शीशे में उतरते हैं रंग
मैं उतार कर अपना चेहरा जब भी देखता हूं शीशे में
अजनबी सा दिखता हूं,
अधूरे ख्यालों से लिखी गयी किताब का
वो पन्ना
जो किसी को नहीं पढ़ना है
लेकिन लिखना था, किताब की जिल्द सही करने के लिये,
मेरा बेटा मेरी गोद सवालों से भर देता है
मैं जवाब देना शुरू करता हूं और खो जाता हूं
लेकिन उसके सवालों में जो भी बात होती है
मेरे उतार कर रखे गये चेहरे से जुड़ती है
मैं भूलना चाहता हूं उसको थो़ड़ी देर
लेकिन बेटे ने मेरा चेहरा कभी नहीं देखा उतरा हुआ
वो जानता है तो बस इतना
कि पापा कभी झूठ नहीं बोलते।
बात को अधूरी ही रहने देता हुआ
मैं
जब भी सोचने लगता हूं
मेरी बीबी कहती है
कि
बच्चों को हमेशा सही जबाव देने से क्यों बचते हो
वो नहीं जानती है
कि दस साल पहले उसने जिस को चुना था
वो अधूरे रंगों की तस्वीर था
उसने रंग भऱने की कोशिश की थी
कुछ दिन
मैं भी समझता रहा
कि मेरा चेहरा उसके
प्यार में
रंगा गया है.
उसके जाने बिना भी मैं समझ गया था
कि चेहरे पर प्यार के रंग बदलते मौसम की तरह होते है
जो आते तो हर साल है
लेकिन हर बार पहले वाली बात से महरूम होते है।
कई बार जब झांकती है मेरी आंखों में
मेरी बीबी
तो कहती है कि
इतना सोचना अच्छी बात नहीं है
बच्चे के साथ खेलों
भूल जाओं गये दुनिया के रंग