Sunday, May 22, 2016

डाकू लाखन सिंह---Lakhan the terrible, चंबल का सबसे बड़ा कातिल

चंबल में बागियों और पुलिस की गोली के बीच एक बड़ी चीज हमेशा मायने रखती है और वो है बागी की किस्मत। चंबल के बीहड़ों में पुलिस और बागियों के बीच हजारों मुठभेड़ों हुई लेकिन कई बार बागियों की किस्मत उनको शर्तिया मौत से बचाकर ले गई। और एक बागी ऐसा जिसको किस्मत और उसकी सिक्स्थ सेंस ने दो दशकों से ज्यादा पुलिस से बचा कर रखा। एक ऐसा बागी जिसका नाम चंबल की किताबों में लाखन द टैरिबल के तौर पर दर्ज है। 
चंबल में अभी तक के डाकुओं में कत्लों -गारत का खौंफनाक खेल खेला उसमें सबसे माहिर खौंफनाक नाम लाखन सिंह का है। डाकुओं को लेकर बनी मुंबईया फिल्मों में लाखन सिंह का नाम और कहानी कई बार फिल्माई गई। और फिल्म की शूटिंग्स और लाखन की जिंदगी का रिश्ता इतना करीब का है कि पहले मुझे जीने दो फिल्म लाखन की जिंदगी की जुडी हुई कहानी है।फिल्म को लाखन सिंह के गांव नगरा पोरसा के इलाके में फिल्माया गया है और फिल्म का ये शाट्स लाखन की असल जिंदगी का एक हिस्सा थी। 24 मार्च 1952 को मध्यप्रदेश पुलिस को एक स्पैशिफिक सूचना मिली थी कि लाखन अपने गांव नगरा में आया है और रात को दस बजे वो गांव से वापस बीहड़ो में जाएंगा। । पुलिस पार्टी ने पूरे रास्तें में जाल बिछा दिया। । पुलिस की घेराबंदी से बेखबर लाखन जैसे ही पुलिस की फायरिंग रेंज में पहुंचा तो पुलिस ने फायरिंग शुरू कर दी। लाखन और उसका गैंग पुलिस के इस हमले से चौंक गया। फायरिंग करते हुए उसने दूसरा रास्ता पकड़ने की कोशिश की लेकिन वो भी नाकाम थी क्योंकि वहां पुलिस की दूसरी एंबुश टीम मौजूद थी। गैंग ने हर तरफ से घिरा होने पर लॉस्ट फायरिंग शुरू कर दी। लेकिन किस्मत लाखन के साथ थी और जब उसके गैंग की गोलियों का जखीरा खत्म होने जा रहा था तभी बीस ऊंटों का एक कारवां जिस पर आम आदमी बैठे से ऊधर से आ गुजरा और पुलिस ने बेगुनाह लोगो को बचाने के लिए फायरिंग बंद कर दी। और इसी की आड़ में लाखन सिंह बच निकला। पुलिस अधिकारियों ने इस को लाखन की किस्मत और चंबल की बदकिस्मती माना। और इस घटना के बाद 8 साल तक चंबल में लाखन की बंदूकें गरजती रही। क्या है लाखन सिंह की कहानी। कैसे गांव का लाखन चंबल का आतंक बन गया।
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चंबल का शांत बीहड़। बेहद खूबसूरत और खतरनाक दोनो दिखाई देता है ठीक उसी तरह जिस तरह इस इलाके में बसे लोगो में दोस्ती को निबाहना हो तो मिसाल और अगर दुश्मनी दोस्ती में बदले तो फिर बदले की आग भी बेमिसाल। चंबल में दोस्ती और दुश्मनी की मिसाल बने हुए एक डाकू का ये वो गांव है जिसको मुंबई की फिल्म इंड्रस्ट्री ने अपनी शूटिंग का हिस्सा बना लिया। कहानी भी, किस्सा भी और इलाका भी वही। कहानी एक ऐसे डाकू की जिसके नाम से चंबल में लोगो के पसीने छूट जाया करते थे।  और पुलिस के रिकॉ़र्ड में दर्ज हत्या की संख्या आज भी लोगो के रोंगटे खड़े कर देती है।  225 से ज्यादा लोगो के कत्ल और सैंकड़ों डकैतियां। लाखन का नाम आज भी लोगो के जेहन से भूलता नहीं है।लेकिन लाखन सिंह की जिंदगी के उतार-चढ़ाव की कहानी है। एक ऐसी कहानी है जिसमें दोस्ती है दुश्मनी और फिर तबाही की एक लंबी दास्तां है।  चंबल के बीहड़ों में बसे हुए एक गांव में छोटे से घर से शुरू हुई जिंदगी, धंधें में हवेली वालों से दोस्ती और फिर धंधे को लेकर दुश्मनी। ये एक हिस्सा है तो फिर डाकू जिंदगी में पहले  बागी मानसिंह के गैंग में रूपा महाराज से दोस्ती और फिर गैंग का सरदार बनने के लिए दोस्त से  जानलेवा दुश्मनी। और दुश्मनी में इस तरह के किस्सें पैदा हुए कि  मुंबईयां फिल्मी जगत को इस पर कईं कईं  स्क्रिप्ट लिखनी पड़ी। ( कच्चे धागे)  
चंबल में ठाकुर लाखन सिंह को जिंदा या मुर्दा पकड़ने के लिए पहली बार 4000 पुलिस फोर्स के जवानों को बीहड़ों में उतार दिया गया।  गांव में हवेली में पुलिस थाना बना दिया गया। एसएएफ की एक पूरी बटालियन गांव में तैनात कर दी गई।और एक स्पेशल पुलिस अधिकारी को सिर्फ इसी गांव में बैठा दिया गया। सालों तक चलती हुई कहानी का अंत भी बिलकुल फिल्मी था। गोली लगने पर भी लाखन ने अपने गैंग को निकाल दिया और मुठभेड़ करने वाले पुलिस अधिकारी को पूरे फिल्मी अंदाज में ही मौत थमा दी। शुरू करते है चबंल के एक डाकू लाखन द टैरिबल की जिंदगी की असल कहानी
मुरैना का नगरा गांव। बीहड़ो में बसा हुआ गांव। मध्यप्रदेश के इस गांव से कुछ दूर चंबल बहती है और उसके पार उत्तरप्रदेश का इलाका। बीच में सैकड़ों किलोमीटर लंबा बीहड़। इसी गांव में 1922 में लाखन सिंह तोमर का जन्म हुआ था। आज लाखन के गांव में भी लाखन के घर की कोई निशानी नहीं बची है। गांव में उसके घर के नाम पर बीहड़ दिखता है। गांव के इस हिस्से में लाखन के कुटुंब के घऱ है। लेकिन लाखन का कुछ नहीं। लाखन सिंह के घर के नीचे बना हुआ कुआँ जरूर बचा हुआ है। लाखन सिंह के परिवार से अब यहां कोई नहीं रहता। लेकिन गांव के इस हिस्से में रहने वालों में से शायद ही कोई ऐसा हो जिसकी जिंदगी पर उस दुश्मनी का घाव न लगा हो। फिरंगी और हूजूरी सिंह के घर भी अब मिट्टी में मिले हुए है। मानक सिंह जो लाखन सिंह के गैंग में था और उसका भतीजा है 90 साल की उम्र में इन घरों को देखता है और पुरानी यादों में खो जाता है। 
नगरा गांव यूपी और मध्यप्रदेश की सीमा पर बसा हुआ गांव है।  इस गांव से शुरू हो जाता है चंबल का वो बीहड़ जिसकी डांग में लंबे समय तक डाकुओं ने पनाह ली है। इसी गांव के एक दूसरे छोर पर एक हवेली के खंडहर दिखाई देते है। हवेली के बाहर और भीतर गोलियों के निशान उस हवेली पर टूटे कहर के कहानी सुनाते है। ये घर है ठाकुर रघुबीर सिंह का। गांव का ही नहीं इलाके का माना हुआ परिवार। लेकिन घर में जीते सिंह के बाबाओं के परिवार से रिश्ता रखने वाले कुछ रिश्तेदार रहते है। हवेली की छतें उसी तरह काले धुएं से भरी हुई है। पत्थर उस दिन की आग से फटे हुए है। और हवेली हर साल पहले से ढहती जाती है। रहने वालों ने भी इसमें कुछ बदलाव नहीं किया है। लाखन सिंह के एनकाऊंटर केबाद 1972 में पहली बार इस हवेली में मुझे जीने दो की शूटिग्स हुई थी। उस वक्त कुछ बदलाुव किया गया लेकिन फिर कुछ नहीं बदला। हवेली एक जीता जागता गवाह है दुश्मनी के उस दौर का जिसमें नगरा को झुलसना पड़ा। और नगरा से शुरू हुई आग ने इलाके लोगों को और चंबल को एक ऐसा डकैत दिया जिसके नाम से इलाका थर्रा उठता। 
मध्यप्रदेश और उत्तरप्रदेश के बीच बसे हुए नगरा के लोग ऊंटों के सहारे नदी से इधर का सामान उधर और उधर का सामान इस पार लाते थे। टैक्स के अंतर के चलते ये फायदे का सौदा था। रघुबीर और लाखन का परिवार भी इस धंधें में लगा हुआ था। गांव में मानसिंह के गैंग का भी आना जाना था। एक तरफ लाखन का रिश्तेदार सूबा सिंह तो दूसरी और रघुबीर सिंह का परिवार दोनो गांव में एक दूसरे के करीब थे। लेकिन इसी बीच गांव में पुलिस का छापा पड़ा और सूबे सिंह के यहां से तस्करी का कुछ सामान बरामद हुआ। इस का शक लाखन के परिवार के करीबी लोगो के यहां चोरी हो गयी। और इसका शक रघुबीर सिंह पर गया।
गांव में दो परिवारों के बीच दुश्मनी शुरू हो चुकी थी। रह रह कर पुलिस का सहारा लेकर एक दूसरे से हिसाब बराबर किया जा रहा था। और चंबल में ऐसी पहली कहानियों से भी पुलिस ने सबक नहीं सीखा था लिहाजा वो आसानी से इस्तेमाल हो रही थी। फिर एक दिन मानसिंह गैंग ने एक पुलिस इंस्पेक्टर और बाद में चार और पुलिस वालों की हत्या कर दी। पुलिस ने इनकी जानकारी देने का शक सूबा सिंह पर किया और उसको गिरफ्तार कर लिया। कहते है कि जब सूबा सिंह को गिरफ्तार करके गांव से ले जाया जा रहा था तो सूबा सिंह ने लाखन सिंह को देखा और कहा कि इस अपमान का बदला जरूर लेना। साफा पहनने के बेहद शौंकीन लाखन सिंह ने अपना साफा गांव के सामने उतार कर सूबे सिंह के पैरों में रख कर कहा कि वो इस का ऐसा बदला लेगा कि आने वाले वक्त तक लोग इसको भूल नहीं पाएंगे। और कुछ ही दिन बाद एक छोटी सी घटना से रघुबीर सिंह और लाखन सिंह का परिवार एक दूसरे के आमने सामने आ गया।

मानक सिंह उस दुश्मनी की कहानी का चश्मदीद है। 90 साल की उम्र में भी मानक सिंह को वो पूरी कहानी फिल्म की रील की तरह से याद है क्योंकि मानक सिंह खुद लाखन सिंह का भतीजा है और गैंग में सालों तक दुश्मनों पर पुलिस पर गोलियां चला चुका है। सात हत्याओं के आरोपी मानक सिंह ने लाखन के कहने पर ही पुलिस के सामने समर्पण किया था।
नगरा गांव में दो ठाकुर परिवारों की दुश्मनी की कहानी शुरू हो चुकी थी। लाखन सिंह इलाके के एक गांव में डकैती डालकर चंबल का रास्ता तय कर लिया। इस वारदात में उसके भाई और दूसरे लोग तो गिरफ्तार हुए लेकिन लाखन फरार हो गया। 
चंबल में सबसे पहले हर गोविंद और महाराज सिंह के गैंग में कुछ दिन रहा। उसके बाद उसने चरणा डकैत के गैंग में शामिल हुआ। लेकिन उसने वहां से भी जल्दी ही किनारा कर लिया। क्योंकि लाखन सिंह को किसी से आदेश लेना पसंद नहीं था। लाखन सिंह ने अपना गैंग बना लिया और उसमें परिवार के कई लोग शामिल हो गए। 
लाखन ने बदला लेना शुरू कर दिया। और डकैती में उसकी मुखबिरी करने के शक में पांच लोगों को एक साथ लाईन में खड़ा कर गोलियों से भून दिया। वारदात से चंबल में लाखन सिंह का नाम सुर्खियों में आ गया। इस मामले में लाखन सिंह का भाई फिरंगी सिंह पकड़ा गया। फिरंगी सिंह हाईकोर्ट में अपील पर बाहर आ गया। लेकिन इस दौरान गांव में रघुबीर सिंह का रूतबा काफी ऊंचा हो गया था और फिरंगी के बाहर आने पर रघुबीर सिंह ने एक बार फिर उसको पुलिस की मदद से अंदर करा दिया और आरोप लगाया धमकी देने और सताने का।  इस बात ने लाखन सिंह के जख्मों को फिर से हरा कर दिया। लाखन सिंह ने अपना बदला लेने का फैसला किया।
दो महीने बाद नगरा गांव के बाहर खेत में हवेली के दो लोगो तिलक सिंह और मथुरी सिंह की लाश  गोलियों से छलनी पड़ी पाई गई। इस घटना ने लाखन सिंह को पुलिस रिकॉर्ड में लाखन द टैरिबल का नाम  दिया। पुलिस अब लाखन सिंह का सफाया करना चाहती थी। हवेली ने भी लाखन के सफाएं में पुलिस की पूरे तौर पर मदद करना शुरू कर दिया। लेकिन लाखन ने इस कत्ल के बाद तो लूट, डकैती और कत्ल की एक पूरी नदी ही बहा दी। हर रोज कही न कही लाखन सिंह गैंग की वारदात की खबर पुलिस फाईलों में दर्ज होने लगी।  और पुलिस के साथ मुठभेड़ से लाखन सिंह नहीं डरता था। उसका हौंसला कितना बढ़ा हुआ था इसी बात से अंदाज लगाया जा सकता है कि 1952-53 के बीच लाखन और पुलिस के बीच 9 एनकाउंटर हुए। इन एनकाउंटर में लाखन के सिर्फ दो लोग ही पुलिस की गोलियों का शिकार बने वही इस दौरान लाखन ने 47 लोगो को अपना निशाना बनाया। 
लाखन सिंह का कहर अब हवेली पर बढ़ता जा रहा था। हवेली के हर कोने पर गोलियों के निशान उसके खौंफ की कहानी बता रहे है। लाखन अपना बदला लेने के लिए हमेशा ताक में लगा रहता था। इसके अलावा लाखन इलाके में भी वारदात करने में जुटा रहता था। मार्च 1952 में पुलिस के साथ हुई मुठभेड़ में ऊंटों के नाम पर अपनी किस्मत के सहारे बच निकले लाखन का शक एक बार फिर मुखबिरी के लिए रघुबीर सिंह पर ही गया। 
गांव में दशहरे मनाया जा रहा था। लेकिन इसी बीच नगरा गांव के खेतों में हवेली वालों में से एक जबर सिंह को लाखन सिंह ने पकड़ लिया। लाखन सिंह ने जबर सिंह को बेरहमी से मौत के घाट उतार दिया। इसके बाद गांव के बाहर से निकलते हुए ऐलान कर दिया कि वो हर दशहरे पर इस हवेली पर मौत बरसाएंगा। 
मध्यप्रदेश पुलिस लाखन की दुश्मनी और कहर दोनों को जान चुकी थी। लिहाजा पुलिस ने लाखन को मारने के लिए एक प्लान बना दिया। प्लान था कि दशहरे पर लाखन फिर हवेली आएंगा और हवेली में रघुबीर का परिवार की सुरक्षा में पुलिस की पूरी गार्द तैनात मिलेगी। 1954 में दशहरे के दिन लाखन ने फिर हवेली पर हमला किया लेकिन इस बार हवेली से निकली पुलिस की गोलियों ने उसके पैर उखाड़ दिए। लाखन को भागना पड़ा। ये लाखन के लिए एक हार थी। और हार का बदला लेना लाखन को अच्छी तरह से आता था। 
दशहरे के दो दिन बाद पुलिस को सूचना मिली कि बीती रात आगरा के पास मानसिंह गैंग से पुलिस के बड़ी मुठभेड़ हुई है। और उस मुठभेड़ में मानसिंह गैंग के साथ लाखन सिंह का गैंग भी था। लिहाजा पुलिस को उम्मीद हुई कि मुठभेड़ से बच निकला गैंग अपने पुराने रास्ते से लौटेंगा। नगरा में थाना बना चुकी पुलिस को आदेश मिला कि वो आगरा वाले रास्ते पर कूच करे। पुलिस ने तेजी के साथ मूवमेंट की। नगरा थाना यानि हवेली से निकली पुलिस को गांव से निकले कुछ ही वक्त हुआ होगा। कि अचानक खेतों से लाखन का गैंग निकल आया।  और हवेली में कत्लेआम मचा दिया। 6 लोगो को मौत के घाट उतार कर लाखन सिंह वहां से निकल लिया। 
पुलिस को इससे बड़ी हार शायद ही किसी डाकू के हाथ मिली हो। नगरा से सत्रह किलोमीटर दूर कस्बा पोरसा में मध्यप्रदेश पुलिस के डीआईजी ठहरे हुए थे। खबर पोरसा तक पहुंची तो सदमे में आई पुलिस फौरन नगरा पहुंची। लेकिन तब हवेली के अंदर सिर्फ रोने चीखने की चीत्कारें और हवेली के बाहर गोलियों के निशान बचे थे। लाखन अपना बदला लेकर निकल चुका था। लेकिन दुश्मनी कम नहीं थी। कहते है कि हवेली के लोगो की चिताओं के जलने से पहले ही रघुबीर सिंह के लोगो ने भी दूसरी तरफ लाशें बिछा दी।
अब इस दुश्मनी की कहानी चंबल के बीहड़ की हर डांग या भरकों में गूंज रही थी। पुलिस के मत्थे एक नाकामी का दाग बढ़ता जा रहा था। पुलिस चाहती थी कि किसी भी तरह इस दाग को साफ करने की कोशिश की जाएं. 
लाखन सिंह की दुश्मनी और नगरा गांव की कहानी अखबारों की सुर्खियों में थी। प्रदेश सरकार को हर तरफ से नाकामी मिल रही थी। लेकिन लाखन आम डकैत की तरह नहीं था। पुलिस रिकॉर्ड के मुताबिक लाखन एक लोमड़ी की तरह तेज था। और खतरे को सूंघने में बेहद माहिर था। 
लाखन सिंह का अपना गैंग काफी बड़ा हो चुका था। लेकिन कभी कभी वो मानसिंह गैंग के साथ मिलकर वारदात किया करता था। लोगों का कहना है कि लाखन अपने दुश्मनों के लिए कोई भी गली नहीं छोड़ता था। हवेली के लोग कही लाखन के खिलाफ मानसिंह गैंग का इस्तेमाल न कर ले इसीलिए लाखन हमेशा मानसिंह के कहने पर भी काम करता था।
मानसिंह का गैंग चंबल के इतिहास का सबसे बड़ा और खतरनाक गैंग माना जाता था। मानसिंह को इलाके के लोग राजा मानसिंह कहते थे। गैंग में मानसिंह के परिवार के कई लोग शामिल थे लेकिन गैंग में मानसिंह के बाद दो लोगो की चलती थी। एक लाखन सिंह और दूसरा रूपा पंडित। दोनो अचूक निशानेबाज और दोनों ही महत्वाकांक्षी। मानसिंह के बाद गैंग के मुखिया बनने की ख्वाहिंश दोनो के दिल में थी। लेकिन मानसिंह इस बात को जानता था इसीलिए अपने सामने ही लाखन सिंह को गैंग से विदा कर दिया था। 
लाखन सिंह एक बड़े गैंग का मुखिया था। गैंग लूट और डकैती के लिए किसी भी हद तक पहुंच जाता था। लेकिन मानसिंह की तरह से लाखन सिंह ने अपने कुछ उसूल बनाएं हुए थे। और इन उसूलों में से एक था कि किसी भी कीमत पर मुखबिरों को न छोड़ना। पुलिस भी लाखन सिंह के पीछे पड़ी हुई थी। किसी भी तरह से लाखन की सूचना हासिल करने के लिए पुलिस ने दिन रात एक किया हुआ था । और फिर 1956 में लाखन सिंह के गैंग में पुलिस ने एक मुखबिर बना लिया था। मुखबिर की सूचना पर पुलिस के साथ लाखन गैंग की मुठभेड़ हो गई। पुलिस की गोलियों को बड़ी मुश्किल से चकमा देकर लाखन बीहड़ों में वापस लौटा। लेकिन सारी रात लाखन सिंह शराब पीता रहा। पूरा गैंग अचरज से भरा हुआ था कि आखिर लाखन सिंह जो  शराब नहीं पीता है वो पूरी रात शराब क्यों पी रहा है। सुबह होने पर लाखन ने अपना पूरा गैंग एक लाईन में खड़ा किया और अपने सबसे करीबी आदमी फौंजदार सिंह को गोली मार दी। फौजदार सिंह की लाश पुलिस अगले दिन नगरा के पास के बीहड़ में मिल गई। 
मध्यप्रदेश पुलिस ने फौजदार सिंह के मारे जाने की खबर मध्यप्रदेश के गृहमंत्री नरसिंह दीक्षित को भी दी । कहते है कि नरसिंह दीक्षित जल्द से जल्द लाखन का सफाया करना चाहते थे और इसी लिए लाखन सिंह के गांव में पुलिस अफसरों की तैनाती की गई थी। लेकिन फौंजदार सिंह की मौत ने पुलिस का प्लान ही ध्वस्त कर दिया। दरअसल मध्यप्रदेश पुलिस को ये लाखन सिंह की चुनौती थी। लाखन सिंह की किस्मत काफी तेज थी और उसकी खुद की निगाह भी आसानी से दोस्त और दुश्मन को पहचान लेती थी। चंबल के डकैतों में लाखन सिंह का नाम जरा से शक होने पर कत्ल कर देने वाले डाकू के तौर पर था।
मध्यप्रदेश पुलिस पूरे तौर पर लाखन सिंह यानि जी 2 के पीछे पड़ चुकी थी। लाखन सिंह के बदले की आग हवेली के लोगो को जलाती जा रही थी। पुलिस पूरी ताकत लगाकर भी लाखन सिंह को रोक नहीं पाती थी। लाखन सिंह अब तक हवेली के 15 लोगो को मार चुका था। ऐसे में एक दिन पुलिस अधिकारियों ने तय किया कि हवेली के लोगो को पुलिस संरक्षण में ग्वालियर शहर भेज दिया जाए। और हवेली खाली हो गई।  लेकिन खाली हवेली भी लाखन को बदला लेने से नहीं रोक पाईँ। अगर हवेली में इंसान नहीं बचे थे तो क्या लाखन सिंह ने हवेली ही फूंकने का फैसला कर लिया। ये  एक ऐसा फैसला था जिसने इलाके में सनसनी फैला दी।  और लाखन ने हवेली फूंकने के लिए पेट्रौल शहर से मंगाया। और दूसरे डाकू गिरोहों को भी इसमें हिस्सा लेने के लिए न्यौता। पुतलीबाई, सुल्ताना, कल्ला और खुद लाखन सिंह एक दिन इस हवेली को फूंकने जा पहुंचा
धू धू कर जली हवेली अपनी किस्मत पर आज भी आंसू बहाती है। लाखन सिंह का बदला अभी तक पूरा नहीं हुआ था लेकिन उसने अपने दुश्मनों से गांव छुड़वा लिया था। हवेली फूंकने की खबर ने पुलिस की और भी किरकिरी करा दी। और फिर मध्यप्रदेश पुलिस ने हवेली में थाना खोलने के बाद एक पूरी बटालियन एसएएफ की नगरा गांव की इस हवेली में तैनात की। सरकार किसी भी तरह लाखन से छुटकारा चाहती थी लिहाजा उसने एक आरआई के तौर पर भर्ती पुलिस अधिकारी टी क्विन को नगरा में ही अस्टिटेंट और फिर कमांडेट बना कर तैनात कर दिया। टी क्विन ने कसम खाई कि वो लाखन का सफाया करने के बाद ही नगरा को छोड़ेगा।
टी क्विन हर समय नगरा के बीहड़ों में फोर्स के साथ लाखन की तलाश में घूमने लगा। लेकिन लाखन सिंह को गांव से दुश्मनों को भगाने का जश्न मनाना था। लिहाजा उसने मंदिर बनाने और उस पर घंटा चढ़ाने का ऐलान कर दिया।  मंदिर बनना शुरू हो गया। गांव के बाहर बनने वाले इस मंदिर में गांव के लोगो से ही लाखन सिंह ने खुदाई कराई। 
टी क्विन को इस की जानकारी मिल चुकी थी। पुलिस ने जाल बिछा दिया। ये खबर सुर्खियों में थी लिहाजा पुलिस इसमें मात नहीं खाना चाहती थी। पूरी तरह से मूर्तियां लाने वालों पर निगाह थी। पंडितों पर भी शिकंजा कसा गया। लेकिन लाखन ने इस बार भी पुलिस का ध्यान एक फर्जी सूचना के सहारे बंटा दिया। पुलिस गांव के दूसरे हिस्से में लाखन के पहुंचने की सूचना पर पहुंची थी कि लाखन ने इस तरफ से आकर घंटा चढ़ा दिया। ठगी सी पुलिस पहुंची लेकिन तब तक लाखन जा चुका था।
पुलिस को एक बार फिर लाखन सिंह के हाथों मुंह की खानी पड़ी।    पुलिस को लाखन चाहिए और लाखन चंबल के बीहड़ों में गुम था। पुलिस प्रमुख के एफ रूस्तम जी ने खुद ऑपरेशन की कमान संभाल ली। चंबल के इतिहास में पहली बार 4000 हजार पुलिस वालों  और 100 वाहनों को बीहड़ो में उतार दिया गया। इस ऑपरेशन का नाम दिया गया ऑपऱेशन हैमर। 19 अगस्त 1958 से चंबल में गैंग 2 लेकिन खौंफ में नंबर 1 लाखन के गैंग के सफाएं के ऑपऱेशन शुरू हो गया। इससे पहले चंबल में किसी डकैत को घेरने के लिए एक बार 400 से 500 लोगो को ही इस्तेमाल किया गया था। ये पहला मौका था कि इतनी बड़ी पुलिस फोर्स बीह़ड़ में झौंक दी गई हो। और सब नतीजों का इंतजार कर रहे थे। 
पुलिस चंबल के बीहड़ों में भटक रही थी और लाखन अपने दुश्मनों को ठिकाने लगाने में जुटा था। चंबल के इलाके में इतनी बड़ी फोर्स के खाने-पीने के इंतजाम का भी संकट था। बरसात का मौसम था और पुलिस का मूवमेंट भी काफी मुश्किल भरा था। 26 अगस्त को पुलिस को सूचना मिली कि जौरा के जंगलों में देवगढ़ में लाखन अपने गैंग के साथ देखा गया। 
पूरा पुलिस मूवमेंट जौरा के इलाके में कर दिया गया। पुलिस ने पूरा इलाका छान मारा। लेकिन पच्चीस लोगों के साथ उस इळाके में घूम रहा लाखन आसानी से गायब हो गया। पुलिस प्रमुख रूस्तम जी ने अपने मातहतों के साथ बातचीत की और जब ये पता चल गया कि लाखन अब यहां से बच निकला है ऑपरेशन हैमर को 28 अगस्त को खत्म कर कर दिया। इस ऑपऱेशन को फेल करार दिया गया। 
टी क्विन ने एक और चाल चली। उसने रूपा महाराज से रिश्ता निकाला और कहा कि यदि वो लाखन का एनकाउंटर करा देता है तो उसे हाजिर करा दिया जाएंगा। मानसिंह के बाद गैंग का सरदार रूपा इस बात के लिए तैयार हो गया। उसके बाद एक के बाद एक एनकाउंटर हुए लेकिन लाखन का कुछ नहीं बिगड़़ा। एक बार रूपा की इंफोर्मेशन पर पुलिस ने घेरा लगाया तो लाखन की बजाय पुतलीबाई का गैंग मारा गया।
इलाके में टी क्विन और रूपा के रिश्तें की कहानी सुर्खियां बनने लगी। यहां तक कि जेड.ओ 1 कहलाने वाले टी क्विन को जेड ओ 2 और रूपा को जेड़ ओ 2 कहा जाने लगा। और फिर एक दिन रूपा को टी क्विन ने मिलने के लिए बुलाया और बाद में रूपा मारा गया। 
किस्मत ने इतने दिन तक लाखन का साथ दिया। रूपा के मारे जाने के बाद चंबल में लाखन सिंह एकमात्र सरदार था। लाखन सिंह के नाम के सामने अब कोई दूसरा नहीं था। पुलिस हताश थी और लाखन आसमान पर। लेकिन वक्त ने लाखन का साथ छोड़़ने का फैसला कर लिया था। 30 दिसबंर 1960 को भिंड जिले के देवरा गांव में पुलिस और लाखन गैंग की मुठभेड़ हो गई। अचानक हुई इस मुठभेड़ में लाखन सिंह को गोली लग गई तो लाखन ने अपने गैंग को कहा कि गैंग वहां से निकले और पुलिस को लाखन रोकेगा। 
गैंग निकल गया। पुलिस गोलियां बरसा रही थी तभी एक आवाज आई कि गोलियां मत चलाओं मैं स्टाफ में से हूं।  प्लाटून कमांड़र राम अख्तियार सिंह ने गोलियों चलाना बंद कराया और देखा कि पुलिस की वर्दी में एक आदमी टॉमीगन के साथ रेंग रहा है।  राम अख्तियार सिंह आगे बढा़ तो सामने लेटे हुआ आदमी एक दम से खड़ा हुआ और उसने गोलियां चलाते हुए कहा कि वो और नहीं लाखन सिंह है और लाखन अपना बदला लिए बिना नहीं मर सकता।  दोनो ओर से गोलियां चली और लाखन सिंह के के साथ रामअख्तियार सिंह भी मौके पर ही शहीद हो गय।
मुठभेड के बाद रूस्तम जी ने पत्रकारों को कहा कि yes we nabbed the killer, the bloody killer, Lakhan the terrible, the homicidal manic

Saturday, May 21, 2016

डाकुओं की रानी पुतलीबाई-- bandit queen Putlibai

चंबल की इन घाटियों में मूछों का ताव, और मर्दानगी की ऐँठन बागियों की जान और शान रही है।  बीहड़ों में चलना, घूमना और रात दिन इन गारों में सोना, जागना किसी भी आम इंसान के लिए सजा से कम नहीं  और डाकू बन कर इनको अपनी पनाहगाह में बदलना तो और भी मुश्किल भरा है।  बंदूक से गोली और जबान से गाली दोनों चंबल में मर्दानगी की निशानी रही है, ऐसे में पचास के दशक तक, कोई आदमी ये ख्वाब में भी नहीं सोच सकता था कि कोई महिला भी इन बीहड़ों में बंदूक थाम सकती है।  और न सिर्फ बंदूक थामना बल्कि डाकू बन कर इन चंबल की घाटियों में खौंफ और आतंक का नाम भी बन सकती है। । लेकिन चंबल की कहानी में चंबल की तरह ही मोड़ आते है।  इस बार चंबल की ऐसी कहानी जिसका ट्विस्ट तो ब़ॉलीवुड तो दूर हॉलीवुड को मात दे सकता है।
पुतलीबाई। चंबल के बीहड़ों में पहली महिला डकैत।  लेकिन एक महिला डकैत के चंबल की मलिका बनने तक का सफर भी अजीब सफर है। जो किसी फसाने से कम नहीं। किस्सा ऐसा कि हर पल सांस रूक जाएं और लगे कि शायद पुतली की कहानी यही रूक जाएं। लेकिन कहानी तो चलती जाती है। तबले की थाप पर थिरकने वाली पुतलीबाई गोलियों की आवाज पर भी कहकहे लगाने से नहीं चूकी। दोनों हाथों से गोलियां चलाने वाली पुतलीबाई का एक हाथ पुलिस एनकाऊंटर में जख्मी हुआ तो उसको कटवाने में पुतली ने देर नहीं की। लेकिन हाथ नहीं रहा तो पुतली का हौंसला कम नहीं हुआ बल्कि और भी बढ़ गया। पुतली एक हाथ से गोलियों की बौंछार कर पुलिस की आंखों में आँखें डाल कर मुकाबला  करती थी। बदन में लोच, गले में गमक और बिजली सी थिरकन, यही पहचान थी पुतलीबाई की चंबल के बीहड़ो में उतरने से पहले। पुतली बाई का सफर एक नाचगाने वाली से शुरू हुआ। और पहुंच गया चंबल को अपनी उंगली पर नचाने वाली पुतलीबाई तक।  घुंघरू बांध कर नाच-गाने की महफिलों की रौनक थी पुतलीबाई। चंबल के बागियों से की लेना –देना नहीं। चंबल के बागियों का उसूल था किसी औरत को गैंग में कोई जगह नहीं । गैंग में नाच गाने की महफिल भी जुड़ती थी लेकिन महफिल खत्म तो फिर नाचनेवाली से रिश्ता भी खत्म। पुतलीबाई के नाच गाने की शोहरत तो दूर-दूर तक थी। और इसी शोहरत ने तैयार कर दिया था पुतली का चंबल से ऱिश्ता। एक ऐसा रिश्ता जो दिल का रिश्ता था, दूर हुई तो दर्द का रिश्ता बना और फिर वापस बंदूक से रिश्ता बन गया। और ये रिश्ता तभी टूटा जब पुतली से सांसों का रिश्ता टूटा।
पुतलीबाई के लिए चंबल जीने का जरिया रहा तो मौत का बिस्तर भी चंबल ही बनी। कभी चंबल को गीतों से गुंजाने वाली पुतली गोलियों की गूंज में ही खो गई। पुतली की कहानी भी चंबल की कहानी का एक अमिट हिस्सा बन गई। कौन थी ये पुतली, कहां से आई थी और कैसे चली गई पुतली।चंबल के बीहड़ों की एक ऐसी कहानी जिसकों चंबल आज भी शौक से सुनाती है। गांव बरबई। तहसील अम्बाह, और जिला मुरैना।  ये चंबल के बीहड़ों में बीच बसा हुआ एक और गांव है। गांव में घुसते ही आपको एक पार्क दिखाई देगा। और गांव में घुसते ही आप को कुछ ऐसा दिखाई देगा जो आपने सोचा भी नहीं होगा। पुतलीबाई की तलाश करने गांव पहुचे लोगों को पहले दिखता है पडिंत राम प्रसाद बिस्मिल पार्क। बरबई और बिस्मिल एक करीब का रिश्ता है। ये बिस्मिल का गांव है। रामप्रसाद बिस्मिल का गांव। सरफरोशी की तमन्ना जैसा देश भक्ति का तराना लिखने और इसी गाते गाते फांसी पर चढ़ जाने वाली बिस्मिल का यही पुश्तैनी गांव है। 
लेकिन बिस्मिल की कहानी फिर कभी। आज चंबल की रानी यानि पुतलीबाई की कहानी। इस घर की टूटी हुई दीवारे आपको ये बता रही होगी की लगभग सत्तर साल से ये घर इसी तरह किसी का इंतजार कर रहा है। घर के अलग-अलग हिस्से हो चुके है। किसी को किसी ने खरीद लिया तो किसी को किसी ने। लेकिन जो रह गया उसमें एक इंतजार दिखता है। जैसे उसको घुंघरूओं की आवाज का इंतजार हो कि कब वो महफिल फिर से सजेगी, और तबले की थाप कब बजेगी और कब इस घर के आंगन में असगरीबाई की आवाज और पुतलीबाई का नाच एक बार फिर से जवां हो जाएंगा। पुतलीबाई के घर के कई हिस्से हो चुके है। और कई हिस्से बिक चुके है। पुतली के भाई के परिवार वाले इस घर को हिस्सों में बेच कर गांव से जा चुके है। बस  एक हिस्सा है जिसकी ताख पर आज भी कुछ टूटे हुए दिए रखे है। वो दिए जिनकी रोशनी में पुतली का नाच दिखता था और वो दिए जो पुतली के मरने पर एक बार बुझे तो फिर कभी नहीं जले। आज भी ताख में रखे हुए किसी का इंतजार कर रहे हो जैसे। टूटे हुए जंगलों से झांकने के लिए कुछ नहीं बचा। क्योंकि दरवाजा और जंगला जिस घर की निगहबानी कर रहे है वो घऱ तो कभी का उजड़ गया। पुतली की बेटी तन्ना एक बार गांव से क्या गई फिर इस घर के दरवाजे नहीं खुले। और वक्त का सितम ये रहा कि छत और दीवारें भी बिस्मार हो गई और बच गया दरवाजा और जंगला। दरवाजे पर लगा ताला आखिरी बार कब खुला था ये किसी को याद नहीं। 
ये पुतलीबाई का घर है। पुतलीबाई की कहानी की शुरूआत यही से शुरू होती है। पुतलीबाई की मां का नाम असगरीबाई था। जाति से बेड़नी और काम नाच-गाना। असगरीबाई ने बचपन से ही पुतलीबाई को नाचगाना सिखाया था। असगरीबाई के बारे में कहा जाता कि वो  बेहद खूबसूरत थी और वही खूबसूरती विरासत में पुतलीबाई को मिली थी। पुतलीबाई और उसकी बहन तारा ने अपना नाचगाना यही से शुरू किया और कुछ ही दिन में असगरी समझ गई कि पुतली के लिये ये गांव छोटा पड़ रहा है। लिहाजा पुतली को लेकर असगरीबाई आगरा पंहुच गई। कद्रदानों का शहर आगरा। इसी शहर के बसई इलाके में एक कोठे पर पुतलीबाई का नाचगाना शुरू हो गया। 
पुतली की सुरीली आवाज और सुंदर नृत्य ने लोगो  पर जादू कर दिया। किस्सा यही है कि आगरा में असगरीबाई का कोठा इलाके का सबसे ऊंचा कोठा बन गया। महफिलों की रौनक बढ़ती गई। और पुतलीबाई की शोहरत के साथ दौलत भी असगरी के हिस्से में आने लगी। पुतलीबाई की आवाज के चर्चे आगरा के साथ साथ लखनऊ, कानपुर और दूसरे बड़े शहरों तक जा पहुंची।  पुतलीबाई के नाच पर पैसों की बौछार हो जाती थी। इसीबीच पुतली ने अपनी नाचने-गाने की कला के बीच एक और चीज सीख ली। और वो था आल्हा और होली के गीत गाना। आल्हा इस इलाके के लिए जिंदगी का हिस्सा थी। महोबा के आल्हा ऊदल की वीर गाथा के गीतों को पुतलीबाई इतना डूबकर गाती थी कि इलाके के बड़े-बडे अल्हैत पानी भरने लगे।  
पैसा कोठे पर बरस रहा था तो जिंदगी भी करवट ले रही थी। पुतलीबाई की शोहरत अब पुलिस वालों के कानों में पहुंचने लगी। पुलिस के लोग भी  कोठे पर पहुंचने लगे और कुछ पुलिसअधिकारी कुछ ज्यादा ही दिलचस्पी लेने लगे। हालत ये हो गई कि महफिल में आने वाले लोग किनारा करने लगे और पुतलीबाई कुछ पुलिसअधिकारियों की निजि महफिलों की जीनत बन कर रह गई। परेशान असगरी ने आगरा को अलविदा कहा और अपने गांव और शहर की ओर रूख कर लिया। बरबई और बरबई से लौट आई मुरैना। मुरैना में असगरी ने फिर से महफिल सजा ली और वही से आसपास केइलाकों मे जाने लगी।  और इसी आने जाने में पुतलीबाई की जिंदगी का एक मोड भी आ गया जिसने उसकी राह एक नई दुनिया की ओर मोड़ दी।
चंबल के किस्सों में पुतलीबाई की कहानी यही से शुरू होती है। धौलपुर के एक बड़े जमींदार के बेटे की शादी थी। शादी में नाच गाने के लिए पुतलीबाई को न्यौता आया। एक बड़े आयोजन में पैसे की बड़ी उम्मीद के साथ पुतलीबाई  अपनी मां, भाई और साजिंदों को लेकर बड़ी कमाई की आस में धौलपुर के लिए निकली।  धौलपुर में महफिल सज गई। नोट बारिश की तरह  और शराब पानी की तरह होने लगी। महफिल जवान पूरे शबाब पर थी। बताने वाले बताते है कि रात के दो बजे थे कि अचानक राईफल के फायर हुए और पूरी महफिल में सन्नाटा छा गया। गैस लाईट बंद कर दी गई। तबले और सारंगी की आवाज खामोश हो गई। पुतलीबाई अभी बैठकर घुंघरू खोल भी नहीं पाई थी कि दो हाथों ने उसको उठा लिया। इससे पहले की कोई समझ पाता पुतली को एक घोड़े पर बैठा दिया गया। और धौलपुर से सटे बीह़ड़ों के रास्ते में घोड़े दौड़ पड़े।
कहानी तो यही कहती है लेकिन कुछ लोग और भी कहते है। पुतली प्रोग्राम पूरा कर अपने दल के साथ लौट रही थी कि रास्ते में उसको डाकुओं का दल खड़ा मिला। और उनका सरगना था उस इलाके का सबसे खूंखार डाकू सुल्ताना गुर्जर। सुल्ताना का खौफ पूरे इलाके पर था। लेकिन बाकि बागियों की तरह सुल्ताना ने भी इलाके में कभी किसी औरत की इज्जत पर हाथ नहीं डाला था। इसीलिए पुतली बाई ने धडक से पूछा कि कौन। जवाब आया तुम्हारा चाहने वाला सुल्ताना । पुतलीबाई ने सुल्ताना को झिड़कने की कोशिश की लेकिन सुल्ताना पर पुतली का भूत सवार था। पुतली की सुंदरता के किस्से सुनकर आया सुल्ताना ब पुतली को अपने फंदें से निकलने नहीं देना चाहता था लिहाजा उसने गन पुतलीबाई के भाई के सीने पर लगा दी। पुतलीबाई ने भाई की जान बचाने के लिए सुल्ताना के हाथ जोड़े और उसके साथ चल दी।सुल्ताना पुतली को लेकर बीहड़ों में उतर गया था। असगरीबाई की पुकार किसी पुलिस वाले के कानों में नहीं उतरी। उधर धीरे –धीरे पुतली को भी सुल्ताना से प्यार हो गया। और फिर एक दिन सुल्ताना और पुतली के प्यार का जश्न चंबल के बीहड़ों में मनाया गया। सारी रात शराब का दौर चला। पुतलीबाई भी जम कर नाची।  इसके बाद पुतलीबाई चंबल में सुल्ताना की प्रेमिका बन गई थी। चंबल में अफवाहें घोडों से भी तेज दौड़ती है। इस बार की अफवाह में तो शराब और शबाब दोनों का किस्सा था लिहाजा चंबल के गांव-गांव ये खबर फैल गई कि बेड़नी पुतलीबाई बागी सुल्तान सिंह के साथ बागी हो गई।  सुल्ताना ने मंहगे-महंगे गिफ्ट पुतलीबाई को देने शुरू कर दिए।  और पैसों के लिए लूट और डकैती का सिलसिला ही शुरू कर दिया। कत्लेआम और लूट से पुतली डर गई और उसने सुल्ताना से हाथ पैर जोड़ कर जाने के लिए कहा। सुल्ताना ने पहले तो ठुकरा  दिया लेकिन पुतली नींद में चीखने लगी और उसको सपने आने लगे।
सुल्ताना ने उसको काफी समझाया लेकिन उस पर तो वापस जाने का भूत सवार हो चुका था। आखिर में एक दिन सुल्ताना ने उसको कहा कि एक डाकू  की जिंदगी ऐसी जिंदगी है  जिसमें दुनिया का हर  आदमी हर रास्ते से मुड़ सकता है लेकिन इस रास्ते से मुडने के लिए कोई दूसरा रास्ता नहीं होता। लेकिन पुतली ने खाना-पीना छोड़ दिया तो सुल्ताना टूट गया और उसने पुतली को घर जाने की छूट दे दी। बीहड़ के पार एक गांव में सुल्ताना खुद पुतली को छोड़ने आया और कहा कि दुनिया अब तुमको अपने बीच रहने नहीं देगी पुतली। लेकिन पुतली को घर बुला रहा था या फिर किस्मत एक और दिन दिखाना चाहती थी। और पुतली घर पहुंची 
चंबल के बीहड़ों से पुतली निकल मुरैना अपने घर पहुंची। येखबर आग की तरह से शहर में  फैल गई। मां से गले लग कर अभी पुतली जी भर के रोई भी नहीं थी कि दरवाजे पर पुलिस आ खड़ी हुई। पुतली बाई को पुलिस थाने ले गई। किस्सों मे दर्ज है कि पुलिस ने थाने में पुतली को घंटों तक टार्चर किया। हर तरह की यातना दी और सुल्ताना के गैंग के मेंबर्स और पता –ठिकाना पूछा। पुतली ने मुंह नहीं खोला।  यातना का ये खेल कई दिन तक चलता रहा। रातों में भी थानों में बुलाया गया। सत्तर साल पहले चंबल के इलाकों में बस दो ही कानून चलते थे जंगल में डाकूओं को और शहर में पुलिस का। न डाकुओं के लिए कोई कानून और न ही पुलिस के गैरकानूनी कामों के लिए।  पुतलीबाई को थाने में बुलाना यातना देना और यहां तक कि कुछ अफसरों ने अपने घरों में बुलाकर मनमानी करना एक रूटीन बन गया था
 इससे परेशान पुतलीबाई को बीहड़ की जिंदगी याद आने लगी। गैंग में उसको सुल्ताना की औरत की तरह इज्जत दी जाती थी। हांलाकि गैंग का नंबर टू की हैसियत रखने वाला बाबू लुहार उस पर बुरी नजर रखता था लेकिन सुल्ताना के खौंफ से चुपचाप रहता था। कुछ दिन इसी तरह कटे। और कुछ दिन बाद उसके एक बेटी हुई। असगरीबाई बेहद खुश हो गई। और बेटी का नाम रखा गया तन्नो। सुल्ताना और पुतलीबाई की बेटी तन्नों। दो महीने बाद पुतलीबाई फिर से प्रोग्राम में जाने लगी। और एक दिन बरबाई के पास के गांव में पहुंची पुतली ने सुल्ताना को बुलाया और उसके साथ वापस बीहड़ में निकल गई।
लेकिन इस बार की पुतली पहली वाली पुतलीबाई नहीं थी। इस बार उसको उठाकर नहीं लाया गया था बल्कि वो दुनिया से नाराज होकर खुद लौटी थी। गैंग में काफी खुशी मनाई गई। इस बार वो लूट और कत्लेआम से ऊबती नहीं थी। धीरे-धीरे वो इस काम में हिस्सा लेने लगी। और गैंग में उसको पहली जिम्मेदारी दी गई गैंग की लूट का बंटवारा करने की। गैंग की डकैती के बाद लूट का बंटवारा करने की इंचार्ज बन गई थी पुतली। लेकिन सुल्ताना उसको पूरे तौर पर डकैत बनाना चाहता था। ऐसी डकैत जो हर किस्म का हथियार चलाना जानती हो। ट्रैनिंग दी गई। और फिर एक दिन पुतली को गन देकर एक आदमी पर गोली चलाने को कहा गया। शुरूआती हिचक के बाद पुतली ने गोली चला दी। और चंबल की कहानियों ने दर्ज किया कि जिस शख्स को गोली मारी गई वो पुलिस का आदमी था।  पुलिस रिकॉर्ड में दर्ज हुआ कि “ आल्हा जैसे वीरोचित गीतों को गाने वाले पुतलीबाई के दिमाग में वो गीत चढ़ गए थे। गीतों में गाई गई बहादुरी को उसने कुछ और मान लिया और उसके बाद तो जैसे कानून तोड़ने में उसको मजा आने लगा। अब वो चंबल की डाकू बन चुकी थी जिसके लिए कानून एक कच्चे धागे से ज्यादा कुछ भी नहीं था।“
पुतली बाई लूट और कत्ल के खेल में शामिल हो चुकी थी। कई कत्ल और लूट कर गैंग के एक्टिव मेंबर में शामिल हो चुकी थी पुतली। लेकिन पुतली को अपनी बेटी की याद सताने लगी थी। वो चाहती थी एक दिन बेटी से मिलकर वापस लौट आएंगी।  लेकिन सुल्ताना इसके लिए कभी तैयार नहीं होगा। तो उसने सोचा कि जब गैंग लूट के लिए बाहर के इलाके में जाएंगा तब वो सुल्ताना की गैरहाजिरी में अपनी बेटी से मिलकर लौंट आएँगी। गैंग धौलपुर जिले के रजई गांव में टिका हुआ था। गैंग निकलने ही वाला था कि अचानक गोलियों की बौंछार हो गई। पुलिस की एक बड़ी बटालियन ने गैंग को घेर लिया था। सुल्ताना चिल्लाया छिप जाओं पुतली पुलिस आ चुकी है। फायरिंग हैवी रही और गैंग ने जल्दी ही इलाका छोड़ कर निकला। बीहड़ो में छिपी पुतली बाहर निकली तो वो टीम सामने थी। पुतलीबाई ने आत्मसमर्पण कर दिया उसका ख्याल था कि पुलिस उसको सीधे नहीं फंसाएंगी और कुछ दिन जेल में बीताकर वापस अपनी बच्ची के पास चली जाएगी। 
पुतली को ताजगंज आगरा ले जाया गया। वहां से धौलपुर की जेल। और फिर जमानत पर बाहर। लेकिन पुलिस वालों के लिए वो एक कठपुतली बन चुकी थी। पुलिस उसको मुरैना भी नहीं भेजना चाहती थी। पुलिस ने दो शर्त रखी कि अगर वो मुरैना जाएंगी तो उसकी बहन को धौलपुर रखना होगा और खुद पुतली को सुल्ताना की मुखबरी करनी होगी। पुतली दोनो शर्तों के लिए तैयार नहीं थी। लेकिन  पुलिस अधिकारी रोज अपनी नाजायज मांगों के साथ पुतली के ठिकाने पर आ धमकते। और एक दिन दिन पुतली ने कहा कि वो तैयार है । पुलिस अधिकारी ने खुशी में पहरा हटाया और शाम को शराब पार्टी की शर्त रख दी। शाम को पुलिस अधिकारी शराब और अपने दो दोस्तों के साथ पुतली के ठिकाने पर पहुंचा तो वहां कोई नहीं था। पुतली हवा हो चुकी थी। इस बार पुतली फरार हो गई। 
पुतली वापस सुल्ताना के पास पहुंची। लेकिन बाबू लुहार ने सुल्ताना के कान भर दिए थे। और सुल्ताना को ये यकीन दिला दिया कि रजई में गैंग की मुखबरी पुतली ने की थी। सुल्ताना ने पुतली से कहा कि वो वापस जाएं। लेकिन पुतली भूखी-प्यासी रह कर भी गैंग में बनी रही तब सुल्ताना पसीज गया और फिर से पुतली को अपने साथ रखने को राजी हो गया। और पुतली इस बार बदला लेने के मूड से गैंग में शामिल हुई थी। पुतली ने बदला लेना शुरू कर दिया।  पुतली का पहला निशाना वो पुलिसवाले और उनके परिवार बने जिन्होंने पुतली के साथ रंगरेलियां मनाई थी। पुतली घर में डाका डालती जो मिलता मार डालती और उसकी उंगली भी काट लेती थी, घर की महिलाओं के कुंडल के लिए कान उखाड़ देती थी। अब पुतलीबाई की क्रूरता की कहानियां चंबल के गारों में गूंजने लगी थी।
इसी बीच चंबल में अपने गैंग को बड़ा करने के लिए सुल्ताना ने लाखन को अपने गैंग में शामिल होने के लिए बुला लिया। नगरा का लाखन चंबल में सबसे खूंखार डाकूओं मे गिना जाता था। पुतली ने पहली ही मुलाकात में ताड़ लिया था कि लाखन इस गैंग के लिए खतरा बन जाएंगा।  पुतली की जिंदगी फिर से करवट ले रही थी। दोनो गैंग के लोग एक दूसरे को फूटी आंख नहीं देख  रहे थे लेकिन सुल्ताना को लाखन पर यकीन था। और जंगल में यकीन किसी पर नहीं होता। जो यकीन करता है उसको जमीन नसीब नहीं होती। 25 मई 1955 को थाना नगरा जिला मुरैना के गांव अर्जुनपुर में दोनों गैंग के मतभेद खत्म करने क बातचीत होनी थी कि पुलिस ने गैंग को घेर लिया। ब्रेनगन और स्टेनगन से लैस पुलिस की फायरिंग से गैंग के पांव उखड़ने लगे। सुल्ताना का सबसे वफादार साथी मातादीन मारा गया।  सुल्ताना ने पुतली को बाबू लुहार को सौंपा और कहा कि इस सुरक्षित जगह ले जाओं।  पुतली एक टीले से छिपी मुठभेड़ देख रही थी। तभी उसने देखा कि लाखन ने कल्ला डकैत को इशारा किया और कल्ला ने पुलिस पर फायरिंग कर रहे सुल्ताना पर राईफल दाग दी। और सुल्ताना मारा गया। पुतली के लिए ये आसमान टूटने से कम नहीं था। क्योंकि उसकी पूरी जिंदगी फिर से राख में बदलने वाली थी
मुठभेड़ के बाद पुलिस को मरे हुए डाकुओं में सुल्ताना की लाश मिली थी। पुलिस ने दावा किया कि सुल्ताना उसकी गोलियों का निशाना बना. लेकिन कहा जाता है कि पुतली ने प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को एक खत लिखा और कहा कि सुल्ताना को पुलिस की गोलियों ने नहीं गैंग की गोलियों ने मारा है। हालांकि पुलिस ने इस बात का खंडन किया था। लेकिन सुल्ताना किसी की भी गोलियों से मरा लेकिन पुतली का सुल्ताना मारा जा चुका था और अब उसकी जिंदगी बिना डोर की पतंग हो गई जिसको जो चाहे लूट ले। 
सुल्ताना की लाश जली भी नहीं थी कि बाबू लुहार गैग का मुखिया बन गया। और उसी रात पुतली के साथ उसने सबके सामने बलात्कार कर अपने अपमान का बदला लेने की घोषणा की। बाबू लुहार के साथ ही गैंग का दूसरे नंबर का सरदार पहाड़ा भी पुतली के साथ बलात्कार करने लगा। बेबस पुतली अपने वक्त का इंतजार कर रही थी। और मौका ज्यादा दूर नही था। चार महीने के भीतर मुरैना के  ही एक दूसरे इलाके में खान की भूईंया में पुलिस के साथ गैंग की मुठभेड़ हो गई. चारों और से गौलियों की आवाज ही आवाज थी। गांव मिरगपुर के रास्ते से गैंग निकलकर भागना चाहता था। पुतली ने दिमाग लगाया और बाबू से कहा कि उस तरफ टीले से देख लोग कि पुलिस उस तरफ है या नहीं। बाबू ने जैसे ही उधर मुडा इधर पुतली की राईफल गरज गई। और बाबू ढेर हो गया। 
पुतली का पहला बदला पूरा हुआ। पुलिस ने इस मुठभेड़ पर भी अपना दावा जताया तो पुतली ने फिर से एक खत देश के प्रधानमंत्री को लिख दिया। खबरों की सुर्खियों में ये विवाद रहे। इसके बाद पहाडा ने पुतली से समझौता कर लिया और उसके साथ रहने लगा। इन दोनो से एक और बच्चा हुआ जिसका नाम सुरेन्द्र रखा गया। लेकिन पहाडा का साथ भी ज्यादा नहीं चला और एक दिन पुलिस की गोलियों ने पहाड़ा की जिंदगी की गिनती भी पूरी कर दी।  इसके बाद कल्ला पुतली के साथ गैंग का सरदार बना। इस बार पुतली गैंग की सरदार थी। कल्ला ने पुतली को अपना सरदार मान लिया था। यहां तक कि कल्ला ने कहा कि यदि पुतली चाहे तो वापस अपनी दुनिया में लौट सकती है। पुतली बाई जानती थी कि चंबल में मुड़े कदम श्मशान जाने के लिए लिए ही निकलते है। इस कशमकश में कहते है कि पुतलीबाई ने फिर एक चिट्ठी देश के प्रधानमंत्री को लिखी। नंबवर 1956 में लिखी इस चिट्ठी में एक औरत की चंबल की जिदगी के बारे में बताते हुए कहा कि क्या कानून पुतली को माफ करेगा अगर वो वापस लौटना चाहे तो। चिट्टी का कोई जवाब नहीं आया औ पुतली बस चंबल की डाकू रानी बनी रही। इस बार गैंग कल्ला पुतली का गैंग था और चंबल को इस गैंग ने थर्रा कर रख दिया। लेकिन किस्मत ने सारी कहानी पुतली की जिंदगी के लिए ही बचा रखी थी। एक दिन भिंड जिले के गोरमी में पुलिस की मुठभेड़ पुतली के गैंग से हो गई। पुलिस बल के लोगो ने देखा पुतली अपने बेटे को गोद में लेकर पुलिस वालों पर सीधे राईफल से गोलियां दाग रही थी। इसी बीच पुलिस की गोली ने पुतली का जिस्म खोज लिया। एक गोली कंधें के पार हो गई। कल्ला ने पुतली को कंधे पर उठाया और सीधे दौड़ लगा दी। 
पुलिस दो महीने तक चंबल में खून के निशान के सहारे पुतली की लाश खोजती रही लेकिन कही कोई सुराग नहीं मिला। फिर एक दिन पुलिस को सूचना मिली कि गैंग खितौली में रूका हुआ है। चाल प्लाटूनों ने गांव घेर लिया। गांव की तलाशी शुरू हुई। अभी दो घरों की तलाशी पूरी हुई थी और जैसे ही पुलिस तीसरे घर में घुसी कि अचानक फायरिंग शुरू हो गई। एक गोली पुलिस ऑफिसर का सीना चीर गई. मरने से पहले पुलिस अधिकारी ने बताया कि उसको पुतली ने गोली मारी है और उसका एक हाथ कट चुका है। दाए हाथ से गोली चला रही पुतली का बाया हाथ अब कटा हुआ है। गैंग साफ बच निकला। लेकिन किसी क यकीन नहीं  आ रहा था कि एक हाथ से कोई औरत सीधे पुलिस पर हमले कर रही हो। कुछ ही दिन बाद कनारीपुरा गांव में एक और मुठभेड़ हुई। दोपहर में गैंग के खाना खाते वक्त पुलिस ने धावा बोला और वहां से गैंग बच निकला लेकिन मौके से पुतली की लिपिस्टिक मिली और भागती हुई पुतलीबाई को कई पुलिसअधिकारियों ने देखा कि उसका एक हाथ गायब है। बाद पुलिस ने तहकीकात की तो पता चला कि मुठभेड़ में घायल पुतली ग्वालियर गई और वहां एक सर्जन को 20000 रूपए देकर अपनी घायल हाथ को कोहनी से कटवा दिया था
पुतली की बाह कटी तो जैसे उसके अंदर की औरत भी मर गई। बचा-कुचा दर्द भी गायब होगया। पुतली ने अब कत्लोगारत शुरू कर दी। पुलिस रिकॉर्ड के मुताबिक दिसंबर 1957 में दो ही डकैतियों ने कल्ला पुतली गैंग ने 75000 रूपए की रकम लूट ली थी। भिंड, मुरैना, शिवपुरी और ग्वालियर जिले गैंग के आतंक से कांप उठे थे। उधर लाखन गैंग भी इलाके में लूट और कत्ल का सिलसिला बनाएं हुए था। सरकार ने फैसला किया कि लाखन का पहले सफाया और फिर पुतली गैंग का। 
वक्त की अपनी कहानी होती है। पुतली की उम्र लगभग 27 साल की हो चुकी थी। ये उम्र भले ही कम हो लेकिन इतने मोड़ों से बहती हुई पुतली की कहानी का आखिरी पन्ना अब लिखा जाना था। 23 जनवरी 1958 को पुलिस को सूचना मिली थी कि लाखन गैंग मुरैना के कोंथर गांव में पहुंचा हुआ है । एक बड़ी तादाद में पुलिस बल तैनात कर दिया गया ।  गैग के भागने के सभी रास्ते बंद कर दिए गए।  पुलिस की घेराबंदी पूरे तौर पर मुकम्मल करने के लिए क्वारी नदीं के दूसरे किनारों के गावों मे भी प्लाटून तैय्यार कर दी गई थी। अरूसी,सिहोनिया, लेपा, सांगोली, तरसमा, और दूसरे सभी गांवों में हथियार बंद पुलिस थी। पुलिस अब इंतजार कर रही थी। एक एक पल एक एक युग के बराबर लग रहा था। तभी पुलिस को तरसमा के इलाके से एक दर्जन लोग आते दिखाई दिए। एक प्लाटून उस तरफ भेजी लेकिन तभी गैंग की तरफ से पहला फायर हुआ। पुलिस चौंक उठी दशक से लंबे डाकू  जीवन में लाखन ने कभी पुलिस का सामना नहीं किया फायर तो दूर की बात है। अचानक टीम लीडर कैलाश सिंह के कानों में आवाज आई पुतली। 
अरे ये तो पुतली की गैंग है। कैलाश सिंह ने समय नहीं गवाया और चारो ओर से गैंग को घेरना शुरू कर दिया। कल्ला ने मौके की नजाकर देखी। गैंग दो हिस्सों में बांट दिया। पांच आदमियों के साथ एक और बढ़ा और गैंग से दस निशानेबाज पुतली को देकर क्वारी नदी की ओर बढ़ने को कहा। पुतली और क्वारी नदी के बीच एक चने का खेत था। पुतली को लगा कि खेत से होते हुए यदि वो नदी पार कर लेती है तो फिर बीहड़ में निकल जाएंगी पुलिस की गोलियों से दूर। लेकिन किस्मत का फैसला हो चुका था। गैंग के सारे निशानेबाज पुलिस के निशाने पर आकर मर चुके थे और अकेली पुतली खेत में इधर से उधऱ भाग रही थी। गोलियों के बीच से पुतली ने जेब में पड़े नोट उडाने शुरू कर दिए और पानी में उतरते ही पहनी हुई जैकेट और पेंट उतार कर फेंक दी। एक हाथ से नदी चीरती हुई पुतली ने जैसे ही दूसरे किनारे पर सर उठाया तो उसको दिख गया कि आज का दिन आखिरी दिन है और आज की महफिल मौत की महफिल है। क्योंकि दूसरी तरफ इंतजार कर रही प्लाटून ने फायर ओपन कर दिया और पुतली की जिंदगी की डोर टूट गई।  कहते है पुलिस टैक्टर के पीछे बांध कर डाकूओं की लाश खींचती हुई गांव तक गई और वहां से इन लाशों को मुरैना शहर में ले जाया गया। भारी भीड़ देखने आई बैंडिट क्वीन पुतलीबाई की आखिरी सांस। पुतली की बेटी तन्ना अपनी नानी के यहां रह गई अकेली। वक्त और समाज दोनों के सितम झेलने के लिए। 

एक डाकू जिसके पैर सोने के थे।

चंबल की इन घाटियों में हजारों पैरों की आमद हुई। कभी पुलिस के आगे तो कभी पुलिस के पीछे। कभी बंदूकों के साथ दौड़ते हुए तो कभी बंदूकों के लिए दौड़ते हुए। मौत और जिंदगी की लबीं दौड़ चंबल की कहानी है। डाकुओं और पुलिस की चूहे-बिल्ली की दौड़ में डाकुओं के पैरों की अऩगिनत छाप चंबल के बीहड़ों में दर्ज है। चबंल को शायद ही कुछ पैरों की आहट याद होगी लेकिन चंबल अगर आज भी किसी को याद करती है तो एक ऐसे शख्स के पैरों को जिसकी आवाज सोने के पैरों की आवाज थी। जीं हां सोने के पैर। चंबल की सर जमीं पर एक बागी के पैरों को चंबल अगर कोई नाम देना चाहे तो यही कह सकते है कि उसके पैरों में सोना था। कभी सेना केबीच में अपनी रेजींमेंट को सोना दिलाने के लिए ट्रैक पर दौड़ा तो कभी देश को सोना दिलाने के लिए दुनिया के ट्रैक पर दौड़ा। जीं हां चंबल के सोने के पैर बाले बागी पानसिंह तोमर की कहानी फिल्मीं पर्दे की कहानी है। और ये कहानी इतनी असली थी कि पर्दे पर उतरी तो भी कही से नकली नहीं लगी। ये हैडाकू पानसिंह तोमर की जिंदगी की रील जिसमें सबकुछ रीयल है रील कुछ भी नहीं। 
 पानसिंह तोमर। चंबल के बीहड़ों के गांवों में छिपी एक ऐसी कहानी जिसको निकलने के लिए सालों का इतंजार करना पड़ा। पानसिंह तोमर की आंखें जैसे आपसे सवाल कर रही हो। कई सारे सवाल। एक गांव की गलियों से शुरू हुई जिंदगी का कहानी का अंत कहा जाकर हुआ। एक दूसरे में लिपटते-चिपकते हुए सवाल। क्या कोई रास्ता नहीं था जो पानसिंह को चंबल की इन घाटियों से जिंदा निकाल पाता। या कहा जाएं कि दुनिया के अलग-अलग शहरों में घूम चुके पानसिंह के पैरों में चंबल की मिट्टी चिपकी हुई थी और उसके अंत की कहानी शायद गांव की जमीन में ही लिखी जा रही थी। चंबल की सबसे दर्दनाक कहानियों में एक कहानी मानी जाती है पानसिंह तोमर की। गांव की किसानी से बाहर निकल देश की सेना में पहुंचने का सफर ही कम नहीं था फिर सेना के बीच एक एथलीट की सफर शुरू हुआ। पहले सेना और फिर देश के लिए रिकॉर्ड़ों का अंबाल लगाने के बाद पानसिंह तोमर का नाम एशियन खेलों में जा पहुंचा। एशियन गेम्स में हिंदुस्तान की ओर से दौड़ते हुए पानसिंह ने खूब दौड़ लगाई। एक छोटे से गांव से सपनों का ये सफर चल ही रहा था कि जैसे किस्मत ने पलटा खा लिया। पैरों में पंख बांधकर ट्रैक पर दौड़ रहे पानसिंह के कदम गांव में पड़े तो वक्त का पहिया उल्टा ही घूम गया। और कुछ दिन पहले अखबारों की सुर्खियों में रहा पानसिंह इस बार भी सुर्खियों में था लेकिन कुछ दूसरे अंदाज में। पदक के लिए ट्रैक पर दौड़ने वाला पानसिंह अब बदले के लिए चंबल के बीहड़ों में दौड़ रहा था। और इस बार के ट्रैक जिंदा वापसी का कोई तरीका नहीं था। डाकू पानसिंह और एथलीट पानसिंह के बीच सिर्फ एक खबर का फासला था और वो भी आ गई। डाकू पानसिंह गैंग और पुलिस की मुठभेड़। डाकू पानसिंह की मौत।  एक अक्तूबर 1981 को गोलियों ने पानसिंह को छलनी कर दिया था। और गोलियों की आवाज पर दौड़ने वाले पानसिंह की ये आखिरी दौड़ थी जिंदगी से मौत तक के सफर की आखरी दौड़। लेकिन ये कहानी काफी लंबी है उस पर बात करते है। 
पोरसा- भिडौसा। चबंल के बीहड़ों में बसा सैकड़ों दूसरे गांव के जैसा एक छोटा सा गांव। मुरैना शहर से पचास किलोमीटर दूर और ग्वालियर से लगभग 100 किलोमीटर दूर तक का रास्ता काफी उबड़-खाबड़ है। बीहड़ों से होकर गुजरता है। कुछ खेतों में फसल और कुछ में सिर्फ मिट्टी ही मिट्टी ये बताती हुई चलती है कि यहां के लोगो के लिए ऊपजाऊ जमीन की कीमत इंसान की कीमत से कही ज्यादा है। भिडौंसा गांव पहुंचते ही सड़क के ठीक सामने एक कच्चा घर आपकी निगाह अपनी ओर खींच लेता है। नीले रंग से पुता हुआ ये घर पानसिंह का घर है। पुलिस रिकॉर्ड में डाकू पानसिंह, अचूक निशानेबाज पानसिंह, फरार डाकू पानसिंह जैसे कितने शब्दों से नवाजा गये पानसिंह का घर। और खुद को चंबल का शेर डकैत सूबेदार पानसिंह कहने वाले पानसिंह का घर। घर में ऐसा कुछ भी नहीं है कि आपका ध्यान अपनी ओर खींच ले। लेकिन सुनसान पड़े इस घर की दीवारें गारे से बनी है और छत में लकड़ी की कड़िया है। मिट्टी की बनी सीढि़यां चढ़ कर आप जैसे ही ऊपर पहुंचते है तो कमरे के अंदर एक छोटा सा कमरा उल्टे हाथ पर दिखता है। और फिर खुला हुआ सहन।  सीधे हाथ पर एक कमरा। लैंटर की छत और दीवारों पर सीमेंट का प्लास्टर। सहन में उपलों के बिटौड़े जो परिवार के लोगो के है। कुछ बबूल और कीकर के पेड़ और फिर नीचे बिसुली नदी। घर में अब कोई नहीं रहता। दुश्मनी में पानसिंह बीहड़ बीहड़ से ऊपर चला गया लेकिन दुश्मनी गांव में अभी भी बसी हुई है। पानसिंह के बेटों में से कोई यहां नहीं रहता था। दूर शहर में अपनी जिंदगी जी रहे है।
चंबल के इसी गांव में पानसिंह का जन्म 1931 में हुआ था। गांव के स्कूल में पढ़ाई और उसके बाद पानसिंह ने इलाके के ज्यादतर छात्रों की तरह हिंदुस्तानी फौंज में भर्ती की तैयारी शुरू कर दी। और पानसिंह के घरवालों की दुआ थी कि घर का लड़का फौंज में भर्ती हो जाएं ताकि घर में एक लाईसेंसी बंदूक हो जाएं। किस्मत ने भी साथ दिया और पानसिंह सन 1949 में फौंज में भर्ती हो गयापानसिंह की किस्मत उसको अर्श पर बैठाने के लिए तैयार थी। पानसिंह की कद- काठी पहले से ही एक नैसर्गिक एथलीट की तरह थी। फौंज के अनुशासन ने उसकी मेहनत को और निखार दिया था। कहते है कि छह फीट एक इंच लंबे पानसिंह को भूख काफी लगती थी। बचपन में भी घर के तमाम लोगों से ज्यादा खाने वाले पानसिंह को फौंज की नियमित डाईट से थोडा परेशानी हुई तो फौंज के दोस्तों ने समझाना शुरू कर दिया कि अगर खाने की अपनी भूख मिटानी है तो फिर फौंज में खिलाड़ी बन जाओं।
छह दशक पहले की कहानी की असलियत बताने वाला तो कोई नहीं है लेकिन एक सजा के तौर पर दौंड़ लगाने के किस्से ने पानसिंह के फौंज में एक खिलाड़ी के तौर पर उभरने में मदद की। पानसिंह  फौंज में धावक बन गया। स्टेमिना और तेजी दोनो पानसिंह को खेल के मैदान में तारीफ दिलाने लगी। पानसिंह के स्टेमिना ने को देखते हुए  कोच ने पहले पानसिंह 5000 मीटर की दौंड़ में उतार। अब इस बात का शायद ही कोई मतलब रहे किपानसिंह और इस देश के उडनसिख मिल्खासिंह की भर्ती फौंज में लगभग एक साथ ही हुई थी। और दोनों ने अपने खेल जीवन की शुरूआत भी लगभग साथ ही साथ ही। पानसिंह ने ट्रैक पर रिकॉर्ड बनाने शुरू कर दिए।
फ्लाईँग सिख मिलखा सिंह और पानसिंह हिंदुस्तानी फौंज के ऐसे दो नाम बनकर उभर रहे थे जिनसे अब फौंज को ही नहीं बल्कि देश को खेलों की दुनिया में पदक की उम्मीद लगने लगी थी। तभी पानसिंह तोमर को पांच हजार मीटर से स्टीपलचेज में तब्दील कर दिया गया। पानसिंह तोमर ने इस खेल को भी शानदार तरीके से खेला। और रिकॉर्ड तोड़ने और नए बनाने का सिलसिला बनाएं रखा। और पानसिंह की किस्मत सितारों से होड़ कर रही थी। अभी उसको कई और जहान का रास्ता तय करना था। 
पानसिंह ट्रैक पर दौड़ रहा था और उसके साथ दौड़ रहे थे रिकॉर्ड। 50 से 60 के दशक में पानसिंह अपनी रेस में सबसे आगे रहा। पानसिंह की ट्रैक पर बादशाहत की गवाही उसका रिकॉर्ड देता है। लगातार सात साल तक राष्ट्रीय चैंपियन रहे पानसिंह का रिकॉर्ड भी उसके ट्रैक से विदा होने के दस साल बाद ही टूटा। 1956 के कॉमनवेल्थ खेल हो या फिर 1958 के टोक्यो एशियन गेम्स पानसिंह को पदक भले ही हासिल न हुआ हो लेकिन उसका प्रदर्शन बेहतरीन रहा। ट्रैक पर उसकी ख्याति देश और विदेश के खेल जगत में हो गई। 1958 में भी उसने मुन्नास्वामी का रिकॉर्ड तोड़ दिया था। लेकिन शायद ये ही पानसिंह की जिंदगी की कहानी की आखिरी ऊंचाईंया थी।
फौंज में पानसिंह की तरक्की हो रही थी तो गांव में जिंदगी के रास्ते अलग दिशा में मुड़ते जा रहे थे। फौंज उसकी अहमियत खेल के मैदान में जानती थी लिहाजा उसको 1962 में चीन के साथ हुए युद्द और 1965 में पाकिस्तान के साथ हुए युद्द में भाग नहीं लेने दिया गया। लेकिन अब पानसिंह ट्रैक से उतर अपनी जिंदगी शुरू करना चाहता था। और आखिरकार सूबेदार पानसिंह ने बंगाल इंजीनियर्स रूड़की से अपना रिटायरमेंट ले लिया। और पानसिंह चल दिया अपनी नई जिंदगी की तरफ, अपनो के बीच।
पानसिंह भिडौंसा अपने घर आ पहुंचा। गांव में अपनी पुश्तैनी जमीन में खेती करने। जमीन बहुत ज्यादा तो नहीं थी लेकिन पानसिंह को अपनी मेहनत पर भरोसा था उसी मेहनत पर जिसने उसको गांव की गलियों से निकाल कर टोकियों के ट्रैक तक पहुंचा दिया था। लेकिन पानसिंह की सीधी जिंदगी में एक बड़ा मोड आ ही गया।
सवा दो बीघा जमीन। बस जमीन का इतना सा टुकड़ा और ढेर सा स्वाभिमान। इस बात से शुरू हुई गांव की अपने ही परिवार की रंजिश। एक ही खानदान के दो हिस्सों में जमीन को लेकर टकराव शुरू हो गया। पानसिंह के बड़े भाई मातादीन ने पानसिंह की फौंज में नौकरी के दौरान कर्ज लेकर जमीन अपने खानदानी और आर्थिक तौर पर मजबूत बाबू सिंह के परिवार को दे दी थी। बाबू सिंह का परिवार गांव का सबसे ताकतवर परिवार था। गांव की कहावत के हिसाब से हल और हाली या लाठी और लठैत दोनों में मजबूत। 250 लोगों का मजबूत परिवार और सात-सात लाईसेंसी बंदूकें। ये गांव में किसी को हुकुम बना देती है। लिहाजा मातादीन की दी गई जमीन पर कब्जा कर लिया गया। 
गांव में झगड़े के हालात बन गये। अपनी जवानी को देश को न्यौछावर कर चुके पानसिंह को यकीन था कि कानून उसकी ओर खड़ा होगा। देश का नाम ऊंचा करने वाले फौंजी का सिर को देश का कानून नीचा नहीं होने देगा। लेकिन उससे पहले वो गांव के पंच परमेश्वर से इंसाफ लेना चाहता था। एक ऐसा इंसाफ जिससे उसको अपनी जिंदगी आसानी से जीने की मोहलत मिल सके। लिहाजा पानसिंह ने पंचायत में पंचों के दर पर दस्तक दी। पंचायत भी गांव के बीच में हुई। और इस पंचायत में पहुंचे जिले के मुखिया। कलक्टर साहिब और पुलिस कप्तान साहब। दोनों की मौजूदगी में हुई पंचायत ने तो पानसिंह का माथा ही हिला दिया।   
पंचायत में पैसे की गर्मी ने अपना खेल कर दिया। और खेल के मैदान का बेजोड़ खिलाडी पानसिंह तो जैसे रेस में कही टिक ही नहीं पाया। लेकिन पंचायत के आदेश को मान कर पैसे दे दिये गए। लेकिन ये कहानी तो यहां से शुरू हो रही थी। बाबू सिंह को पैसे नहीं पानसिंह की बेईज्जती चाहिए थी। और शायद यही वो मोड़ था जहां से चंबल का पानी फिर से एक और कहानी देखने वाला था।
 पानसिंह ने कानून के दरवाजे पर दस्तक दी। पंचायत में हुए फैसले को बाबू सिंह परिवार ने अहमियत नहीं दी। आखिर चंबल का उसूल है कि जो कमजोर होता है वही झुकता है। पानसिंह के लिए गोली की आवाज का मतलब ट्रैक पर दौड़ना होता था लेकिन चंबल में गोली की आवाज का मतलब बदल जाता है। पानसिंह ने अपनी जमीन बचाने के लिए पंचायत की थी लेकिन पंचायत ने उसकी पगड़ी ही उछाल दी। कलेक्टर और पुलिस कप्तान के लिए एक रोजमर्रा का मामला था जिसका फैसला अक्सर चंबल में बंदूकों की आवाजें खुद कर लेती है।
पानसिंह को पंचायत से मायूसी मिली तो बाबू सिंह का हौंसला आसमान पर था। और एक दिन पानसिंह के बेटे की सरेराह पिटाई कर दी। बात बढ़ी और बाबू सिंह का परिवार पानसिंह के घर पर हथियारों सहित चढ़ आया। पानसिंह घर से बाहर था और घर के भीतर पानसिंह का बेटा था। जान बचाने के लिए फायर किया तो भीड़ ने भी चढ़ाई कर दी। बेटा जान बचा कर निकला तो बाबू सिंह ने बुजुर्ग मां की पिटाई कर दी।
पानसिंह की समझ में कुछ नहीं आ रहा था लिहाजा वो फिर से कानून के दरवाजें पर जा पहुंचा। लेकिन चंबल के किस्सों में पुलिस की कहानियां जिस तरह दर्ज है पुलिस ने उसी तरह से काम किया। कहते है कि पुलिस अधिकारी ने पहले तो स्टीपलचेज का मतलब ही नहीं समझा और मारपीट और गोलीबारी तो तब तक बेकार बताया जब तक तीन-चार लाशें न गिर जाएं।बुरी तरह से टूटा हुआ पानसिंह घर लौटा तो मां ने कहा कि अगर वो उसकी बेईज्जती का बदला नहीं ले पाता वो अपना खून माफ नहीं करेंगी। और बस यही सब्र की हद थी। और पानसिंह ने वो राह पकड़ ली जिसमें कभी वापसी नहीं होती। इसके बाद पानसिंह ने बंदूक उठाई और ट्रिगर पर उंगिलयां जमा दी।
सेना के अनुशासन और धावक की चपलता दोनो ने पानसिंह के सीने में जल रही आग को और भड़का दिया। बदले की आग में सबसे पहले तो पानसिंह का सुनहरा अतीत जला और फिर उसके दुश्मनों के घर जलने शुरू हो गए।
पहले जंडेल सिंह, उसके भाई हवलदार सिंह और आखिर में बाबू सिंह के सीने में गोलियां उतार दी। पानसिंह के बीहड़ों में उतरने के साथ ही बाबू सिंह ने पुलिस सुरक्षा हासिल कर ली थी लेकिन पानसिंह को धुन लग चुकी थी। उसको बाबू सिंह की मौत चाहिए थी। लिहाजा एक दिन जैसे ही उसको खबर लगी कि बाबू सिंह आ चुका है तो वो अपने आदमियों के जा धमका। और बाबू सिंह ने भाग कर जान बचाने की कोशिश की लेकिन चंबल के बीहड़ों का सबसे बड़ा धावक उसका दुश्मन था लिहाजा उसकी दौड़ ज्यादा दूर तक न चल पाई। और पानसिंह ने उसको भी भून दिया। लेकिन दुश्मनी की दौड़ में पानसिंह शामिल तो हो गया लेकिन वो ये भी जानता था कि अब उसको मौत ही इन जंगलों से जुदा कर सकती है। पानसिंह ने कहा कि थाने में समर्पण कर नहीं सकता, गांव में रह नहीं सकता और सरकार से कोई मदद नहीं तो जिंदगी बस अब मारना और मरना इसके सिवा कुछ भी नहीं। और अब पानसिंह ने एक नई दौंड़ में हिस्सा ले लिया और ये दौड़ थी चंबल का दस्यु सम्राट बनने की। चंबल का बादशाह बनने की और चंबल का शेर कहलाने की। यानि ये कहावत सोने से कोयला बन कर जलने की दौड़ थी।डाकू पानसिंह का गैंग चंबल के बीहड़ों में एक और नया गैंग नहीं था। बल्कि बिलकुल नया गैंग था। जिसका सरदार डाकू पानसिंह नहीं डाकू सूबेदार पानसिंह कहलाना पसंद करता था। पानसिंह को हथियार चाहिए थे। हथियार के लिए पैसा चाहिए था। और पैसे के लिए बीहड़ में सिर्फ डकैती, अपहरण और फिरौती ही रास्ता थे। और पानसिंह ने वो रास्ता पकड़ लिया।
पानसिंह के अंदर डर नहीं था। एक के बाद एक दुस्साहसिक वारदात। चंबल थर्रा उठा। ये वो दौर था जब चंबल में डाकू मलखान सिंह, मानसिंह, फक्कड बाबा, और फूलन देवी का गैंग चल रहा था। ऐसे में पानसिंह ने एक के बाद एक बडी पकड़ करनी शुरू कर दी। और इसके लिए नए नए फिल्मी तरीके इस्तेमाल किए। ऐसी ही कहानी सुनाई पानसिंह के दाहिने हाथ बलवंता उर्फ बलवंत सिंह ने। बलवंता पानसिंह के भाई का बेटा है। और पानसिंह के आखिरी एनकाउंटर में सिर्फ वही था जो नीम के पत्तों में लिपट कर आने से बच गया था।
एक के बाद एक पकड़ और डकैती की वारदात से चंबल का इलाका हिल उठा। चंबल का शेर कहलाने का जुनून अब पानसिंह के सिर पर था। ये जुनून उसको ट्रैक की बादशाहत जितना प्यारा लग रहा था। हर पकड़ या फिर एनकाउंटर के बाद माईक पर एनाउंस करता हुआ पानसिंह अपने गैंग का ऐलान करता था कि ये गैंग है चंबल के शेर डकैत सूबेदार पानसिंह का। पुलिस ने गैंग का नाम रख दिया A। और पानसिंह पुलिस फाईलों में दर्ज हो गया A-10 के नाम से। चंबल की पुलिस का इससे पहले ऐसे गैंग से पाला नहीं पड़ा था जो मुठभेड़़ में इतना साहस दिखाता हो। पानसिंह माईक पर चिल्ला चिल्ला कर पुलिस वालों से मैदान छोड़ कर भागने को कहता रहता था।
लेकिन पुलिस लगातार पानसिंह का पीछा कर रही थी। और पानसिंह को भी डकैंतों के तौर-तरीके उस तरीके नहीं आते थे जिनसे चंबल में दशकों तक डाकू अपने आप को पुलिस की गोली का निशाना बनने से बचते रहते है। गैंग काफी बड़ी हो चुकी थी। एक वक्त पानसिंह के गैंग में 28 हथियार बंद डकैंत शामिल थे। हथियार चलाने और भागने की ट्रैनिंग खुद पानसिंह देता था
चंबल का दस्युराज कहलाने की ललक रात दिन पानसिंह को एक से एक नया अपराध करने लिए के लिए मजबूर कर रही थी। पानसिंह खुद को चंबल का शेर दस्युराज पान सिंह कहलाने लगा था। पुलिस की रणनीति को काउंटर करने खूबी पानसिंह की को खतरनाक बना रही थी। अब पुलिस ने इनिमी नंबर 1 मान लिया पानसिंह को और उसके गैंग को खत्म करने सबसे पहली प्राथमिकता मान ली
इलाके के सर्किल इँस्पेक्टर मानसिंह चौहान ने ये बीड़ा उठाया। ए 10 गैंग यानि पुलिस डायरी में पानसिंह के गैंग का चार्ट। मानसिंह चौहान को पता चला कि रथियापुरा गांव में गैंग कई बार रूका है। बस मानसिंह जा पहुंचा रथियापुरा। गांव दलितों का था। मानसिंह को थोड़ी सी मशक्कत के बाद ही रास्ता मिल गया। मुखिया को ईनाम और उसके बच्चों को पुलिस की नौकरी। और पानसिंह के लिए फंदा तैयार। 
1 अक्तूबर 1981। पानसिंह का गैंग चंबल पार कर इस गांव में घुस रहा था तो भैंस पर बैठे हुए एक लड़के को देखकर पानसिंह के भतीजे बलवंता ने कहा कि चाचा आज यहां रूकना ठीक नहीं शगुन सही नहीं दिख रहे है। लेकिन पानसिंह ने मानने से इंकार कर दिया। रथियापुर गांव के मुखिया मोती ने गर्मजोशी से स्वागत किया।  और बकरा बनाकर एक शराब गैंग को परोस दी। बलवंता को वो दिन आज भी याद है
गैंग के पिछले कुछ दिन ठीक नहीं थे। कुछ दिन पहले ही उसके चार सदस्य एक मुठभेड़ में मारे गए थे और दस लोग अपने मूल ठिकाने पर थे। 14 लोग जब दारू और खाने के बाद लेटे हुए थे तभी बलवंता चिल्लाया कि यहां पुलिस आ चुकी है। पानसिंह उनको उड़ाना चाहता था लेकिन मोती ने मनुहार कर उसको मना लिया। और पानसिंह ने गांव से निकलने की तैयारी शुरू कर दी। लेकिन उसको मालूम नहीं था कि गांव की हर गली मोहल्ले में पुलिस वाले तैनात है। गांव के पीछे से निकलने की प्लान के बीच ही उसको पता चल गया कि पुलिस ने गांव को एक पिंजरे में बदल दिया है अब चारो तरफ पुलिस वाले है। लेकिन पानसिंह ने समर्पण की बजाय पुलिस पर हमले का रास्ता चुना।
शाम सात बजे से रात भर फायरिंग चलती रही। बीच बीच में पानसिंह मेगाफोन से पुलिस वालो पर चीखता रहा कि दाल खाने वालों अपनी जान बचाकर निकल लो ये  सूबेदार पान सिंह तोमर भिडौसा की गैंग है तुम सब मारे जाओंगे। और इसी मेगाफोन की आवाज से पुलिस को अंदाजा हो गया कि पानसिंह तोमर गांव के पास की नहर पार कर बीहड़ों में घुस जाने वाला है। पुलिस ने उस तरफ की गारद को सावधान किया और वहां से निकलने से पहले ही फायरिंग ने पानसिंह गैंग के लोगो को चीर कर रख दिया। उस मुठभेड़ से बच निकलने वाला बलवंता के लिए जैसे वो कल की बात थी। बाईट बलवंता। 
सुबह के उजाले में पुलिस को पानसिंह गैंग के दस लोगो की लाशें नहर के किनारे पड़ी मिली। और उनमें से एक लाश पानसिंह की थी। वही पानसिंह जिसके पैरों के सहारे सेना और  देश ने कितने मैडल जीते थे अब इस लाश के सहारे पुलिस पार्टी को मैडल मिलना था। पानसिंह गैंग को निबटाने का मैडल। लेकिन पानसिंह की कहानी चंबल की ऐसी दर्दनाक कहानियों में से एक है जो फर्श से अर्श और अर्श से फर्श के सफर को हकीकत में दिखाती है। मुठभेड़ के बाद गैंग में कुछ बचा नहीं और बलवंता ने भी समपर्ण कर दिया। और आज चंबल में पानसिंह की कहानी बची है या फिर इस कहानी को सुनाता हुआ बलवंता। 

Sunday, May 15, 2016

डाकू माधौं सिंह, चंबल का जादूगर जो डाकुओं का मास्टर था।

चंबल नदी का पानी जितना शांत और ठहरा हुआ है दिखता है उसके उलट चंबल के बीहड़ों में जिंदगी उतनी ही उलटफेर से भरी दिखती है। बीहड़ों और गारो से बहता हुआ पानी चंबल में मिलता है उसी तरह डाकुओं के किस्से कही से शुरू हो चंबल में आ जुड़ते है। लेकिन इस बार चंबल ने एक ऐसा डाकू देखा जिसकी उंगलियां एसएलआर या राईफल पर जितनी तेजी से चलती थी उससे भी तेज चलता था उसका दिमाग। चंबल के डाकू की कहानी पांच दशक बाद भी लोगो के जेहन में आज भी ताजा है।
माधौं सिह। एकफौंजी, कंपाउंडर, डाकू, जादूगर, या अभिनेता माधौं सिंह ने अपनी जिंदगी में इन सब किरदारों को निबाहा और हर किरदार में एक अलग छाप।  चंबल की कहावतों के उलट एक डकैत जो दिल से नहीं दिमाग से काम लेता था। चंबल में कहावत है कि डाकू दिमाग से नहीं दिल से काम लेता है। चंबल में माधौं सिंह की कहानी एक बदले की कहानी से शुरू हुई और हाथों में बंदूक थामने तक पहुंची। लेकिन ये एक आम डाकू नहीं बल्कि ऐसा डाकू जिसे चंबल ने कभी चंबल सरकार कहा तो किसी ने मास्टर जी। 
चंबल से कूदने से पहले इंसान के जख़्मों पर मरहम रखने वाले माधौं सिंह ने जमीर पर जख्म खाएं तो फिर खून की बारिश करने वाला वेरहम डाकू माधौं सिंह बन गया। चंबल सरकार माधौं सिंह। चंबल के डाकुओं के इतिहास में मानसिंह, रूपा, लाखन, मोहर सिंह जैसा नाम चंबल सरकार माधौ सिंह का। दुश्मनी का खात्मा करने के कत्ल किया और फिर चंबल में आतंक और खौंफ का ऐसा साम्राज्य खडा़ कर दिया कि तीन तीन राज्यों की पुलिस रात दिन उसके सफाएं का ख्वाब देखने लगी। 
11साल के बीहड़ों के जीवन में दर्ज सैकड़ों मुकदमें माधौं सिंह और उसके गैंग पर दर्ज हुए। और पुलिस मुठभेड़ों से बार बार बच निकलने वाले माधौं सिंह ने जब समर्पण किया तो अकेले नहीं 550 बागियों ने उसके साथ बंदूके रख दी। लेकिन माधौं सिंह ने इस बार भी एक नए रूप में जनता के सामने आ गया। और ये था चंबल सरकार डाकू माधौं सिंह दुनिया का सबसे बड़ा जादूगर माधौं सिंह। और बन गया असली जादूगर जिसकी कलाकारी देखने के लिए इलाकों में भीड़ लग जाया करती थी। आज ऐसे ही जादूगर की कहानी के सच तक आपको ले कर चलते है। देखते है माधौं सिंह का सफर कहां से शुरू हुआ कहां तक पहुंचा और फिर कैसे खत्म हुआ।
ये चंबल का इस पार का इलाका है। इस पार यानि उत्तरप्रदेश का हिस्सा। आगरा जिले का पिनाहट थाना। इसी थाने के का गांव गढ़िया बघरैना। चंबल के बीहड़ों में बसे दूसरे छोटे से गांव जैसा। गांव से सटा हुआ बीहड़। 
गांव के अंदर जाने पर कुछ पानी सूखने से बस नाम भर के रह गए कुएं और फिर एक पुराने पेड़ के नीचे बना हुआ मंदिर। मंदिर के सामने खुलता हुआ ये दरवाजा। घर को देखकर शायद ही कोई ये अंदाजा लगा सकता है कि इस घर से शुरू हुई चंबल के एक खतरनाक डाकू की कहानी। 
माधौं सिंह किसान परिवार में पैदा हुआ। माधौं सिंह के परिवार के पास थोड़ी बहुत खेती की जमीन थी लेकिन परिवार की गांव में काफी ईज्जत थी। गांव में बचपन सही से बीत रहा था। माधौं सिंह के पुराने साथी बताते है कि बचपन से ही माधौं सिंह को एक धुन थी कि उसको कोई बड़ा काम करना है। माधौं सिंह ने बड़ा़ काम करने के लिए कोई उल्टा रास्ता नहीं पकड़ा बल्कि मेहनत का रास्ता अख्तियार किया। गांव की शुरूआती पढ़ाई के बीच खेलकूद में अच्छा होने के चलते माधौं सिंह को फौंज में नौकरी मिल गई।
राजपूताना राईफल्स की मेडिकल कोर में माधौं सिंह कंपाउंडर के तौर पर भर्ती हो गया। यहां तक सब कुछ ठीक चल रहा था। गांव में कच्चे मकान में पकी हुई ईंटे लगने लगी। लेकिन गांव में परिवार के ही कुछ लोगो को इस कदर बढ़ना अच्छा नहीं लगा। माधौं सिंह को नौकरी करते -करते सात साल के करीब का समय हुआ था और गांव में दुश्मनी का दायरा बढ़ता जा रहा था। 
इसी बीच माधौं सिंह एक लंबी छुट्टी लेकर गांव आ पहुंचा। गांव में आकर भी माधौं सिंह ने सेना की मेडीकल कोर में सीखी हुई चिकित्सा का काम आसपास के गांव में शुरू कर दिया। माधौं सिंह की व्यहारकुशलता ने यहां भी सफलता के रास्तें उसके लिए खोल दिये। इससे गांव की दुश्मनी और बढ़ गई और फिर एक दिन घर के ही दुश्मनों ने माधौं सिंह पर चोरी का इल्जाम धर दिया। 
माधौं सिंह ने गांव में सफाई दी लेकिन कोई सुनने वाला नहीं था। चंबल के इन इलाकों में पुलिस और कानून को लेकर हमेशा से लोगो की एक ही धारणा रही है कि वो चांदी के जूते के हिसाब से चलते है। माधौं सिंह को समझ नहीं आ रहा था कि उसकी हाथों की रेखाएं किस और उसे खींच कर ले जा रही है। उसकी सफाई मानी नहीं जा रही थी पहले इल्जाम और फिर गांव में घेर कर मारने की साजिश। अब माधौं सिंह को लग गया था कि गांव की चौहद्दी के भीतर उसकी आसान जिंदगी का सफर पर अब फुलस्टाप लग गया है। 
और फिर एक दिन माधौं सिंह के सब्र का प्याला भर गया। माधौं सिंह ने बंदूक उठाई और जा पहुंचा अपने दुश्मन के दरवाजे। गांव में हुई फायरिंग की आवाजों ने चंबल को इशारा कर दिया था कि फिर से किसी ने अपनी दुश्मनी को आग को बुझाने के लिए अपने गुस्से के बादलों से इंसानी खून की बारिश कर दी है। माधौं सिंह को पुलिस रिकॉर्ड में इंट्री तो पहले ही उसके दुश्मनों ने करा दी थी और अब अपने दो दुश्मनों की हत्या कर माधौं सिंह ने भी अपने हाथ से पुलिस फाईलों में अपना नाम लिख दिया था 
गांव में दुश्मनी, उबलता हुआ खून, किस्सों में बहादुरी और चंबल का पानी माधौं सिंह को बीहड़ में ले आया।
चंबल में डकैतों के गैंग्स हमेशा इंतजार करते रहते है कि कब कोई इंसान कानून की हद पार कर चंबल की सरहद में घुस आए। माधौं सिंह भी अब कानून तोड़ चुका था और उसको चंबल की शरण चाहिए थी। चंबल में उस वक्त दर्जनों गैंग ऑपरेट कर रहे थे लेकिन माधौं सिंह को शऱण मिली जंगा यानि जंगजीत सिंह के गैंग में। जंगजीत सिंह का गैंग उस वक्त उत्तरप्रदेश के इलाके में एक आंतक का बॉयस बना हुआ था। माधौं सिंह ने कुछ दिन तक इसी गैंग में काम किया। और जल्दी ही अपना रास्ता भी तलाश करना शुरू कर दिया। सेना में भले ही माधौं सिंह मेडीकल कोर में था लेकिन उसने सेना के हथियारों की ट्रैनिंग ली थी। फौंज का अनुशासन उसको यहां भी काम आ रहा था। जल्दी ही माधौं सिंह ने कुछ आदमियों को अपने साथ लिया और एक नया गैंग खडा कर लिया। इस गैंग को माधौं सिंह के दिमाग ने एक बड़े गैंग में तब्दील कर दिया।
चंबल में पचास के आखिरी दशक में एक के बाद एक हुए बड़े एनकाउंटर्स ने बागियों की एक पूरी खेप का सफाया कर दिया था। मानसिंह, रूपा, पुतली, सुल्ताना जैसे दुर्दांत बागियों को ठिकाने लगाया जा चुका था, ऐसे में माधौं सिंह ने तय कर लिया कि वो अब सिर्फ एक गैंग का नहीं चंबल का सरदार बनेगा। गैंग ने नए ऩए हथियार इकट्ठा करना शुरू कर दिया। माधौं सिंह अपने गांव में धावा बोलकर फिर से अपने दुश्मनों का सफाया कर चुका था। इस दुश्मनी में आठ लोगों का कत्ल हो चुका था। लेकिन अब वापसी की कोई राह नहीं थी सो माधौं सिंह ने अब अपने गैंग से वारदात करना शुरू कर दिया। पहले उत्तरप्रदेश के इलाके को और फिर चंबल पार कर मध्यप्रदेश और उसके बाद राजस्थान के इलाकों में भी अपने पैर जमा लिए। लूट, डकैती और कत्ल गैंग का काम तो यही था लेकिन माधौं सिंह जानता था कि जितनी बार अपनी पनाहगाह से वारदात करने गैंग बाहर निकलेगा उतनी बार पुलिस की निगाह उन पर होगी। इसके अलावा साठ के दशक में डाकुओं का सामना करने के लिऐ सरकार ने गांव गांव में लाईँसेसी हथियार दिए थे लिहाजा गांववाले भी कई बार गैग का सामना कर उठते थे और इससे गैंग को कई बार बड़ा नुकसान हो सकता था। लिहाजा माधौं सिंह ने एक दूसरा आसान रास्ता पकड़ा। पकड यानि अपहरण का धंधा। पहले एक पकड़ फिर दूसरी पकड़ और फिर तीसरी। ये पकड़ का काम माधौं सिंह को रास आ गया।  
पकड़ का काम शुरू हुआ तो बढ़ता ही गया। माधौं सिंह गैंग का नाम फैलता जा रहा था। इस वक्त चंबल में एक दूसरा बड़ा गैंग मोहर सिंह का था। जल्दी ही मोहर सिंह के साथ साथ बीहड़ों में माधौंसिंह का नाम भी गूंजने लगा था। 
चंबल में माधौं सिंह ने पकड़ को एक उद्योग में बदल दिया। पैसा कमाने का आसान तरीका। और इसके लिए भी ऐसा जाल तैयार करना कि शिकार खुद शिकार के पास चल कर आ जाएं। चंबल में माधौं सिंह का सिक्का चल रहा था। पुलिस के पास सिर्फ ईनाम बढ़ाने से ज्यादा कुछ भी नहीं रह गया था। हजार की रकम के जमाने में लाखों का ईनाम। चंबल में माधौं सिंह डेढ़ लाख का ईनामी डाकू जिंदा या मुर्दा।   माधौं सिंह ने अपना ठिकाना शिवपुरी के जंगलों में बना लिया था। पकड़ करने के बाद फिरौंती की रकम हासिल करने के नए ऩए तकीरे इस्तेमाल करना शुरू किया। कत्ल और डकैती की वारदात करने की बजाय माधौं सिंह ने पकड़ करने के लिए दुस्साहस दिखाना शुरू कर दिया। एक एक दो की बजाय सामूहिक पकड़ करने के तरीके ने पुलिस फोर्स को सकते में ला दिया। माधौं सिंह ने पकड़ करने के लिए एक से एक तरीके ईजाद कर लिये थे। यहां तक पिकनिक करने आएं हुए लोगो का सामूहिक अपरण करने से गुरेज नहीं किया। 
माधौं सिंह ने पुलिस के अधिकारी की वर्दी पहनी और कुंड पर पिकनिक कर रहे लोगो में से एक के किसी वारदात में शामिल होने की बात कही। अपने साथ एक मुखबिर से उसकी पहचान कराने की बात भी कही। मौंके पर मौजूद पुलिस अधिकारी ने माम लोगो को इकट्ठा कर माधौं सिंह के सामने पेश कर दिया। लेकिन असली पुलिस को देखकर मुखबिर फरार हो चुका था अब माधौं सिंह ने फैसला किया कि इन तमाम लोगो को ही पकड बना लिया जाएं। लेकिन इतने लोगो को साथ कैसे ले जाया जाएं। तब माधौं सिंह ने असली पुलिस की मदद ली।माधो सिंह ने कहा कि इन लोगों को सेंटर पर ले जाकर पूछताछ करनी होगी। जिन लोगो को उसने अपने ताबे में लिया उनके हाथ देख कर ये फैसला किया गया था कि ये किस तरह के परिवार से रिश्ता रखता है। अब इतने लोगो को एक जीप में नहीं ले जाया जा सकता है इसीलिए पुलिस के अधिकारी से माधौं सिंह ने पुलिस का ट्रक मांगा. अधिकारी ने आनाकानी की तो माधौं सिंह ने उसको अपने सेना में सीखे गए अधिकारियों के बातचीत के तरीके से विश्वास दिला दिया कि वो एक उच्चाधिकारी है औऱ फिर पुलिस का ट्रक लिया उसमें बैठाकर साथ ले कर चल दिए. कुछ दूर जाने के बाद माधौ सिंह के साथियों को लगा कि पीछे आ रहा एक ट्रक जिसमें भेडे लदी थी पुलिस का है तब माधों सिंह ने ट्रक के ड्राईवर के पीछे बनी रहने वाली खिड़की से राईफल निकाल कर निशाना लगाया और गोली ने सीधा पीछे वाले ट्रक ड्राईवर का सीना चीर दिया। जैसे ही ट्रक का एक्सीडेंट हुआ तो तमाम शहर में खबर हो गई कि पुलिस के वर्दी में डाकू दर्जनों लोगो को लेकर निकल गए। 
पुलिस में हड़कंप मच गया। लेकिन माधौं सिह तो पकड़ लेकर फरार हो चुका था। अब सिर्फ पकड़ का पैसा जाना था सो वो माधौं सिंह के पास चला गया। शिवपुरी के अजय मित्तल जी अब लगभग 80 साल के है लेकििन उनको आज भी याद है कि किस तरह से उनको माधों सिंह ने दो महीने तक जंगलों में रखा। रात भर डकैत चंबल में चलते रहते थे। एक महीने तक नंगे पैर चंबलों के उन बीहड़ों में कांटों ने पकड़ों के हााल खराब कर दिए थे। एक महीने बाद उनको मुरैना के जंगलों मे ंजाकर जूते नसीब हुए थे।अजय जी को याद है कि जिस भी इलाके में माधों सिंह का गैंग पहुंचता था उस इलाके तमाम गैंग आकर माधो सिंह से मिलकर उसका सम्मान करते थे। माधों सिंह से मिलने आने वाले डाकू अपनी हैसियत के हिसाब से कई खेत पहले जूते उतार कर ही माधों सिंह से मिलने पहुंचते थे और मुलाकात के बाद माधों सिंह से उसका निशाना दिखाने के जिद भी करते थे। माधों सिंह आंख पर पट्टी बांध कर फिर तीन आदमियों के बीच में रखे हुए किसी एक बजूके पर निशाना लगाता था अजय जी का कहना है  उन्होंने कई बार ये अपनी आंखों से देखा और एक बार बी माधों सिंह का निशाना नहीं चूका था। अजय सिंह दस हजार रूपए के पहुंचने तक माधों सिंह के साथ घूमते रहे। उनके मुताबिक गांव वालों का माधों सिंह को बहुत सपोर्ट था जिस इलाके में भी जाता था गांव वाले अपनी कहानी माधौं सिंह को सुनाने आते थे।माधौं सिंह के अपरहण की कहानी चंबल के बाहर तक आने लगी थी तो फिर माधौं सिंह ने बाहर से भी पकड़ कर ली। इस बार उसका निशाना बना एक मशहूर मूर्ति तस्कर मोहन। माधौं सिंह एक बार दिल्ली में गया था तो वहां उसकी मुलाकात एक होटल में मूर्ति तस्कर से हुई थी। माधौं सिंह ने उसको अपना परिचय मूर्ति चोर के तौर पर दिया। और कहा कियदि उसको मूर्ति चाहिएं तो वो दिलवा सकता है। लालच में मोहन ग्वालियर आ पहुंचा।ग्वालियर आने पर शहर से मुखबिर उसको लेकर ग्वालियर के जंगल में पहुंचा। सड़क से कुछ किलोमीटर जाते ही उसोक दिख गया कि ये लोग तो डाकू है लेकिन उसके हाथ में अब कुछ नहीं था। ड्राईवर को वापस भेज दिया गया और मोहन के बदले उस वक्त तीन लाख रूपए की फिरौती वसूली गई थी। पुलिस ने इस मामले में भागदौड बहुत की लेकिन वो माधौं सिंह के गैंग तक नहीं पहुंचे।
माधौं सिंह गैंग्स पांच सौ से ज्यादा पकड़ कर चुका था। लेकिन पुलिस भी एनिमी नंबर दो यानि दुश्मन नंबर दो बन चुके माधौं सिंह को साफ करना चाहती थी। हर तरफ से पुलिस के मुखबिर माधौं सिंह की तलाश में जंगल जंगल की खाक छानने लगे। इस पर माधौं सिंह ने भी अपनी योजना में तब्दीली करने की सोची। लेकिन उससे पहले ही एक बड़ी मुठभेड़ उसकी पुलिस से हो गई। और मुठभेड़ भी ऐसी की दिन में अंधेरा छा गया। गोलियां ही गोलियों। लगभग तीस घंटें चली इस मुठभेड़ में गैंग में से सिर्फ माधौंसिंह और उसका एक साथी ही निकल पाएं बाकि सभी पुलिस की गोलियों का निशाना बन गए। -घंटों की इस मुठभेड़ में अखबारों में लिखा गया कि माधों सिंह को पुलिस की गोलियों ने छलनी कर दिया है। लेकििन अगले ही दिन माधों सिंह गैंग का एक आदमी परिवार के पास पहुंचा और बताया कि पुलिस की गोलियों से इसब बार भी मास्टर बच निकला लेकिन इस मुठभेड़ ने माधौं सिंह का हौंसला जमीन से मिला दिया। वो 
यही से माधौं सिंह ने रणनीति बदल ली। अब वो विजयपुर के जंगलों में पहुंच गया जहां उस तक सिर्फ कुछ ही लोग पहुंच सकते थे। यहां तक गैंग के मेंबर ही सीधे उस तक नहीं पहुंच सकते थे माधौं सिंह ने वारदात का अपना तरीका बदल लिया। इस वक्त तक चंबल सरकार बन चुका माधौं सिंह का एक खत भी किसी भी संपन्न आदमी की रीढ़ कंपा देता था। माधौं सिंह को नए -नए हथियारों की कमी नहीं थी। पुलिस को जो हथियार 1971 के बाद मिले वो पहले से ही माधौं सिंह के पास थे।
लेकिन 11 साल के चंबल के बीहड़ों के सफर ने माधौं सिंह को थका दिया था। जंगल में रहना है तो जंगल का कानून मानने के हिसाब से माधौं सिंह अब गैंग तो चला रहा था लेकिन उसका मन बीहड़ के बाहर ज्यादा लगने लगा था। माधौं सिंह अब कभी कभी अपने मरने की खबर फैला कर इस दौरान अपने परिजनों के साथ शहरों में रहने चला जाता था या फिर परिवार को अपने पास बुला लिया करता था।
पुलिस के साथ मुठभेड़ें रोज का किस्सा हो गयी थी। उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश और राजस्थान पुलिस की एक संयुक्त कमान चंबल में डाकुओं के खात्में के लिए पुरजोर कोशिशों में लगी थी। एक के बाद एक मुठभेड़ में डाकू मारे जा रहे थे तो दूसरी और पुलिस डाकुओं का मुखबिर तंत्र तोड़ने में कामयाब हो चुकी थी। गैंग के अंदर पुलिस के मुखबिर धंस चुके थे। ऐसी ही एक मुठभेड़ की प्लानिंग करने वाले आर एल वर्मा जी खुद बता रहे है कि उस दिन क्या हुआ जब चंबल के इतिहास में दर्ज एक बड़ी मुठभेड़ की तैयारी की गई।13 मार्च 1971 की इस मुठभेड़ में पुलिस ने माधौं सिंह के गैंग के सबसे भरोसे के आदमी कल्याण उर्फ कल्ला, गर सिंह , चिंतामण, बाबू, और विशंबर सिंह जैसे 13 डकैतों को ठिकाने लगा दिया। पुलिस ने इस घटना की खबर माधौं सिंह तक पहुंचाने के लिए एक खास इंतजाम किया। आकाशवाणी से ये समाचार सुना
माधौं सिंह कहा था कि रोट खऊवां बच गएं गैंग तो पूरी निबट गई। इस एनकाउंटर ने माधौं सिंह की कमर तोड़़ कर रख दी। माधौं सिंह की सिक्स्थ सेंस ने उसे बता दिया कि चंबल में अब उसकी जिंदगी का कोई भरोसा नहीं है। और तब उसने एक फैसला कर लिया। ये फैसला था बागी जीवन से रिश्ता तोड़ देने का।लेकिन ये काम इतना आसान नहीं। चंबल की सबसे मशहूर कहावतों में से एक कहावत है चंबल में कूदने की तारीख के बाद किसी बागी की जिंदगी में दूसरी तारीख नीम के पत्तों में लिपट कर शहर आने की ही होती है। मुठभेड़ में मारे गए बागियों की लाशों को नीम के पत्तों में लपेट कर ही रखा जाता था। माधौं सिंह को मालूम था कि नीम के पत्तों में लिपटने से बचना है तो योजना कोई शानदार ही होनी चाहिए। और कुछ दिन में ये योजना भी तैयार हो गई। 
 माधौं सिंह ने सरेंडर करने की सोच ली। चंबल का सबसे बड़ा बागी अब कानून के हाथों में जाना चाहता था। लेकिन पुलिस और कानून तो उसकी तलाश में था ऐसे में फिर माधौं सिंह के शातिर दिमाग ने ऐसी चाल चली कि एक दो दस नहीं बल्कि पांच सौ से ज्यादा बागियों को कानून के सामने ला खड़ा किया। हिंदुस्तान के सबसे बड़े समर्पण की पटकथा लिखने में माधौं सिंह ने फिल्मी उतार-चढ़ाव को भी मात दे दी। माधौं सिंह को याद था कि संत विनोबा भावे चंबल में डाकुओं को समर्पण करा चुके थे। मानसिंह के गैंग के लोकमन दीक्षित और दूसरे डाकुओं ने विनोबा जी के सामने हथियार डाले थे और वो अपनी सामान्य जिंदगी जी रहे थे। और फिर एक दिन संत विनोबा भावे के सामने रामसिेह नाम का शख्स जा पहुंचा और उसने कहा कि चंबल के खूंखार डाकू बंदूकें रखना चाहते है। बिनोबा जी ने कहा कि अब उनका शरीर साथ नहीं दे रहा है लिहाजा वो जे पी को एक खत लिख रहे है चाहे तो वो वहां जासकते है। 
रामसिंह जेपी यानि जय प्रकाश नारायण जी के पास पटना जा पहुंचा। जेपी ने पूछा कि आप कौन है और आपका डाकुओं के क्या रिश्ता है।यहां भी तीन दिन तक माधो सिंह ने अपना परिचय राम सिंह ठेकेदार के तौर पर ही दिया लेकिन जब उसन ेदेखा कि जयप्रकाश जी ज्यादा बात नहीं कर रहे है तो उसने खुद खड़ा होकर कहा कि वही कुख्यात डाकू माधों सिंह है
जयप्रकाश जी ये सुनकर चौंक उठे कि ये सामने खड़ा हुआ शख्स और कोई नहीं बल्कि चंबल का सबसे बडा ईनामी डाकू माधौं सिंह है। जिसकी तलाश में पुलिस चंबल का जर्रा-जर्रा छान रही है वो शख्स बेखौंफ उनके सामने खड़ा है। जे पी इस पर तैयार हो गए। लेकिन शर्त रख दी कि ज्यादा से ज्यादा समर्पण हो सिर्फ माधौं सिंह का गैंग नहीं। इस नामुमकिन से काम को भी माधौं सिंह ने अपने हाथ में ले लिया।
सबसे बडा़ रोड़ा था मोहर सिंह। मोहर सिंह पर चंबल के इतिहास का सबसे बड़ा ईनाम था। सबसे बड़ा गैंग था। सबसे ज्यादा मुठभेडे़ पुलिस के साथ थी। कत्ल की इतनी वारदात के बाद मोहर सिंह को लग रहा था कि शायद फांसी का फंदा या फिर पुलिस की गोली ही उसकी नियति है लेकिन माधौं सिंह ने उसको मनाने के लिए कई हथकड़ें आजमाए और आखिर में तैयार कर लिया।
माधौं सिंह ने अपने बेटे सहदेव सिंह के सिर पर हाथ रख कर मोहर सिंह के सामने कसम काई कि अगर उन लोगो को कुछ हुआ तोजे पी अनशन पर चले जाएंगे।मुरैना के पगारा डैम पर इस समर्पण की तैयारी हुई। हजारों की भीड़ डाकुओं को देखने पहुंची। माधौं सिंह और मोहर सिंह सहित 550 डाकुओं ने हथियार डाले। डाकुओं के लिए शर्तों मनवाने के बाद माधौं सिंह ने डाकुओं के शिकार लोगो के लिए भी मुआवजे और मदद की मांग की थी जिसने उसके खिलाफ ज्यादातर लोगों की नफरत खत्म हो गई। 
माधौं सिंह को जेल हुई और उसने मुंगावली खुली जेल में अपनी सजा काटी। लेकिन माधौं सिंह हमेशा कुछ नया करने की धुन में रहता था तो यहां भी उसने एक नया काम सीख लिया। लोगो को जादू दिखाने का। चंबल सरकार जो कभी लोगों में खौंफ जगाता था अब वो उनको हैरान कर रहा था अपने जादू की कला से। 
माधौं सिंह की कहानी चंबल की हैरंतअगेंज हकीकतों में से एक है। एक सीधे-साधे इंसान के डाकू बनने और फिर डाकू से वापस अकेले नहीं सैकड़ों लोगो को वापस इंसान बनाने की कहानी। पुलिस अधिकारी भी मानते है कि चंबल के उस ऐतिहासिक समर्पण में माधौं सिंह की भूमिका अहम थी
तो ये थी फौंजी माधौं सिंह के चंबल का सरदार माधौं सिंह और फिर जादूगर सम्राट माधौं सिंह बनने की हकीकत। माधौ सिंह ने सालो तक अपनी जादूगरी के कारनामों से लोगो का दिल बहलाया। अपने शो में वो पुलिस वालों को फ्री इंट्री देता था। सालों तक एक दूसरे से खौंफ खाने वाले दुश्मनों की शायद ये नई दोस्ती थी। 1991 में माधों सिंह की मौत हो गई।

शोले का गब्बर बच्चा था असली गब्बर सिंह के सामने

पचास पचास कोस तक जब कोई बच्चा रोता था.. तो मां क्या कहती थी? बेटा सो जा.. नहीं तो गब्बर आ जाएगा.. आपने शोले फिल्म के गब्बर को देखा होगा.
सिनेमा के पर्दे पर गब्बर की हंसी आज भी किसी इंसान का दिल दहला देती है। शोले का गब्बर हिंदी फिल्मों में खौंफ और आतंक का नाम बन गया। ऐसा खलनायक जिसका किरदार हिंदुस्तान के गांव गांव में एक किस्सा बन गया। लेकिन क्या आपको कभी लगा कि फिल्म का ये गब्बर नकली है। जीं हां शोले का गब्बर नकली गब्बर है। क्योंकि सिनेमा के पर्दे पर दिखने वाला किरदार एक असली डाकू गब्बर सिंह की कॉपी भर है। ऐसा डाकू जिसकी कहानी ने हिंदी फिल्म जगत में शोले भर दिये। 
फिल्म के खत्म होते ही खौंफ की निशानियां भी खत्म हो जाती है। लेकिन असली गब्बर के आतंक के निशान आज भी चंबल के बीहड़ों में बसे हुए गांवों में मिल जाते है। छिनसरेठा गांव। चंबल के बीहड़ों में बसे हुए सैकड़ों गांवों में से एक है।  गब्बरसिंह की कहानी तो लगभग छह दशक पहले ही खत्म हो चुकी है लेकिन उस कहानी का खौंफ आज तक इस गांव के बूढ़ें कंधें ढो रहे है। फिरेलाल.... 90 साल की उम्र का ये बुजुर्ग अपने आखिरी दिन गिन  रहा है लेकिन वो 61 साल पहले का वो दिन आज भी उसको ऐसे ही याद है जैसे वो कल की ही बात हो।
61 साल एक ऐसी जिंदगी जीना सिर्फ वही जान सकता है जिसके साथ गुजरी हो।लेकिन  ये अकेला फिरे लाल नहीं है। चंबल के दर्जनों गांव चबंल के गब्बर के आतंक की कहानी को आज भी सीने में छिपाएं हुए फिरते है। अजनबी ने गब्बर का नाम लिया नहीं कि पुराने घाव रिसने लगते है।
लेकिन ये बाते भी शायद आपको कहानी लगे तो फिर आप ये जान लीजिए कि हिंदुस्तान के सबसे सफल पुलिस अधिकारियों में से एक के एफ रूस्तमजी ने गब्बर के मरने की खबर को हिंदुस्तान के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को उनके सत्तरवें जन्मदिन पर  मध्यप्रदेश पुलिस की ओर से  सबसे बड़े तोहफे के तौर पर पेश किया था। 
गब्बर का शौंक सिर्फ मौत बांटना और बेगुनाह लोगो की नाक काटना था। इलाके में गब्बर से पहले भी बहुत डाकू हुए और गब्बर के  बाद भी चंबल में डाकुओं का पैदा होना जारी रहा लेकिन चंबल का सबसे बड़ा खौंफ और आतंक सिर्फ गब्बर के नाम रहा। ऐसा नाम कि हिंदी फिल्मों में भी उसका नाम देखने वालों की रीढ़ में पानी ला देता था। चंबल में जब गब्बर की कहानी खत्म हुई तब तक गब्बर खून और लाशों की ऐसी इबारत लिख गया कि उसके मरने के दशकों बाद भी लोग उसके नाम से कांप जाते है। इस बार असली गब्बर की कहानी। 
चंबल। दूर तक फैले बीहड़ों में भिंड शहर। चंबल में डाकुओं के ज्यादातर किस्सों में भिंड बार बार घूम कर आता है। इसी के गोहद थाने से कुछ किलोमीटर दूर चलने के बाद ही आपको एक सड़क डांग ले जाती है। ऊबड़-खाबड़ सड़क जैसे गांव का मिजाज का पता बता देती हो। इसी गांव में एक घर तक आपको लिए चलते है। ये घर आपको चंबल के सबसे बड़े आतंक का पता देगा। आप घर पर तो है लेकिन घर की जगह अब कोई पत्थर भी नहीं बचा है। 
ये घर गब्बर सिंह का घर है। गुर्जरों के इस गांव में गब्बर का जन्म 1926 में हुआ था। गब्बर के पिता के पास बेहद कम जमीन थी। गांव में कम जमीन आपके रूतबे को भी कम कर देती है। गब्बर का परिवार पेट पालने के लिए मजदूरी किया करता था। इलाके में आज भी पत्थर निकाला जा रहा है वैद्य या अवैद्य दोनो तरीके से। गब्बर का परिवार भी गांव में पत्थर ढोने का काम करता था। गब्बर शरीर से काफी मजबूत था। गांव में मजदूरी के साथ ही शाम को अखाड़े में जोर -आजमाईश करता था। और  शरीर की मजबूती के घमंड में गब्बर गांव वालों से एक से एक शर्त लगाया करता था और ऐसे ही शर्त के दौरान गब्बर की जिंदगी ने अपनी राह बदल ली। बचपन में गब्बर आवारा था। गांव में खेती-किसानी से उसे कोई मतलब नहीं था। लेकिन गब्बर के बाप के एक अपराध के बाद पंचायत ने खेती की जमीन ही छीन ली। इसके बाद आवारा गब्बर के सामने रोजी रोटी का संकट खड़ा हो गया। आप जानते ही हैं.. ऐसे लोगों का बांहें खोलकर स्वागत करने के लिए तैयार रहता था चंबल.. बस यहीं से शुरू हो गया गब्बर के चंबल का सफर। 
गब्बर ने गांव में रहने वाले रखीश्वरों से दुश्मनी में कत्ल कर दिए लेकिन गब्बर के डकैत बनने की कहानी पहले ही शुरू हो चुकी थी। दरअसल चंबल के 40 और पचास के दशक में डाकुओं का बड़ा आतंक था और इलाके में लोग डर से डाकुओं की इज्जत करते थे। इसी दौरान एक बार गब्बर अपने डाकू रिश्तेदारों से मिला। उनका रौब-दाब देखकर ही गब्बर को डाकू बनने की धुन सवार हो गई और जब वो गांव में लौटा तो बदला हुआ गब्बर था जो हर बात पर मौत बांटने की धमकी देने लगा। 
इसी बीच गब्बर के पिता रघुबीर सिंह को आपसी झगड़े में सजा हो गई और गांव में भी उसका हुक्का पानी बंद हो गया। तो गब्बर ने फैसला कर लिया कि वो अब इस ईलाके में ईज्ज्त हासिल करके ही दम लेगा। लेकिन ईज्जत हासिल करने का जो तरीका उसने चुना वो बेहद खतरनाक था और उसका रास्ता चंबल के बीहड़ों से जा मिला था। गब्बर ने एक दिन छोटी सी बात पर गांव में रखीश्वरों के परिवार वालों को गोलियों से भून दिया। डांग में अपने दुश्मनों का कत्ल कर गब्बर चंबल में कूद गया। पहली बार में दो लोग को मौत के घाट उतारने की खबर चंबल में पहुंच चुकी थी और उसको कल्याण सिंह गुर्जर के गैंग में एंट्री मिल गई। चंबल में कहावत थी कि कत्ल करने के बाद कोई मुखबिर नहीं रह जाता यानि पुलिस का आदमी होने का डर खत्म हो जाता है इसीलिए किसी गैंग में शामिल होने के लिए या होने के बाद कत्ल और लूट दोनो करने होते थे। सो गब्बर सिंह ने अपनी पहली बाधा आसानी से पार कर ली थी। 
गब्बर सिंह अपना खौंफ पैदा करने के लिए इलाके में लूट, डकैती, अपहरण और कत्ल की झड़ी लगा दी। चंबल में कूदने के कुछ दिनों बाद ही गब्बर के नाम का खौंफ का गुबार चंबल में चढ़ने लगा। मध्यप्रदेश पुलिस के रिकॉर्ड में गब्बर का नाम लगभग हर रोज गूंजने लगा। एक  के बाद एक वारदात की कहानी चंबल में थाने दर थाने चलने लगी। गब्बर सिंह डकैत चंबल के उन चंद डकैतों में से एक था जिसे हालात ने नहीं बल्कि उसकी इच्छा ने डकैत बनाया था। लिहाजा गांव में नाम मात्र की दुश्मनी के बाद पहले अपने दुश्मनों के साथ मौत का खेल खेला और फिर गांव के दूसरे लोगो पर भी उसकी बंदूकें गरजने लगी। गब्बर को बेगुनाहों की मौत से खेलना अच्छा लगता था। और वो इस खेल में महारथ हासिल करना चाहता थाष लिहाजा कत्ल की एक झडी लगा दी। 
बात-बेबात पर कत्ल करने की गब्बर की आदत से गैंग में भी दुश्मनी हो गई। कुछ ही महीने में गब्बर ने अपने पांच -छह साथियों को लेकर अपने गैंग से नाता तोड़ लिया और एक नया गैंग बना लिया। लूट से हासिल पैसे के सहारे हथियार भी हासिल हो चुके थे लिहाजा गब्बर सिंह ने चंबल में अपने आपको चंबल का महाराज कहलाना शुरू कर दिया। हर वारदात के बाद उसका गैंग पीड़ितों से नारे लगवाता था चंबल महाराज की जय। भिंड, मुरैना, ग्वालियर, धौलपुर, इटावा और आसपास के इलाकों में गब्बर ने वारदात करना शुरू कर दिया। गैंग भी बढ़ने लगा। और इसके साथ ही बढ़ने लगा गब्बर का आतंक भी। 
चंबल में पचास का दशक बड़े गैंग के दशक का गैंग था। दर्जनों गैंग चंबल के इलाके में आम जनता की जिंदगी को नर्क बनाए हुए थे। ऐसे में गबरा उर्फ गब्बर एक नया बवाल बन कर पुलिस के सामने आ खड़ा हुआ। गब्बर ने अपने गैंग को एक मशीन में तब्दील कर दिया। मौत और लूट की मशीन। पुलिस रिकॉर्ड के मुताबिक अक्तूबर 1956 से दिसंबर 1956 के तीन महीनों के बीच एक के बाद एक कत्ल और डकैती की झड़ी लगा दी। दर्जनों डकैतियां और कत्ल के मामले थानों में दर्ज हो गए। 
गब्बर गैंग ने दर्जनों कत्ल, डकैतियां, अपहरण और लूट की वारदात को अंजाम दिया।  तीनों राज्यों की पुलिस उसके पीछे लग चुकी थी। पुलिस के ऊपर इस नये लेकिन खतरनाक गैंग को खत्म करने का दबाव बढ़ रहा था। लेकिन गब्बर पुलिस से बेखौफ था। पुलिस रिक़ॉर्ड के मुताबिक गब्बर के गैंग के साथ उस वक्त कई मुठभेड़े हुई। लेकिन हर मुठभेड़ में पुलिस के जवान या तो घायल हुए या फिर उन्हें अपनी जिंदगी खोनी पड़ी। एक के बाद एक एनकाउंटर से बच निकलने ने चंबल में गब्बर का रूतबा और बढ़ा दिया। गब्बर का हौसला भी इससे बढ़ता जा रहा था। 
चंबल के दूसरे डकैतों की तरह से गब्बर भी देवी की पूजा करता था और इस मामले में काफी हद तक अंधविश्वासी था। चंबल के घने जंगलों में बने रतनगढ़ देवी के मंदिर में वो हफ्तों तक रहता और पूजा किया करता था। घने जंगलों में बेहद ऊंचाई पर बने हुए इस मंदिर तक पहुंचने में पुलिस को काफी मशक्कत करनी पड़ती थी और जब तक वो वहां पहुचंती थी गैंग फरार हो चुके होते थे। चंबल में गब्बर का नाम चलने लगा था। गांव के गांव उससे कांपने लगे थे। और डाकुओं की परंपरा के मुताबिक गब्बर ने ऐलान कर दिया कि वो मां शीतला देवी के मंदिर पर नगाड़ें चढ़ाने जाएंगा। 
मां शीतला देवी का ये मंदिर डाकुओं के लिए काफी श्रद्रा का केन्द्र रहा है। गब्बर सिंह ने जब इस मंदिर पर घंटा और नगाड़़ा चढ़ाने का ऐलान किया तो इलाके में सनसनी फैल चुकी थी। क्योंकि गब्बर हर बार इस तरह के ऐलान के बाद कुछ नई वारदात करता था। और फिर एक दिन पूरे गैंग के साथ गब्बर सिंह दिन दहाड़ें शीतला मां के मंदिर पहुंच गया।
शीतला देवी के मंदिर पर घंटा चढ़ाने की घोषणा पुलिस तक भी पहुंची थी लेकिन पुलिस जब तक गब्बर सिंह को घेरती गब्बर वहां से फुर्र हो चुका था। शीतला देवी के इस मंदिर में रखे नगाड़े आज भी ये बताते है कि गब्बर का हौंसला और खौंफ दोनो कितनी ऊंचाई पर पहुंचे हुए थे। शीतला देवी के इस मंदिर में और भी डाकुओं के सिर झुकाने की कई दूसरी चीजें भी है। मंदिर में चमकती हुई पीीतल के दियों की ये झालर चंबल की पहली महिला डकैत पुतलीबाई ने चढ़ाई थी।
शीतला के मंदिर पर सरेआम नगाड़े चढ़ाने वाला गब्बर अब कोई छोटा मोटा पुलिस फाईल का भगौड़ा नहीं बल्कि चंबल  में गब्बर सिंह नामी डकैत बन चुका था गब्बर की हवस सिर्फ नाम होने भर से खत्म नहीं होने वाली थी। गब्बर चाहता था कि सब डाकूओं से अलग उसका नाम किसी भी गांव में पहुंचते ही खौंफ की लहर बन जाएं। और तभी उसने एक नया फैंसला ले लिया एक ऐसा फैसला जिसने उसके खौंफ को चंबल की घाटी से बाहर तक फैला दिया। अब उसने फैसला किया कि वो शरीर के अंग काट कर मुखबिरों को सजा देंगा।
चंबल में गब्बर सिंह का नाम गूंज रहा था लेकिन गब्बर को तो और ही धुन थी। पुलिस के साथ एक के बाद एक एनकाउंटर में भले ही गब्बर अपने गैंग को साफ बचा कर ले जा रहा हो लेकिन उसका शक था कि गांव के लोग उसकी मुखबिरी करते है। और ये बात गब्बर को इतनी चुभी कि उसने सजा तय कर ली।
छिनरैठा गांव में एक दिन दहाड़ें गब्बर जा धमका। गांव के एक चौकीदार पर उसको शक था कि उसने पुलिस को मुखबिरी की है। गांव में पहुंच कर पहले चौकीदार को पकड़ा फिर उसके साथ एक और आदमी को और जब वो उनको गांव के बीच के कुएं पर ला रहा था तो रास्ते में बैठे दो दलितों को भी उसने पकड़ लिया। भरे गांव के बीच जो अब घरों में बंद खौंफजदा लोगो का श्मशान दिख रहा था उसने पहले तो लाठियों से पीट-पीट कर उन चारों का मरने हाल कर दिया। उसके बाद उसने कहा कि ला तेरी नाक देखता हूं कितनी बड़ी है और चार लोगों की नाक काट दी। नाक कटने की पीड़ा से बेहोश लोगो में से चौकीदार को गोलियों से भून कर गब्बर आराम से टहलता हुआ चल दिया। गांव के लोगो के घर तो खुल गए लेकिन किसी की हिम्मत नहीं हुई कि वो उन लोगो को अस्पताल तक पहुंचा दे। कोई गब्बर के कहर को न्यौतना नहीं चाहता था। किसी तरह सुबह तक पुलिस तक खबर गई और पूरी पुलिस पार्टी वहां पहुंची और दर्द से तड़प रहे लोगो को किसी तरह से हॉस्पीटल लेकर पहुंची। आज भी फिरेलाल जिंदा है तो उसके लगी हुई ेये नाक सरकार ने लगाई है लेकिन किसी को भी ये आसानी से पता चल जाता है कि नाक को किस तरह से काटा गया था।
एक ही गांव में चार लोगो की नाक काटने की घटना ने जैसे पूरे इलाके को दहला कर रख दिया। इससे पहले ऐसी घटना यदा-कदा ही चंबल के बीहड़ों में सुनी जाती थी लेकिन एक साथ चार लोगो की नाक काटने ने तो पुलिस के लिए भी मुसीबत खड़ी कर दी। लेकिन गब्बर सिंह की वहशत तो इससे जाग गई।  और अब उसने छोटी सी घटना पर गांव वालों को सबक सिखाने का एक बेहतर तरीका भी मान लिया। किसी बात पर भी वो नाराज होता तो फिर गांव के गांव को सबक सिखाने लगता। गब्बर के शिकार लोगो की कहानियां आप उनके मुंह से सुन सकते है। और एक गांव में चौपाल पर बैठे हुए ये लोग जब अपनी आपबीती सुनाते है तो आपको शोले का वो सीन याद आ जाता है जब गब्बर का आदमी कालिया रामगढ के लोगो से कहता है कि गब्बर आप से क्या चाहता है सिर्फ थोड़ा सा अनाज और क्या। इस गांव के लोग उस कहानी से ज्यादा खौंफ आप को दिखा सकते है क्योंकि हकीकत में ये वो है जिन्होंने उस सीन को असली जिंदगी में जीेने वाले ये लोग किस तरह से अपनी कहानी कहते है।
अब आप इस गांव के बचे हुए लोगो की बात सुनलीजिए जिन्होंने असली गब्बर सिंह के कहर को सालों तक भुगता है।
गल्ला न देने पर नाक काट लिए और पूरे गांव पर जुर्माना किया। देशी घी, दूध,चावल और आटा। गांव में उस वक्त किसी किसी के घर इतना सामान होता था कि वो तीस आदमियों के गिरोह को इस तरह से खाना खिला दे। और एक दो बार देने के बाद जब गांव वालो ने एक बार कहा कि उनके पास कुछ नहीं है तो गब्बर सिंह ने अपना खौंफ दिखा दिया। पहले दो लोगो की गांव के बीचो-बीच नाक काट ली और उसके बाद बाकि गांव को लाठियों और बंदूकों की बटों से बेहोश होने तक पीटा। गांव वालों को माफी मिली तब जब उन्होंने सजा के बदले जुर्माना देने की हामी भरी।
जीं हां उस वक्त जब एक आदमी के एक दिन के काम की मजदूरी सिर्फ एक आना या दो आना होती थी उस वक्त इस गांव के लोगो ने गब्बर सिंह को 1100 रूपए चुकाने के लिए एक साल तक गांव ही छोड़ दिया और शहरों में मजदूरी कर पैसा जमा कर वीरान पड़े गांव में कदम रखे।
इस बीच गब्बर सिंह की एक तांत्रिक से मुलाकात हुई और उस तांत्रिक ने गब्बर सिंह को बताया कि अगर वो 116 लोगो की नाक काट कर  दुर्गा मां को भेंट करता है तो फिर पुलिस की कोई गोली उसको छू नहीं पाएंगी। गब्बर का शौंक जूनुन में बदल गया। अब वो इलाके के इलाके की नाक काटने पर तुल गया। 
यहां तक पुलिस के कई सिपाहियों की नाक भी गब्बर ने काट दी। एक सिपाही तो किसी गांव में वारंट की तामील कराने गया तो वो भी गब्बर सिंह के हत्थे चढ़ गया और गब्बर सिंह ने उसकी भी नाक काट ली। गब्बर सिंह ने एक गांव में एक साथ 11 लोगो की नाक काट ली। और अपनी पूजा पूरी करने में जुट गया। 
गब्बर सिंह को मुखबिरों से सख्त चिढ़ थी। पुलिस से साथ हुई एक मुठभेड़ में उसे चंबल के एक गांव के लोगों पर शक हो गया कि उन्होंने उसके गैंग की मूवमेंट की खबर पुलिस को दी है बस इतना बहुत था गब्बर के लिए बेगुनाह लोगो पर कहर बरपाने के लिए। और एक दिन गब्बर दिन में ही उस गांव में जा पहुंचा। एक के बाद एक 21 लोगों को एक लाईन में खडा कर दिया गया। और डर में कांपते हुए लोग इससे पहले कि कुछ समझे 21 लोगों को गोलियों से भून दिया।गब्बर का आतंक बढ़ रहा था और प्रदेश की राजनीति भी गर्मा गई। 1957 में विपक्षी दलों ने गब्बर सिंह के शिकार दर्जनों लोगों को लेकर भोपाल विधानसभा के बाहर बड़ा प्रर्दशन किया। सरकार की नाक का सवाल बन गया गांव के बेगुनाह लोगो की नाक बचाना। मध्य प्रदेश सरकार ने पुलिस इंस्पेक्टर जनरल को भिंड में कैंप करने का आदेश दिया ताकि गब्बर के गैंग को खत्म किया जा सके। पुलिस अधिकारियों ने जिले के तमाम पुलिस अधिकारियों की मीटिंग्स बुलाकर इस काम के लिए किसी अधिकारी से स्वेच्छा से आगे आने को कहा। और फिर ये जिम्मेदारी दी गई युवा डिप्टी एसपी राजेन्द्र प्रसाद मोदी को आर पी मोदी कुछ दिन पहले ही चंबल की दस्यु सुंदरी पुतलीबाई का एनकाउंटर कर चर्चाओं में चुके थे। आर पी मोदी के लिए गब्बर का खात्मा करना टेढ़ी खीर साबित हो रहा था। क्योंकि गब्बर सिंह का खौंफ इतना हो चुका था कि कोई आदमी गब्बर सिंह के बारे में खबर देना तो दूर की बात है नाम भी जुबां पर नहीं लाना चाहता था। पुलिस के सारे प्रयास लगातार पानी में मिलते जा रहे थे। दो साल का वक्त गुजर चुका था लेकिन पुलिस गब्बर तो दूर की बात है गब्बर के बारे में कोई खबर भी हासिल नहीं कर पा रही थी। गब्बर सिंह पर उस वक्त तीन राज्य इनाम घोषित कर चुके थे। लेकिन चंबल घाटी में किसी को ईनाम का लालच नहीं बल्कि अपनी जान के लाले पड़े हुए थे। और तभी गोहद थाने में बैठे हुए मोदी ने एक ऐसा काम किया कि उनके लिए गब्बर तक पहुंचने का रास्ता मिल गया।गोहद सड़क के सामने घुमपुरा गांव में एक झोपड़ी से आग की लपटे दिखी। मोदी मौका ए वारदात पर पहुंचे। पुलिस ने आग पर काबू पा लिया तभी पता चला कि एक पांच साल का बच्चा दिख नहीं रहा है शायद वो झोंपड़ी में ही फंस गया। इससे पहले कि कोई सोचे मोदी खुद झोंपड़ी में घुसे और उस पांच साल के बच्चें को बाहर निकाल लाएं। बच्चा आग में झुलसा हुआ था। मोदी ने अपनी जीप और कुछ पैसे बच्चें के बाप को देकर फौरन अस्पताल भेज दिया। बच्चे के बाप का नाम था रामचरण।गोहद थाने और डांग गांव के बीच में दूरी बहुत नहीं  है। लेकिन डांग का गब्बर और गोहद में मध्यप्रदेश पुलिस दोनो के बीच इतनी दूरी हो चुकी थी कि गब्बर तक पुलिस की गोली पहुंच ही नहीं पा रही थी। ऐसे में झोंपड़ी के जलने के 25 दिन बाद रामचरण आ र पी मोदी के पास गोहद थाने पहुंचा और उसने मोदी को कहा कि वो मोदी की वर्दी पर मैडल सजा कर अहसान उतारना चाहता है। मोदी  हैरान थे कि रामचरण क्या करना चाहता है इस पर रामचरण ने कहा कि वो गब्बर का पता देंगा। 
रामचरण ने मोदी से कहा कि पहले वो रात में उसके साथ डांग गांव चले। रात में मोदी और रामचरण डांग पहुंचे फिर रामचरण मोदी को लेकर हाईवे और वहां से घूम का पुरा जिसे तालाब भी कहा जाता था पहुंचे। रामचरण ने वो भिंड हाईवे के इस तरफ डांग और दूसरी तरफ घूमकापुरा के बीच की वो जगह दिखा दी जहां गब्बर सिंह अक्सर रहा करता था। मोदी अपने दिमाग में नक्शा बना चुके थे , और जाल तैयार हो चुका था। बस अब शिकार का इतंजार था। 
गोहद थाने में 13 नवंबर 1959 का दिन। अभी सूरज सही से निकला भी नहीं था कि आर पी मोदी को एक मेहमान ने चौंका दिया। रामचरण पहुंच चुका था और उसने पुलिस वालों के बीच में चुपचाप मोदी को इशारा कर दिया कि पूरा गैंग ठिकाने पर पहुंच चुका है।  मोदी उसको अलग ले गए और डिटेल्स पूछी। रामचरण ने कहा कि पूरा गैंग पहुंच चुका है, पूरे गैंग को खत्म कर दो। क्योंकि चंबल में अगर गैंग का एक आदमी भी बचता है तो फिर वो मुखबिर के पूरे परिवार को खत्म करता है।सुबह 10 बजे तक गोहद थाने में तीन सौ हथियारबंद पुलिस वाले पहुंच चुके थे। प्लान बना तीन तरफ से घेराबंदी कर चौथी तरफ से सर्च पार्टी को आगे भेजा जाएं। मोदी ने किसी पुलिस वाले को ये पता नहीं दिया कि आखिर जाना कहां है और निशाना कौन है
मोदी और तीस आदमी सर्च पार्टी के तौर पर हाईवे की और से मौके की तरफ गए। दूसरी और से डिप्टी एसपी माधौं सिंह ने अपनी पार्टी लगा दी थी। पार्टी आगे बढ़ी तो देखा कि गैंग के लोग जमीन पर रैंगकर दूसरी तरफ से निकलने की कोशिश में है लेकिन वहां भी पुलिस मौजूद थी। लिहाजा गैंग ने फायरिंग शुरू कर दी।  
11 लोगों का गैंग पूरी ताकत से फायरिंग कर रहा था। मुठभेड़ सुबह दस बजे से शुरू हो चुकी थी। गैंग के साथ कुछ अपह्त लोग भी। दोनो तरफ से फायरिंग हो रही थी। दिन का समय था आसपास के गांवों के लोग मौके पर पहुंच चुके थे। डकैत फायरिंग कर जिस तरफ से भी बच निकलने की कोशिश करते उसी तरफ से पुलिस की हैवी फायरिंग शुरू हो जाती। अब डाकुओं ने एक गड्डे मे पोजीशन ले ली और पुलिस के साथ आखिरी फायरिंग शुरू कर दी। सुबह से चल रही मुठभेड़ शाम तक जारी थी। धीरे-धीरे अंधेरा छा रहा था और अंधेरे का लाभ उठा सकते है। लेकिन मोदी गब्बर को खत्म करने का ये आखिरी मौका खोना नहीं चाहते थे लिहाजा उन्होंने एक बड़ा फैसला ले लिया। 
मोदी ने अपने पुलिस वालों से कहा कि वो सीधा हमाल करने जा रहे है अगर कोई उनके साथ इच्छा से जाना चाहे तो चले। इस पर 11 गोरखा सिपाही जो पुतलीबाई के एनकाउंटर में भी साथ थे आगे निकल आए। मोदी गड्डे की तरफ बढ़े लेकिन डाकुओं की ओर से हैवी फायरिंग शुरू हुआ। मोदी ने हैंड ग्रेनेड से गड्डे में हमला किया। कुछ डाकुओं के मरने से फायरिंग कम हो गई लेकिन तब भी जैसे ही पुलिस ने आगे बढ़ना शुरू किया फिर एक डाकू की मार्कथ्री गरज उठी। इस पर मोदी ने फिर से दो हैंड ग्रेनेड गड़्डे में फेंके और फिर घायल डाकुओं पर लाईटमशीनगन से हमला बोल दिया। 
कुछ देर में जब पुलिस पार्टी गड़्े पर पहुंची तो देखा कि ग्रेनेड्र से मारे गए डाकुओं के बीच में गब्बर सिंह अपनी आखिरी सांसें गिन रहा था। उसका निचला जबड़ा ग्रेनेड से उड़ चुका था। कुछ ही देर में जब तलाशी पूरी हुई तो 11 डाकुओं का पूरा गैंग खत्म हो चुका था लेकिन इस ऑपरेशन में चार पकड़ में से दो पकड़ भी गोलियों की जद में आकर दम तोड़ चुकी थी। उधर गब्बर की मौत की खबर पक्की होने के साथ ही हाईवे पर खड़ी हजारों की भीड़ ने गब्बर सिंह की मौत की खुशी मनानी शुरू कर दी थी। ये चंबल के सबसे खूंखार डाकू का अंत था लेकिन आखिरी डाकू का नहीं।