Thursday, November 3, 2016

मुलायम सिंह जिंदाबाद-- शिवपाल सिंह कौन,,


बचपन में दोस्तों के बीच लडाई होने पर भी ग्रुप के बाकि दोस्तों को अपनी लाईन लेनी होती थी। और जिसका साथ देना होता था उसको गरियाना शुरू किया जाता था। उधर दोनों के बीच वाद-विवाद बढ़ते बढ़ते हाथापाई में बदल जाता था। और ऐसे ही वक्त जिस को पिटवाना होता था उसको हाथों में बांध कर बार बार कहा जाता था कि लड़ना नहीं है उधर जिसके हाथ पिटवाना होता था उसके हाथ खुले होते थे। ऐसे में वो दूसरे दोस्त का मुंह अपने घूंसों से लाल कर देता था। बाद में काफी देर बाद पिटने वालें को अपने साथियों की हकीकत समझ में आती थी लेकिन उस वक्त किया क्या जा सकता था। ये कहानी आजकर मुलायम सिंह के कुनबें में दोहराई जा रही है। मुलायम सिंह के इशारे साफ है, शिवपाल सिंह के हाथ बांधे हुए है और उधर अखिलेश यादव वार पर वार किए जा रहे है। शिवपाल की समझ में अभी आ ही नहीं रहा है कि मुलायम उनका साथ दे रहे है या उनका सफाया कर रहे है। प्रेस क्रांफ्रैंस में बेचारे बड़ी उम्मीद से भाई मुलायम सिंह के साथ आएं थे कि भाई कुछ बड़ा ऐलान करेंगे। भाई मुलायम सिंह ने साफ कहा कि पत्रकारों की बात सुन रहे है मुख्यमंत्री उनको लेना होगा तो ले लेंगे नहीं लेना तो उनकी मर्जी शिवपाल सिंह ने तो मंत्री पद की मांग नहीं की है। 
अखिलेश यादव पिछले चार साल से सरकार का चेहरा है। एनसीआर में रहने वाले जब भी अपने घर के लिए निकलते है या फिर घर से निकलते है तो उनके एफएम पर युवा मुख्यमंत्री का इतना गुणगान होता है कि कान कान नहीं रह जाते। राज्य के हर शहर और चौराहों पर मुख्यमंत्री के मुस्कुराते हुए फोटों आपका पीछा नहीं छोड़ते है। हर तरफ युवा नेतृत्व का शोर है। ऐसे में फिर ये कहानी कहां से पैदा हो गई कि मुख्यमंत्री को काम ही नहीं करने दिया गया। चेहरा मुख्यमंत्री ही थे और है। पूरी ताकत उनके पास थी और है। 
ऐसे में अगर चुनाव में पार्टी हारती( इस ड्रामें को हटा दे तब कि स्थिति) तब हारे हुए कार्यकर्ताओं को हमेशा कि तरह ( हर हारने वाली पार्टी का ये यक्ष प्रश्न होता है) एक सिर चाहिए था जिससे फुटबाल खेलकर वो अपनी हार का गम भूल सके और अगले पांच साल बाद की उम्मीद बनाएं रखे। इस सारे खेल में अखिलेश के अलावा किसी का चेहरा पार्टी के सामने नहीं था, लिहाजा सारी बंदूकों के निशाने पर पार्टी के सबसे उजले चेहरे अखिलेश यादव होते। तब कार्यकर्ताओं की आलोचनाओं का निशाना उन्हीं को बनना था। लेकिन अब कार्यकर्ताओं के सामने अगर हार होती है तो एक खलनायक पेश कर दिया गया है। पार्टी क्यों हारी क्योंकि शिवपाल सिंह ने हल्ला कर दिया। जिस भाई ने पार्टी खड़ी की उसी को पार्टी के भविष्य की नींव बना दिया गया है। 
मुलायम सिंह की राजनीतिक समझ आज भी इस देश के चंद राजनीतिज्ञों से बेहद महीन है और उन हजारों पत्रकारों से सौ गुना बेहतर जो कुछ नेताओं के पास बैठकर उत्तरप्रदेश को आंवला मानकर भविष्य बांचने लगते है। इसीलिए इस नाटक को जिस तरह लिखा गया उसमें शिवपाल आखिर तक समझने की हालत में नहीं रहे। 
इस वक्त कार्यकर्ताओं के लिए सबसे बड़ा नाम अखिलेश यादव है। विधायक उनके साथ है। आम कार्यकर्ता उनके साथ है। और मुख्यमंत्री पद उनके पास है। ऐसे में शिवपाल से पास क्या है। शिवपाल को आम पार्टी कार्यकर्ताओं की नजर में खलनायक के तौर पर बदलने में मुलायम सिंह के ज्यादा किसी का हाथ नहीं है। 
गजब की स्क्रिप्ट है। मुलायम सिंह अपने साथ बैठाएं हुए है शिवपाल सिंह को, पार्टी को अपनी बता रहे है, घर को अपना बता रहे है, अखिलेश की कोई हैसियत नहीं बता रहे है, लेकिन शिवपाल को कुछ दे नहीं रहे है। अगर किसी ने यूपी बोर्ड से पढ़ाई की है तो उसको एक कहानी वसीयत याद कर लेनी चाहिएं। जिसमें पंडित जी पूरे परिवार को गालियां देते है लेकिन लाखों रूपए देते है। घर,मकान और जायदाद देते है सिर्फ एक दामाद और अपनी बेटी की इतनी तारीफ करते है और जब उनके देने के नाम के कॉलम में सिर्फ आशीर्वाद निकलता है। माल तो जिनको गालियां दे रहे थे उनको सौंप दिया गया। इस मामले मेें वो कहानी पूरी तरह से याद आ रही है। 
मुलायम सिंह यादव की तरफदारी पर शिवपाल सिंह सवाल भी नहीं कर सकते। और शिवपाल सिंह अपना दर्द बता भी नहीं सकते। दांव इतना महीन कि शिवपाल सिंह और उनके समर्थक भी कह रहे है कि नेताजी के खिलाफ कुछ सुना नहीं जाएंगा और अखिलेश भी कह रहे है कि नेताजी के खिलाफ कुछ सुना नहीं जाएंगा। 
रही बात रामगोपाल सिंह की। दांव तो अच्छा चला रामगोपाल यादव ने लेकिन मुलायम के चरखा दांव के सामने कुछ नहीं। मुलायम सिंह की राजनीति की सबसे खास बात है मौके का चुनाव। रामगोपाल ने अखिलेश का साथ देकर अपने आप को भविष्य के समीकरण मेे अपने को फिट करने की कोशिश की थी लेकिन मुलायम तो भविष्य पर ही दांव लगा रहे है लिहाजा एक ही झटके में उनको ठिकाने लगा दिया। क्योंकि मुलायम जानते है कि चेहरा और भविष्य जरूर अखिलेश है लेकिन आज शिवपाल पॉवर शेयर कर रहे है तो कल रामगोपाल करेंगे लिहाजा 2022 का फैसला लेने के लिए आज ही दांव चल दिया है। 
मुलायम सिंह की राजनीतक समझ पर लोगों को शक हो वो हाल ही में बिहार चुनाव के वक्त बनाए गए मोर्चे की हालत देख ले। उससे थोड़़ा पहले जाएं तो उनको मुलायम सिंह के घऱ में राष्ट्रपति के लिए उनका समर्थन लेने पहुंची ममता बनर्जी और देवेगौड़ा का चेहरा तो याद होगा। उससे पहले वामंपथियों ने न्यूक्लियर डील पर मुलायम सिंह का लौहा देखा था, सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री पद तक पहुंचने से पहले का मुलायम दांव भी कांग्रेसियों को याद होगा। उससे पहले जाने वाले भी मायावती सरकार और उससे पहले वीपी सिंह का प्रकरण काफी लंबी कहानी है। लेकिन मैं एक बात आपको माननी होगी कि मुलायम सिंह को समझना आसान नहीं है। हालांकि दांव को लेकर आप रिसर्च कर सकते है लेकिन अखाड़ें में तो उसकी मास्टरी मुलायम सिंह के पास ही है। चरखा बना दिया सबकों अपने चरखा दांव से।

रजत सिंह नहीं रहा।


युवा पत्रकारों में से कुछ पत्रकार आपको हमेशा उम्मीद दिलाते रहते है कि मीडिया को उनसे कुछ बेहतर स्टोरी मिलेंगी। वो मीडिया के आने वाले वक्त में मेहनती चेहरों में शुमार होंगे। रजत उन्हीं में से एक था। दिल्ली आजतक के उन पत्रकारों में से जिनके साथ आज छोड़ने के बाद भी राब्ता बना रहा। अरावली की पहाड़ियों पर उसकी स्टोरी पर काफी चर्चा भी हुई, मैंने कहा था कि आप इसको और भी बेहतर कर सकते थे अवार्ड से भी आगे। हंसते हुए रजत ने कहा था कि दादा आपके साथ काम करना है। ऐसे ही एक दिन विजय चौक पर रजत ने हंसते हुए का कि दादा कब मौका मिलेंगा। मैंने भी हंसते हुए कहा कि अब तुम लोगों को नहीं मुझे ये कहना चाहिए कि मैं कब आप लोगों के साथ काम करूंगा। युवा सपनों के साथ उम्मीद का आसरा ज्यादा होता है,निराशा कम होती है। इस पर वो और मैं ठहाका मार कर हंस दिए। वो एक आखिरी मुलाकात थी। परसो एक साथी ने खबर दी कि रजत का एक्सीडेंट हो गया। फिर कल मेरी टीम के रिपोर्टर और रजत के जूनियर गौरव ने कहा कि सर वो एम्स में है और बचने की उम्मीद नहीं है। शाम को रजत से मिलने की उम्मीद में एम्स गया,एमरजेंसी विभाग में गया लेकिन वहां सी टू में रजत नहीं था। फिर मैंने अपने रिपोर्टर को फोन किया तो उसने कहा कि सर आप गलत आ गये है एम्मस में नहीं एम्मस ट्रामा सेंट्रर में है रजत। और तब मैं वहां पहुंच ही नहीं पाया, वापस आना पड़ा ऑफिस और फिर रात में गौरव का व्हाट्अप। मुझे मालूम नहीं रजत को न जानने वालों को मैं कैसे कह पाऊंगा कि रजत मीडिया की युवा उम्मींदों में से एक था। बस ये ही कह सकता हूं कि रजत नहीं रहा।

शिवपाल को धोबीपाट। मुलायम सिंह के भाई हो बेटे नहीं।


सालों पहले एक घर में बैठा था। घर मुलायम सिंह के संबंधी का था।बातचीत चल रही थी। पार्टी जीत कर सत्ता में आई थी। लिहाजा बात पार्टी की आगे की रणनीति पर ही हो रही थी। लेकिन बातचीत में ही मुलामय सिंह के संबंधी ने कहा कि 2017 के चुनाव में मुलायम की चुनौती शिवपाल होंगे मायावती नहीं। अजीब सी बात लगी। और लगा कि शायद उनकी अपनी राजनीति का गणित शिवपाल के गणित से टकरा रहा है शायद इसी लिए ये कहा होगा। लेकिन बात गहरी थी। मैने चैनल छोड़ दिया और उस पार्टी की कवरेज भी। सो बातें भी अतीत हो गई। लेकिन जैसे ही अखिलेश और शिवपाल का झगड़ा शुरू हुआ तो लगा कि सालों पहले से ये प्लॉन मुलायम सिंह के दिमाग में साफ था। भाई और लड़के के भविष्य के बीच चुनाव करना है तो हिंदुस्तानी राजनीति और हिंदु्स्तानियों की परंपरा बेटे को ही चुनती है। भले ही भाई की कुर्बानी की तारीफ में नेताजी की जुबान में कितने ही छाले पड़ जाएं। इस बार की सरकार में शिवपाल के लोग काफी थे। ऐसे तमाम विधायक थे जो शिवपाल के इशारे पर इस्तीफा दे भले नहीं लेकिन लंका लगा सकते थे। लिहाजा मुलायम अपने बेटे को समय समय पर भभकियां दे कर लोगों को और उससे भी ज्यादा अपने भाई को बहलाते रहे। सरकार के बीच में टूट जाने से बहुत से लोग शिवपाल के पाले में भी खड़े हो सकते थे। लिहाजा चार साल राम राम करते हुए गुजर गए। मंथराओं से भरे हुए सत्ता तंत्र में षड़यंत्र तो दिमाग तेज करने के काम आते है। लिहाजा षड़यंत्र बुने जाते रहे और लोग आते जाते रहे। मोहरे बदलते रहे और बिसात पर खेलने वाले पिता-पुत्र ही रहे। मुलायम सिंह की जमीनी समझ पर शायद ही किसी को ऐतराज हो। और पाला बदलने की उनकी योग्यता पहलावानी के अखाड़ों से उपजी हुई है। ऐसे में जब चुनाव नजदीक आ गए तो शिवपाल का पहाड़ा पढ़ने का समय भी आ गया। नेताजी की बिगड़ती हुई सेहत इस बात की ओर इशारा कर रही थी कि जल्दी ही अखिलेश का रास्ता निष्कंटक करना होगा नहीं तो चुनाव के बाद संकट शुरू हो सकता है। सरकार को बनाने के लिए विधायकों को जीताना होता है। और विधायकों को जीताने से पहले अपने आदमियों को टिकट देना होता है। टिकट बांटने का अधिकार किसी भी तरह से साझा करना सत्ता में साझा करना होता है। और मुलायम सिंह इसको किसी के साथ साझा नहीं करना चाहते थे। लिहाजा ये पूरा नाटक तैयार किया गया। कई सारे बकरों को इकट्ठा किया गया। उनके गले में माला पहनाई गई और फिर पूजा स्थल तक ले जानै के लिए तिलक भी किया गया। इस बात को सबको मालूम है कि बकरों को कब लाया गया और उनका क्या इस्तेमाल किया गया। शिवपाल जमीन पर मजबूत आदमी है। जातिवादी कबीलाई मानसिकता का जीता जागता रूप। अपने आदमी के लिए आखिरी तक लड़ने की मुलायम सिंह की आदत के एक दम अनुरूप। भाई के लिए परछाईयों से भी लड़ जाने वाले शिवपाल में सब कुछ सही था बस इतिहास उनके खिलाफ आ गया। इतिहास गवाह है कि ज्यादातर मौकों पर सत्ता बेटों को दी जाती है भाईयों को नहीं। और यही कारण है कि जातिवादी राजनीति के मसीहा और मुस्लिम यादव एकता के नायक मुलायम सिंह यादव ने शिवपाल सिंह को धता बता दी। अब टिकट बंटवारे के वक्त अगर शिवपाल बगावत भी करते है उसको उनकी आदत खराब बता कर उनको पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया जाएंगा। ये सारा खेल मुलायम सिंह का था और शिवपाल मुलायम की भाषा समझने में सबसे एक्सपर्ट होने के बावजूद दांव खा गए।
रही बात गायत्री-फायत्री की तो इन लोगों की हैसियत अपनी मर्जी से अपने कुर्तें के बटन खऱीदने तक की नहीं लिहाजा ये खनन पनन में पैसा अपने लिए कमा रहे होंगे ये बात सोचने वाले को पूरी ट्रॉली रेत खिला दोंगे तब भी उसकी बुद्दि का आरा तेज नहीं हो पाएंगा। खैर पार्टी में अगर कोई बुद्दिजीवि होने का दिखावा या नाटक करता है तो उसको याद रखना चाहिए कि महाभारत में अर्जुन ने भीष्म को मारने के लिए शिखंडी का इस्तेमाल किया था। और आप जानते है शिखंडी आज भी शिखंडी के तौर पर ही याद किया जाता है महारथी के तौर पर नहीं।