Saturday, August 6, 2016

अब कहां ढूढ़ने जाओंगे हिरण के कातिल। यूं करों कि कत्ल का इल्जाम हिरण पर ही रख दो।

सलमान खान रिहा हो गए। गज़ब की ख़बर हुई। सुल्तान, दबंग या फिर भाई जाने कितने नामों से मीडिया को खुशी से बेहाल होते हुए देखा। यहां से आगे सुप्रीम कोर्ट है जहां से भाई को जमानत मिलने में अक्सर देर नहीं लगती है। हजार बार से ज्यादा ये दिख जाता है दिन भर में अंधों को भी कि जेब में माल है तो फिर कानून जूते में है। ( सहारा का उदाहरण न देना- उसकी कहानी ये है कि अभी तक एक संपत्ति नहीं बेच पाईं चल पाई) । हिरण मरे या नहीं मरे इस पर सवाल खड़ा होना चाहिए। मैं तो ये चाहता हूं कि उस जंगल के हिरणों को इस अपराध में सजा देनी चाहिए कि उनकी वजह से सुपरस्टार को परेशान हुई। एक सजा ये भी हो सकती है कि सलमान खान को उनके शिकार की ईजाजत दे देनी चाहिए। मैं हैरान हूं कि ये कैसे हिरण है दबंग से मरने के लिए बेकरार नहीं हो रहे है। लाईन में लग कर आ जाना चाहिए और अदालत जानती है कि हिरण इस तरह आना चाहते है। लेकिन बेईमान मीडिया या दलाल चिल्लाते तो वो निकल भागते है।
हरीश दुलानी को जानते है शायद मीडिया को उसको दिखाने की सुध नहीं थी। सालों साल पहले जब इस खबर में हरीश दुलानी की कहानी शुरू हुई थी तो उसकी मां मिली थी एक मकान में बैठी हुई। बेटा गायब हो गया था। वही बेटा था हरीश दुलानी। हरीश दुलानी चश्मदीद गवाह था इस केस का। एक बार बयान देने के बाद गायब हो गया हरीश दुलानी। फिर सालों तक कहां रहा कुछ पता नहीं। एक दूसरा गवाह और था जो एक गांव में था, अच्छा खासा आदमी पागलों की तरह व्यवहार कर रहा था और झोंपड़ी में उसकी हालत देख कर लगा था ज्यादा दिन जिंदा नहीं रहेगा। वही हुआ वो भी निबट गया दंबग की राह के दूसरे कांटों की तरह। फिर कुछ साल पहले हरीश दुलानी वापस आ गया। दुलानी को कोर्ट ने कई बार सम्मन भेजे। कई बार उसकी तलाश का नाटक हुआ। लेकिन किसी को उसका पता नहीं लगा। लेकिन किसी अदालत को किसी अधिकारी को कठघरे में खड़ा करने का नहीं सूझा। अदालतों की एक बात और सुंदर लगती है कि जब वो किसी को रिहा करती है तो एजेंसी को काफी कोसती है लेकिन किसी के खिलाफ मुकदमा दर्ज नहीं करती हालांकि ये भी उनके अधिकारक्षेत्र में आता है। इससे होता ये है कि फैसला आपका, बचाव किसी ताकतवर का और लाठी भी बच गई। ग़जब की नौटंकी चल रही है। हरीश दुलानी से बात करने की कोशिश की थी तो उसकी हालत भी ऐसी ही लगी कि उसको एक लंबें समय तक ऐसे हालात में रखा गया कि वो सामान्य जैसा न लग सके। (कानून को मालूम नहीं हुआ कि कहां है लेकिन जोधपुर की गली में घूमते हुए आवारा कुत्तें भी भौंक कर बता सकते है कि वो कहां रहा) बहुत मजेदार बात की बचाव पक्ष को अहम गवाह से जिरह की करने जरूरत ही नहीं( जरूरतें पूरी होने के बाद किसी की जरूरत नहीं रहती)
मुझे इस फैसले को देखने के बाद याद आ रहा है राहत इंदौरी का एक शेर ( शब्द दर शब्द याद नहीं है कोई इसको सुधार भी सकता है)
अब कहां ढूढने जाओंगे हमारे क़ातिल .
यूं करो कि कत्ल की इल्जाम हमी पे रख दो।
और इसको कहा जा सकता है
अब कहां ढूढने जाओंगे हिरन के कातिल
यूं करों कि कत्ल का इल्जाम हिरन पे ही रख दो।

हादसा नहीं हुआ अभी तक, भगवान को धन्यवाद दो सरकार कोई नहीं है।

अखबार की पहली हैडलाईंस और दिल पत्थर सा। एक मां-बेटी के साथ समाजवादी सरकार के स्वर्ग में सामूहिक दुष्कर्म हो गया। हाईवे पर। घंटों एक मां-बेटी के साथ घिनौना अपराध कर रहे अपराधियों को मालूम था कि समाजवादी जाति की पुलिस अभी किसी न किसी अपराध पर पर्दा डालने में जुटी होगी इसी लिए इँसानियत के पर्दे को तार-तार करने में कोई परेशानी नहीं है। कोई डर नहीं है कोई बाधा नहीं है। जब ये अपराध रात में हो रहा था उस वक्त जाम में फंसे हुए रेडियों पर गानों के बीच में एक एड बार बार आ रहा था जिसका पैसा इस दुष्कर्म की शिकार मां-बेटी के परिवार की गाढ़ी कमाई से ही आया था किसी समाजवादी राजा की जेंब से नहीं। एड था कि ये चमकती गाड़ियां और सजग पुलिस दिखाई दे रही है क्या हम अमेरिका में है तो जवाब देती है कोई दूसरी आवाज नहीं ये उत्तरप्रदेश है समाजवादी सरकार ने ये सब कर दिखाया है। सड़कों पर गुंडे खुलेआम नाच रहे है। लूट और हत्या की खबरें सब पेजों पर है। ये कोई नई बात नहीं है इस राज्य के लिए लेकिन पुलिस जिस तरह से बेलगाम है जातिवाद के नंगें नाच में जुटी है वो जरूर चौंकाता है। नया वो नहीं है क्योंकि सरकार एक बार पहले भी आकर ये खेल कर चुकी है। दरअसल जातिवाद ने लोकतंत्र की मूल भावना को खत्म ही कर दिया या पनपने ही नहीं दिया। बहुत से समाजवादी जाति के लोग इस बात पर हल्ला काट देंगे कि ये क्या लिख दिया लेकिन मैं सिर्फ एक जाति की बात नहीं कर रहा हूं सत्ता हासिल होने पर शुरूआती पांच दशक तक सर्वणों से ताल्लुक रखने वाली जातियों ने भी मिल जुल कर ये ही खेल खेला। लेकिन तकलीफ तब शुरू हुई जब जनतंत्र की व्यवस्था के शोषित सत्ता में आएँ और उन्होंने भी वही सब करना शुरू कर दिया। यानि आंख के बदले आंख का सिद्दांत का शुरुआती गणित दोहराना शुरू हो गया। मैं सिर्फ ये ही कह रहा हूं कि मुझे लगता है कि बेहतर होना चाहिए था नई रोशनी में नए तरीके से। लेकिन किसी को इस तरफ जाना बेहतर नहीं लगा।जातियों की कोठरियां बन गई। अभी मुझे मालूम नहीं है कि वो बेगुनाह मां-बेटी किस जाति की है धर्म की है या फिर संप्रदाय की है। क्योंकि अखबारों ने भी उनकी अभी जाति नहीं लिखी है इसका मतलब वो खबर बनाने वाली जातियों या धर्म से रिश्ता नहीं रखती है। 
आप ऐसी पूरी सदी को अपने अंदर जीते हुए गुजरते है जिसमें कही कोई उम्मीद के बदले बदला ही बदला दिख रहा हो तो कैसा लगता है ठीक उसी जैसा - जैसे अब किसी भी संवेदनशील आदमी को इस तरह की खबरें पढ़ कर लगता है। ये सिर्फ सहानुभूति हो सकती है क्योंकि किसी एक की असहमति की भी ईज्जत का नारा जो लोकतंत्र की मूलभूत अभिव्यक्ति है उसका मौजूदा लोकतंत्र से कोई लेना-देना नहीं है। यहां तो उलट है लोकतंत्र को इस तरह गढ़ा गया है कि कुछ जातियां एक गोलबंदी का गणित बैठा कर सत्ता में आ सकती है और हमेशा से बहुमत में रहे विपक्षी जातियों के गठबंधनों को हौंक सकती है। और वो विपक्षी भी इंतजार करते है अपनी बारी का ताकि गिन गिन कर बदले ले।
लेकिन इन सबके बीच असली कहानी कही और है वो है नौकरशाहों की असीम ताकत। लूट और लूट के चक्र को अपने मुफीद बनाते हुए ये नौकरशाह किसी ऐसे हादसे के शिकार नहीं होते। इनके परिजन हाईवे हो या जंगल हमेशा एक सुरक्षा कवर से घिरे होते है। पुलिस को रोज आम इंसान को लाठियों से पिटते हुए देखना, थानों में इंसान को कुत्तों की तरह देखना जैसे दृश्य अपनी पत्रकारिता के 17 सालों में खूब देखे है। बहुत से लोग इस बात को अन्यथा लेंगे लेकिन कोई ये नहीं बता पाता कि थानों से वापस आने वाले आदमी का पुलिस पर से विश्वास क्यों उठ जाता है।
इस घटना में पुलिस ने रिपोर्ट लिखने में जो करतब दिखाएं है वो उसके डीएनए में है। पहले ये देखा जाना कि विक्टिम किसी जाति है अगर उसका सत्तारूढ़ पार्टी के जाति समूह से कोई रिश्ता नहीं है तो ये जानवर है जिसके साथ किसी इंसान ने कुछ कर दिया है इसको भुगतना ही चाहिएं। फिर थानेदार साहब को ये देखना है कि अपराधी किस जाति का है। अगर उसका सत्ता में बैठे गणित में हिस्सा है तो फिर उसको बचाने के लिए इस जानवर के साथ कैसा सलूक करना चाहिए। उस घटना को कैसे दर्ज किया जाना है ये इसी बात पर तय होता है। अब सवाल ये भी बचता है कि यार अगर दोनो में से कोई सत्ता गणित में पास जाति का नहीं है तब क्या देखा जाता है तब ये देखा जाता है कि किसकी जेंब से माल ऐँठा जा सकता है जो ज्यादा देगा वो ज्यादा पाएंगा। गणित सीधा है। जब सत्ता में समाजवादी जाति हो तो खाकी उनकी और जब भगवा में हो तो पुलिस के पास भगवा। पुलिस और पानी एक जैसे जिस बर्तन में डालों उस जैसे।
लेकिन हजारों लाखों लोगों को खौंफ में सड़कों पर चलना फिर उस आग भरी सड़कों से उतर कर घर की छोटी सी पनाहगाह में रात गुजारना कम मुश्किल से भरा नहीं। सड़कों पर चलते हुए पुलिस को दस रूपए दे कर विशेषाधिकार हासिल करने वाले ऑटों या बसों के गुंड़ों से बच कर ऑफिस तकपहुंच जाना और वहां से घर आना आपकी किस्मत पर निर्भर है किसी कानून पर नहीं
ये कहानी कोई नयी नहीं है 2007-8 में मुरादाबाद के मझौला थाने में इसी तरह का एक केस मैंने कवर किया था जिसमें कोई साईकिल का फ्रैविल सड़क पर डाल कर एक परिवार की कार को रोक कर लूट की थी और दुष्कर्म किया था। और वो परिवार जिसको एक जुल्म के खिलाफ खड़ा होना था वो बेचारा शर्म से मुंह छिपा रहा था क्योंकि सवाल इतने घिनौंने पूछे जाते है जैसे किसी थर्ड ग्रेड का स्क्रिप्ट राईटर इनको ये सवाल लिख कर दे गया हो।
(किसी को हो सकता है गुस्सा आएं जातिवादी लेख पर लेकिन बस इतना ही कहना है कि बलात्कारी भी ये उदाहरण दे सकते है कि उनकी जातियों के साथ ऐसा हुआ तो वो ऐसा कर रहे है। )
मेरी एक पुरानी कविता है जो इस तरह के डर पर आज से बरसों पहले लिखी थी शेयर कर रहा हूं अगर मन आएँ तो पढ़ सकते है।
डर आत्मा से खुरचता ही नहीं :
.................................................
अलार्म रोज बजता है,
चौंक कर आंखें खुलती है,
पसीने से भींगें जिस्म के साथ मैं सबसे पहले टटोलता हूं
जल को
हाथ जब तक उसको छूता है
तब तक आंखें भी देख लेती है उसको मुस्कुराकट के साथ सोए हुये
कई बार मिल जाती है बीबी भी बगल में लेटी हुयी
और कई बार खाली दिखता है उसका बिस्तर
चीखता हूं
.... रश्मि
हाथ में चाकू लिये
या फिर आटे से सने हुए हाथों में
तेजी घुसती है बेडरूम में
और पूछती है
क्या हुआ
कुछ नहीं
,
तुम ठीक हो ना
चप्पलें पैरों में डालता हुआ
संयत होने की कोशिश करता हूं
रात बीत गयी
डर
है कि खत्म नहीं होता।
कुछ न कुछ हो जायेगा
रात भर सड़कों पर घूमते रहे है लुटेरे
पुलिस वालों की जीप में बैठकर
....
मेरा घर बच गया है
आज रात

मैं कई बार ढपोरशंख की कहानी पढ़ता हूं गृहमंत्री जी। बिना मुंह का हो गया पाकिस्तान।

पाकिस्तान से बिना बिरयानी खाएं लौट आएं गृहमंत्री जी। एअरपोर्ट पर बेताब से पत्रकारों की बिरादरी में अपने बौनेपन के साथ मैं भी शामिल था। आखिर देश के गृहमंत्री दुश्मन देश की जमीन पर ( बहुत से लोगो को ये विशेषण नहीं पचेगा) उसे करारा जवाब देकर लौटे । ( ये हिंदुस्तानी मीडिया की लाईन थी) करारा ऐसा कि पाकिस्तान की बिरयानी भी नहीं खाई। मैने भी यही कहा। 
लेकिन एक प्रसंग साथ चल रहा था कि हमने पढ़ा क्या है और हमने कहा क्या है।
आप जिद करके बिरयानी खाने गए थे। आपकी जिद थी कि आप पाकिस्तान जाकर बिरयानी खाएंगे और उसी को गरियाएंगे। याद है कि नहीं क्योंकि बेशर्मी के घड़ें में यारदाश्त सबसे छोटा कण होती है कि आतंकियों के साथ अगर कोई मुठभेड़ भी लंबी चली तो आपके राष्ट्रवाद ने नारा लगाया था कि आतंकियों को बिरयानी खिला रहे है। शहजादे और उसकी मां को आपके महान नेता ने काफी गरियाया कि बहुत बिरयानी खिलाई आतंकियों को उन लोगो ने। लिहाजा मुझे लगा कि आपकी सरकार ने तय किया कि अब उनकी बिरयानी खाई जाएं ताकि बदला पूरा हो। इसीलिए पहले प्रधानमंत्री बिरयानी खाने बिना निमंत्रण पहंच गए और फिर आपको भी ये अदा इस्लामाबाद तक खींच कर ले गई।
खैर कहानी ये है कि आपको जिस लंच में जाना था वहां मेजबान नहीं था तो आप बिना खाएं लौट आएँ। ये आम शिष्टाचार होता है आपकी कोई वीरोचित बहादुरी नहीं जिस पर संसद में ताली पीटी जा रही थी। वहां बैठे हुए बहादुरों के बारे में देश अच्छे से जानता है एक एक को समझता है आखिर वहां वो वोटों के गणित से ही पहुचे है ना। बचपन की एक और कहानी है कि किस को नारायण दिखा। तो वहां सब लोगो को एक कहानी को बनाएं रखना था। वो कहानी थी कि जिद पर ऐसे माहौल में जब वो आपके देश को तोड़ने के खुलेआम प्रदर्शन कर रहा है उस वक्त आप वहां इस ख्वाब में चले गए कि वो हार लेकर खाने की थाली पर बैठकर आपका इंतजार कर रहा होगा।
मुझे उम्मीद है कि चार अगस्त की दोपहर के बाद से पाकिस्तान में सैकड़ों-हजारों लोग बिना मुुंह के घूम रहे होंगे क्योंकि आपका मुंहतोड़ जवाब लगातार वहां गूंज रहा होगा और लोगो के मुंह तोड़ रहा होगा। पाकिस्तान में बुर्कों की खरीद -फरोख्त बढ़ गई होगी इसी से इंडियन एजेंसियों की गणना फेल हो रही होगी नहीं तो आपके पास डाटा आ गया होता कि कितने लोगो के मुंह तोड़ दिये गए है। ऐसा ही आपने श्रीनगर में किया। आपके दौरे बाद अलगाव वादियों ने बुर्का पहन लिया और पत्थरबाजों के चूकिं आपके मुंहतोड़ जवाब ने मुंह तोड़ दिये लिहाजा वो जाने पत्थर कैसे फेंक रहे होंगे।
बात सिर्फ तंज की नहीं है बात है दर्द की। बात है एक ऐसे अनूठे सिस्टम की दो देश को लोगों को और आने वाली पीढ़ी तो चट कर रहा है उनके भविष्य को काला कर रहा है और उन्ही से ताली बजवा रहा है। गजब का कारनाम है। पूरी सरकार ने वोट हासिल किए थे कि वो बिरयानी खिलाने वालों को जवाब देंगी और कश्मीर में अलगाववादियों से कोई बात नहीं करके धारा 370 को हटाने की दिशा में काम करेंगी। आपने 370 का नाम सदन में सुना है क्या उसी सदन में जिसमें कश्मीर पर सदन ने चर्चा की। वही सदन जो देश का भविष्य बनाता है। उस सदन ने जिसने एक मत हो कर कश्मीर पर जवाब दिया। अब कुछ कहना दिक्कत कर देंगा कि ये वही सदन है और इसकी राजनाथ सिंह की गई तारीफ ऐसी ही है जैसी सदन में कश्मीर को लेकर की गई चर्चा मैं ये तो लिख ही सकता हूं कि-- दोनो चर्चाओं का कश्मीर की हकीकत से दूर दूर तक कोई लेना देना नहीं है। एक कविता याद आती है मेरी अपनी हालात कैसी है इस खबर को करने और देखने के बाद, उसको इसके साथ जोड़ रहा हूं जो पढ़ना चाहे पढ़ सकते है।
काले को काला. सफेद को सफेद कहना
........................................
काला
वो बोले
भय से भीगी जनता चिल्लाई.... काला,
लेकिन वो काला रंग नहीं था
मैंने हाथों से मली आंखें बार-बार
दिमाग पर जोर डाला कई बार,
लेकिन ये तो नहीं है काला
मेरे चारो ओर घिर आये लोग
जोर देकर उन्होंने कहा कि काला
ध्यान से देखा मैंने फिर
लेकिन ये नहीं है काला
थोड़ी धीमी हो गयी थी मेरी आवाज
वो जिनकी तेज निगाह थी मुझ पर
उन्होंने कहा देखो ध्यान से
अचानक मुझे लगने लगा कि हां वो काला ही तो है
भीड़ से आवाज मिलाकर मैं चिल्लाया
हां.... कितना..... काला,
उसके बाद से मुझे नहीं मिला किसी भी रंग में अंतर
जो वो देखते रहे, मुझे भी लगता रहा वैसा ही
मैंने काले को सफेद, सफेद को हरा,
हरे को लाल और नीले को कहा काला
और फिर मैं भूल गया कि मैंने क्या कहा किस को
लेकिन
मेरे हाथ कांप रहे है आज
मुश्किल हो रही है मुझे बोलने में
जल पूछ रहा है,
रंगों की किताब हाथ में लेकर
पापा जरा बताओं तो ये कौन सा रंग है
मैं समझ नहीं पा रहा हूं
कि
इसको कौन सा रंग कौन सा बताना है।

उत्तर प्रदेश-- अ से अखिलेश, आ से आजम। ज से जाविद और वोटों का गणित..

बुलंदशहर की सड़कों पर एक रात एक परिवार के साथ हैवानियत हो गई। इस प्रदेश की सड़कों की ये एक आम बात है। लेकिन इस बार मुख्यमंत्री नाराज हो गए। ( ये विचित्र बात है) पत्रकारनुमा चमचों की भीड़ ने इस तरह से नारा गुंजाया कि डीजीपी को हेलीकॉप्टर मिल गया घूमने के लिए। डीजीपी साहब वोटो के गणित के हिसाब से सबसे उम्दा है। इससे बेहतर गणित का डीजीपी इस प्रदेश को मौजूदा समय में नहीं मिल सकता है। आखिरकार डीजीपी वहां पहुंचे। सरकारी अमला हरकत मं आ गया। आखिर इसी लिए तो सरकारी अमला बना है कि साहब बहादुर जब भी आएँ तो कपड़ों पर इस्त्री हो, सैल्युट लगाना है और कंधों पर बंदूक टांगनी है, वसूली एक दिन पहले बंद करनी है एडवांस में लेने का कायदा भी हो सकता है ताकि सब कुछ ठीक-ठाक दिखे। डीजीपी साहब ने फौरन कुछ लोगो को सस्पैंड कर दिया। ( सस्पैंशन कोई सजा नहीं होती है ये कानून में है। वो फिर वापस छह महीने अपनी कमाई पूरी करने के हौंसले और हिम्मत से जुट जाते है)। लेकिन ये कोई बड़ा कारनामा नहीं है, वो तो उससे भी बड़ा कारनामा करने आएँ थे और कारनामा था कि उन्होंने तीन लोगो के पकड़े जाने की घोषणा की। तीन लोगों का नाम लेकर उन्होंने बताया कि इन लोगों ने वारदात में हिस्सा लिया। और वहां से उड़ गए। पत्रकारों ने आसमान को गुंजा दिया कि किस तरह से तीन लोगों ने इस वारदात को अंजाम दिया। कहानी पूरी हुई लेकिन अगले दिन जब जेल में गएं तो पता चला कि उनके नाम बदल गए। ये उलट-बांसी कैसे हो गई। अफसरों ने कहा कि डीजीपी साहब गलत नाम बोल गए थे।लेकिन डीजीपी ने जो कारण बताया वो किसी ऐसे देश में जिसमें कानून का शासन होता तो शायद डीजीपी बर्खास्त हो गए होते नहीं तो उनसे हाउसिंग नाम के कोल्डस्टोरेज में तो भेज दिया जाता। डीजीपी साहब ने बताया कि अपराधियों ने नाम गलत बताया और डीजीपी साहब ने यकीन कर लिया। किस तरह से यकीन कर लिया इसी तरह जिस तरह से उनकी पुलिस ने उनका रिमांड लेने की कोशिश नहीं की। मुझे उन अपराधियों पर तरस आ रहा है क्योंकि उन्होंने अपनी राष्ट्रीयता गलत नहीं बताई। अगर वो अपने आप को अमेरिकी नागरिक बताते तो डीजीपी साहब यकीन कर लेते। क्योंकि ये वोटो के गणित से भी बेहतर होता। आखिर अमेरिका को लेकर एक तबके में जिसकी उत्तरप्रदेश में बहुत वोट है बहुत गुस्सा है। ऐसे में अगर मुल्जिम अमेरिका बतातें तो सोचो क्या गणित बैठता वोटों का। और आगे जेबकतरी के एक छोटे से मामले में पुलिस वालों में मुल्जिम का रिमांड लेने की जो होड़ मचती है इसमें एक ऐसे मामले में जिसमें मुख्यमंत्री नाराज हो गए उसमें कोई रिमांड नहीं। ऐसा शानदार कारनामा कभी देखा नहीं गया। खैर कोई बात नहीं ये डीजीपी साहब पुलिसिंग जानते है क्योंकि इन्होने बताया था कि दादरी वाले में मसले में मांस गाए का हो या फिर भैस का अब उससे केस पर कोई असर नहीं पड़ेगा। यानि बिना मोटिव के ये साबित कर देंगे कि कत्ल हुआ है। इनकी बात बात गजब होती है लेकिन लोगों को जेहन में ये भी रखना चाहिए कि ये साहब सीबीआई में भी आरूषि केस में भी थे। खैर इनकी छोड़िये नाराज हो जाएँ क्या पता इसलिए इस बात को यही खत्म करते है माफी मांगते हुए कि साहब हमको पुलिसिंग का क ख ग नहीं आता।
अब एक आजम साहब है। पूरे इतिहास भूगोल को अपनी उंगुलियों में समेटे हुए वो जानते है कि पुलिसिंग किस चीज का नाम है। आखिर पुलिस ने उनकी खोई हुई भैंस खोज दी थी। ऐसी जादुई और कारामाती पुलिस को वो कई बार करेक्ट करते रहते है। इसी लिए उनको सामूहिक बलात्कार कांड में राजनीति दिखाई दी। एक बाप जिसके रोते हुए शब्दों ने हर ऐसे इंसान के कानों में पिघला हुआ शीशा उतर कर रख दिया जिसके सीने में दिल था। बेटी की चीखों के बीच उस बाप का दर्द जो बेटी के साथ बलात्कार के दौरान बाप को पुकारने की आवाज सुन रहा हो। ऐसा बाप जो अपनी जिंदगी भर इस दर्द को ढो़ने के लिए मजबूर होगा। उस बाप की आवाज में उस राजनेता को राजनीति दिखाई दी। लिखने को तो क्या लिखा जा सकता है कि -किस तरह की राजनीति करने के लिए बलात्कार कराना होता है अपनी बेटियों के साथ। इस तरह की हरकत के लिए खुद को तैयार करना होता है क्या खान साहब। लेकिन अगर आप ये बात लिख रहे हो कि ये बात उसको समझ नहीं आएंगी तो गलत लिख रहे हो। क्योंकि आजम खान साहब को ऐसी बातें खूब समझ आती है। नफरत के दम पर राजनीति कर रहे आजम खान साहब को मालूम है समाजवादी का क्या मतलब है इस प्रदेश में। समाजवाद कैसे उतरता है इस प्रदेश में। या दूसरा कोई भी वाद किस तरह नफरत की कोख से पैदा होता है वो जानते है सब कुछ। मुस्लिम वोट और यादव की वोट की कोख से पैदा हुआ ये नूतन समाजवाद किसी को उलझा सकता है। लेकिन अपने को इस तरह की राजनीति देखने की आदत सी हो गई है। एक ही उलझन है और वो है कि किस तरह से रोज रेडियों पर इस सरकार और अखिलेश यादव की तारीफों से भरे विज्ञापनों का खर्च हमको देना है क्योंकि जातिवादी और धार्मिक समूहों की कबीलाईं एकता के दम पर राज कर रही इस सरकार को टैक्स दिए बिना प्रदेश में कौन रह सकता है।
और आखिर में अखिलेश यादव जी। आपका युवा नेतृत्व कमाल का है। आपके पिता और समाजवादी ( मर्सीडीज 350 ए में चलने वाले) मुलायम सिंह जी रोज आपको बता रहे है कि जमीन लूटने से सरकार वापस नहीं लौटने वाली है। खनन माफिया के दम पर सत्ता वापस नहीं आने वाली है। आपको मुलायम सिंह को बताना चाहिए कि रेड़ियों के विज्ञापनों से छवि एक दम चका चक है। बौंने मीडिया को अफसरों ने काफी टुकड़े डाले हुए है लिहाजा हर अखबार की खबर में रेप की खबर बाद में थी और मुख्यमंत्री नाराज है की लाईन पहले थी। हमारे जैसों के भौंकने से होता क्या है।
राहत साहब की एक लाईन याद आई।
झूठों ने झूठों से कहा, सच बोलो
घर के अंदर झूठों की पूरी मंडी थी
दरवाजे पर लिखा था
सच बोलो।