देश के मीडिया में टीम अन्ना और सरकार के बीच की अंताक्षरी चल रही थी। मुझे लग रहा था ऐसा कुछ भी है जो कमरों और फाईलों के अंदर चुपचाप चल रहा होगा। सरकार के सेक्रेट्रीज ने रिटेल में एफडीआई को बिना किसी शोरशराबे के पास कर दिया। मीडिया को इतना बड़ा फैसला दिखा नहीं या जानबूझकर देखा नहीं- दोनों बातें अलग है। मेरा मत है जानबूझकर देखा नहीं। और अब मंत्रिमंडल ने भी इस बिल को मंजूरी दे दी है। चार करोड़ लोगों के रोजगार को खत्म करने और उस पर पलते बीस करोड़ हिंदुस्तानियों को भिखारी की हैसियत में लाने की दुर्भावनाओं से भरे बिल को मंजूरी। एनआरआई और कॉरपोरेट घरानों के इशारों पर नंगा नाच करती हुई दिख रही है सरकार। नूरा कुश्ती लड़ते हुए बेशर्म जातिवादि नेता विपक्ष में होने का माखौल उड़ाते हुए। लेकिन इस बिल की पृष्टभूमि आंदोलन के समय ही रख दी गई थी और मुझे लगता है कि ये बात मुझे जरूर करनी चाहिये।
केजरीवाल और किरण बेदी की टीम के साथ उत्तर भारतीयों के लिए अजनबी अन्ना हजारें रामलीला मैदान पर धरना दे रहे थे। लहराते हुएं तिरंगे के बीच अन्ना और बाद में नामित हुई टीम अन्ना के लोग हुंकार भर रहे थे। देश के मीडिया के फन्नें खां रामलीला मैदान को अपने ज्ञान और जोश के जज्बें से सराबोर कर रहे थें। देश के युवा अभिव्यक्ति के नये माध्यमों से इस पूरी मुहिम को अंजाम देने में जुटे थे। भ्रष्ट्राचार में आकंठ डूबे भावुक नौकरी पेशा लोग पूरी तरह से आंदोलित थे। टीवी चैनलों के ज्ञानी पत्रकारजन कदमताल करते हुए भीड़ का आकलन कई गुना कर रहे थे। इस दौरान सबसे खास बात थी कि इस शोर में विवेक की आवाज नहीं थी। जो भी आवाज गूंज रही थी वो या तो समर्थन में अंधी थी या फिर विरोध में। लेकिन इस पूरे माहौल को बनने से पहले ही मेरे एक दोस्त ने धीरे से कहा था कि देश का युवा अगले चार-पांच महीने बाद एक सामूहिक अवसाद में डूबने वाला है। बेहद अजीब सी प्रतिक्रिया थी। इस बारे में किसी से कोई शब्द सुना नहीं था। ये बात लगभग चार अप्रैल की थी। जंतर-मंतर पर धरने की तैयारी चल रही थी। मैंने उस दोस्त से बात को थोड़ा स्पष्ट करने को कहा। उसका आकलन था देश में भ्रष्ट्राचार से आदमी परेशान है। मीडिया के पूरी तरह कॉरपोरेट के हाथों में खेलने या फिर उनके साथ साठ-गांठ करने के बावजूद कभी-कभी समीकरण गड़बड़ाने के चलते खबर छप ही जाती है। ऐसे में जो सूचना आम आदमी तक कानाफूंसियों के माध्यम से जाती थी अब वो सीधे पहुंच रही है। और उसके पहुंचने का समय भी बहुत कम हो गया। ऐसे में आम आदमी का रियेक्शन भी बहुत तेजी से आ रहा है। इतनी उथल-पुथल के बीच ऐसे आदमी जिनका कार्य अपर मीडिल क्लास का रहा हो या फिर जिनकी जिंदगी ऐओ-आराम से कट रही हो वो लोग भ्रष्ट्राचार से परेशान लोगों के नायक बनकर कदमताल कैसे कर सकते है। देश के युवा के पास इस वक्त कोई आदर्श नहीं है। मनमोहन सिंह और मोंटेक सिंह अहलूवालिया जैसे नायकों ने देश में आजादी से पहले और आजादी के बाद का अंतर ही खत्म कर दिया। आंदोलन को देख कर देश का युवा जरूर आदर्श की तलाश में इससे जुडेगा। युवाओं के लिए देश और परदेश में अंतर नहीं रह गया है और उसको हॉलीवुड की फिल्मों और देश के टीवी मीडिया से उपजी देशभक्ति की नयी धारा कि मौका मिलते ही तिरंगा लहराओं की धारणा को मजबूत करने लिए तेजी से इस आंदोलन के साथ जुड जाएँगा। लेकिन जैसे ही इस आंदोलन में शामिल लोगों की हकीकत सामने आएंगी वो तेजी से अवसाद में चला जाएंगा। मेरे दोस्त की बातों का आधार था 1975 का जेपी मूवमेंट और उसके रणबांकुरों की गाथा। आय से अधिक संपत्ति के आरोपों से घिरे लालू यादव महज जातिवादी राजनीति का एक चेहरा भर है। कभी भदेस बातों और पहनावे से अपने आप को गरीब जनता से जोडने वाले लालू यादव अपने गालों की चमक भर देख ले तो खुद शीशे से मुंह मोड़ ले। फिर दूसरा युवा आंदोलन हुआ वीपी सिंह का भ्रष्ट्राचार विरोधी मामला। लेकिन इस सफल लड़ाई का अंत हुआ मंडल के नाम पर उभर आएं जातिवादी राजनेताओं के हुजूम को ताकत मिलने से।
जेपी मूवमेंट के जहां महज 15 साल बाद जहां दूसरा आंदोलन खड़ा हो गया था वहां पूरे 22 साल लग गए दूसरे आंदोलन से जुड़ने वालों युवाओ की पीढ़ी सामने आने में।
इस आंदोलन को लेकर अपनी राय रखने वाले मित्र की राय आंदोलन का नेतृत्व संभाल रहे केजरीवाल, किरणबेदी, प्रशांत और कुमार विश्वास के बारे में अपनी पुरानी जानकारियों के आधार पर थी। केजरीवाल खबरों में रहने के बेहद शौकीन है और उसके लिए कुछ भी कर सकते है किरण बेदी के खिलाफ अपनी बेटी के मेडीकल में एडमिशन के लिए मिजों कोटे का इस्तेमाल करने का आरोप था। दोस्त का कहना था कि जिस अन्ना को ये लोग खोज कर लाएं है उसका जादू कैमरों के आगे जबान खोलते ही टूट जाने वाला है। प्रशांत और शांतिभूषण की ईमानदारी पर सवाल उठाने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। उन लोगों ने यदि पूरा टैक्स भी ईमानदारी से दिया है तो उसकी कीमत भी अरब में है। ऐसे में 30 परसेंट टैक्स देने के बाद जो संपत्ति बची उसकी कीमत कई अरब रूपये होगी। क्या इतनी मोटी कमाई करने वाले लोगों को गरीब लोगों के कष्ट में कितना दर्द होगा ये तो आप समझ सकते है। मेरे मित्र का आकलन था कि ये आंदोलन अन्ना के टीवी कैमरों पर मुंह खोलते ही खत्म हो जाएंगा। टीवी चैनल्स ने अपने मुनाफे के लिए इस आदमी को जोकर में तब्दील कर देंगे। ऑन कैमरा और ऑफ कैमरा की जंग में एक दोयम प्रतिभा का आदमी सामने आ खड़ा होगा। तब इस पूरी लड़ाई के भेडियाधंसान में जाने का काम शुरू हो जाएंगा। किरण बेदी के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज होने के बाद केजरीवाल के छुट्टियों पर घूमने औऱ उसका पैसा माफ करने की चिट्ठियों के बाद ये बात तो साफ हुई कि बौने लोग क्रांति का आह्वान कर रहे थे। क्रांति विफल हुई। टीम में एक गवैया गा रहा था होठों पर गंगा और हाथों में तिरंगा। बाद में पता चलता है कि कॉलिज में पढ़ाने की बजाय वो शख्स कवि सम्मेलनों और मंचों पर अपना वक्त गुजारता है। नोटिस जारी किया गया कॉलिज से। ये तमाम नायक जब सामने आयेंगे तो सरकार इनको पूरी तरह बदनाम कर देंगी। और फिर यूथ का वो बेशकीमती गुस्सा जो किसी भी देश की तकदीर बना सकता है जाया हो जाएंगा। अपने में घिर कर उस युवा को ये समझ नहीं आयेगा कि के उसको बेवकूफ किसने बनाया-बौने नायकों ने विदेशी ताकतों के इशारों पर एनआरआई की तरह व्यवहार कर रही सरकार ने या फिर हमेशा अपने को जनता की आवाज बताने वाले बौने से मीडिया ने। इसके बाद वो युवा अपने खोल में सिमट जायेगा और या फिर अवसाद का शिकार होकर रास्ता भटक जाएंगा। आज इस बात को खत्म हुए लगभग 7 महीने हो गये और लगता है कि दोस्त ने अपना आकलन कुछ ज्यादा ही सही किया था। एक बात और इस पूरी बातचीत के दौरान टीम अन्ना के एक साथी भी हमारे साथ थे जिनका ये मानना था कि जनता का दबाव उनके बौनों की लंबाई बढ़ा देगा। अब दोनों में किसका आकलन सही निकला ये आप सोच सकते है।
.मैं तो सिर्फ जर्मन कवि हांस माग्नुस एंत्सेंसबर्गर की एक कविता मध्यमवर्ग का शोकगीत से बात खत्म करता हूं..
हम फरियाद नहीं कर सकते/हमबेकार नहीं हैं/ हम भूखे नहीं रहते
/हम खाते हैं/ घास बाढ़ पर है/ सामाजिक उत्पाद/नाखून/अतीत/सड़कें खाली है/ सौदे हो चुके हैं/ साइरन चुप हैं/यह सब गुजर जायेगा/
मृतक अपनी वसीयतें कर चुके हैं/ बारिश ने झींसी की शक्ल ले ली है/युद्ध की घोषणा अभी तक नहीं हुई है/उसके लिए कोई हड़बड़ी नहीं है/
हम घास खाते हैं/हम सामाजिक उत्पाद खाते हैं/हम नाखून खाते हैं/हम अतीत खाते हैं/हमारे पास छिपाने को कुछ नहीं है/हमारे पास चूकने को कुछ नहीं है/ हमारे पास कहने को कुछ नहीं है/हमारे पास है/ घड़ी में चाबी दी जा चुकी है/बिलों का भुगतान किया जा चुका है/ धुलाई की जा चुकी है/आखिरी बस गुजर चुकी है/ वह खाली है/ हम शिकायत नहीं कर सकते/हम आखिरकार किस बात का इंतजार कर रहें हैं ?