घूम कर आती है। चुनाव जीतकर विधान सभा पहुंचने वाले लोगों के चेहरे उनको चुनने वाले लोग भी नहीं पहचानते। 70 की 70 सीटों पर अरविंद केजरीवाल चुनाव लड़ रहे थे और उन्होने ही हार जीत दर्ज की। यानि लोकल मुद्दें नहीं यानि कोई और मुद्दा नहीं जनता ने अरविंद केजरीवाल को चुना है। मैं नहीं जानता कि ये सच है लेकिन ज्यादातर आदमियों ने पूछने पर एक ही जवाब दिया कि आदमी कांग्रेस और बीजेपी दोनों की लूट देख चुके है अब इसको भी आजमा कर देखते है। क्या ये सकारात्मक वोट है। जब कोई आंदोलन किसी आदमी के चेहरे में तब्दील हो जाता है तो उसकी हार के खतरे भी उतने ही बढ़ जाते है। लेकिन फिलहाल इन गंभीर सवालों से उलट एक बात का तब तक तो मजा तो लीजिये कि आम आदमी को भिड़ा कर सिर्फ घऱानों के रहमोकरम पर जनता को छोड़ कर अपनी दलाली गिनने में मशरूफ दो पार्टियों को उन्हीं के खेल में एक अनजान खिलाड़ी ने मात दे दी। अब उस खिलाडी के दिखाये गये सपनों में कितनी हकीकत निकलती है इसका इतंजार कीजिये। फर्नाड़ों पैसोआ की कविता की लाईनों से मिलती जुलती लाईनों के साथ अपना लेख खत्म करता हूं।
पूरी तरह सत्यनिष्ठ, निर्रथक चीजों का विश्लेषण करता हूं
मेरी विचारों को आप रद्दी की टोकरी में फेंक दीजिये
बंद कर दीजिये मेरी जुबान को गहरी गुफाओं में कहीं
लेकिन मैं आप से प्यार करता हूं क्योंकि मैं अपने आप से प्यार करता हूं।
केजरीवाल ने सत्ता के दंभ में डूबी राजनीतिक जमात को एक बड़ी मात दी है। लेकिन क्या ये एक अनूठा प्रयोग है। क्या इससे पहले ऐसा नहीं हुआ है। क्या इसका स्थायी प्रभाव होगा। ऐसे बहुत से सवाल हवा में तैर रहे है। कुछ सवालों के जवाब तो वक्त से मिलेंगे और कुछ के लिये आप इतिहास की मदद ले सकते है। इस चुनाव में जो हुआ और आम आदमी पार्टी के इस अभ्युदय के पीछे आम आदमी की कौन सी आकांक्षायें काम कर रही थी उन पर बात की जा सकती है।
चुनाव में कांग्रेस मोदी पर दांव खेल रही थी, और मोदी औद्योगिक घरानों पर। दोनों पार्टियां आम आदमी से राब्ता करना सालों पहले छोड़ चुकी है। कांग्रेस को लग रहा था कि मोदी का हौव्वा उसके बक्शों में वोट भर देगा और वोट के बक्से उसके नेताओं की तिजौरियां। दलाली की परंपरा में प्रवीण हो चुकी एक पूरी जमात अंग्रेजी भाषी नेताओं से भरी हुई जिनकी डिग्रियों पर सिर्फ नाम हिंदुस्तानी है। चुनाव लड रहे उसके नेताओं के औसत हैसियत करोड़ों में हैं। दिल्ली सरकार में मंत्री की हैसियत से 15 साल राज करने वाले एक मंत्री साहब के जूते लाख रूपये को छूते थे और उनकी घड़ियां लाखों में आती थी। ये अलग बात है कि उनको मंत्रिमंडल में शामिल किया गया था दलित-पिछड़ों और कमजोर तबकों को ताकत देने के नाम पर।
मोदी आजकल विकास के नारे पर सवार है। रात दिन उनकी प्रचार एजेंसियां उनके आकंड़ों को हवा में घुमाने में लगी है। गुजरात की जनता पर उनका जादू चलता है। विकास के नाम पर या फिर अल्पसंख्यकों पर नियंत्रण करने वाले मर्दवादी नेता के नाम पर। आंकड़े ये साफ नहीं करते। लेकिन देश भर में उनके विकास पुरूष के चेहरे को बेचा जा रहा है। ये अलग बात है छत्तीसगढ़ में भीड़ उनके नारों का जबाव नहीं दे रही थी। गुजरात के विकास के नाम पर वहां उन्होंने सपने बेचने की कोशिश की। बस्तर की उन रैलियों में हर हर मोदी घर घर मोदी का जवाब जनता नहीं दे रही थी क्योंकि वहां मुस्लिम वोटो की तादाद बहुत कम थी लिहाजा मोदी का जादू चल नहीं रहा था। अगर आप मोदी की रैलियों का विश्लेषण करेंगे तो आप को साफ मालूम हो जायेगा कि मोदी का जादू यूपी, बिहार के लोगों पर अगर सर चढ़ कर बोलता दिख रहा है तो इसका कारण है कि वहां कि क्षेत्रीय सरकारों का रवैया। मोदी के नारों पर लाखों आवाज अगर साथ दे रही है तो ये नजारा उन इलाकों में चल रहा है जहां कि जनता को वहां की सरकारों का रवैया बहुसंख्यकों के खिलाफ भेदभावपूर्ण लग रहा है। यूपी में मुजफ्फरनगर के दंगों में अखिलेश सरकार का एकतरफा रवैया वहां के बहुंसख्यंक लोगों के मन में रोष भर रहा है। ये बात बीजेपी के नेता अंदरूनी तौर पर जानते और मानते है। बाकि सब जगह उनकी सभाओं में भीड़ जुट रही है लोग सुन रहे है तो इसकी जड़ में कांग्रेस का कुशासन ज्यादा है उनका पॉजीटिव एजेंडा कम है।
केजरीवाल की विजय की वजह तलाशने में तो शायद काफी लंबा वक्त लगेगा। लेकिन कुछ चीजें जरूर है जो केजरीवाल को लोगों की इस गुपचुप क्रांत्रि का नायक बनने की वजह लग सकती है। आम आदमी के लिये तो दूर की बात है, देश के राजनीति के विश्लेषको को भी इस बात को याद करने में लंबा वक्त लगेगा कि आखिरी बार किस राजनेता ने किसी औद्योगिक घराने की लूट को कोसा हो। या फिर बिजनेसमैन्स के लालच के आगे समर्पण करती सरकारों की आलोचना की हो। लेकिन याद करने पर ये जरूर याद आ जायेगा कि 1991 से पहले भले ही राजनेता बिजनेस घरानों को गालियां न देते हो लेकिन लूट के लिये खुला मैदान नहीं छोड़ा था। 91 के बाद के भारत में एक बात साफ दिख रही थी कि कि तरह से भारत के बिजनेसमैंस दुनिया भर के बाजारों मे पैसा लगा रहे थे। किस तरह से रातों रात कुछ करोड़ की कंपनियां हजारों करोड़ की कपनियों में तब्दील हो रही थी। और उनकी तारीफ के कशीदें पढ़ रहा था मीडिया। अगर किसी उद्योगपति पर कोई छापा डलता था तो कहा जा रहा था कि ये छापा इंवेस्टमेंट का रास्ता रोक देगा। इंफ्रास्ट्रक्चर के नाम पर करोड़ों किसानों को भूमिहीन बना कर बड़े बिल्डर घराने तैयार कर दिये गये। इस बेढ़ब विकास की आड़ में लूट का वातावरण तैयार कर दिया। और राजनेताओं ने लूट की इस आँधी में अपना हिस्सा लिया। पूरी राजनीति से जैसे आम आदमी कही गायब हो गया। कॉमनवेल्थ की लूट के बीच में अचानक सोशल मीडिया की शुरूआत हुई और इसने लूट के खेल को आम आदमी के बीच की चीज बना दिया। सोशल मीडिया ने आम आदमी को अपनी बात कहने का हौसला और रास्ता दिया। कॉमनवेल्थ, 2जी, देवास एंट्रिक्स और फिर कोयला घोटाला। हर कोई घोटाला एक के बाद एक दूसरे को पछाड़ता हुआ। और मध्यमवर्ग ने अपने आप को अकेला और असहाय पा लिया। धर्म और धर्म निरपेक्षता के नाम पर हर लूट को जायज ठहरा कर मुलायम,माया, जगन जैसे नेता उभर आये।इसी बीच दशकों से संसद के गलियारों में चक्कर काट रहे एक बिल को लेकर सोशल मीडिया पर चर्चा शुरू होती है। कुछ वालिंटियर्स मिलकर संगठन खड़ा करते है। और अन्ना के सहारे खड़ा होता है एक नया आंदोलन। अन्ना के बाद केजरीवाल और किरण बेदी का नाम इस मुहिम का चेहरा बनजाता।
अरविंद केजरीवाल ने इस मुहिम में सबसे आगे बढ़कर लूट के मूल कारण यानि औद्योगिक घऱानों के बेशुमार लालच को अपना निशाना बनाया। पिछले दो दशक से इस देश के वित्त मंत्री को कठपुतली मानने वाले अंबानी भाईयों पर सीधा हमला बोल कर अरविंद ने आम आदमी को समस्या की जड़ बतायी। बात आम आदमी की समझ में नहीं आती अगर घोटालों के साथ अरविंद ने बिजली और प्राईवेटाईजेशन के बाद लूट में लगी कंपनियों की बैलेंसशीट और सरकार के साथ समझौते के दस्तावेज प्रेस कांफ्रैस और सोशल मीडिया के जरिये उन तक न पहुंचाई होती। दिल्ली शायद देश का अकेला राज्य होगा जहां 100 परसेंट आबादी सेटेलाईट टीवी और फोन से जुडी है।लिहाजा चर्चा होती गई और आम आदमी पार्टी का पर्चा भी आगे बढ़ता गया। बिजली पानी और भ्रष्ट्राचार जैसे साधारण मुद्दों ने महंगाई की मार झेल रहे मध्यम वर्ग को भी अंदर से हिलाया हुआ था।
वीपी सिंह के अस्त होने के बाद से किसी भी आंदोलन से अपने को अलग रख रहे युवाओँ को केजरीवाल ने उम्मीद दी कि वो देश की तकदीर बदलने की हैसियत और हिम्मत रखते है। और युवाओं ने इस आवाज में अपनी आवाज मिला दी।
लेकिन बात फिर से वहीं घूम कर आती है। चुनाव जीतकर विधान सभा पहुंचने वाले लोगों के चेहरे उनको चुनने वाले लोग भी नहीं पहचानते। 70 की 70 सीटों पर अरविंद केजरीवाल चुनाव लड़ रहे थे और उन्होने ही हार जीत दर्ज की। यानि लोकल मुद्दें नहीं यानि कोई और मुद्दा नहीं जनता ने अरविंद केजरीवाल को चुना है। मैं नहीं जानता कि ये सच है लेकिन ज्यादातर आदमियों ने पूछने पर एक ही जवाब दिया कि आदमी कांग्रेस और बीजेपी दोनों की लूट देख चुके है अब इसको भी आजमा कर देखते है। क्या ये सकारात्मक वोट है। जब कोई आंदोलन किसी आदमी के चेहरे में तब्दील हो जाता है तो उसकी हार के खतरे भी उतने ही बढ़ जाते है। लेकिन फिलहाल इन गंभीर सवालों से उलट एक बात का तब तक तो मजा तो लीजिये कि आम आदमी को भिड़ा कर सिर्फ घऱानों के रहमोकरम पर जनता को छोड़ कर अपनी दलाली गिनने में मशरूफ दो पार्टियों को उन्हीं के खेल में एक अनजान खिलाड़ी ने मात दे दी। अब उस खिलाडी के दिखाये गये सपनों में कितनी हकीकत निकलती है इसका इतंजार कीजिये। फर्नाड़ों पैसोआ की कविता की लाईनों से मिलती जुलती लाईनों के साथ अपना लेख खत्म करता हूं।
पूरी तरह सत्यनिष्ठ, निर्रथक चीजों का विश्लेषण करता हूं
मेरी विचारों को आप रद्दी की टोकरी में फेंक दीजिये
बंद कर दीजिये मेरी जुबान को गहरी गुफाओं में कहीं
लेकिन मैं आप से प्यार करता हूं क्योंकि मैं अपने आप से प्यार करता हूं।