कुछ तो होगा / कुछ तो होगा / अगर मैं बोलूँगा / न टूटे / तिलस्म सत्ता का / मेरे अदंर / एक कायर टूटेगा / टूट मेरे मन / अब अच्छी तरह से टूट / झूठ मूठ मत अब रूठ।...... रघुबीर सहाय। लिखने से जी चुराता रहा हूं। सोचता रहा कि एक ऐसे शहर में रोजगार की तलाश में आया हूं, जहां किसी को किसी से मतलब नहीं, किसी को किसी की दरकार नहीं। लेकिन रघुबीर सहाय जी के ये पंक्तियां पढ़ी तो लगा कि अपने लिये ही सही लेकिन लिखना जरूरी है।
Tuesday, November 6, 2007
उलटबांसी खबरों की
भारत दुनिया की छठी महाशक्ति हैं। जीं हां आप में से ज्यादातर लोगों को अखबारों और सामान्य ज्ञान की किताबों में इस लाईन को सैकड़ों बार पढ़ा होगा। हालांकि उस वक्त भी ये बात मेरे दिल में सैकड़ों बार आकर चली गयी कि आखिर छठे होने में क्या मजा हैं। चाहे बात अणु शक्ति की हो परमाणु बम की हो या फिर स्पेश टेक्नॉलॉजी सब में हम छठे ही पायदान पर खड़े हुये। ना पांचवे और न सातवें। खैर सवाल का जवाब न मिलना था न मिला। उम्र में बड़े हो गये, अलग-अलग राहों पर चलते-चलते दिल्ली आ गये। और दिल्ली में कुछ नहीं तो यही सब करने लगे कि कौन क्या कर रहा हैं उसके ऐसा करने में क्या फायदा और नुकसान हैं। इस सब के बीच सेंसेक्स लगातार उपर की तरफ जाता रहा और बचपन के अखबारों की जानकारियां का ग्राफ उलटता रहा। पहले कन्ज्यूमर गुड्स फिर यातायात और सबसे आखिर में परमाणु शक्ति। हम लोगों को लगातार आत्मनिर्भरता के रटे-रटाये गीतों का सहारा छोड़कर विदेशी हाथों को थामने की जरूरते नजर आने लगी। इस बात से बेखबर की बीस साल पहले से हम अखबारों और सरकारी बयानों में इन सबमें आत्मनिर्भर हो चुके हैं। दुनिया की छठी महाशक्ति हो चुके हैं। लेकिन किसी भी बात को लेकर हमारे दिमाग को इतनी उलटबांसी नहीं करनी पड़ी कि कबीर पीछे छुट जाये। कबीर की उलटबांसी को अक्सर कहते थे कि पानी बिच मीन प्यासी, या फिर बरसे कंबल भीगे पानी या फिर ऐसा ही बहुत कुछ। लेकिन अमेरिका के साथ परमाणु सौदे को लेकर कहानी इतनी उलझ गयी कि कबीर के पास भी इसका जवाब नहीं होता। विदेशी कंपनियों की विश्व बैंक की मार्फत काफी सेवा करने के बाद देश के प्रधानमंत्री बने मनमोहन सिंह की मनमोहनी अदाओं ने तो सर ही चकरा दिया। सालों से देश के अखबारों में अणुशक्ति में आत्मनिर्भर होने की डींगें या सच जो भी था छपता रहा। दूसरी दुनिया के लोगों की तरह देश के वैज्ञानिक भगवान की तरह से पूजते रहे और उनकी महानता की कहानियां अखबारों से आम जनता के सामने आती रही। लेकिन पिछले एक साल से कुछ अखबारों में एक समझौते को लेकर अंदर के पेजों पर खबरे छपनी शुरू हुयी। खबरे किसी एक ऐसे समझौते के बारे में थी जो भारत को अमेरिका से करना था। काफी अरसे तक तो कोई भी आदमी इस खबर को ध्यान से पढ़ने को तैयार नहीं था लिहाजा कुछ वैजानिकों के नाम से इस समझौते के पक्ष और विपक्ष में बयान भी छपे। लेकिन सरकार बेहद खामोश जैसे ये गाय और बैलों की नस्ल सुधारने का समझौता हैं दोनों देश के वैटनरी डॉक्टर इस मुद्दे को सुलझा लेंगे। दिन बीते खबर पहले पेज पर आने लगी। और पता चला कि हाईड एक्ट भी इस मसले में कुछ है। और फिर तो जैसे एक तूफान बरपा गया हो। प्रधानमंत्री की ईमानदार छवि अचानक रौद्र रूप में नजर आने लगे। किसानों की आत्महत्याओं की कहानियों में प्रधानमंत्री को कभी नहीं लगा कि इस तरह से किसी प्रशासन को हड़काना है। पूरे देश के बिजली संकट को लेकर प्रधानमंत्री ने एक बीड़ा उठा लिया कि उन्हें सिर्फ अमेरिका के साथ समझौता चाहिये। एक ऐसा समझौता जो देश को प्राण जीवन दे सकता हैं। और अंग्रेजी अखबारों की सारी सुर्खियां इस बात की ओर इशारा करने लगी की देश ने अगर इस समझौते की ट्रेन में सफर नहीं किया तो समझों कि सदियों तक इसी स्टेशन पर बैठना हैं। खुद प्रधानमंत्री इस बात से इंकार नहीं कर रहे हैं कि अभी भी देख की उर्जा खपत में महज तीन फीसदी अणु शक्ति से आता हैं और इस समझौते के पूरी तरह से लागू होने पर भी ये कुल मिलाकर महज 6 फीसदी ही होगा। ऐसे में कोई आम आदमी इस बात को लेकर कभी मुतमईन नहीं हो पायेगा कि महज 3 फीसदी की जरूरत पूरी करने के लिये 97 पैसे का जिम्मा उन्हीं के हाथ में दे दिया जाये।
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