Tuesday, April 21, 2015

आशुतोष जी को खेतान की हवा भा रही है।

आशीष खेतान क्या है एक बार उनके साथ काम करने आए पत्रकार ने मेरे से पूछा, मैंने जो कहा था वो उससे पहले मैं आपको बचपन की पढ़ी गई  एक कहानी सुनाता हूं (कहानी है सदियो से सफर तय करती है क्या भूल-सुधार हुई होगी मालूम नहीं) चन्द्रगुप्त के चन्द्रगुप्त बनने की। चाणक्य अपने दोनो शिष्यों को लेकर मगध से कुछ दूर रूके हुए थे। पर्वतक और चन्द्रगुप्त। पर्वतक छोटे से राज्य का राजा भी था और सेना के साथ चाणक्य की लड़ाई में काफी लबें समय से लगा था। सत्ता लगभग हाथ आ चुकी थी। युद्ध खत्म हो चुका था। कुछ औपचारिकताएं बची हुई थी। एक रात चाणक्य आगे की सोच में जागे हुए थे। कि धीमे से किसी ने कमरे में प्रवेश किया। चाणक्य ने देखा कि पर्वतक उनके कमरे में घुसा था। चाणक्य ने पूछा बताओ पर्वकत क्या कहना चाहते हो। पर्वतक ने धीरे से हिचकते हुए कहा कि गुरूदेव लड़ाई तो खत्म हो गई। चाणक्य ने जवाब दिया, हां अब तो उसके बाद की बात करनी है। पर्वतक ने कहा कि अब तक आप एक सवाल पर मौन साधे थे और वो है कि मगध किसका होगा। चाणक्य ने पर्वतक को कुछ क्षणों तक देखा और फिर कहा कि ठीक है उसका जवाब आपको समय पर मिल जाएगा लेकिन पहले एक काम करो चन्द्रगुप्त के गले में एक हार पड़ा है, उसकी मुझे अभी जरूरत है तो तुम उसको चन्द्रगुप्त के गले से निकाल लाओ लेकिन याद रखना कि चन्द्रगुप्त जाग न जाए। पर्वतक चुपचाप चन्द्रगुप्त के कमरे में गया काफी देर तक जतन करता रहा ,सोचता रहा लेकिन ऐसी कोई सूरत नहीं मिली जिससे वो हार बिना जागे निकाल पाता। आखिर में उसने जाकर चाणक्य को कहा कि गुरूदेव ऐसा करना संभव नहीं है। चाणक्य ने कहा कि कोई बात नहीं है मैं आपके प्रश्न का समाधान जल्दी ही आपको मिल जाएगा। पर्वतक चला गया कुछ ही देर बाद चाणक्य सोने वाले थे कि चन्द्रगुप्त ने चुपचाप उनके कमरे में प्रवेश किया और वही सवाल दोहराया। चाणक्य ने भी वही काम बताया पर्वतक के गले की माला और वो भी उन्हीं शर्तों के साथ। चन्द्रगुप्त बाहर गया और थोड़ी देर बार आया तो पर्वतक के कटे हुए सर के साथ माला ला कर चाणक्य के कमरे में रख दी। चाणक्य ने कोई जवाब नहीं दिया और धीरे से कहा कि फैसला हो गया। कहानी का इतिहास के पन्नों पर कितनी विश्वनीयता है नहीं जानता लेकिन बात आशीष खेतान की हो रही थी तो मैंने कहा कि आशीष खेतान माला लेने के लिए सिर वाला ऑप्शन ज्यादा अप्लाई करेगा। बात आई गई हो गई। पत्रकार ने सालो बाद कहा कि आपकी बात सच साबित हुई थी लेकिन मेरी उससे ज्यादा बात नहीं होती थी लिहाजा मैंने बहुत कुछ दरियाफ्त नहीं किया। साधा हुआ पत्रकार लेकिन उससे बड़ा गणितज्ञ समीकरणों को।  खैर मेरी दोस्ती नहीं रही कभी खेतान से। लेकिन खेतान और मैंने साथ काम किया कुछ खबरों में। किसी भी चीज को पूरी गहराई से देखना खेतान का स्वभाव। कोई भी खबर हो या फिर रिश्तें, पहले जानना होता कि मेरे लिए फायदा क्या है।  कई चीजों पर बेहद आग्रही जैसे मोदी विरोध या फिर राईटविंग का विरोध। ये उस हद तक कि सनक बन जाएं। महत्वाकांक्षा पहाड से ऊंची इरादा भी वैसा ही और हासिल करने का जूनुन भी । महत्वाकांक्षा ऐसी कि पहला शिकार हमेशा अपने बॉस को बनाना फिरतत दिखाई दी। इसके गवाह बेचारे कई बॉस हो सकते है। खैर एक दिन न्यूज रूम में खड़ा था कि खबर आई कि खेतान को नई दिल्ली से टिकट मिल गया। मेरे मुंह से निकल गया अरे ये तो जीत गया। पास खड़े सब लोग बोले अरे अभी तो सिर्फ टिकट मिला है आप कैसे कह रहे हो जीत गया मैंने कहा कि भई अभी ये अपने एक पुराने बॉस से टिकट की लड़ाई में थे उसमें जीत गये है वोट की बात तो बाद होगी। मेरे कई पत्रकार मित्रों ने राजनीतक यात्रा के बारे में पूछा तो मैंने कहा कि ये बेहतर परफॉर्म करेगा राजनीतक ताकत हासिल करने में हां आम जनता को कोई फायदा देगा इसमें मुझे संदेह है क्योंकि एक पत्रकार के तौर पर वो एक बड़ा सधा हुआ है लेकिन एक आदमी के तौर पर अच्छा होने में मुझे संदेह है।  दिल्ली के विधानसभा चुनाव से पहले कई लोगों ने मुझसे कहा था कि खेतान क्या करेगा। मैंने कहा कि मौके का इंतजार। और मौका मिलते ही अपने हक में सबसे बड़ा पद हासिल कर लेगा। चुनाव खत्म हुए और पद मिल गया। और मिलते ही सबसे पहले एक ब्यूरोक्रेट को सिखा दिया कि कैसे चलेगा ये आयोग। खेतान के होते हुए किसी दूसरे का सर गर्दन पर होना शायद मुश्किल होगा। अब जैसे ही प्रशांत ने अपना मुंह खोला तो खेतान साहब गिनवाने लगे पूरी ताकत से कि प्रशांत भूषण की कितनी कितनी संपत्ति कहां कहां है  लेकिन साहब ये नहीं बता रहे है कि ये बात प्रशांत के अरविंद की नजरों में उतरने के बाद पता चली या फिर मौंके का इंतजार कर रहे थे। और एनएसी से निकालने से पहले लगाएं गए आरोपो पर पहले माफी मांग ली थी और फिर जब एनएसी से निकाले गए पार्टी से निकाले गए तब याद आ गया सब कुछ।  खैर राजनीति में है तो पद के लिए महत्वाकांक्षा तो होगी ही लेकिन अपनी समझ कुछ ऐसी है कि ये खेतान साहब काफी कुछ हासिल करेंगे लेकिन उससे जनता को कुछ हासिल नहीं होगा। स्वराज को कुछ हासिल नहीं होगा और तो और पार्टी को भी कुछ हासिल नहीं होगा।

आप की ड्राईक्लीनिंग मशीन में एक-दूसरे के पाप खुलने लगे। स्टिंग का इंतजार करो। आशीष खेतान ने कहा अब नहीं छोड़ूंगा भूषण परिवार को।

आशीष खेतान ने खोजी पत्रकारिता की आड़ में एक  लेख लिख कर तहलका को तीन करोड़ रूपए दिलवाए- लेख में बिजनेसमैन ग्रुप को फायदा मिला। कुछ ऐसा ही आरोप लगाया महान पीआईएल एक्टिविस्ट् और कल तक आम आदमी पार्टी के संस्थापक सदस्य प्रशांत भूषण ने। अपन जानते थे कि खेतान साहब 24 घंटे से ज्यादा इंतजार नहीं करेगे और शानदार और फिट रिप्लाई करेंगे। निराश नहीं किया खेतान साहब ने।  उनकी फैक्ट्री से निकला एक फड़फड़ाता हुआ आरोप और उन्होंने अपने तौर पर सोचा कि तू क्या है प्रशांत भूषण मैं तो तेरे बाप को भी इसमें लपेट लेता हूं। और उन्होंने प्रशांत भूषण के उस ही गुण पर हमला किया जिसे प्रशांत भूषण की थाती कहा जाता था। यानि पीआईएल फैक्ट्री कहा। लेकिन खेतान साहब की मशीन पाप-पुण्य का अंतर जरा महीन तौर पर साफ करती है लिहाजा और महीन चीज सामने आई। दिल्ली, हिमाचल, इलाहाबाद. रूड़की या और भी कई संपत्तियों का जखीरा बताना शुरू कर दिया। अपनी ईमानदारी के कपड़े तो सबसे सफेद वाली ललिता जी के सर्टिफिकेट के साथ लहराएं( आशुतोष जी इस वक्त ललिता बहन की तरह सबकी कमीज उजली है और किसकी खराब है तय कर रहे है) आशीष खेतान साहब ने जब आप को ज्वॉईन किया था तो तब तक वो ये मान चुके थे कि पत्रकारिता का आकाश अब उनके लिए छोटा हो चुका है। महान नायक जिनकी मैंगजीन ने उन्हें ताकत, नाम और पैसा दिया ( भूषण साहब के आरोपो से अलग ) अपनी ही एक गलती ( लेकिन उन्हें ये गलती नहीं लगती) जेल की हवा खा चुके है। और जिस मैंगजीन में लिखने के बाद एक ग्रुप से करोड़ों की रकम का आरोप लगाया है भूषण साहब ने। उन्हीं भूषण साहब के साथ काफी गलबहियां थी पार्टी ज्वॉईन करने के वक्त से खेतान साहब की ( अपन आशुतोष जी जैसे शब्द इस्तेमाल नहीं कर सकते कि प्यार ने किसी और को चुन लिया तो नाराज है- आशुतोष जी मेरे सीनियर रहे है)  ।  लेकिन अब बात बिगड़ गई। खेतान साहब अपनी इंटीग्रिटी पर एक धब्बा भी बर्दाश्त नहीं कर सकते। (आलविन है आवाज नहीं करता) और इसीलिए आरोप का जवाब देने से ज्यादा सवाल खड़े कर गए । आम आदमी अभी याद रखे हुए है कि पार्टी में योगेन्द्र और प्रशांत के अरविंद की नजरों से उतरते ही सबसे पहला हमला खेतान साहब ने ही किया था भूषण परिवार ने एक परिवार की हुकुमत के खिलाफ ऐलान ए जंग किया था। फिर जैसे ही लगा कि समझौता हो सकता है तो फिर माफी मांग ली अपनी ही गलती बताते हुए। और जैसे ही पार्टी से बाहर हुए तो फिर उनकी औंकात बतानी शुरू कर दी। खेतान साहब को लगने लगा कि अरे भूषण परिवार जितना खतरनाक, और लुटेरा कोई परिवार नहीं मिला। इतनी संपत्ति कहां से बनाई। कोई ये पूछ नहीं सकता कि भाई अभी लड़ाई से कुछ दिन पहते तक जब प्रशांत भूषण या फिर शांति भूषण से मिलते थे तो कही किसी नुक्कड़ की चाय की दुकान पर, गुप्ता की कैंटीन पर या फिर किसी झुग्गी में बैठ कर मिलते थे कि पता ही नहीं चला कि कहां मिल रहे है और जिससे मिल रहे है उसकी माली हैसियत कितनी है। खैर आशीष साहब की आदत के मुताबिक एक स्टिंग का इंतजार करना चाहिए जल्दी ही आने वाला होगा। क्योंकि एक पत्रकार से मिल कर उसका ही स्टिंग कर लिया था। पत्रकार बंधु और ये दोनों ने साथ काम किया था काफी दिन और फिर स्टिंग के बाद भी दोनो दोस्त रहे। ( ऐसा मेरी जिंदगी में कोई दूसरा उदाहरण नहीं है कि जिसका स्टिंग हुआ हो वो करने वाले का दोस्त बना रहे) ऐसा चमत्कार किसी न किसी अनजाने रास्ते का राही होने का इशारा तो करता है। खैर बात अब ये है कि आशीष खेतान अब नहीं छोड़ेगे तो देखते है कहां कहा नहीं छोड़गें। खैर ये बात तो है लेकिन एक बात जो आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ताओं को साल रही होगी वो ये कि आम आदमी पार्टी की वाशिंग मशीन अब एक दूसरे के कपड़े ही धोने लगी है। आपको याद है ना आम आदमी पार्टी की शुरूआत कुछ तो मैं बता देता हूं......फलां नेता चोर है। फलां नेता महाचोर है। लिस्ट जारी होगी। इस लिस्ट में  फला़ं- फलां नेताओं के नाम है। कई बार कवर किया और जितनी बार हुआ उतनी बार सुना। आम आदमी पार्टी देश की राजनीति में ड्राईक्लीनर्स बन चुकी थी। जिसको देखों उस पार्टी के पाप के कपड़े सरे राह धोए जा रहे थे। व्हर्लपुल, एलजी, सीमेंस या ऐसी बहुत सी बहुराष्ट्रीय कंपनियां कपड़े धोने के लिए जितनी टेक्नोलॉजी इस्तेमाल करती है वो सब पुरानी पड़ गई।

Sunday, April 19, 2015

राहुल गांधी क्या है। उम्मीद, निराशा या बुद्दु बालक

पप्पू है। चीजों को समझते नहीं है। बिलकुल अबोध है। मां की गोद में खेलते है। 2014 में देश के सोशल मीडिया में ये ही छवि उभर कर आ रही थी। देश भर में चुनाव कवर करते हुए घूम रहा था। लोगो के लिए कांग्रेस एक भ्रष्ट्राचार की प्रतीक बन चुकी थी। और आलोचनाओं का सारा नजला अगर किसी पर उमड़-उमड कर गिर रहा था तो वो सिर्फ राहुल गांधी के ऊपर। एक के बाद एक घोटाला सामने आया था पिछळे चुनाव से पहले। और हर बार संख्या इतनी बड़ी कि किसी भी गणितज्ञ से सीधा पूछ ले तो बताने में गड़बड़ा जाएं कि कितनी जीरो आएंगी। खैर जनता ऊब चुकी थी। भ्रष्ट्राचार की लौ से बचे तो सांप्रदायिकता के खिलाफ लड़ने वाले जातिवादी हुजूम के भाईभतीजावाद से लेकर जातिवाद और लूट का समारोह भी अपना असर छोड़ रहा था। और देश में विकास का एक ऐसा मंत्र लेकर निकले थे नरेन्द्र मोदी जिसका किसी को मालूम नहीं था कि मंत्र की शक्ति क्या है। हर भाषण में रोम की रानी और युवराज को कोसते मोदी को तालियों की गर्जना मिलती थी वो इस बात की ओर इशारा कर रही थी कि शाहजादा पर तंज कसने से पब्लिक तालियां बजाती है। अपनी दुर्दशा का बड़ा कारण राहुल गांधी को मान रही है। इसी बीच एक चुनाव से लौटते वक्त प्लेन में कांग्रेस के करीब रहने वाली एक बड़ी पत्रकार से भेंट हुई। उनको लगता था कि राहुल गांधी कुछ कर नहीं रहे है। सवाल तो कई थे। लेकिन हम चिंतक नहीं पत्रकार है हमको जनता की बात सामने रखनी होती है अपने विचार नहीं। सवाल दर सवाल। राहुल गांधी के चेहरे पर चिपक रहे थे। एक दिन प्रेस क्लब में राहुल ने सांसदों को कवर देने वाले विधेयक को फाड़ दिया अपनी सरकार के तो सबने नारा दिया कि ये प्रधानमंत्री का अपमान है। 
चुनाव हुआ तो रिजल्ट उसी तर्ज पर आएं जिस तर्ज पर दिख रहे थे। और कांग्रेस अपनी सबसे कम संख्या पर लौट आई। अब जनता नहीं मीडिया के बौंनों की उठापटक शुरू हुई। सारा घड़़ा राहुल के सिर पर। खैर मोदी जी के आकर्षण और भाषणों की अविरल परंपरा चल रही थी। लेकिन ये लगभग तय हो चुका था कि उनके मंत्रों की शक्ति और तेल कॉरपोरेट मुहैय्या करा रहा है। और अब तक आलोचनाओं के काले अंधेरों में घूम रहा राहुल गांधी का नाम फिर से सतह पर गूंजने लगा। ये मालूम हुआ कि साहब भूमि अधिग्रहण कानून जो 127 साल बाद पहली बार किसानों के हक में दिख रहा था वो राहुल गांधी की देन था। किसानों के इतना हक में कि देश को लूटने में सुई की नोंक से हाथी निकालने में माहिर हो चुका कॉरपोरेट जमीन में घुस चुका था। किसी भी किसान की जमीन का सरकार अधिग्रहण करके प्राईवेट बिल्डर को नहीं देंगी या ऐसे ही बहुत से प्रावधान उसमें थे उनका पता जनता को तब चला जब मोदी ने इसको वापस अंग्रेजों की तर्ज पर वापस कॉरपोरेट के हाथ में दे दिया। खैर ये तो एक बात थी। फिर रीयल इस्टेट सेक्टर से संबंधित एक और विधेयक जिसमें फिर बदलाव किया महान प्रथम सेवक ने और इसका भी पता चला कि ये बिल्डर के मुफीद बनाया गया। पहले बिल में था कि कोई बिल्डर किसी प्रोजेक्ट के 70 फीसदी अमांउट को दूसरे एकाउंट में ट्रांसफर नहीं कर पाएंगा। मोदी जी ने इसको घटा कर 50 कर दिया। इस का क्या फर्क है इसका जवाब आपको वही दे सकते है जिन्होंने एक ऐसे बिल्डर के यहां फ्लैट बुक कराया था जिसके कई प्रोजेक्ट चल रहे है और सारे के सारे अधूरे रहते है हां हर बार एक नये प्रोजेक्ट लांच करने के पोस्टर जरूर दिख जाता है। फिर पता चला गया कि मोटरव्हीकल एक्ट में भी बदलाव किया गया है उसमें कुछ कड़े प्रावधान को हल्का कर दिया है जिससे कॉरपोरेट को मदद मिलेगी। इसके अलावा चुनावों के दौरान ही पर्यावरण को लेकर अटके प्रोजेक्ट की जिम्मेदारी भी कांग्रेस की नेता जंयती नटराजन ने राहुल गांधी पर लगाई थी। उस वक्त भी मीडिया ने दिखाया कि राहुल गांधी आदिवासियों के हक में खड़े होकर सरकार के वो प्रोजेक्ट पास नहीं होने दे रहे है जिनसे पर्यावरण को खतरा हो सकता है। बात ऐसे नहीं कही गई कहा गया कि संविधानेत्तर सत्ता है राहुल गांधी है। 
लेकिन मेरे मन में एक सवाल रहा कि राहुल गांधी ने जिनको टिकट वांटे थे जो राहुल गांधी के कैंडीडेट थे वो कितने जीते है। उनकी हार का ठीकरा भी राहुल गांधी के मत्थे ही फोडा गया। मैने देखा था कि मीनाक्षी नटराजन, प्रदीप जैन, या दूर दराज में ऐसे नेता जिन्हें राहुल ने टिकट दिया था जमीन से उठाकर वो सारे के सारे बुरी तरह से चुनाव हारे। फिर क्या कारण था क्या कोई नेता अपने क्षेत्र में कार्यकर्ताओं से संबंध न बनाएं ये भी राहुल ने तय किया था। राहुल गांधी के बिल अचानक ऐसे अच्छे कैसे हो गए। क्या राहुल गांधी वाकई बदलाव कर रहे थे कांग्रेस में। पहले से मौजूद ढांचे ने राहुल को पूरी तरह विफल कर अपनी गलतियों को पूरे तौर पर राहुल की मत्थे मढ़ दिया। इस सबके बारे में सोच ही रहा था कि ऐसे में मेरे सीनियर पत्रकार और अब आम आदमी के नेता आशुतोष जी की एक किताब आई जिसमें राहुल गांधी को क्राऊन प्रिस, और मोदी जी को ग्लेडिएटर और अपने नेता (जाहिर बात है) अरविंद केजरीवाल को होप बताया तब मुझे लगा कि इस बात पर जरूर देखना चाहिेए क्या वाकई अरविंद केजरीवाल होप है।
हम सिर्फ तीन मुद्दों पर परख सकते है। एक है नेता का जनतंत्र में विश्वास और मेरा इन तीनों नेताओं से कोई व्यक्तिगत परिचय नहीं है लिहाजा मैं सिर्फ मीडिया में उपलब्ध जानकारी के आधार पर ही लिख सकता हूं। पहली बात है जनतांत्रिक मूल्यों पर विश्वास। मोदी ने चुनाव में अपनी मर्जी से टिकट बांटे। मोदी ने अपनी मर्जी से उम्मीदवार तय किए। मोदी ने जीत के बाद अपनी मर्जी से मंत्री तय किए। और मंत्री तय करने के बाद ये भी खुद ही तय किया कि कौन कौन उनके पीए बनेंगे। यानि अफसरशाही को खुद ही चुना उसमे किसी नेता का कोई दखल नहीं है। 
अरविंद केजरीवाल के अहंकार के बारे में कुछ कहना थोड़ा मुश्किल है। आशुतोष जैसे पत्रकार मित्रों की बदौलत ये अंहकारी नेता बेहद जनतांत्रिक बन पाया कागजों में। और ये कागजों की छवि भी उधड़ कर बिखर गई जब उन्होंने कहा कि उनके विरोधियों को पिछवाड़े पर लात मार कर निकालना चाहिए। 
मीडिया कह रहा है कि राहुल गांधी अपनी पार्टी में भी नहीं चला पा रहे है। अपनी मर्जी से अधिकारी नियुक्त नहीं कर पाएंगे। 
क्रमश।

Wednesday, April 15, 2015

गंध सिर्फ बारूद की पहचानों ..

.छोड़ो वो सब बातें
मुझे नहीं पूछना है तुमसे कुछ भी
वायुमंडल में क्या है
भूमंडल कैसे बनता है
सूर्य के पार
आकाशगंगा में और कितने ग्रह हो सकते है हमारे जैसे
मैने देख लिया तुम्हारी डायरी में लिखा हुआ
मैडम का प्रशस्ति पत्र
तुमने लिखी है जिंदगी पर
एक शानदार कविता
नहीं तुमको उस पर इतराने की जरूरत नहीं
मैं बस उसे एक रोजमर्रा की टिप्पणी देखता हूं
तुम को खुश नहीं होना चाहिए इस बात पर
कि चुना गया है तुम्हें
सबसे बेहतर कलाकार/चित्रकार
लाईंने खींचते हो
दुनिया को ध्यान से देखते हो
ऐसी तमाम बातें
मुझे चिंता में डाल देती है
क्योंकि तुम देखने लगे हो
दुनिया को अपनी आंखों से
तुम पूछते हो बहुत से सवाल
इतिहास की किताबों से खोज-खोजकर
तुम जोड़ने लगते हो
शहादत की कीमतें
और हिसाब मांगते हो आज के वक्त से
बेहतर होता ये सवाल
बस तुम्हारे बस्तें के आसपास के ही होते
लेकिन तुम जानना चाहते हो लोगो के बारे में
तुम्हारों सवालों के दायरे में आते है
घर, स्कूल, मेरा दफ्तर , और वो तमाम दुनिया
जिसे तुम रोज तय करते हो
तुम कहते हो
ये हमारे लोग है
ये सब सवाल बढ़ा देते है मेरा डर
ये सही नहीं
तुम पूछते हो भगत सिंह की कहानी
तुम जानना चाहते हो नमक की कीमत
और डांडी यात्रा का सच
रोजमर्रा सड़क पर मारे गए
सैंकड़ों बेगुनाहों की मौत पर
किसकी जिम्मेदारी तय होती है
ऐसे तमाम सवाल
तु्म्हारे लिए जानकारी नहीं
चक्रव्यूह रचते है
ऐसे सवालों के सही जवाब
सच बोलने का खतरा
तुम्हारे आस-पास बनाते है
मैं गलत बता नहीं सकता हूं
और डर से सच बोल नहीं पाता हूं
मेरा डर तुम अभी समझते नहीं हो
क्योंकि तुम्हारे लिए होना चाहिए
पास बैंठी लड़की/लड़के का
खाने का चलने, बोलने का तरीका समझना
ज्यादा अहम
तुम समझते नहीं हो
तुम्हारे लिए देश की मिट्टी की कीमत से ज्यादा
रोटी की महक से बढ़कर
मां के प्यार से अमूल्य
और बाप की देखरेख से भी कीमती
बस एक पहचान होनी चाहिए
एक सुंगध की
बारूद की सुंगध की
आस-पास उग रहा है
बोया जा रहा है बारूद
जिदंगी की जमीन में
कभी भी कही भी पैंबस्त हो सकता है बारूद
बाप की गोद को मचलते जिस्म में
मां से मिलने की खुशी में झूमते हुए
सड़क पर अकेले घूमते हुए
या फिर भरी भीड़ में चलते हुए
यहां तक
कि
स्कूल की किताबों में डूबें
बच्चों के सीनों में
खिलौने लेकर लौंटते
बाप के दिल में
बारूद बना लेता है अपना रास्ता
कही भी कोई भी नहीं रहा सुरक्षित
मैं सिर्फ देखना चाहता हूं
तुमको बड़ा होते हुए
मुझे किसी और शहीद की जरूरत नहीं है
शहादत नौकरशाहों के जूतों में बस जाती है
नेताओं के घरों में जूतें उठाते दिखते है शहीदों के बच्चें
एक अदद पैंशन या किसी रोजगार के लिए
चंद मालाओं और एक लोई
उढ़ा देने भर से
चुक जाता है ऋण शहीदों का
भगतसिंह बोलने से नेताओं को वोट
नौकरशाहों को ताकत मिलती है
भगत सिंह बनने से किताबों में
दो पन्नें मिलते है
किताबों को सिर्फ बस्तें में रहने दो
सवालों को दफना दो दिमाग की गहरी खाईंयों में
प्यार सिर्फ अपने से करना सींखों
और गंध सिर्फ बारूद की पहचानों 

Tuesday, April 14, 2015

पगली की कोख .



हर साल बच्चा जनती थी
हर बार मर जाता था बच्चा
किलकारियों से कभी नहीं गूंजी उसकी गोद
हरी-भरी होती रही हर साल कोख
बच्चा पैदा होता था
बच्चा मर जाता था
खून से भीगी हुई धोती/कुर्ता -सलवार
हर साल कई दिनों तक लिपटी रहती थी उसके बदन से
दफनाना है या जलाना है
बेपरवाह रहती थी इससे
दर्द की चींखों से गूंजती रहती थी
रात में सुनसान हुई सड़क
कभी हाड़ कंपाने वाली सर्दी
कभी रक्त उबालने वाली गर्मी
वो मौंसम से बेअसर
मां बनती रहती थी
प्रकृति के कायदे से
जिला अस्पताल के ठीक सामने
शव को नवजात के कुछ लोग ठिकाने लगाते थे
बाप को जरूर दर्द होता
हर बाप को होता है
अगर पता होता कि बाप कौन है
अस्पताल से चौंक के बीच चक्कर लगाती उस औरत के बच्चे का
ठीक उसी जगह से गुजरते थे
धर्म की ध्वजा उठाने वाले
नारी कल्याण की योजनाएं चलाने वाले
सड़क के किनारे साल दर साल
घूमते देखा उसको
हॉस्पीटल की दीवार पर हंसतें बच्चों के चिपके हुए पोस्टरों
और सड़क पर लगे सरकार के जगमगाते होर्डिंगों के बीच
जच्चा बने देखा उसको
बच्चा मरे हुए देखा उसका
नहीं देखा तो ये
मां कब बनती थी
पुण्य दिखाकर करने वाले
पाप छिपा कर ही करते है
मैंने देखा-सुना था
वो एक पगली थी
एक नीम पागल औरत
मां थी न बाप उसका
घर था न द्रार उसका
सडकों के किनारे
कुडे के ढेर से
चुनती रहती फेंकी गईं रोटियों के टुकडे
या सड़े-गले फल
और मैंने देखा था
समाज और उसके ठेकेदारों को
उसी हाल में घूमते हुए
साल दर साल
जनता की भलाई के लिए बेहाल
भूल गया था
उसका चेहरा
इस अनजाने शहर में
कल फिर दिख गई
सड़क पर घूमती एक पगली
हे भगवान
इसकी कोख का क्या करता है तू
इतने जानवरों के बीच घूमते हुए

Monday, April 13, 2015

लौटने का ख्याल ही नहीं किया

अच्छा हुआ तुमने लौटने का ख्याल ही नहीं किया
गांव से मिट गया तुम्हारी यादों का आखिरी शजर भी
कुछ रास्तों को पांव में बांध कर ले गये थे
निशान खोजते खोजते खो गई मां की नजर भी
घर से लेकर निकले थे उम्मीद और बुजुर्गों की दुआ
इतंजार में बेटे की खो गया बाप की दुआ का असर भी

....................

बेशर्म भीख- मांगनेवाली .

ये तो हर बार सोचते है 
कामचोर है
बेशर्म है
शराबी है
नशेड़ी है
किसी की पाप है
चोरों की औलाद है
गिरी हुई है
बाजारू है
लेकिन कई बार ऐसा सोचना भी अनोखा है
कितनी परेशानी होगी
हाथ फैलाने में
कार के बोनट
मोटरसाईकिल के पहिये पर सर लगाने में
एक सिक्के के साथ हाथों के कही और तक पहुंच जाने में
हर रोज हर पल हर जगह
हजारों ऐसी निगाहों से गुजरने में
जो जिस्म के हर हिस्से को बींध देती है
ऐसी कई बातों से अनजान हो जाने में
जिससे छिल जाएं आत्मा तक के तार
कितना मुश्किल होता होगा
ट्रैफिक वाले, बीट वाले
और उनके साथ आने वालों की
दावत का व्यंजन बनना
धोना बेआवाज शरीर की चादर को
कितनी बार समेटना होता होगा
जिस्म और आत्मा दोनों पर
उभर आई खराश दर खऱाश को
दाग दर दाग को
उस बेघर होने के पाप को
कितनी बार
दिन भर में हासिल महज कुछ सिक्कों का हिस्सा होने में
उधड़ती होगी जिस्म की सिलाईं
नीले और काले निशान एक दूसरे में होतें होंगे गड़्ड-मड्ड
ढ़लते हुए सूरज के साथ
चढ़ता होगा डर जिस्म के आसमान पर
रात भर किस तरह चादर के अंदर
पत्थर में बदलती होगी रूह
और औरत की गोलाईंयों में शरीर
प्यार जैसे शब्द से उलट
वासनाओं के कीड़ों में
रात गुजारना कैसा लगता होगा
तेज हवा में चादर का कोना उड़ता है
या जिस्म और आत्मा की धज्जियां
आंखों को खोल कर भी अंधा करने में खुद
काम की तलाश में झटके हुए जिस्म को
लेकिन इस अनोखी सोच के साथ
चौराहा पार हुआ
और फिर से
अगले चौराहे पर
फिर से दिख गईं
बेशर्म भीख मांगने वाली

Saturday, April 11, 2015

खेत में खड़ा रिपोर्टर .....

खेत में झरती हुई बरबादी के बीच
गेंहू की काली बालियों को हाथ में मसलते हुए
किसान के मुंह पर माईक लगा था
रिपोर्टर पूछ रहा था खराब फसल के बारे में
कैमरे का लैंस आंखों पर फोकस
रिपोर्टर की चौकस निगाहें लपकने को तैयार
कब आंख से फूटे आंसू
और कब पढ़े वो आंसूओं से भरी किसान की जिंदगी पर पीटीसी
प्रोड्यूसर ने काफी मेहनत से विकीपिडीया से लिखा है
कई रूलाने वाले सवाल कर चुका है अपनी समझ से
फसल कैसे खराब हुई
फसल कितनी खराब हुई
कितनी बार सरकारी मुलाजिमों ने खेत देखा
अब कैसे चलेगी अऩ्न उपजाने वाले की जिंदगी
इन सब सवालों से ऊबा हुआ किसान
कौतूहल से देख रहा था
कैमरे को, रिपोर्टर को
रिपोर्टर इतना रोने को क्यों है
उधर रिपोर्टर सोच रहा था
कब रोएंगा
कब शाट्स पूरा होगा
और किसान सोच रहा था
ब्याह टल नहीं सकता
अगली फसल के बीज के बिना हल चल नहीं सकता
बिना रोटी के ये साल निकल नहीं सकता
दवा-दारू भी लानी है
टूट्हें ही सही लेकिन स्कूल की फीस जानी है
बर्तन/गहने/बच्चें
किस चीज को पहले
ऱखना/बिकना पड़ेगा
उस छोटी सी दुकान में जाकर
इतने बड़े खेत में
बिछी बरबादी की सुरंगों से
गुजरते/मरते/बचते
परंपराओं में ढलें सदियों के अनुभव से
जानता है किसान
सरकारी/फाईलों की
बढ़ जाती है भूख
अकाल के अलाव में
कई बार जर जाता है
कई बार जमीन जाती है
कई बार जोरूं ही चली जाती है
कई बार बच्चें जाते है
हर बार पथराएं से सपने जाते है
दफ्तर में बैठे उस बाबू
और चील-कव्वौं की तरह
मंडरा रहे पटवारी के पेट में
उधर पीटीसी के लिए रोते हुए किसान
बेहतरीन विज्यूअल कंटेट की तलाश में
अगले खेत की और बढ चला था रिपोर्टर 

Friday, April 10, 2015

उनको महान और अपने को गुमनाम बनाया .......

बेहद जहीन दिमाग थे
जिन्होंने पिरामिड सोचे
बेहद नफीस समझ थी उनकी
जिन्होंने खूबसूरत मकबरें बनवाएं
कितने बड़ी सोच के थे
वो लोग जिन्होंने  आसमान से दिखने वाली वो दीवार सोची
रात-दिन ख्बाव बुनते होंगे
जिन्होंने कुतुबमीनार सोची
कितनी रातें जाग-जाग कर काटी होंगी
तब जाकर सपनों में आईं होंगी बेबीलोनिया के हैंगिग गार्डन की रूपरेखा
कितना प्यार भरा होगा उस दिल में
जिसने ताजमहल बनाया
बड़े बड़े मंदिरों को रचने वाले
दिल बडी श्रद्दाओं से भरे होंगे
बड़े बड़े शहरों को बसाया जिन्होंने
दिमाग से चलते रहे होंगे रात दिन
तलवार में लौहा नहीं
मौत बसती होंगी
बाहों में ताकत
और जिस्म पत्थर
जिन्होंने नींव रखीं
महान राज्यों की
धूल में मिला दिए
बसे-बसाएं नगर
महान राजा, महान फराओं
महान बादशाह, महान सम्राट
इतने महान लोग
बिखरे पड़े है इतिहास में
और जब इतिहासकार खोज नहीं पाएं
ऐसे  लोग जिनके माथे पर रखे जा सके
महानता के मुकुट और जय की कहानियां
तब उन लोगों को याद आया सभ्यता
जिन के बादशाह नहीं थे
जिन्होंने राजाओं को नहीं जनमा
जिनको सही से बना नहीं पाएं
इतिहास की विरूदावली गाने वाले
उन लोगों ने मढ़ दिया सभ्यता का नाम
लेकिन इतिहास के इस गणित में
सवाल हमेशा ही खड़ा रहा
हम कौन है
और छुपा दिया उसका जवाब
जानबूझकर साजिशन
ताकि अनजान रहे  हम खुद के बारे में
और पूजते रहे महान और महानताओं को
लेकिन झुके सरों में कभी तो जाग ही जानी थी अपनी पहचान
और फिर जेठिया दोपहर में पत्थर तोड़ता मजदूर बोलता है
हम वो है जिन्होंने उनकी महानता बनाएं रखी
हम वो जिसने ईंट गारे और पत्थर ढो़ने के लिए
हजारों लाखों बच्चें जने उनको भूख के साथ दफनाया
हम वो है जिन्होंने उनके घोड़ों की रास पकड़ी
हम वो है जिन्होंने उनके बिस्तर सजाएं
हम वो है जिन्होंने उनके लिए खाना बनाया
हम वो है जिन्होंने उनके लिए अन्न उपजाया
हम है जिन्होंने उनको महान और अपने को गुमनाम बनाया

Thursday, April 9, 2015

पूूर्व जनरल पहले ही जोकर बन चुका है।

वी के सिंह कई बार अपने बौंने कद को दिखा चुके है। लोगों को अभी मीडिया को क्या कहा इस पर चर्चा हो रही है लेकिन एक खबर लोगों की निगाह से चूक गई है जो अभी आई है कि जरनल वी के सिंह को वो सीडी नहीं मिल रही है जिसके आधार पर उन्होंने दावा किया था कि उनको रिश्वत देने की पेशकश की थी। तेजिन्दर सिंह के खिलाफ चल रहे मामले में कोर्ट में ये सीडी जमा करनी थी। बेचारे जरनल की यारदाश्त जवाब दे गई। अभी कुछ दिन पहले जरनल बेचारें को जाना पड़ा पाकिस्तानी दूतावास के एक फंक्शन में, वही जहां कश्मीर के अलगाववादी दावतें उ़ड़ा रहे थे। हरी जैकेट पहन कर पहुंचे जरनल ने नकल तो करने की कोशिश की प्रधान सेवक की। लेकिन जब उसको लगा कि मीडिया में रंग जमा नहीं तो जाने कैसे कैसे ट्वीट करने शुरू कर दिये। किसी को ड़्यूटी बताया किसी में डिस्गटिंग, मीडिया ने उठाया तो उसी को धो दिया। उस वक्त भी जनरल साहब के भक्त एक बड़े वर्ग ने मीडिया पर ही भड़ास उतारी। और उनके वर्ग ने इस आदमी को एक बडा़ सिद्दांतिक और भी जाने क्या क्या बनाने की कोशिश की। लेकिन पता चल गया था कि ये आदमी पाजामें में बांस छिपा रहा है जिनपर खड़ा होकर अपनी लंबाई बढ़ाने का प्रयास कर रहा है। और फिर यमन में एक गृहयुद्ध शुरू हो गया। भारतीयों को लाने के लिए युद्धपोत का सहारा लेिया गया। मैंने देखा कि जरनल जहाज में आ रहे परेशानहाल हिंदुस्तानियों के बीच में ख़ड़ा होकर फोटो खिंचवा रहा था और उसके चमचों की मीडिया में खड़ी एक फौंज कह रही थी जरनल इज जनरल और देशप्रेमी जनरल, जंग में फौंजी, हे भगवान कई बार फोटो छपवाएं कुछ पेपरों में। पर देश के मीडिया ने जनरल को उतनी फूटेज नहीं दी जितनी जनरल को चाहिए थी, ऐसे में जरनल साहब भड़क गए। गाली-गलौज पर उतर आएं। पूरे मीडिया को खास शब्द से नवाजने लगे। लेकिन बेचारे भूल गए कि इस शब्द का इस्तेमाल उस मीडिया के लिए किया जाता है जो सरकार की चमचागिरी करता है लेकिन जरनल साहब ने बेचारे उस मीडिया पर नजला उतार दिया जो उनकी फोटो नहीं छाप रहा है। मुझे याद है कि मीडिया में एक वर्ग उनके जनरल रहते वक्त काफी गुण गाया करता था। इसमें जाति भी एक बड़ा रोल प्ले किया करती थी। और दूसरी हिंदुस्तानियों का फौंजियों के प्रति रूमानी भाव। बेचारा जरनल। सुप्रीम कोर्ट में बुरी तरह घिरा, घूम गया। उससे पहले कई बार अपनी उम्र को वही मानता रहा लेकिन जब नौकरी में एक्सटेंशन का मौका मिला तो सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच गया। चुनवा लड़ने पहुंचा गाजियाबाद सिर्फ इस लिए कि जात भाई अपने वोटो से जीता दे। आज बहुत से भक्तगणों को देखा जो मीडिया के लिए गालियां निकाल रहे है, तो उनकी आवाज सर माथें पर क्योंकि मीडिया को वाकई सुधार की जरूरत है और जो इस धंधें में सरकार के जूतें सर पर रख कर चल रहे है उनके लिए जनरल के इस शब्द की सच्चाई सही हो।

Wednesday, April 8, 2015

बीजेपी लगातार कॉरपोरेट को ताकत दे रही है। इस बार रियल इस्टेट बिल में दी है।

रियल इस्टेट बिल को भी एक महान विजय के तौर पर दिखाय जाना शुरू हो गया है दोस्तों लेकिन एक मेजर बदलाव जो बिल्डर माफिया के लिए है वो है कि यूपीए के प्रपोस्ड बिल में जो उपभोक्ताओं की राशि में से 70 फीसदी रकम एस्क्रयू एकाऊंट में रखी जानी थी उसका प्रतिशत घटा कर 50 कर दिया है। इसको समझने के लिए ऐसे समझें कि पहली सरकार ने अपने बिल में प्रावधान किया था कि फ्लैट के नाम पर उगाही गई रकम का 70 फीसदी पैसा बिल्डर सिर्फ उसी प्रोजेक्ट के निर्माण के खातें में रखेगा जिसेक नाम पर ये पैसा लिया गया है और बाकि रकम को किसी दूसरे काम में इस्तेमाल कर सकता है। लेकिन इस महान जनवादी सरकार ने इस प्रतिशत को घटा कर 50 फीसदी कर दिया है। यानि बीस फीसदी फायदा और बिल्डर लॉबी को दिया है इस बात का दर्द उस आदमी को मालूम होगा जिसने किसी प्रोजेक्ट में पैसा दिया होगा और बिल्डर ने उसे पूरा करने की बजाय दूसरे प्रोजेक्ट शुरू कर दिये होंगे। लेकिन ये कॉरपोरेट लॉबी के इशारों पर नाच रही सरकार की नई मिसाल है। और इसके फायदें गिनाने के लिए गड़करी जिंदाबाद है , जल्दी ही उसके बचन देश को सुनने को मिलेंगे जो किसी भी नेता और मीडिया को चुनौती देता दिखेगा। 
हर बिल को इस तरह दिखाया जाता है कि देश के विकास की गंगा बस इस बिल से निकलने वाली है। पहले तो तंबाकू की फोटो छपने को लेकर चली बहस को देखिये। हर बात में दुनिया को दिखा देंगे, कम्यूनिकेशन क्रांति या फिर ऐसे भी पता नहीं कितने जुमले बीजेपी देश को घुट्टी में पिला रही है, और फिर काम देखों एक से एक अहमकाना बयानबाजी। तंबाकू के मसले में हितों के टकराव को लेकर जिस तरह सरकार ने नाटक किया वो किसी शानदार अभितनेता को भी दांतों तले उंगूलिया दबा देने के लिये काफी ही। दुनिया को अपना चौबारा बना देने वाले मोदी जी के वो फोटो शायद देश के ज्यादातर लोग भूल गएं होंगे जिनमें वो सासंदों से इंटरव्यू ले रहे थे। और इतने इंटरव्यू के ताम-झाम के बाद भी कोई श्यामाचरण गुप्ता टाईप सांसद बीड़ी किंग घुस गया ऐसी ही समिति में जिसे स्वास्थ्य पर अपनी राय देने थी। गजब का गड़बड़झाला लगा लेकिन ये अंधों या मूर्खों के गांव की हालत उन लोगो के लिए ही है जो पार्टी का असली चेहरा नहीं पहचानते। डॉक्टर हर्षवर्धन दिल्ली के ईमानदार नेता ही नहीं बल्कि एक कामयाब मेडीकल प्रेक्टीशनर भी है। उन्होंने आम जनता के लिए जिस फोटो को सिगरेट के पैकिट पर 40 फीसदी से लेजाकर 85 फीसदी करने का नियम बनाय था। सत्ता में आने के पहले दिन से ही कॉरपोरेट को दीवाली की मिठाईंया बांट रही सरकार ने न केवल मंत्रालय बदला फिर एक ढिंढोरची ला कर बैठा दिया जिसका काम क्या है ये हमको मालूम नहीं है, लेकिन हल्ला मचा और फिर 85 फीसदी के छपने वाली तस्वीर को अफवाहों और खबरों के बीच झूल रहे मीडिया के मुताबिक महान नेता और देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी ने साठ फीसदी की अनुमति दे दी है। यानि भ्रष्ट्र नेता और देश के लाखों लोगो को हर साल मौत की नींद सुलाने वाले तंबाकू कॉरपोरेट को 25 फीसदी का फायदा हो गया है कि नहीं। बताओ तो जरा किसको फायदा हुआ दोस्तों नायक की छवि बची रही और मालिको का फायदा। मौत के मुंह में जा रहे लाखों लोगों के परिजन कफन ढ़ूढ रहे होंगे अपनों के लिए हो सकता है जल्दी ही मन की बात में उनका दर्द निवारण हो।

Sunday, April 5, 2015

जय कलकत्ते वाली

कलकत्ता की गलियों में
बंधी जवानियों की कहानियां
गीतों में बिखरे दर्द को
अक्सर लोकगीतों में सीती हुए औरतें
काले जादू को कोसती अकेली बहुएं
उसी जादू को जिसके जोर पर
कभी कुत्ता, कभी बकरा तो कभी भैंसें में बदल जाता था
घर के लिए मजूरी करने कलकत्ता पहुंचा हट्टा-कट्टा नौजवान
सालों तक, दशकों तक या फिर सदियों तलक
झरती हुई कहावतों और कहानियों के बीच
दर्द- कौतूहल और डर बन कर जिंदा रहा कलकत्ता
पहली बार मिला कलकत्ता से
खोजा कलकत्ता की उन गलियों को
उन जादूगरनियों को
जिनसे खफा-खफा
बददुआ उड़ेलती हुई
विदा हो गई कई पीढियां गांव-जौहार में
पैरों पैरो रिक्शा खींचतें
सर पर बोझा ढ़ोंते
हड्डियों पर मढ़ी चमड़ी वाले
मजदूर मजदूर मजदूर
कही कोई बंधा नहीं था
किसी के जादू से
रोटियों की जद्दो-जहद से उपज गए झूठ
और झूठ की नाव पर
जिंदगी के दर्द की नदी
पार करती रही गांव में बैठी औंरतें
और यहां महाजनों के नीचे
रोटी के टुकड़ों को टुकुरते
मजदूर आने-जाने के खर्चे से बचने
छुट्टियों के नाम पर पैसे कतरने
और पुल के नीचे, नदी के किनारे पक्के घाट पर
किसी सड़क के किनारे की राह बाट पर
अपनी जगह बचाने की जद्दो-जहद में
घर भेजते रहे
कुछ बचे-कुचे कुछ पैसे
और झूठ की कहानियां
अपने ही किसी
घर लौटते मजदूर के हाथ

Friday, April 3, 2015

यहां सच कुछ नहीं .......................................................................................

हर पीढ़ी का अपना सच होता है,
जिसमें वो जीती है
जिसे वो भोगती है,
मेरी पीढी का सच है
कि, 
यहां सच कुछ नहीं, 
हम मर्यादाओं को चीरतें हुए
अंधविश्वासों की सुरंगों में घुसते हैं 
और अंधविश्वासों को गिराते हुए धंसते है वासना की गलियों में
हम किसको चुनते है
हम किसको छोड़ते है
उसका कोई मानक नहीं 
सिर्फ सहूलियत है
हर बार ऊंचा उठने के नाम 
और नीचा गिरते हैं हम
सच के नाम पर 
सच का जाल बुनते हुए
जिसको काट कर प्रकट होते है लोग
नायक नहीं भद्दें विदूषक दिखने लगते है
जब भी सच की आंच में परखा गया उन्हें
सच के नाम पर सच
कितनी बार बोला जाता है
दूर से उठती है गंध
चिल्ला उठते है लोग
सच के नाम पर झूठ है ये 
कई बार मुखौंटे-मुखौंटे खेलते 
खुद ही उतार कर रख देते है पात्र
और हंसने लगते है कहते हुए
अरे आप इसे सच समझ रहे थे
इसी तरह उठते है ज्वार
सौं बार बोलते रहो
हर झूठ सच हो जाएंगा
इसी बुनियाद पर 
खड़ी मीनारों में
जब भी पुकारेंगे सच
लौट आंएगी गूंज एक झूठ को लपेटें हुए
और मुमकिन नहीं होगा गूंज-गूंज में से सच खोजना
हर लडाई सच की लड़ाई 
सच के लिए लड़ाई 
लड़ाई में सच कुछ भी नहीं
सच की तलाश में लगे लोग
चुन लेते है झूठ पहले ही मौंके पर
फिर किस नायक की तलाश में जुट जाती है भीड़ 
जो ले चले उन्हें सच के रास्ते पर 
सच की तलाश में
झूठ के पैरों से चलती 
भीड़ खुद से चिल्ला देती है
यहां कोई भी सच्चा नहीं
यहां कुछ भी सच नहीं
जिन्हें खोजना हो नायक
वो आगे बढ़े
हम लोग वापस जाते अपने रास्ते।

Thursday, April 2, 2015

हम गुलाम बनाते है। .................................

फुटबॉल के कोच से शिकायत की
स्टेमिना कब बढ़ेगा नब्बे मिनट 
लगातार मैदान पर घोड़े की तरह दौडने का
लॉन टेनिस के कोच से भी मिला
रैकेट्स विदेशी चाहिए 
खरीद दूंगा अगले हफ्तें से 
जूते ठीक है 
नडाल जो पहनता है 
उसी कंपनी के है
म्यूजिक में ठीक है 
लेकिन टीचर से मिला
कुछ नए नोट्स पर बात की
साईंस एक दम परफेक्ट है
मैथ्स में ध्यान कम देता है
लेकिन कुछ एक्सट्रा क्लॉस देनी है
पेंटिंग्स में स्केच सही बनाता है
कलर कांबिनेशन में अभी 
थोड़ा थोड़ा दबा हुआ है
सोशल साईंस में ए मिला है
विदेशी भाषा में तेज है
संवाद कर लेता है आसानी से 
ज्यॉग्राफी में दम है
बरमूड़ा खोज लेता है तेजी से
जिबूती, स्पेन, चिले 
सबको सही से पहचानता है
लिटरेटर में तो मास्टरपीस पढ़ चुका है
जानता है अमेरिका का इतिहास 
जर्मनी की हार भी मालूम है
इसी तरह से मिलते है 
शहर में पढ़ रहे खूबसूरत बच्चों के 
जहीन माता-पिता
बच्चों के टीचर्स से
शहर में सजे स्कूलों में 
शान से चमकते है शब्द
हम स्पार्टन पैदा करते है
शास्त्र से शस्त्र
और शस्त्रों में संगीत
सब सीखतें है बच्चें
थक कर घर जाते है ये बच्चें
कार से बैग निकालते है कुछ और बच्चें
जूतों के फीतें खोलते 
उनको करीने से रैक में लगाते है 
कुछ और बच्चें
स्पार्टन को पानी पिलाते है कुछ और बच्चें
पसीने से भींगें हुए कपड़ों को धोने जाते है कुछ और बच्चें
दूध बनाते है, किताबें आलमारियों में सजाते है कुछ और बच्चें
कहां से आते है ये कुछ और बच्चें 
कौन है वो जो गुलाम बनाते है 
शहर से निकलों 
गांव के स्कूलों में 
मास्टरों के दर्शन को तरस जाते है बच्चें
मास्टर है तो किताबों को खोज नहीं पाते है बच्चें
प्रधानमंत्री और राज्य का मुख्यमंत्री कौन है 
इस सब में उलझ जाते है बच्चें
रात कैसे होती है 
दिन क्यों निकलता है 
बूझों तो जाने हो जाते है बच्चें
स्कूलों के बाहर कोई नहीं पूछता
वो क्या बनाते है
लेकिन जानते वो सब है
हम गुलाम बनाते है
शहरों तक पहुंचते-पहुंचें 
गुलाम बन जाते है ये बच्चें
हम स्पार्टन बनाते है 
और 
हम गुलाम बनाते है