पचास पचास कोस तक जब कोई बच्चा रोता था.. तो मां क्या कहती थी? बेटा सो जा.. नहीं तो गब्बर आ जाएगा.. आपने शोले फिल्म के गब्बर को देखा होगा.
सिनेमा के पर्दे पर गब्बर की हंसी आज भी किसी इंसान का दिल दहला देती है। शोले का गब्बर हिंदी फिल्मों में खौंफ और आतंक का नाम बन गया। ऐसा खलनायक जिसका किरदार हिंदुस्तान के गांव गांव में एक किस्सा बन गया। लेकिन क्या आपको कभी लगा कि फिल्म का ये गब्बर नकली है। जीं हां शोले का गब्बर नकली गब्बर है। क्योंकि सिनेमा के पर्दे पर दिखने वाला किरदार एक असली डाकू गब्बर सिंह की कॉपी भर है। ऐसा डाकू जिसकी कहानी ने हिंदी फिल्म जगत में शोले भर दिये।
फिल्म के खत्म होते ही खौंफ की निशानियां भी खत्म हो जाती है। लेकिन असली गब्बर के आतंक के निशान आज भी चंबल के बीहड़ों में बसे हुए गांवों में मिल जाते है। छिनसरेठा गांव। चंबल के बीहड़ों में बसे हुए सैकड़ों गांवों में से एक है। गब्बरसिंह की कहानी तो लगभग छह दशक पहले ही खत्म हो चुकी है लेकिन उस कहानी का खौंफ आज तक इस गांव के बूढ़ें कंधें ढो रहे है। फिरेलाल.... 90 साल की उम्र का ये बुजुर्ग अपने आखिरी दिन गिन रहा है लेकिन वो 61 साल पहले का वो दिन आज भी उसको ऐसे ही याद है जैसे वो कल की ही बात हो।
61 साल एक ऐसी जिंदगी जीना सिर्फ वही जान सकता है जिसके साथ गुजरी हो।लेकिन ये अकेला फिरे लाल नहीं है। चंबल के दर्जनों गांव चबंल के गब्बर के आतंक की कहानी को आज भी सीने में छिपाएं हुए फिरते है। अजनबी ने गब्बर का नाम लिया नहीं कि पुराने घाव रिसने लगते है।
लेकिन ये बाते भी शायद आपको कहानी लगे तो फिर आप ये जान लीजिए कि हिंदुस्तान के सबसे सफल पुलिस अधिकारियों में से एक के एफ रूस्तमजी ने गब्बर के मरने की खबर को हिंदुस्तान के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को उनके सत्तरवें जन्मदिन पर मध्यप्रदेश पुलिस की ओर से सबसे बड़े तोहफे के तौर पर पेश किया था।
गब्बर का शौंक सिर्फ मौत बांटना और बेगुनाह लोगो की नाक काटना था। इलाके में गब्बर से पहले भी बहुत डाकू हुए और गब्बर के बाद भी चंबल में डाकुओं का पैदा होना जारी रहा लेकिन चंबल का सबसे बड़ा खौंफ और आतंक सिर्फ गब्बर के नाम रहा। ऐसा नाम कि हिंदी फिल्मों में भी उसका नाम देखने वालों की रीढ़ में पानी ला देता था। चंबल में जब गब्बर की कहानी खत्म हुई तब तक गब्बर खून और लाशों की ऐसी इबारत लिख गया कि उसके मरने के दशकों बाद भी लोग उसके नाम से कांप जाते है। इस बार असली गब्बर की कहानी।
चंबल। दूर तक फैले बीहड़ों में भिंड शहर। चंबल में डाकुओं के ज्यादातर किस्सों में भिंड बार बार घूम कर आता है। इसी के गोहद थाने से कुछ किलोमीटर दूर चलने के बाद ही आपको एक सड़क डांग ले जाती है। ऊबड़-खाबड़ सड़क जैसे गांव का मिजाज का पता बता देती हो। इसी गांव में एक घर तक आपको लिए चलते है। ये घर आपको चंबल के सबसे बड़े आतंक का पता देगा। आप घर पर तो है लेकिन घर की जगह अब कोई पत्थर भी नहीं बचा है।
ये घर गब्बर सिंह का घर है। गुर्जरों के इस गांव में गब्बर का जन्म 1926 में हुआ था। गब्बर के पिता के पास बेहद कम जमीन थी। गांव में कम जमीन आपके रूतबे को भी कम कर देती है। गब्बर का परिवार पेट पालने के लिए मजदूरी किया करता था। इलाके में आज भी पत्थर निकाला जा रहा है वैद्य या अवैद्य दोनो तरीके से। गब्बर का परिवार भी गांव में पत्थर ढोने का काम करता था। गब्बर शरीर से काफी मजबूत था। गांव में मजदूरी के साथ ही शाम को अखाड़े में जोर -आजमाईश करता था। और शरीर की मजबूती के घमंड में गब्बर गांव वालों से एक से एक शर्त लगाया करता था और ऐसे ही शर्त के दौरान गब्बर की जिंदगी ने अपनी राह बदल ली। बचपन में गब्बर आवारा था। गांव में खेती-किसानी से उसे कोई मतलब नहीं था। लेकिन गब्बर के बाप के एक अपराध के बाद पंचायत ने खेती की जमीन ही छीन ली। इसके बाद आवारा गब्बर के सामने रोजी रोटी का संकट खड़ा हो गया। आप जानते ही हैं.. ऐसे लोगों का बांहें खोलकर स्वागत करने के लिए तैयार रहता था चंबल.. बस यहीं से शुरू हो गया गब्बर के चंबल का सफर।
गब्बर ने गांव में रहने वाले रखीश्वरों से दुश्मनी में कत्ल कर दिए लेकिन गब्बर के डकैत बनने की कहानी पहले ही शुरू हो चुकी थी। दरअसल चंबल के 40 और पचास के दशक में डाकुओं का बड़ा आतंक था और इलाके में लोग डर से डाकुओं की इज्जत करते थे। इसी दौरान एक बार गब्बर अपने डाकू रिश्तेदारों से मिला। उनका रौब-दाब देखकर ही गब्बर को डाकू बनने की धुन सवार हो गई और जब वो गांव में लौटा तो बदला हुआ गब्बर था जो हर बात पर मौत बांटने की धमकी देने लगा।
इसी बीच गब्बर के पिता रघुबीर सिंह को आपसी झगड़े में सजा हो गई और गांव में भी उसका हुक्का पानी बंद हो गया। तो गब्बर ने फैसला कर लिया कि वो अब इस ईलाके में ईज्ज्त हासिल करके ही दम लेगा। लेकिन ईज्जत हासिल करने का जो तरीका उसने चुना वो बेहद खतरनाक था और उसका रास्ता चंबल के बीहड़ों से जा मिला था। गब्बर ने एक दिन छोटी सी बात पर गांव में रखीश्वरों के परिवार वालों को गोलियों से भून दिया। डांग में अपने दुश्मनों का कत्ल कर गब्बर चंबल में कूद गया। पहली बार में दो लोग को मौत के घाट उतारने की खबर चंबल में पहुंच चुकी थी और उसको कल्याण सिंह गुर्जर के गैंग में एंट्री मिल गई। चंबल में कहावत थी कि कत्ल करने के बाद कोई मुखबिर नहीं रह जाता यानि पुलिस का आदमी होने का डर खत्म हो जाता है इसीलिए किसी गैंग में शामिल होने के लिए या होने के बाद कत्ल और लूट दोनो करने होते थे। सो गब्बर सिंह ने अपनी पहली बाधा आसानी से पार कर ली थी।
गब्बर सिंह अपना खौंफ पैदा करने के लिए इलाके में लूट, डकैती, अपहरण और कत्ल की झड़ी लगा दी। चंबल में कूदने के कुछ दिनों बाद ही गब्बर के नाम का खौंफ का गुबार चंबल में चढ़ने लगा। मध्यप्रदेश पुलिस के रिकॉर्ड में गब्बर का नाम लगभग हर रोज गूंजने लगा। एक के बाद एक वारदात की कहानी चंबल में थाने दर थाने चलने लगी। गब्बर सिंह डकैत चंबल के उन चंद डकैतों में से एक था जिसे हालात ने नहीं बल्कि उसकी इच्छा ने डकैत बनाया था। लिहाजा गांव में नाम मात्र की दुश्मनी के बाद पहले अपने दुश्मनों के साथ मौत का खेल खेला और फिर गांव के दूसरे लोगो पर भी उसकी बंदूकें गरजने लगी। गब्बर को बेगुनाहों की मौत से खेलना अच्छा लगता था। और वो इस खेल में महारथ हासिल करना चाहता थाष लिहाजा कत्ल की एक झडी लगा दी।
बात-बेबात पर कत्ल करने की गब्बर की आदत से गैंग में भी दुश्मनी हो गई। कुछ ही महीने में गब्बर ने अपने पांच -छह साथियों को लेकर अपने गैंग से नाता तोड़ लिया और एक नया गैंग बना लिया। लूट से हासिल पैसे के सहारे हथियार भी हासिल हो चुके थे लिहाजा गब्बर सिंह ने चंबल में अपने आपको चंबल का महाराज कहलाना शुरू कर दिया। हर वारदात के बाद उसका गैंग पीड़ितों से नारे लगवाता था चंबल महाराज की जय। भिंड, मुरैना, ग्वालियर, धौलपुर, इटावा और आसपास के इलाकों में गब्बर ने वारदात करना शुरू कर दिया। गैंग भी बढ़ने लगा। और इसके साथ ही बढ़ने लगा गब्बर का आतंक भी।
चंबल में पचास का दशक बड़े गैंग के दशक का गैंग था। दर्जनों गैंग चंबल के इलाके में आम जनता की जिंदगी को नर्क बनाए हुए थे। ऐसे में गबरा उर्फ गब्बर एक नया बवाल बन कर पुलिस के सामने आ खड़ा हुआ। गब्बर ने अपने गैंग को एक मशीन में तब्दील कर दिया। मौत और लूट की मशीन। पुलिस रिकॉर्ड के मुताबिक अक्तूबर 1956 से दिसंबर 1956 के तीन महीनों के बीच एक के बाद एक कत्ल और डकैती की झड़ी लगा दी। दर्जनों डकैतियां और कत्ल के मामले थानों में दर्ज हो गए।
गब्बर गैंग ने दर्जनों कत्ल, डकैतियां, अपहरण और लूट की वारदात को अंजाम दिया। तीनों राज्यों की पुलिस उसके पीछे लग चुकी थी। पुलिस के ऊपर इस नये लेकिन खतरनाक गैंग को खत्म करने का दबाव बढ़ रहा था। लेकिन गब्बर पुलिस से बेखौफ था। पुलिस रिक़ॉर्ड के मुताबिक गब्बर के गैंग के साथ उस वक्त कई मुठभेड़े हुई। लेकिन हर मुठभेड़ में पुलिस के जवान या तो घायल हुए या फिर उन्हें अपनी जिंदगी खोनी पड़ी। एक के बाद एक एनकाउंटर से बच निकलने ने चंबल में गब्बर का रूतबा और बढ़ा दिया। गब्बर का हौसला भी इससे बढ़ता जा रहा था।
चंबल के दूसरे डकैतों की तरह से गब्बर भी देवी की पूजा करता था और इस मामले में काफी हद तक अंधविश्वासी था। चंबल के घने जंगलों में बने रतनगढ़ देवी के मंदिर में वो हफ्तों तक रहता और पूजा किया करता था। घने जंगलों में बेहद ऊंचाई पर बने हुए इस मंदिर तक पहुंचने में पुलिस को काफी मशक्कत करनी पड़ती थी और जब तक वो वहां पहुचंती थी गैंग फरार हो चुके होते थे। चंबल में गब्बर का नाम चलने लगा था। गांव के गांव उससे कांपने लगे थे। और डाकुओं की परंपरा के मुताबिक गब्बर ने ऐलान कर दिया कि वो मां शीतला देवी के मंदिर पर नगाड़ें चढ़ाने जाएंगा।
मां शीतला देवी का ये मंदिर डाकुओं के लिए काफी श्रद्रा का केन्द्र रहा है। गब्बर सिंह ने जब इस मंदिर पर घंटा और नगाड़़ा चढ़ाने का ऐलान किया तो इलाके में सनसनी फैल चुकी थी। क्योंकि गब्बर हर बार इस तरह के ऐलान के बाद कुछ नई वारदात करता था। और फिर एक दिन पूरे गैंग के साथ गब्बर सिंह दिन दहाड़ें शीतला मां के मंदिर पहुंच गया।
शीतला देवी के मंदिर पर घंटा चढ़ाने की घोषणा पुलिस तक भी पहुंची थी लेकिन पुलिस जब तक गब्बर सिंह को घेरती गब्बर वहां से फुर्र हो चुका था। शीतला देवी के इस मंदिर में रखे नगाड़े आज भी ये बताते है कि गब्बर का हौंसला और खौंफ दोनो कितनी ऊंचाई पर पहुंचे हुए थे। शीतला देवी के इस मंदिर में और भी डाकुओं के सिर झुकाने की कई दूसरी चीजें भी है। मंदिर में चमकती हुई पीीतल के दियों की ये झालर चंबल की पहली महिला डकैत पुतलीबाई ने चढ़ाई थी।
शीतला के मंदिर पर सरेआम नगाड़े चढ़ाने वाला गब्बर अब कोई छोटा मोटा पुलिस फाईल का भगौड़ा नहीं बल्कि चंबल में गब्बर सिंह नामी डकैत बन चुका था गब्बर की हवस सिर्फ नाम होने भर से खत्म नहीं होने वाली थी। गब्बर चाहता था कि सब डाकूओं से अलग उसका नाम किसी भी गांव में पहुंचते ही खौंफ की लहर बन जाएं। और तभी उसने एक नया फैंसला ले लिया एक ऐसा फैसला जिसने उसके खौंफ को चंबल की घाटी से बाहर तक फैला दिया। अब उसने फैसला किया कि वो शरीर के अंग काट कर मुखबिरों को सजा देंगा।
चंबल में गब्बर सिंह का नाम गूंज रहा था लेकिन गब्बर को तो और ही धुन थी। पुलिस के साथ एक के बाद एक एनकाउंटर में भले ही गब्बर अपने गैंग को साफ बचा कर ले जा रहा हो लेकिन उसका शक था कि गांव के लोग उसकी मुखबिरी करते है। और ये बात गब्बर को इतनी चुभी कि उसने सजा तय कर ली।
छिनरैठा गांव में एक दिन दहाड़ें गब्बर जा धमका। गांव के एक चौकीदार पर उसको शक था कि उसने पुलिस को मुखबिरी की है। गांव में पहुंच कर पहले चौकीदार को पकड़ा फिर उसके साथ एक और आदमी को और जब वो उनको गांव के बीच के कुएं पर ला रहा था तो रास्ते में बैठे दो दलितों को भी उसने पकड़ लिया। भरे गांव के बीच जो अब घरों में बंद खौंफजदा लोगो का श्मशान दिख रहा था उसने पहले तो लाठियों से पीट-पीट कर उन चारों का मरने हाल कर दिया। उसके बाद उसने कहा कि ला तेरी नाक देखता हूं कितनी बड़ी है और चार लोगों की नाक काट दी। नाक कटने की पीड़ा से बेहोश लोगो में से चौकीदार को गोलियों से भून कर गब्बर आराम से टहलता हुआ चल दिया। गांव के लोगो के घर तो खुल गए लेकिन किसी की हिम्मत नहीं हुई कि वो उन लोगो को अस्पताल तक पहुंचा दे। कोई गब्बर के कहर को न्यौतना नहीं चाहता था। किसी तरह सुबह तक पुलिस तक खबर गई और पूरी पुलिस पार्टी वहां पहुंची और दर्द से तड़प रहे लोगो को किसी तरह से हॉस्पीटल लेकर पहुंची। आज भी फिरेलाल जिंदा है तो उसके लगी हुई ेये नाक सरकार ने लगाई है लेकिन किसी को भी ये आसानी से पता चल जाता है कि नाक को किस तरह से काटा गया था।
एक ही गांव में चार लोगो की नाक काटने की घटना ने जैसे पूरे इलाके को दहला कर रख दिया। इससे पहले ऐसी घटना यदा-कदा ही चंबल के बीहड़ों में सुनी जाती थी लेकिन एक साथ चार लोगो की नाक काटने ने तो पुलिस के लिए भी मुसीबत खड़ी कर दी। लेकिन गब्बर सिंह की वहशत तो इससे जाग गई। और अब उसने छोटी सी घटना पर गांव वालों को सबक सिखाने का एक बेहतर तरीका भी मान लिया। किसी बात पर भी वो नाराज होता तो फिर गांव के गांव को सबक सिखाने लगता। गब्बर के शिकार लोगो की कहानियां आप उनके मुंह से सुन सकते है। और एक गांव में चौपाल पर बैठे हुए ये लोग जब अपनी आपबीती सुनाते है तो आपको शोले का वो सीन याद आ जाता है जब गब्बर का आदमी कालिया रामगढ के लोगो से कहता है कि गब्बर आप से क्या चाहता है सिर्फ थोड़ा सा अनाज और क्या। इस गांव के लोग उस कहानी से ज्यादा खौंफ आप को दिखा सकते है क्योंकि हकीकत में ये वो है जिन्होंने उस सीन को असली जिंदगी में जीेने वाले ये लोग किस तरह से अपनी कहानी कहते है।
अब आप इस गांव के बचे हुए लोगो की बात सुनलीजिए जिन्होंने असली गब्बर सिंह के कहर को सालों तक भुगता है।
गल्ला न देने पर नाक काट लिए और पूरे गांव पर जुर्माना किया। देशी घी, दूध,चावल और आटा। गांव में उस वक्त किसी किसी के घर इतना सामान होता था कि वो तीस आदमियों के गिरोह को इस तरह से खाना खिला दे। और एक दो बार देने के बाद जब गांव वालो ने एक बार कहा कि उनके पास कुछ नहीं है तो गब्बर सिंह ने अपना खौंफ दिखा दिया। पहले दो लोगो की गांव के बीचो-बीच नाक काट ली और उसके बाद बाकि गांव को लाठियों और बंदूकों की बटों से बेहोश होने तक पीटा। गांव वालों को माफी मिली तब जब उन्होंने सजा के बदले जुर्माना देने की हामी भरी।
जीं हां उस वक्त जब एक आदमी के एक दिन के काम की मजदूरी सिर्फ एक आना या दो आना होती थी उस वक्त इस गांव के लोगो ने गब्बर सिंह को 1100 रूपए चुकाने के लिए एक साल तक गांव ही छोड़ दिया और शहरों में मजदूरी कर पैसा जमा कर वीरान पड़े गांव में कदम रखे।
इस बीच गब्बर सिंह की एक तांत्रिक से मुलाकात हुई और उस तांत्रिक ने गब्बर सिंह को बताया कि अगर वो 116 लोगो की नाक काट कर दुर्गा मां को भेंट करता है तो फिर पुलिस की कोई गोली उसको छू नहीं पाएंगी। गब्बर का शौंक जूनुन में बदल गया। अब वो इलाके के इलाके की नाक काटने पर तुल गया।
यहां तक पुलिस के कई सिपाहियों की नाक भी गब्बर ने काट दी। एक सिपाही तो किसी गांव में वारंट की तामील कराने गया तो वो भी गब्बर सिंह के हत्थे चढ़ गया और गब्बर सिंह ने उसकी भी नाक काट ली। गब्बर सिंह ने एक गांव में एक साथ 11 लोगो की नाक काट ली। और अपनी पूजा पूरी करने में जुट गया।
गब्बर सिंह को मुखबिरों से सख्त चिढ़ थी। पुलिस से साथ हुई एक मुठभेड़ में उसे चंबल के एक गांव के लोगों पर शक हो गया कि उन्होंने उसके गैंग की मूवमेंट की खबर पुलिस को दी है बस इतना बहुत था गब्बर के लिए बेगुनाह लोगो पर कहर बरपाने के लिए। और एक दिन गब्बर दिन में ही उस गांव में जा पहुंचा। एक के बाद एक 21 लोगों को एक लाईन में खडा कर दिया गया। और डर में कांपते हुए लोग इससे पहले कि कुछ समझे 21 लोगों को गोलियों से भून दिया।गब्बर का आतंक बढ़ रहा था और प्रदेश की राजनीति भी गर्मा गई। 1957 में विपक्षी दलों ने गब्बर सिंह के शिकार दर्जनों लोगों को लेकर भोपाल विधानसभा के बाहर बड़ा प्रर्दशन किया। सरकार की नाक का सवाल बन गया गांव के बेगुनाह लोगो की नाक बचाना। मध्य प्रदेश सरकार ने पुलिस इंस्पेक्टर जनरल को भिंड में कैंप करने का आदेश दिया ताकि गब्बर के गैंग को खत्म किया जा सके। पुलिस अधिकारियों ने जिले के तमाम पुलिस अधिकारियों की मीटिंग्स बुलाकर इस काम के लिए किसी अधिकारी से स्वेच्छा से आगे आने को कहा। और फिर ये जिम्मेदारी दी गई युवा डिप्टी एसपी राजेन्द्र प्रसाद मोदी को आर पी मोदी कुछ दिन पहले ही चंबल की दस्यु सुंदरी पुतलीबाई का एनकाउंटर कर चर्चाओं में चुके थे। आर पी मोदी के लिए गब्बर का खात्मा करना टेढ़ी खीर साबित हो रहा था। क्योंकि गब्बर सिंह का खौंफ इतना हो चुका था कि कोई आदमी गब्बर सिंह के बारे में खबर देना तो दूर की बात है नाम भी जुबां पर नहीं लाना चाहता था। पुलिस के सारे प्रयास लगातार पानी में मिलते जा रहे थे। दो साल का वक्त गुजर चुका था लेकिन पुलिस गब्बर तो दूर की बात है गब्बर के बारे में कोई खबर भी हासिल नहीं कर पा रही थी। गब्बर सिंह पर उस वक्त तीन राज्य इनाम घोषित कर चुके थे। लेकिन चंबल घाटी में किसी को ईनाम का लालच नहीं बल्कि अपनी जान के लाले पड़े हुए थे। और तभी गोहद थाने में बैठे हुए मोदी ने एक ऐसा काम किया कि उनके लिए गब्बर तक पहुंचने का रास्ता मिल गया।गोहद सड़क के सामने घुमपुरा गांव में एक झोपड़ी से आग की लपटे दिखी। मोदी मौका ए वारदात पर पहुंचे। पुलिस ने आग पर काबू पा लिया तभी पता चला कि एक पांच साल का बच्चा दिख नहीं रहा है शायद वो झोंपड़ी में ही फंस गया। इससे पहले कि कोई सोचे मोदी खुद झोंपड़ी में घुसे और उस पांच साल के बच्चें को बाहर निकाल लाएं। बच्चा आग में झुलसा हुआ था। मोदी ने अपनी जीप और कुछ पैसे बच्चें के बाप को देकर फौरन अस्पताल भेज दिया। बच्चे के बाप का नाम था रामचरण।गोहद थाने और डांग गांव के बीच में दूरी बहुत नहीं है। लेकिन डांग का गब्बर और गोहद में मध्यप्रदेश पुलिस दोनो के बीच इतनी दूरी हो चुकी थी कि गब्बर तक पुलिस की गोली पहुंच ही नहीं पा रही थी। ऐसे में झोंपड़ी के जलने के 25 दिन बाद रामचरण आ र पी मोदी के पास गोहद थाने पहुंचा और उसने मोदी को कहा कि वो मोदी की वर्दी पर मैडल सजा कर अहसान उतारना चाहता है। मोदी हैरान थे कि रामचरण क्या करना चाहता है इस पर रामचरण ने कहा कि वो गब्बर का पता देंगा।
रामचरण ने मोदी से कहा कि पहले वो रात में उसके साथ डांग गांव चले। रात में मोदी और रामचरण डांग पहुंचे फिर रामचरण मोदी को लेकर हाईवे और वहां से घूम का पुरा जिसे तालाब भी कहा जाता था पहुंचे। रामचरण ने वो भिंड हाईवे के इस तरफ डांग और दूसरी तरफ घूमकापुरा के बीच की वो जगह दिखा दी जहां गब्बर सिंह अक्सर रहा करता था। मोदी अपने दिमाग में नक्शा बना चुके थे , और जाल तैयार हो चुका था। बस अब शिकार का इतंजार था।
गोहद थाने में 13 नवंबर 1959 का दिन। अभी सूरज सही से निकला भी नहीं था कि आर पी मोदी को एक मेहमान ने चौंका दिया। रामचरण पहुंच चुका था और उसने पुलिस वालों के बीच में चुपचाप मोदी को इशारा कर दिया कि पूरा गैंग ठिकाने पर पहुंच चुका है। मोदी उसको अलग ले गए और डिटेल्स पूछी। रामचरण ने कहा कि पूरा गैंग पहुंच चुका है, पूरे गैंग को खत्म कर दो। क्योंकि चंबल में अगर गैंग का एक आदमी भी बचता है तो फिर वो मुखबिर के पूरे परिवार को खत्म करता है।सुबह 10 बजे तक गोहद थाने में तीन सौ हथियारबंद पुलिस वाले पहुंच चुके थे। प्लान बना तीन तरफ से घेराबंदी कर चौथी तरफ से सर्च पार्टी को आगे भेजा जाएं। मोदी ने किसी पुलिस वाले को ये पता नहीं दिया कि आखिर जाना कहां है और निशाना कौन है
मोदी और तीस आदमी सर्च पार्टी के तौर पर हाईवे की और से मौके की तरफ गए। दूसरी और से डिप्टी एसपी माधौं सिंह ने अपनी पार्टी लगा दी थी। पार्टी आगे बढ़ी तो देखा कि गैंग के लोग जमीन पर रैंगकर दूसरी तरफ से निकलने की कोशिश में है लेकिन वहां भी पुलिस मौजूद थी। लिहाजा गैंग ने फायरिंग शुरू कर दी।
11 लोगों का गैंग पूरी ताकत से फायरिंग कर रहा था। मुठभेड़ सुबह दस बजे से शुरू हो चुकी थी। गैंग के साथ कुछ अपह्त लोग भी। दोनो तरफ से फायरिंग हो रही थी। दिन का समय था आसपास के गांवों के लोग मौके पर पहुंच चुके थे। डकैत फायरिंग कर जिस तरफ से भी बच निकलने की कोशिश करते उसी तरफ से पुलिस की हैवी फायरिंग शुरू हो जाती। अब डाकुओं ने एक गड्डे मे पोजीशन ले ली और पुलिस के साथ आखिरी फायरिंग शुरू कर दी। सुबह से चल रही मुठभेड़ शाम तक जारी थी। धीरे-धीरे अंधेरा छा रहा था और अंधेरे का लाभ उठा सकते है। लेकिन मोदी गब्बर को खत्म करने का ये आखिरी मौका खोना नहीं चाहते थे लिहाजा उन्होंने एक बड़ा फैसला ले लिया।
मोदी ने अपने पुलिस वालों से कहा कि वो सीधा हमाल करने जा रहे है अगर कोई उनके साथ इच्छा से जाना चाहे तो चले। इस पर 11 गोरखा सिपाही जो पुतलीबाई के एनकाउंटर में भी साथ थे आगे निकल आए। मोदी गड्डे की तरफ बढ़े लेकिन डाकुओं की ओर से हैवी फायरिंग शुरू हुआ। मोदी ने हैंड ग्रेनेड से गड्डे में हमला किया। कुछ डाकुओं के मरने से फायरिंग कम हो गई लेकिन तब भी जैसे ही पुलिस ने आगे बढ़ना शुरू किया फिर एक डाकू की मार्कथ्री गरज उठी। इस पर मोदी ने फिर से दो हैंड ग्रेनेड गड़्डे में फेंके और फिर घायल डाकुओं पर लाईटमशीनगन से हमला बोल दिया।
कुछ देर में जब पुलिस पार्टी गड़्े पर पहुंची तो देखा कि ग्रेनेड्र से मारे गए डाकुओं के बीच में गब्बर सिंह अपनी आखिरी सांसें गिन रहा था। उसका निचला जबड़ा ग्रेनेड से उड़ चुका था। कुछ ही देर में जब तलाशी पूरी हुई तो 11 डाकुओं का पूरा गैंग खत्म हो चुका था लेकिन इस ऑपरेशन में चार पकड़ में से दो पकड़ भी गोलियों की जद में आकर दम तोड़ चुकी थी। उधर गब्बर की मौत की खबर पक्की होने के साथ ही हाईवे पर खड़ी हजारों की भीड़ ने गब्बर सिंह की मौत की खुशी मनानी शुरू कर दी थी। ये चंबल के सबसे खूंखार डाकू का अंत था लेकिन आखिरी डाकू का नहीं।
सिनेमा के पर्दे पर गब्बर की हंसी आज भी किसी इंसान का दिल दहला देती है। शोले का गब्बर हिंदी फिल्मों में खौंफ और आतंक का नाम बन गया। ऐसा खलनायक जिसका किरदार हिंदुस्तान के गांव गांव में एक किस्सा बन गया। लेकिन क्या आपको कभी लगा कि फिल्म का ये गब्बर नकली है। जीं हां शोले का गब्बर नकली गब्बर है। क्योंकि सिनेमा के पर्दे पर दिखने वाला किरदार एक असली डाकू गब्बर सिंह की कॉपी भर है। ऐसा डाकू जिसकी कहानी ने हिंदी फिल्म जगत में शोले भर दिये।
फिल्म के खत्म होते ही खौंफ की निशानियां भी खत्म हो जाती है। लेकिन असली गब्बर के आतंक के निशान आज भी चंबल के बीहड़ों में बसे हुए गांवों में मिल जाते है। छिनसरेठा गांव। चंबल के बीहड़ों में बसे हुए सैकड़ों गांवों में से एक है। गब्बरसिंह की कहानी तो लगभग छह दशक पहले ही खत्म हो चुकी है लेकिन उस कहानी का खौंफ आज तक इस गांव के बूढ़ें कंधें ढो रहे है। फिरेलाल.... 90 साल की उम्र का ये बुजुर्ग अपने आखिरी दिन गिन रहा है लेकिन वो 61 साल पहले का वो दिन आज भी उसको ऐसे ही याद है जैसे वो कल की ही बात हो।
61 साल एक ऐसी जिंदगी जीना सिर्फ वही जान सकता है जिसके साथ गुजरी हो।लेकिन ये अकेला फिरे लाल नहीं है। चंबल के दर्जनों गांव चबंल के गब्बर के आतंक की कहानी को आज भी सीने में छिपाएं हुए फिरते है। अजनबी ने गब्बर का नाम लिया नहीं कि पुराने घाव रिसने लगते है।
लेकिन ये बाते भी शायद आपको कहानी लगे तो फिर आप ये जान लीजिए कि हिंदुस्तान के सबसे सफल पुलिस अधिकारियों में से एक के एफ रूस्तमजी ने गब्बर के मरने की खबर को हिंदुस्तान के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को उनके सत्तरवें जन्मदिन पर मध्यप्रदेश पुलिस की ओर से सबसे बड़े तोहफे के तौर पर पेश किया था।
गब्बर का शौंक सिर्फ मौत बांटना और बेगुनाह लोगो की नाक काटना था। इलाके में गब्बर से पहले भी बहुत डाकू हुए और गब्बर के बाद भी चंबल में डाकुओं का पैदा होना जारी रहा लेकिन चंबल का सबसे बड़ा खौंफ और आतंक सिर्फ गब्बर के नाम रहा। ऐसा नाम कि हिंदी फिल्मों में भी उसका नाम देखने वालों की रीढ़ में पानी ला देता था। चंबल में जब गब्बर की कहानी खत्म हुई तब तक गब्बर खून और लाशों की ऐसी इबारत लिख गया कि उसके मरने के दशकों बाद भी लोग उसके नाम से कांप जाते है। इस बार असली गब्बर की कहानी।
चंबल। दूर तक फैले बीहड़ों में भिंड शहर। चंबल में डाकुओं के ज्यादातर किस्सों में भिंड बार बार घूम कर आता है। इसी के गोहद थाने से कुछ किलोमीटर दूर चलने के बाद ही आपको एक सड़क डांग ले जाती है। ऊबड़-खाबड़ सड़क जैसे गांव का मिजाज का पता बता देती हो। इसी गांव में एक घर तक आपको लिए चलते है। ये घर आपको चंबल के सबसे बड़े आतंक का पता देगा। आप घर पर तो है लेकिन घर की जगह अब कोई पत्थर भी नहीं बचा है।
ये घर गब्बर सिंह का घर है। गुर्जरों के इस गांव में गब्बर का जन्म 1926 में हुआ था। गब्बर के पिता के पास बेहद कम जमीन थी। गांव में कम जमीन आपके रूतबे को भी कम कर देती है। गब्बर का परिवार पेट पालने के लिए मजदूरी किया करता था। इलाके में आज भी पत्थर निकाला जा रहा है वैद्य या अवैद्य दोनो तरीके से। गब्बर का परिवार भी गांव में पत्थर ढोने का काम करता था। गब्बर शरीर से काफी मजबूत था। गांव में मजदूरी के साथ ही शाम को अखाड़े में जोर -आजमाईश करता था। और शरीर की मजबूती के घमंड में गब्बर गांव वालों से एक से एक शर्त लगाया करता था और ऐसे ही शर्त के दौरान गब्बर की जिंदगी ने अपनी राह बदल ली। बचपन में गब्बर आवारा था। गांव में खेती-किसानी से उसे कोई मतलब नहीं था। लेकिन गब्बर के बाप के एक अपराध के बाद पंचायत ने खेती की जमीन ही छीन ली। इसके बाद आवारा गब्बर के सामने रोजी रोटी का संकट खड़ा हो गया। आप जानते ही हैं.. ऐसे लोगों का बांहें खोलकर स्वागत करने के लिए तैयार रहता था चंबल.. बस यहीं से शुरू हो गया गब्बर के चंबल का सफर।
गब्बर ने गांव में रहने वाले रखीश्वरों से दुश्मनी में कत्ल कर दिए लेकिन गब्बर के डकैत बनने की कहानी पहले ही शुरू हो चुकी थी। दरअसल चंबल के 40 और पचास के दशक में डाकुओं का बड़ा आतंक था और इलाके में लोग डर से डाकुओं की इज्जत करते थे। इसी दौरान एक बार गब्बर अपने डाकू रिश्तेदारों से मिला। उनका रौब-दाब देखकर ही गब्बर को डाकू बनने की धुन सवार हो गई और जब वो गांव में लौटा तो बदला हुआ गब्बर था जो हर बात पर मौत बांटने की धमकी देने लगा।
इसी बीच गब्बर के पिता रघुबीर सिंह को आपसी झगड़े में सजा हो गई और गांव में भी उसका हुक्का पानी बंद हो गया। तो गब्बर ने फैसला कर लिया कि वो अब इस ईलाके में ईज्ज्त हासिल करके ही दम लेगा। लेकिन ईज्जत हासिल करने का जो तरीका उसने चुना वो बेहद खतरनाक था और उसका रास्ता चंबल के बीहड़ों से जा मिला था। गब्बर ने एक दिन छोटी सी बात पर गांव में रखीश्वरों के परिवार वालों को गोलियों से भून दिया। डांग में अपने दुश्मनों का कत्ल कर गब्बर चंबल में कूद गया। पहली बार में दो लोग को मौत के घाट उतारने की खबर चंबल में पहुंच चुकी थी और उसको कल्याण सिंह गुर्जर के गैंग में एंट्री मिल गई। चंबल में कहावत थी कि कत्ल करने के बाद कोई मुखबिर नहीं रह जाता यानि पुलिस का आदमी होने का डर खत्म हो जाता है इसीलिए किसी गैंग में शामिल होने के लिए या होने के बाद कत्ल और लूट दोनो करने होते थे। सो गब्बर सिंह ने अपनी पहली बाधा आसानी से पार कर ली थी।
गब्बर सिंह अपना खौंफ पैदा करने के लिए इलाके में लूट, डकैती, अपहरण और कत्ल की झड़ी लगा दी। चंबल में कूदने के कुछ दिनों बाद ही गब्बर के नाम का खौंफ का गुबार चंबल में चढ़ने लगा। मध्यप्रदेश पुलिस के रिकॉर्ड में गब्बर का नाम लगभग हर रोज गूंजने लगा। एक के बाद एक वारदात की कहानी चंबल में थाने दर थाने चलने लगी। गब्बर सिंह डकैत चंबल के उन चंद डकैतों में से एक था जिसे हालात ने नहीं बल्कि उसकी इच्छा ने डकैत बनाया था। लिहाजा गांव में नाम मात्र की दुश्मनी के बाद पहले अपने दुश्मनों के साथ मौत का खेल खेला और फिर गांव के दूसरे लोगो पर भी उसकी बंदूकें गरजने लगी। गब्बर को बेगुनाहों की मौत से खेलना अच्छा लगता था। और वो इस खेल में महारथ हासिल करना चाहता थाष लिहाजा कत्ल की एक झडी लगा दी।
बात-बेबात पर कत्ल करने की गब्बर की आदत से गैंग में भी दुश्मनी हो गई। कुछ ही महीने में गब्बर ने अपने पांच -छह साथियों को लेकर अपने गैंग से नाता तोड़ लिया और एक नया गैंग बना लिया। लूट से हासिल पैसे के सहारे हथियार भी हासिल हो चुके थे लिहाजा गब्बर सिंह ने चंबल में अपने आपको चंबल का महाराज कहलाना शुरू कर दिया। हर वारदात के बाद उसका गैंग पीड़ितों से नारे लगवाता था चंबल महाराज की जय। भिंड, मुरैना, ग्वालियर, धौलपुर, इटावा और आसपास के इलाकों में गब्बर ने वारदात करना शुरू कर दिया। गैंग भी बढ़ने लगा। और इसके साथ ही बढ़ने लगा गब्बर का आतंक भी।
चंबल में पचास का दशक बड़े गैंग के दशक का गैंग था। दर्जनों गैंग चंबल के इलाके में आम जनता की जिंदगी को नर्क बनाए हुए थे। ऐसे में गबरा उर्फ गब्बर एक नया बवाल बन कर पुलिस के सामने आ खड़ा हुआ। गब्बर ने अपने गैंग को एक मशीन में तब्दील कर दिया। मौत और लूट की मशीन। पुलिस रिकॉर्ड के मुताबिक अक्तूबर 1956 से दिसंबर 1956 के तीन महीनों के बीच एक के बाद एक कत्ल और डकैती की झड़ी लगा दी। दर्जनों डकैतियां और कत्ल के मामले थानों में दर्ज हो गए।
गब्बर गैंग ने दर्जनों कत्ल, डकैतियां, अपहरण और लूट की वारदात को अंजाम दिया। तीनों राज्यों की पुलिस उसके पीछे लग चुकी थी। पुलिस के ऊपर इस नये लेकिन खतरनाक गैंग को खत्म करने का दबाव बढ़ रहा था। लेकिन गब्बर पुलिस से बेखौफ था। पुलिस रिक़ॉर्ड के मुताबिक गब्बर के गैंग के साथ उस वक्त कई मुठभेड़े हुई। लेकिन हर मुठभेड़ में पुलिस के जवान या तो घायल हुए या फिर उन्हें अपनी जिंदगी खोनी पड़ी। एक के बाद एक एनकाउंटर से बच निकलने ने चंबल में गब्बर का रूतबा और बढ़ा दिया। गब्बर का हौसला भी इससे बढ़ता जा रहा था।
चंबल के दूसरे डकैतों की तरह से गब्बर भी देवी की पूजा करता था और इस मामले में काफी हद तक अंधविश्वासी था। चंबल के घने जंगलों में बने रतनगढ़ देवी के मंदिर में वो हफ्तों तक रहता और पूजा किया करता था। घने जंगलों में बेहद ऊंचाई पर बने हुए इस मंदिर तक पहुंचने में पुलिस को काफी मशक्कत करनी पड़ती थी और जब तक वो वहां पहुचंती थी गैंग फरार हो चुके होते थे। चंबल में गब्बर का नाम चलने लगा था। गांव के गांव उससे कांपने लगे थे। और डाकुओं की परंपरा के मुताबिक गब्बर ने ऐलान कर दिया कि वो मां शीतला देवी के मंदिर पर नगाड़ें चढ़ाने जाएंगा।
मां शीतला देवी का ये मंदिर डाकुओं के लिए काफी श्रद्रा का केन्द्र रहा है। गब्बर सिंह ने जब इस मंदिर पर घंटा और नगाड़़ा चढ़ाने का ऐलान किया तो इलाके में सनसनी फैल चुकी थी। क्योंकि गब्बर हर बार इस तरह के ऐलान के बाद कुछ नई वारदात करता था। और फिर एक दिन पूरे गैंग के साथ गब्बर सिंह दिन दहाड़ें शीतला मां के मंदिर पहुंच गया।
शीतला देवी के मंदिर पर घंटा चढ़ाने की घोषणा पुलिस तक भी पहुंची थी लेकिन पुलिस जब तक गब्बर सिंह को घेरती गब्बर वहां से फुर्र हो चुका था। शीतला देवी के इस मंदिर में रखे नगाड़े आज भी ये बताते है कि गब्बर का हौंसला और खौंफ दोनो कितनी ऊंचाई पर पहुंचे हुए थे। शीतला देवी के इस मंदिर में और भी डाकुओं के सिर झुकाने की कई दूसरी चीजें भी है। मंदिर में चमकती हुई पीीतल के दियों की ये झालर चंबल की पहली महिला डकैत पुतलीबाई ने चढ़ाई थी।
शीतला के मंदिर पर सरेआम नगाड़े चढ़ाने वाला गब्बर अब कोई छोटा मोटा पुलिस फाईल का भगौड़ा नहीं बल्कि चंबल में गब्बर सिंह नामी डकैत बन चुका था गब्बर की हवस सिर्फ नाम होने भर से खत्म नहीं होने वाली थी। गब्बर चाहता था कि सब डाकूओं से अलग उसका नाम किसी भी गांव में पहुंचते ही खौंफ की लहर बन जाएं। और तभी उसने एक नया फैंसला ले लिया एक ऐसा फैसला जिसने उसके खौंफ को चंबल की घाटी से बाहर तक फैला दिया। अब उसने फैसला किया कि वो शरीर के अंग काट कर मुखबिरों को सजा देंगा।
चंबल में गब्बर सिंह का नाम गूंज रहा था लेकिन गब्बर को तो और ही धुन थी। पुलिस के साथ एक के बाद एक एनकाउंटर में भले ही गब्बर अपने गैंग को साफ बचा कर ले जा रहा हो लेकिन उसका शक था कि गांव के लोग उसकी मुखबिरी करते है। और ये बात गब्बर को इतनी चुभी कि उसने सजा तय कर ली।
छिनरैठा गांव में एक दिन दहाड़ें गब्बर जा धमका। गांव के एक चौकीदार पर उसको शक था कि उसने पुलिस को मुखबिरी की है। गांव में पहुंच कर पहले चौकीदार को पकड़ा फिर उसके साथ एक और आदमी को और जब वो उनको गांव के बीच के कुएं पर ला रहा था तो रास्ते में बैठे दो दलितों को भी उसने पकड़ लिया। भरे गांव के बीच जो अब घरों में बंद खौंफजदा लोगो का श्मशान दिख रहा था उसने पहले तो लाठियों से पीट-पीट कर उन चारों का मरने हाल कर दिया। उसके बाद उसने कहा कि ला तेरी नाक देखता हूं कितनी बड़ी है और चार लोगों की नाक काट दी। नाक कटने की पीड़ा से बेहोश लोगो में से चौकीदार को गोलियों से भून कर गब्बर आराम से टहलता हुआ चल दिया। गांव के लोगो के घर तो खुल गए लेकिन किसी की हिम्मत नहीं हुई कि वो उन लोगो को अस्पताल तक पहुंचा दे। कोई गब्बर के कहर को न्यौतना नहीं चाहता था। किसी तरह सुबह तक पुलिस तक खबर गई और पूरी पुलिस पार्टी वहां पहुंची और दर्द से तड़प रहे लोगो को किसी तरह से हॉस्पीटल लेकर पहुंची। आज भी फिरेलाल जिंदा है तो उसके लगी हुई ेये नाक सरकार ने लगाई है लेकिन किसी को भी ये आसानी से पता चल जाता है कि नाक को किस तरह से काटा गया था।
एक ही गांव में चार लोगो की नाक काटने की घटना ने जैसे पूरे इलाके को दहला कर रख दिया। इससे पहले ऐसी घटना यदा-कदा ही चंबल के बीहड़ों में सुनी जाती थी लेकिन एक साथ चार लोगो की नाक काटने ने तो पुलिस के लिए भी मुसीबत खड़ी कर दी। लेकिन गब्बर सिंह की वहशत तो इससे जाग गई। और अब उसने छोटी सी घटना पर गांव वालों को सबक सिखाने का एक बेहतर तरीका भी मान लिया। किसी बात पर भी वो नाराज होता तो फिर गांव के गांव को सबक सिखाने लगता। गब्बर के शिकार लोगो की कहानियां आप उनके मुंह से सुन सकते है। और एक गांव में चौपाल पर बैठे हुए ये लोग जब अपनी आपबीती सुनाते है तो आपको शोले का वो सीन याद आ जाता है जब गब्बर का आदमी कालिया रामगढ के लोगो से कहता है कि गब्बर आप से क्या चाहता है सिर्फ थोड़ा सा अनाज और क्या। इस गांव के लोग उस कहानी से ज्यादा खौंफ आप को दिखा सकते है क्योंकि हकीकत में ये वो है जिन्होंने उस सीन को असली जिंदगी में जीेने वाले ये लोग किस तरह से अपनी कहानी कहते है।
अब आप इस गांव के बचे हुए लोगो की बात सुनलीजिए जिन्होंने असली गब्बर सिंह के कहर को सालों तक भुगता है।
गल्ला न देने पर नाक काट लिए और पूरे गांव पर जुर्माना किया। देशी घी, दूध,चावल और आटा। गांव में उस वक्त किसी किसी के घर इतना सामान होता था कि वो तीस आदमियों के गिरोह को इस तरह से खाना खिला दे। और एक दो बार देने के बाद जब गांव वालो ने एक बार कहा कि उनके पास कुछ नहीं है तो गब्बर सिंह ने अपना खौंफ दिखा दिया। पहले दो लोगो की गांव के बीचो-बीच नाक काट ली और उसके बाद बाकि गांव को लाठियों और बंदूकों की बटों से बेहोश होने तक पीटा। गांव वालों को माफी मिली तब जब उन्होंने सजा के बदले जुर्माना देने की हामी भरी।
जीं हां उस वक्त जब एक आदमी के एक दिन के काम की मजदूरी सिर्फ एक आना या दो आना होती थी उस वक्त इस गांव के लोगो ने गब्बर सिंह को 1100 रूपए चुकाने के लिए एक साल तक गांव ही छोड़ दिया और शहरों में मजदूरी कर पैसा जमा कर वीरान पड़े गांव में कदम रखे।
इस बीच गब्बर सिंह की एक तांत्रिक से मुलाकात हुई और उस तांत्रिक ने गब्बर सिंह को बताया कि अगर वो 116 लोगो की नाक काट कर दुर्गा मां को भेंट करता है तो फिर पुलिस की कोई गोली उसको छू नहीं पाएंगी। गब्बर का शौंक जूनुन में बदल गया। अब वो इलाके के इलाके की नाक काटने पर तुल गया।
यहां तक पुलिस के कई सिपाहियों की नाक भी गब्बर ने काट दी। एक सिपाही तो किसी गांव में वारंट की तामील कराने गया तो वो भी गब्बर सिंह के हत्थे चढ़ गया और गब्बर सिंह ने उसकी भी नाक काट ली। गब्बर सिंह ने एक गांव में एक साथ 11 लोगो की नाक काट ली। और अपनी पूजा पूरी करने में जुट गया।
गब्बर सिंह को मुखबिरों से सख्त चिढ़ थी। पुलिस से साथ हुई एक मुठभेड़ में उसे चंबल के एक गांव के लोगों पर शक हो गया कि उन्होंने उसके गैंग की मूवमेंट की खबर पुलिस को दी है बस इतना बहुत था गब्बर के लिए बेगुनाह लोगो पर कहर बरपाने के लिए। और एक दिन गब्बर दिन में ही उस गांव में जा पहुंचा। एक के बाद एक 21 लोगों को एक लाईन में खडा कर दिया गया। और डर में कांपते हुए लोग इससे पहले कि कुछ समझे 21 लोगों को गोलियों से भून दिया।गब्बर का आतंक बढ़ रहा था और प्रदेश की राजनीति भी गर्मा गई। 1957 में विपक्षी दलों ने गब्बर सिंह के शिकार दर्जनों लोगों को लेकर भोपाल विधानसभा के बाहर बड़ा प्रर्दशन किया। सरकार की नाक का सवाल बन गया गांव के बेगुनाह लोगो की नाक बचाना। मध्य प्रदेश सरकार ने पुलिस इंस्पेक्टर जनरल को भिंड में कैंप करने का आदेश दिया ताकि गब्बर के गैंग को खत्म किया जा सके। पुलिस अधिकारियों ने जिले के तमाम पुलिस अधिकारियों की मीटिंग्स बुलाकर इस काम के लिए किसी अधिकारी से स्वेच्छा से आगे आने को कहा। और फिर ये जिम्मेदारी दी गई युवा डिप्टी एसपी राजेन्द्र प्रसाद मोदी को आर पी मोदी कुछ दिन पहले ही चंबल की दस्यु सुंदरी पुतलीबाई का एनकाउंटर कर चर्चाओं में चुके थे। आर पी मोदी के लिए गब्बर का खात्मा करना टेढ़ी खीर साबित हो रहा था। क्योंकि गब्बर सिंह का खौंफ इतना हो चुका था कि कोई आदमी गब्बर सिंह के बारे में खबर देना तो दूर की बात है नाम भी जुबां पर नहीं लाना चाहता था। पुलिस के सारे प्रयास लगातार पानी में मिलते जा रहे थे। दो साल का वक्त गुजर चुका था लेकिन पुलिस गब्बर तो दूर की बात है गब्बर के बारे में कोई खबर भी हासिल नहीं कर पा रही थी। गब्बर सिंह पर उस वक्त तीन राज्य इनाम घोषित कर चुके थे। लेकिन चंबल घाटी में किसी को ईनाम का लालच नहीं बल्कि अपनी जान के लाले पड़े हुए थे। और तभी गोहद थाने में बैठे हुए मोदी ने एक ऐसा काम किया कि उनके लिए गब्बर तक पहुंचने का रास्ता मिल गया।गोहद सड़क के सामने घुमपुरा गांव में एक झोपड़ी से आग की लपटे दिखी। मोदी मौका ए वारदात पर पहुंचे। पुलिस ने आग पर काबू पा लिया तभी पता चला कि एक पांच साल का बच्चा दिख नहीं रहा है शायद वो झोंपड़ी में ही फंस गया। इससे पहले कि कोई सोचे मोदी खुद झोंपड़ी में घुसे और उस पांच साल के बच्चें को बाहर निकाल लाएं। बच्चा आग में झुलसा हुआ था। मोदी ने अपनी जीप और कुछ पैसे बच्चें के बाप को देकर फौरन अस्पताल भेज दिया। बच्चे के बाप का नाम था रामचरण।गोहद थाने और डांग गांव के बीच में दूरी बहुत नहीं है। लेकिन डांग का गब्बर और गोहद में मध्यप्रदेश पुलिस दोनो के बीच इतनी दूरी हो चुकी थी कि गब्बर तक पुलिस की गोली पहुंच ही नहीं पा रही थी। ऐसे में झोंपड़ी के जलने के 25 दिन बाद रामचरण आ र पी मोदी के पास गोहद थाने पहुंचा और उसने मोदी को कहा कि वो मोदी की वर्दी पर मैडल सजा कर अहसान उतारना चाहता है। मोदी हैरान थे कि रामचरण क्या करना चाहता है इस पर रामचरण ने कहा कि वो गब्बर का पता देंगा।
रामचरण ने मोदी से कहा कि पहले वो रात में उसके साथ डांग गांव चले। रात में मोदी और रामचरण डांग पहुंचे फिर रामचरण मोदी को लेकर हाईवे और वहां से घूम का पुरा जिसे तालाब भी कहा जाता था पहुंचे। रामचरण ने वो भिंड हाईवे के इस तरफ डांग और दूसरी तरफ घूमकापुरा के बीच की वो जगह दिखा दी जहां गब्बर सिंह अक्सर रहा करता था। मोदी अपने दिमाग में नक्शा बना चुके थे , और जाल तैयार हो चुका था। बस अब शिकार का इतंजार था।
गोहद थाने में 13 नवंबर 1959 का दिन। अभी सूरज सही से निकला भी नहीं था कि आर पी मोदी को एक मेहमान ने चौंका दिया। रामचरण पहुंच चुका था और उसने पुलिस वालों के बीच में चुपचाप मोदी को इशारा कर दिया कि पूरा गैंग ठिकाने पर पहुंच चुका है। मोदी उसको अलग ले गए और डिटेल्स पूछी। रामचरण ने कहा कि पूरा गैंग पहुंच चुका है, पूरे गैंग को खत्म कर दो। क्योंकि चंबल में अगर गैंग का एक आदमी भी बचता है तो फिर वो मुखबिर के पूरे परिवार को खत्म करता है।सुबह 10 बजे तक गोहद थाने में तीन सौ हथियारबंद पुलिस वाले पहुंच चुके थे। प्लान बना तीन तरफ से घेराबंदी कर चौथी तरफ से सर्च पार्टी को आगे भेजा जाएं। मोदी ने किसी पुलिस वाले को ये पता नहीं दिया कि आखिर जाना कहां है और निशाना कौन है
मोदी और तीस आदमी सर्च पार्टी के तौर पर हाईवे की और से मौके की तरफ गए। दूसरी और से डिप्टी एसपी माधौं सिंह ने अपनी पार्टी लगा दी थी। पार्टी आगे बढ़ी तो देखा कि गैंग के लोग जमीन पर रैंगकर दूसरी तरफ से निकलने की कोशिश में है लेकिन वहां भी पुलिस मौजूद थी। लिहाजा गैंग ने फायरिंग शुरू कर दी।
11 लोगों का गैंग पूरी ताकत से फायरिंग कर रहा था। मुठभेड़ सुबह दस बजे से शुरू हो चुकी थी। गैंग के साथ कुछ अपह्त लोग भी। दोनो तरफ से फायरिंग हो रही थी। दिन का समय था आसपास के गांवों के लोग मौके पर पहुंच चुके थे। डकैत फायरिंग कर जिस तरफ से भी बच निकलने की कोशिश करते उसी तरफ से पुलिस की हैवी फायरिंग शुरू हो जाती। अब डाकुओं ने एक गड्डे मे पोजीशन ले ली और पुलिस के साथ आखिरी फायरिंग शुरू कर दी। सुबह से चल रही मुठभेड़ शाम तक जारी थी। धीरे-धीरे अंधेरा छा रहा था और अंधेरे का लाभ उठा सकते है। लेकिन मोदी गब्बर को खत्म करने का ये आखिरी मौका खोना नहीं चाहते थे लिहाजा उन्होंने एक बड़ा फैसला ले लिया।
मोदी ने अपने पुलिस वालों से कहा कि वो सीधा हमाल करने जा रहे है अगर कोई उनके साथ इच्छा से जाना चाहे तो चले। इस पर 11 गोरखा सिपाही जो पुतलीबाई के एनकाउंटर में भी साथ थे आगे निकल आए। मोदी गड्डे की तरफ बढ़े लेकिन डाकुओं की ओर से हैवी फायरिंग शुरू हुआ। मोदी ने हैंड ग्रेनेड से गड्डे में हमला किया। कुछ डाकुओं के मरने से फायरिंग कम हो गई लेकिन तब भी जैसे ही पुलिस ने आगे बढ़ना शुरू किया फिर एक डाकू की मार्कथ्री गरज उठी। इस पर मोदी ने फिर से दो हैंड ग्रेनेड गड़्डे में फेंके और फिर घायल डाकुओं पर लाईटमशीनगन से हमला बोल दिया।
कुछ देर में जब पुलिस पार्टी गड़्े पर पहुंची तो देखा कि ग्रेनेड्र से मारे गए डाकुओं के बीच में गब्बर सिंह अपनी आखिरी सांसें गिन रहा था। उसका निचला जबड़ा ग्रेनेड से उड़ चुका था। कुछ ही देर में जब तलाशी पूरी हुई तो 11 डाकुओं का पूरा गैंग खत्म हो चुका था लेकिन इस ऑपरेशन में चार पकड़ में से दो पकड़ भी गोलियों की जद में आकर दम तोड़ चुकी थी। उधर गब्बर की मौत की खबर पक्की होने के साथ ही हाईवे पर खड़ी हजारों की भीड़ ने गब्बर सिंह की मौत की खुशी मनानी शुरू कर दी थी। ये चंबल के सबसे खूंखार डाकू का अंत था लेकिन आखिरी डाकू का नहीं।
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फिल्म मै तो गब्बर को एक आम नागरिक ने मारा है ।
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