आंख और आईने में फर्क होता है,
आंखों में मोहब्बत होती है
नफरत होती है,
आईना लकींरे दिखला देता है,
आंखों में लकीरे लिखावट में बदल जाती है।
आईना न सुंदर देखता है,
ना मेरी बदसूरती पर बिसूरता है,
दिखला देता है जो भी आईने के सामने है
खुला ..
लेकिन आंखों में दिख सकता है इश्क भी
अश्क भी,
बस एक चीज जिसके लिये मुझे तुम्हारी आंखे नहीं आईना चाहिये
मेरी उम्र,
आईना बता देता है सही सही
लेकिन तुम्हारी आंखों में नमी आ जाती है
कुछ तो होगा / कुछ तो होगा / अगर मैं बोलूँगा / न टूटे / तिलस्म सत्ता का / मेरे अदंर / एक कायर टूटेगा / टूट मेरे मन / अब अच्छी तरह से टूट / झूठ मूठ मत अब रूठ।...... रघुबीर सहाय। लिखने से जी चुराता रहा हूं। सोचता रहा कि एक ऐसे शहर में रोजगार की तलाश में आया हूं, जहां किसी को किसी से मतलब नहीं, किसी को किसी की दरकार नहीं। लेकिन रघुबीर सहाय जी के ये पंक्तियां पढ़ी तो लगा कि अपने लिये ही सही लेकिन लिखना जरूरी है।
Thursday, February 19, 2009
दीवार पर दुनिया
मैं घर का दरवाजा खोलता हूं,
सबसे पहले देखता हूं दीवार,
कई रंगों की आड़ी-तिरछी लाईनों से भरी,
मेरे घर की दीवार।
नयी लाईन को तलाशता हूं,
और फिर उसमें खोजता हूं, डायनासोर, ट्रैन, मेट्रो या फिर प्लेन।
इतने में जल चिल्लाता है, पापा मैंने आज क्या बनाया है।
और उस उलझी हुयी दुनिया से फिर नयी लाइन उभरने लगती है.
नयी तस्वीरें, उतनी ही खूबसूरत जितनी तीन साल की दुनिया की आंखों को लगती है।
शुक्रिया जल,
तुमने ला दिया मेरे घर की दीवारों को मेरे इतना करीब
जब मैं चाहूं छू सकता हूं, देख सकता हूं, उभरती लाईनें, तु्म्हारी विस्तार लेती दुनिया,
और मुझसे सांसे लेते हुये एक बाप को.
शुक्रिया जल ।
सबसे पहले देखता हूं दीवार,
कई रंगों की आड़ी-तिरछी लाईनों से भरी,
मेरे घर की दीवार।
नयी लाईन को तलाशता हूं,
और फिर उसमें खोजता हूं, डायनासोर, ट्रैन, मेट्रो या फिर प्लेन।
इतने में जल चिल्लाता है, पापा मैंने आज क्या बनाया है।
और उस उलझी हुयी दुनिया से फिर नयी लाइन उभरने लगती है.
नयी तस्वीरें, उतनी ही खूबसूरत जितनी तीन साल की दुनिया की आंखों को लगती है।
शुक्रिया जल,
तुमने ला दिया मेरे घर की दीवारों को मेरे इतना करीब
जब मैं चाहूं छू सकता हूं, देख सकता हूं, उभरती लाईनें, तु्म्हारी विस्तार लेती दुनिया,
और मुझसे सांसे लेते हुये एक बाप को.
शुक्रिया जल ।
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Tuesday, February 10, 2009
सच की दुविधा
छीनने के लिये पैसा, लूटने के लिये मकान।
नारों के लिये ईश्वर, और नेता दोनों ही सहज उपलब्ध।
मकान लूट लू या नारा लगाऊं, मैं क्या करूं,
हत्याओं के लिये आदमी, झपटने के लिये कार
हटाने के लिये नैतिक बोध , मिटाने के लिये नक्शे
तब मैं क्या करूं
बलात्कार करने के लिये लड़कियां, ठगने के लिये स्त्रियां
छलने के बुढियाएं सारी
मैं क्या करूं
। जलाने के लिये बस्तियां , लूटने के लिये बाजार।
इन सबसे भी बड़ा है व्यापार।
मैं क्या करूं
नारों के लिये ईश्वर, और नेता दोनों ही सहज उपलब्ध।
मकान लूट लू या नारा लगाऊं, मैं क्या करूं,
हत्याओं के लिये आदमी, झपटने के लिये कार
हटाने के लिये नैतिक बोध , मिटाने के लिये नक्शे
तब मैं क्या करूं
बलात्कार करने के लिये लड़कियां, ठगने के लिये स्त्रियां
छलने के बुढियाएं सारी
मैं क्या करूं
। जलाने के लिये बस्तियां , लूटने के लिये बाजार।
इन सबसे भी बड़ा है व्यापार।
मैं क्या करूं
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