Friday, October 28, 2011

सायक की उम्मीद

सायक को
कोई शिकायत नहीं है
उसे उम्मीद है।
रोता नहीं है बस देखता है
आस-पास
वक्त को
खेल और सपनों के बीच पुल बनाने में डूबे भाई को
काम में दिन को धोती हुई अपनी मां को
धीमें-धीमें बोलने से पहले खामोश होते हुए अपने पिता को
वो धीरे-धीरे झपकाता है पलकों को
उसको उम्मीद है- शिकायत नहीं
पलकों उठने गिरने से चौंक जाएंगा भाई
मां रोक देंगी दिन को उथलने का काम
पिता की आवाज में लौंट आएँगी गर्मी
कोई ध्यान नहीं देता
लेकिन उसे कोई शिकायत नहीं है
वो धीमें से हिलाता है अपने हाथ-पांव
आवाज के भारी पर्दें गिराता-उठाता है
इधर-उधर घूमती नजर में कोई शिकायत नहीं
उम्मीद रहती है
वो आया है
दुनिया की ऐसी गोद से
जहां वो शिकायत कर जिंदा नहीं रह सकता था
वहां सिर्फ उम्मीद थी
अंधेंरों में डूबे उन महीनों ने
सायक को सिखाया है
उम्मीद रखना
चारों ओर से बंद दीवारों में
भी सांस ली जा सकती है
जिंदा रहने के लिए
ली जा सकती है खुराक
और जरूरत नहीं होती
किसी इंसान के बनाएं किसी कपड़े की
लेकिन कितनी जल्दी
ये सब बदल सकता है
ये दुनिया सायक को बदल देंगी
उम्मीद की जिंदगी से
शिकायत करते एक मासूम में।

क्या सिर्फ यहीं है
इस दुनिया के पास
एक उम्मीद
के बदले में

काश स्टीव जॉब्स हमारे बाप होते

स्टीव जाब्स का निधन हो गया। अगर इस देश में गुलामी की आदत रगों में न दौड़ रही होती तो बस इतनी सी खबर ही थी। लेकिन देश में जिसे राष्ट्रीय मीडिया कहा जाता है, या माना जाता है या स्वंभू बने हुए राष्ट्रीय मीडिया में ये बाप के मरने जैसा दुखांत सीन था। काफी सारे न्यूज पेपर ने अपने पन्ने रंग डाले। हैडलाईंस बनाने के लिये अपने पूरे दिमाग और क्षमताओं का इस्तेमाल किया। संपादकीय से लेकर बीच के कई-कई पेज रंगे गएं। टीवी चैनलों ने किस कदर का रोना रोया ये देखकर किसी को भी रोना आ सकता था। ये नंगे राष्ट्रीय मीडिया का रूदन था। उस राष्ट्रीय मीडिया का जिसने अपने कंधें पर इस देश के लिए सही गलत सोचने की जिम्मेदारी संभाल रखी है।
अमेरिकी राष्ट्रपति को दुख हुआ या नहीं लेकिन मनमोहन सिंह को दुख हुआ है। मनमोहन सिंह लाटरी से बने प्रधानमंत्री है। उनके गले में प्रधानमंत्री का हार उनकी आम जनता से दूरी के चलते डला है। सोनिया गांधी जानती है कि पूरी कोशिशों के बावजूद जो शख्स अपनी मातृभाषा यानि पंजाबी राष्ट्रभाषा यानि हिंदी नहीं सीख पाया वो देश की हजारों जातियों में बंटी जनसंख्या का नायक कैसे बन सकता है।
यानि इतिहास में एक बड़े गुलजारी लाल नंदा के तौर पर दर्ज हो जाएंगा। ऐसे प्रधानमंत्री को हर साल हजारों बच्चों की अकाल मौत पर दर्द नहीं होता। दुख नहीं होता। किसान भूख से मर रहे है। आत्महत्या कर रहे है। रोज अखबार में कई पन्नों पर सड़कों पर मारे गये लोगों के बच्चों की बेबस सी फोटो दिखती है। किसी पर प्रधानमंत्री को दर्द नहीं हुआ। एक लाख साठ हजार लोगों एक्सीडेंट में सड़कों पर दम तो़ड़ते है कभी प्रधानमंत्री का दर्द नहीं दिखा्।
लेकिन ये विषय से भटकना हुआ। बात स्टीव जॉब्स की है। एक ऐसा आदमी जो भारत के बारे में कोई अच्छी राय नहीं रखता हो। ऐसा आदमी जिसे प्रधानमंत्री भारत रत्न न दे पाएं लेकिन भारत की तरक्की में एक मददगार माने।
अब जरा सच देखे। मीडिया एक झूठ के बादल की तरह हो रहा है जो रोज सिर्फ झूठ रच रहा है। और सौ बार बोला गया झूठ सच में तब्दील हो रहा है। स्टीव जॉब्स ने जो भी बनाया कंपनी के मुनाफे के लिए बनाया। उस आदमी ने भरपूर कीमत वसूली अपने आविष्कारों की। हमारे देश ने हर मोबाईल को पैसा देकर खऱीदा। हर चीज पर पैटेंट का पैसा दिया। उसने ऐसी कोई चीज नहीं बनाईँ जो हमारे देश के किसी गरीब आदमी को रोटी हासिल करने में मदद दे। सिर्फ आईफोन जैसी चीजों से दुनिया नहीं चल रही है। ये दर्द उन्हीं बेशर्म लोगों का और दलाल मीडिया का है जिसको 32 रूपये रोज कमाने वाला गरीब नहीं दिखता । लेकिन 32 हजार का आईफोन खरीदने वाले के जरा से दर्द पर पेट में मरोड़ उठ जाती है। ऐसे में सिर्फ एक ही बात कही जा सकती है कि ये मीडिया देश के लोगों का नहीं स्टीव जाब्स जैसों की आवाज जिंदा रखने के लिए है।