Monday, March 30, 2015

झूले-झूलेलाल- लोकपाल खा गए केजरीवाल

क्रांत्रि अपने सृजकों को खा जाती है एक बार फिर साबित हुआ,(भक्तगणों ने इसे क्रांत्रि ही कहा और आशुतोष और बुद्दि के अवतार एक और ऐंकर भी इसे कांत्रि भी कहते है) लोकपाल लोकपाल चिल्ला कर सत्ता के पालने में झूल रहे केजरीवाल खा गए अपना ही लोकपाल। सत्ता की एकछत्र ताकत हासिल करने की हवस अभी खत्म नहीं हुई है। केजरीवाल जिस पारदर्शिता का नारा बुलंद कर रहे थे उसकी हवा इस बार 42 दिन में ही निकल गई। हालांकि केजरीवाल शुरू से ही ये सब साबित करते रहे थे कि वही एक मात्र नेता है लेकिन कुछ लोगों को लग रहा था कि नहीं उनको भी नेता माना जाएं। केजरीवाल ने उनको लात मारकर बाहर निकाल दिया। इससे किसी को दुख नहीं होना चाहिएं क्योंकि सब लोकपाल-लोकपाल ही तो खेल रहे थे। बेचारे अऩ्ना को झुनझुना बना कर लाएं थे। अन्ना की हालत उस बच्चें जैसी थी जिसे रामलीला में राम बना दिया गया था, रामलीला चली तो सबने आरती उतारी, रात में जब पैसे का हिसाब हुआ तो उसके हाथ में चवन्नी भी नहीं आई सारा पैसा तो आयोजकों को मिलता है सो मिल गया। लेकिन अन्ना को ये याद ही नहीं रहा कि उसके मुकुट और लकड़ी की पन्नी चढ़ी तलवार से उसकी पूजा नहीं हो रही है और वो तलवार और मुकुट सहित गायब होकर घर-घर घूमने लगे तो उनकी समझ में हीं आया कि लोग उनकी आरती उतारने की बजाया उन पर हंस क्यों रहे है। अब तो उनको भी एम्नीसिया हो गया होगा लोकपाल के नाम पर। दोस्तों एक खबर और है जो गवैये से संबंधित है। लेकिन उसमें उतरना तो गटर में उतरना होगा। फिलहाल हम लोग यही तक रहे क्योंकि चंपूओं की तादाद काफी लंबी होने वाली है। संजय सिंह, और मनीष सिसौदिया आरती उतार रहे है। आशीष खेतान और आशुतोष विरूदावली गा रहे है।

हम शक्ति पूजते है .............................

.
हाथ में पन्नी 
पन्नी में पूरियां
कुछ सब्जियां 
कटे हुए फल
टूटे हुए नारियल के टुकडे
कुछ चुनरियां
मुठ्ठी में दबे हुए 
कुछ पांच तो कुछ दस के नोट
थेगली जड़े फ्राक में 
चप्पल बस लटकी हुई है
बालों में तेल डाला हुआ 
और चेहरे पर जितनी खुशी हो सकती है 
वो सारी एक साथ थी
सुबह से इस घर से उस घर 
दौड़ती है बच्चियां
कामवालियों की बच्चियां 
पास की गलियों में रहने वाली बच्चियां
इस्त्री करने वालों की बच्चियां 
ठेले वालों की बच्चियां
एक दिन डिमांड में रहती है
बालकॉनियों से आवाज लगती है उन्हें
रोक कर बुला लेती है मालकिनें
निशान से भड़कती है फर्श पर पैरों के 
आज के दिन उन्हीं पैरों को छूती है मालकिने 
एक दिन देवियों में बदल जाती है
सड़कों पर रोटियों बटोरती बेटियां
जल्दी जाना 
पहले हमारे घर आना है
इस सब में हंसती है 
रोज रोती हुई बेटिया
खाने की इंतजार में बैठे
मांगते है पैर छूकर आशीर्वाद 
एक दिन की भागदौड़ में 
होड है ज्यादा से ज्यादा घरों में जाने की
कैसे भी ज्यादा से ज्यादा खाने की
पैसा बनाने की
एक दिन उनका है 
वो एक दूसरे से 
कितना पैसा हुआ पूछती है 
और एक दिन हम शक्ति पूजते है

Sunday, March 29, 2015

क्रांति की नई अलख नौकरशाही के खिलाफ होनी चाहिए


लोग हमेशा वैसे ही नहीं होते जैसा आप उन्हें देखना चाहते है। ये एक कहावत है लेकिन बार बार सच क्यों होती है। कई बार आपको लगता है कि उनको ऐसा करना चाहिए। लेकिन हम हमेशा ये भूले रखते है कि हमको कैसा करना चाहिए। नौकरशाही की जकड़न में ये देश इसके आदर्श, इसके सपने, इसकी दुनिया,इसका भविष्य सब कुछ गुम हो रहा है। रोज ब रोज कोई न कोई कारनाम देश के सामने होता है। रोज कोई घोटाला, रोज कोई ऐसा अपराध जिसकों सुनने के बाद आप टीवा बंद करना चाहते है, आप अखबार को कही छुपा देना चाहते है अपने अबोध बच्चों की निगाह से दूर। हो सकता है आप कामयाब हो पाते हो कुछ देर के लिए। लेकिन ये सिर्फ एक भूल है। ये सिर्फ एक छलावा है। हम हर रोज अपने बच्चों को ऐसी दुनिया में भेज रहे है जहां मौत कही से भी झपट्टा मार सकती है, जहां जिंदगी कभी कही भी साथ छोड़ सकती है, कही भी सपने रूक सकते है टूट सकते है और हैरानी की बात है कि गुनाहगार हम ऊपर बैठे किसी एक ऊपरवाले को मानते है। हमको गालियां देने के लिए कुछ नेता होते है जो लूट के लिए नौकरशाहों के औंजार बनते है। लूट में हिस्सें को लेकर कभी कोई लड़ाई नहीं होती । क्योंकि इसमें एक पक्ष तो हमेशा पर्दे के पीछे छिपा होता है। दूसरे को गालियां खानी है,अपने बच्चों के लिए बददुआ इकट्ठी करनी होती है। नौकरशाह हमेशा पर्दे के पीछे और गाली खाने वाला नेता हर वक्त सामने। रिस्क ज्यादा है तो हिस्सा भी ज्यादा होगा।  पिछले साठ सालों से इस देश में यही खेल चल रहा था लेकिन अब इसमें थोड़ा बदलाव दिख रहा है। नेता और ब्यूरोक्रेट रोज-रोज नए घोटालों में शामिल है। नाम सामने आए या ना आए कोई फर्क नहीं पड़ता है। अब लूट संस्थागत हो गई है। तो उसके तरीके भी विकसित हो गए है।  हो सकता है कि ये बात कभी साबित न हो लेकिन एक आदमी ने कही जिस पर अविश्वास नहीं किया जा सकता है कि अवैध खनन के तौर पर उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में हम लोग जिस गणित की बात करते है वो तो सड़क के किनारे बिकने वाले कैलकुलेटर के साथ ही खत्म हो जाता है लेकिन एक डीएम को मिलने वाली रकम 12 लाख रूपए रोजाना है। बारह लाख रूपए रोजाना अवैध कमाई इसका मतलब आप समझते होंगे लेकिन फिर भी इसको इस तरह लिखते है 3 करोड़ 60 लाख रूपए महीना 42 करोड 20 लाख रूपए सालाना। इस आंकड़े पर शायद आपको पसीना आ गया होगा। लेकिन ये सिर्फ एक खनन का पैसा है किसी एक खनन के जिले में जो डीएम को मिल रहा है। हो सकता है चूंकि मैं जानता हू कि मैं किसी नौकरशाह का कोई दोस्त नहीं हूं लिहाजा उनके पढ़ने के लिए भी नहीं है लेकिन जो पढ़ तो शायद वो मुंह झुठलाने के लिए ही इस पर सवाल उठाएंगा, सच उसको भी पता है और कोर्ट में गड़करी भी ईमानदार साबित हो सकता है। क्योंकि कानून अगर उन अंग्रेजों के वक्त के से नहीं चल रहे होते तो इस देश के वास्तविक लुटेरों के घरबार नीलाम हो जाते। लेकिन छोड़िये वो सब सिंधिया घराना जीत कर लोकसभा और विधानसभाओं में रहता है वही सिंधिया घराना जो रानी लक्ष्मीबाई के खिलाफ  गद्दार और अंग्रेजों के साथ रहा। दरअसल इस देश के इस तरह बदलने में नौकरशाहों का सबसे बड़ा योगदान है। अगर आपको शक हो तो पूरे देश के नौकरशाहों में से एक ऐसा पकड़ कर दिखा दीजिए जिसके बच्चें किसी सरकारी स्कूल में शिक्षा पा रहे है और वहां से उससे बेहतर पब्लिक स्कूल हो।  एक नौकरशाह तो स्पैन में छुट्टिया बिताता है तो दूसरे का कंपीटिशन होता है कि वो शिकागो में परिवार के साथ जा पहुंचे। दोस्तों सेलरी से दो कमरे का फ्लैट उनको दिल्ली में नहीं मिल सकता है। लेकिन उनके फार्म हाऊस और कोठियों को देखना हो तो जरा गोमतीनगर में जाकर एक नजर डाल लो।  खैर इन पर लिखना तो इस देश की गुलामी के इतिहास पर लिखना है। उत्तर प्रदेश में ऐसे जाने कितने एसएसपी होंगे जिन्होंने एनकाऊंटर में अपना हाथ नहीं आजमाया होगा। और ये एनकाऊंटर कितने असली होते है ये कानून की आंखों में बंधी पट्टी में दिखाई नहीं देता है। बहुत से एनकाऊंटर अनआईडैंटिफाईड रह जाते है , तो क्या हुआ कानून के नाम पर उनको इंसानों को भेड़ -बकरी से ज्यादा कुछ समझने का होश नहीं रहता है।  नेशनल हाईवे 58 और 24 रोज गुजरते है लाखों लोग। जाम में फंसते हुए, वक्त को दूसरे आदमियों को गाली देते हुए, दिन को कोसते हुए उनको सरेराह दिखता है पैसे वसूलते ट्रैफिक पुलिस वाले। लेकिन नौकरशाही को नहीं दिखता है।क्योंकि कभी भी डीआईजी या आईजी मोदीनगर जाम में फंसा नहीं कि लाठियां लगी और अगले दिन फोटो कैप्शन सहित कि जाम का हल तलाशा जाएंगा। ऐसे बहुत उदाहरण है लेकिन ये तो सिर्फ हंसते-खेलते हुए उदाहरण है अगर नौकरशाही का और भी गंदा चेहरा देखना हो तो आपको गांवों में दूर-दराज के इलाकों में देखना होगा जहां भ्रष्ट्राचार के चलते लोग बीमारी से भूख या अकाल मौत मरते है और नौकरशाह फाईलों में कुछ ऐसी चीजें दर्ज करते है जिससे बौंने राजनेता उछल उछल कर राजनीति करते रहे। काफी बहस होती है संसद और विधानसभाओं में कही भी सिरे नहीं चढ़ती। उदाहरण तो सैंकड़ों हो सकते है लेकिन बात गृहमंत्रालय की कर लेते है। रणवीर एनकाऊंटर जिसमें सीबीआई अदालत ने पुलिसकर्मियों को हत्या का गुनाहगार ठहरा दिया लेकिन वो अधिकारी जिन्होंने कैमरे के सामने बड़ी बड़ी बातें की इस हत्याकांड को मुठभेड़ साबित करने में वो आज होम मिनिस्ट्री में ही है। त्तराखंड आंदोलन के वक्त निहत्थे आंदोलनकारियों की फोर्स ने गोलियां चलाकर हत्याएं की, बलात्कार की घटनाओं के सनसनीखेज आरोप लगे। मैं उस वक्त मुजफ्फरनगर में ही एक स्कूल में पढ़ता था। दो अक्तूबर की इस घटना ने हिला कर रख दिया था। लेकिन हुआ क्या। वो नौकरशाह देश के लिए फिर से कानून बना रहे है जिन्होंने आदेश दिया था। इस कारनामे का। कोई होम मिनिस्ट्री में है तो कोई दिल्ली की ही दूसरी मिनिस्ट्री में। और बौंने नेता जातियों की राजनीति कर टके के भाव बिकते  है। और जनता है कि अपना सारा गुस्सा नेताओं पर जाया करती है और परदे के पीछे हंसतें रहते है नौकरशाह।  दुष्यंत के शब्दों में शायद इस पीड़ा की कोई झलक हो।
आज मेरा साथ दो वैसे मुझे मालूम है
पत्थरों में चीख़ हर्गिज़ कारगर होगी नहीं
आपके टुकड़ों के टुकड़े कर दिये जायेंगे पर
आपकी ताज़ीम में कोई कसर होगी नहीं
सिर्फ़ शायर देखता है क़हक़हों की अस्लियत
हर किसी के पास तो ऐसी नज़र होगी नहीं

अरविंद केजरीवाल शाह---योगेंद्र यादव शून्य

"ये फ्रख तो हासिल है, बुरे है कि भले है
दो -चार कदम हम भी तेरे साथ चले है।"
दिल्ली के आम आदमी पार्टी में जूतम-पैजार हुईो। इंसान का इंसान से बढ़े भाईचारा यही संदेश देने वाले अरविंद ने पिछवाड़ें पर लात मार कर ही निकाला प्रशांत और योगेन्द्र यादव को। इस वक्त बहुत से लोगो को दुख हुआ। बहुत सारी राजनीतिक टिप्पणी आईं लेकिन मुझे एक को शेयर करने का मन हुआ जो कश्मीर पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला की थी। " पुराने दलों को आप जैसा बनने की सलाह दी जा रही थी पर लगता है आप ने हम जैसा बनने का फैसला किया है "। ये एक उम्मीद के धुंधला जाने की आवाज लगती है यहां तक कि उन लोगों को भी जिन लोगो के विरोध में ये पार्टी खड़ी हुई थी। क्योंकि सब लोगों ने उम्मीद पाली हुई थी कि ये वैकल्पिक राजनीति का एक नया अध्याय है। मुझे याद है 2011 और अब मैं नाम भी लिख सकता हूं शिवेन्द्र सिंह चौहान और शर्मिष्ठा (क्योंकि वो इस सपने के टूटने से पहले ही टूट चुके थे इन लोगो की सच्चाईंया देखकर)जैसे कार्यकर्ताओं से मेरी बातचीत। बहस इसीलिए नहीं लिख रहा हूं क्योंकि मैं उनमें शामिल नहीं था लिहाजा मैं उन लोगो से बस बातचीत करता था। शिवेन्द्र और शर्मिष्ठा पत्रकारिता का अपना करियर छोड़ कर इस मूवमेंट ( जैसा वो उस वक्त कहते थे) में शामिल हुए थे। मैं अपने एक अभिन्न दोस्त सिदार्थ तिवारी के साथ शिवेन्द्र से मिला और बेबाक बातचीत में मैंने इन लोगों को नाटकखोर कहा कि लोकपाल की नहीं जवाबदेही का बात करनी चाहिए। उस वक्त से लेकर आजतक मुझे कभी अरविंद और उसकी टीम पर भरोसा नहीं रहा। हां ये लोग कुछ अच्छा कर सकते है लेकिन नया नहीं कर सकते। इस बात पर हमेशा मै दृड रहता था। उस वक्त का एक आर्टिकल्स है और "और वो दिन भी आ गया" मीडियालोक में लिख दिया था जो मेरा ब्लॉग है। उस वक्त लोग ब्लॉग लिखते थे तो पढ़ते भी थे । उस ब्लॉग पर इतनी गालियां थी मां-बहन से लेकर मां-बाप को सबको कोसा गया मेरे। मेरे लिए उसका सिर्फ एक ही मतलब था कि ये लोग इतने छोटे है कि विरोध का स्वर तो दूर की बात है चुपचाप बोले गए शब्द तक बर्दाश्त नहीं है। और उस वक्त भी नायक अरविंद ही था। जबकि अरविंद का पिछला ट्रैक रिकॉर्ड इस बात की गवाही नहीं देता था कि वो आदमी एक ईमानदार आदमी भी है। एक सवाल से ही सब कुछ जवाब मिल जाते है कि 15 साल तक नौकरी में रहने के बावजूद बताने के लिए एक भी काम नहीं जो उसने भ्रष्ट्राचार के खिळाफ किया हो। हां ये तय था कि वो मीडिया में प्रसिद्धी का बेहद तलबगार है और उसकी अटेंशन हासिल करने के लिए कुछ भी करेगा। । खैर एक गवैया भी जुड़ गया( पर्सनल टिप्पणी नहीं लेकिन बड़े -बड़े बालों में बीच की मांग और गले में मोटी सोने की चैन हाथों में कड़े और बातचीत में तुम्हारी भाभी ने दो लाख के कंगन खऱीद लिए या कितने का क्या खरीद लिया के अलावा टीवी ऑन होते ही एक दम दार्शनिक सुकरात) एऩजीओ के गैंग से कई और लोग सौगात में मिले एक नाम मनीष सिसौदिया। भी। गांव में कहा जाता है ना लीपने का ना पोतने का। खैर बात वापस वही जा रही है जहां हर बार चली जाती है। इसको यही छोड़ते है आगे की बात करते है। इससे कई लोगों के दिल टूटे होंगे। अरविंद की एक बात जो उसकी पद लोलुपता को दिखाती है वो है उस स्टिंग्स में गाली-गलौंज नहीं ( ये तो उसकी व्यक्तिगत औकात दिखाती है) ये कहना कि मैं 67 विधायकों को लेकर अलग हो जाता हूं आप चलाओं ये पार्टी। पहली बात अगर अरविंद को साफगोई की राजनीति करनी थी और उसके जेहन में होती तो ये कहता कि आप संभालों ये विधायक और पार्टी में सच्चाई के हक में अकेला खड़ा हो जाता हूं। लेकिन नौकरशाहों के राजनीति में आने के बाद के तेवरों के एक मिरर ईमेज है ये सब। इस नौकरशाह से कतई उम्मीद नहीं है। क्योंकि याद कीजिए जीत के बाद अपनी पत्नी का हाथ हिलाते हुए ये कहा था कि ये कभी मेरे साथ कही सामने नहीं आई क्योंकि इसको डर था सरकार इसके खिलाफ कुछ कर देंगी तो मैंने इस बार कहा कि सरकार कुछ नहीं करेंगी। गुरू का ये गणित लाजवाब है, मुख्यमंत्री वो भी पांच साल किसी सरकार की औंकात नहीं उसकी बीबी को कुछ कहे दफ्तर जाएं या नहीं। लेकिन बॉस अगर आप सच्चाई के रास्तें पर चल रहे थे तो औरों की तरह सबकुछ दांव पर लगाने में परहेज कौन सा था। बेटी स्टूडैंट विंग की अध्यक्ष। गालियां बीजेपी और कांग्रेस के नेताओं के वंशवाद को। गिनवाएं तो क्या। लेकिन उनके साथ जुड़े लोगों को उनसे उम्मीद है। मेरा तो कहना है कि वो दिल्ली का कुछ भला करे जो उनके लिए अब बेहद जरूरी है क्योंकि जिस सिद्वांत का नारा उसके चंपू गवैया, मनीष सिसौदिया या फिर पत्रकारिता में बहुत सी कहानियों के नायक खेतान और आशुतोष है दे रहे है वो तो तार तार हो गया है। और बहुत से लोगो के लिए ये फिर एक उम्मीद टूटने का दौर है। 
" दीप था या तारा क्या जाने. दिल में क्यू डूबा क्या जाने
आस की मैली चादर ओढ़े, वो भी था मुझ-सा क्या जाने"।

Thursday, March 26, 2015

नौकरशाही के बोझ तले दम तोड़ रहा है देश।

गांव से कई बार शहर लौटते वक्त देर हो जाती थी। गाड़ी की लाईट जलाने लाईक अंंधेरा सड़कों पर फैल जाया करता था। गन्नों के बड़े बड़ें खेतों में गाड़ी चलाते वक्त काफी ख्याल रखना पडता था कि कही कोई नीलगाय या फिर कोई मस्त बच्चा अचानक खेत से या फिर गलियों से निकल कर सड़क पर ना जाएं। ऐसा कभी नहीं हुआ। लेकिन हर बार निक्कर, बनियान और किसी लोकल ब्रांड के कैनवस शू पहने, पसीने से भीगे नौजवान हमेशा मिलते थे जो लगातार सड़क के किनारे शाम से ही भागने-दौड़ने, उछल और कूद की प्रैक्टिस करते रहते थे। पहली बार तो लगा क्या देश में खेलकूद की परंपरा जड़़ जमा गई है। क्या ये लोग किसी प्रतियोगिता की तैयारी कर रहे है लेकिन गांव दर गांव यानि मेरे गांव से शहर तक के बीच पड़ने वाले दर्जनों गांव का यही हाल दिखता था तो एक दिन मैंने पूछ लिया था कि भाई ये क्या चल रहा है तो पता चला कि ये नौजवान पुलिस और फौंज की भर्ती के लिए पसीना बहा रहे है ताकि मेडीकली अनफिट न हो। मां-बाप, बहनों और भाईयों के सपनों की पतवार बनने के लिए जीतो़ड मेहनत करते नौजवान रोज दिखते थे। और आज यूपी में सड़कों पर एक गुस्सा तारी है। जिला दर जिला नौजवान सड़कों पर विरोध प्रदर्शन करते दिख रहे है। पुलिस की भर्ती चल रही है और नौजवान सड़कों पर है। हजारों नौजवान विरोध प्रदर्शन करते और उन पर लाठी चलाती पुलिस के सीन आपको टीवी से लेकर अखबारों सब में दिख रहे है। आपके जेहन में आ रहा है कि ये क्यों हो रहा है। जवाब है कि भारी धांधली हुई है ये सब आरोप लगे है। पांच जिले और एक खास जाति के नौजवानों पर विशेष कृपा की जा रही है। पांच सांसद एक ही परिवार से ताल्लुक रखते है और जाति समाजवादी है। मुलायम सिंह यादव के समाजवाद की लहर में गोते खा रहे लोगों को समाजवाद की चाशनी से निकली मलाई मिल रही है। और हजारों नौजवान जिंदगी को दांव पर लगाने को तैयार है। इस पर आपको अखबारों में कही कही रीजनल टीवी में भी खबर दिख रही है। लेकिन ये खबर का सिर्फ एक सिरा है। और दूसरा सिरा दबा हुआ है ब्यूरोक्रेशी के नीचे। पिछली बार भी मुलायम सिंह समाजवादी थे। उनकी पार्टी की सरकार थी और भर्ती में समाजवाद का अवतार हुआ था। अलग अलग अधिकारियों ने बोर्ड में किस तरह की धांधली की थी ये सब नुमाया हुई थी। अचानक सरकार बदल गई थी। और समाजवादी प्रदेश अचानक नीले रंग में रंग गया। पुलिस अधिकारी बदले गए। पुलिस के नए मुखिया बने विक्रम सिंह। दिल्ली में एडीजी थे सीआईएसएफ में। मुलाकात थी। एक दिन खबर आई कि 25 पुलिस अधिकारियों पर मुकदमा कायम कर दिया गया। ये सभी अधिकारी एसपी ओर एसएसपी स्तर के थे। सभी उन बोर्डों के चैयरमेन थे जिन्होंने जम कर हिंदुस्तान के संविधान को जूते तले रौंदा था यानि जिस से ताकत पाई थी उसी की धोती खोल दी थी। उन तमाम के खिलाफ मुकदमा दर्ज किया गया। सब तरफ से निराश होते हुए भी हमेशा लोगों पर उम्मीद रखता था तो लगा कि शायद ये एक चमत्कारी काम है। मैंने पहली बार किसी डीजीपी को फोन किया और बधाई दी कि अगर आप ये इन पर चार्जशीट फाईल कर पाएँ और इनको बाहर कर पाएं तो शायद इस देश की आपसे ज्यादा सेवा बस देश के लिए जान देने वालों ने ही की होगी। लेकिन मुझे यकीन नहीं है कि ऐसा होगा। और वही हुआ। आज वो 25 पुलिसअधिकारी इस देश का कानून बचा रहे है। कैसा कानू बचा होगा ये सबको मालूम है उस पर कुछ भी लिखना रूदाली गाना है। क्योंकि पिछले 14 साल की पत्रकारिता के दौरान हासिल की गई जानकारी से ये मालूम था कि इस देश को नौकरशाह चला रहे है जो नेताओं को बेवकूफ बना रहे है। लूट की हिस्सेदारी हो रही है। और अपना ये मानना है कि नेताओं के पास बेहद कम पैसा जाता है ज्यादातर हिस्सा नौकरशाहों की जेंब में आ रहा है। मध्यप्रदेश के टीनू जोशी और उनकी पत्नी से मिले 350 करोड़ से ज्यादा की अवैध संपत्ति का पता चला था। लेकिन मैं यूपी की बात कर रहा हूं यहां ऐसे जाने कितने उदाहरण होंगे जिन पर अगर जांच हो जाएं तो मध्यप्रदेश की नौकरशाह दंपत्ति की संपत्ति किसी फकीर की संपत्ति लगे। ऐसा इसलिए कह रहा हूं कि विपक्ष में रहते जिन घोटालों और धाधंलियों के नाम पर नेता वोट बटोरते है सत्ता में बैठते ही वो सब हवा में गायब हो जाते है। किसी को याद नहीं रहता है कि आप तो विपक्ष में थे तो ये कह रहे थे। अखबार, टीवी और आदमी कहता है कि नेताओं की यही आदत है लेकिन कोई ये नहीं जानता कि नेता जी को ये नौकरशाह समझा चुके हुोते है कि यदि आपने घोटाले की ईमानदारी से जांच की तो आरोप तो साबित हो जाएंगे लेकिन कमाई का वो जरिया गायब हो जाएगा। और नेता जी कमाई के लालच मे उसी करप्ट नौकरशाह को अपना पीए बना लेते है जिसकी जांच का आश्वासन वो रैलियों में बेचारी जनता को देते रहे थे। क्या कभी ये सवाल उठाता है कि लाख रूपए कि सैलरी वालों के बच्चें कहां पढ़ते है। छुट्टियां कहां बिताते है। किस देश में जाकर नौकरियां करते है। उस देश में कौन सी कार चलाते है। और किस तरह के फ्लैट में रहते है। कोई नहीं जानता। हजारों लोग एक चपरासी की भर्ती पर फार्म भरते है और जरा सी गलती पर वो चपरासी सस्पैंड हो जाता है लेकिन ये नए नवाब हमेशा राजा रहते है हजारों करोड़ का घोटाला हो तो दोषी कोई ओर, जहरीली शराब से दर्जनों मर जाएं तो दोषी शराब बनाने वाले या उनसे कमीशन लेने वाले, फिर भाई ये नौकरशाह किस मर्ज की दवा ले रहे है। लाखों रूपए के खर्चें से पल रहे इऩ सरकारी राजाओं की जिम्मेदारी क्या है। अक्सर बौंने राजनेताओं ने पूरा राजनीतिक परिदृश्य घेर लिया है। एक शरद यादव है। संसद में अक्सर आई-बाई गाता रहता है भाई। राजनीतिक ताकत इतनी है कि जबलपुर से नहीं बिहार से जाति विरादरी की राजनीति करता है। और तेवर देखों तो चाणक्य को राजनीति पढ़ा दे। ऐसे नेता का एक बयान याद है जो उसने संसद में दिया था लोकपाल की बहस के दौरान कि अधिकारी काम करने से डर रहे है आरटीआई की वजह से। इस आदमी को गाली देने का मन भी नहीं करता। क्योंकि एकदम से छूंछा सा गुस्सा लगता है। अरे भाई नौकरशाह इस एक्ट में जेल जाने की लाईन लागू करने से पहले ही हटा चुके थे। अरे अगर काम करने से डर रहे हो तो नौकरी छोड़ क्यों नहीं देते। नौकरशाही से बडी जाति व्यव्स्था इस वक्त देश में नहीं है। ये एक दूसरे को सरेराह कोसते है लेकिन जैसे ही कोई एक घेरे में आता है तो सारे के सारे उसे बचाने के लिए दम प्राण एक कर देते है। लिखने के लिए और भी है लेकिन क्या किया जा सकता है। बस डर तो ये है कि पुलिस के नौजवान बनकर या फिर फौंज के जवान बनकर देश की सेवा करने का सपना देखने वाले नौजवानों की वो कतार जो गांव गांव शाम को दौड़ती है टुट न जाएं। नौजवानों के सपने टूटने की आवाज बहुत दर्द भरी होती है और उसका दर्द ये देश हर बार उठाता है और अगर किसी को इसका फर्क नहीं पड़ता तो वो है इस देश के नौकरशाह। जाने कब ये बात लोगो को समझ आएँगी और ज्यादातर की जगह सलाखों के पीछे ये बात पूरी होगी। 
चे कि कुछ पक्तियां है शायद यहां कुछ मौंजू हो
यह कभी मत सोचना कि
उपहारों से लदे और
शाही शान-शौकत से लैस वे पिस्सू
हमारी एकता और सच्चाई को चूस पाएँगे ।
हम उनकी बन्दूकें, उनकी गोलियाँ और
एक चट्टान चाहते हैं । बस,
और कुछ नहीं ।

Tuesday, March 24, 2015

अरविद को अरविंद से खतरा है और किसी से नहीं।

बीजेपी के अंहकार को धूल में मिला दिया गया। बीजेपी इस लिए कह रहा हूं क्योंकि इस वक्त बीजेपी का मतलब नमो और उसकी एक मोटी परछाई यानि कथित चाणक्य हो गया है। अंहकार की पराकाष्ठा दिख रही थी। कपड़ों से देश की छवि पेश की जा रही थी और देश की समस्याओंं के बारे में फार्मूल फ्रांस की रानी मेरी लुई आंत्वेन (नाम सही से नहीं लिख पाया) की ही दिए जा रहे थे। फ्रांस की भूखी जनता रानी की गाड़ी के पीछे भाग रही थी और रानी ने अपनी सहायक से पूछा कि ये क्यों चिल्ला रहे है तो सहरायक का जवाब था कि ये इनके पास रोटी नहीं है तो रानी ने बड़ी हैरानी से जवाब दिया था कि तब ये केक क्यों नहीं खाते। उसी तरह से हंबल चाय वाले ने गरीब हिंदुस्तानियों को दस लाख का सूट पहन कर जवाब दिया था कि अरे घरों में बिजली का बिल ज्यादा आ रहा है तो क्या हुआ हम न्यूक्लियर बिल पर देश का सम्मान अमेरिका की चौखट में रख रहे है। मीडिया में इस वक्त नमो नमो चल रहा है जिसको देखों वही चिल्ला रहा है। ऐसे में इस बात पर बहस किसी ने की ही नहीं कि भाई अमेरिका कितने पीछे हटा ये बताओं। बस ये हुआ कि एक लाख करोड़ रूपए के ऑर्डर दो और गरीब को बिजली मिल जाएंगी यानि 2025 की डेडलाईन अब खिसक कर 2035 तक चली जा चुकी होगी। खैर मोदी जी ने कहा भारत मेकिंग शुरू हो गया है अंबानी और अडानी अब महागर बसाने पर लग गए है आधुनिक सुख-सुविधाओं से भरे हुए नगर। और मोदी जी ने झुग्गी वालोें को कह दिया अगर झुग्गी में लाईट नहीं तो पानी नहीं तो परेशान न हो अंबानी और अडानी के बसाये गये शहरों में रहो। जनता ने जो जवाब देना था दिया। और चूंकि हिंदुस्तानियों की सबसे खूबसूरत आदत है जनतंत्र में विश्वास तो जवाब सधा हुआ दिया गया। कैसे लोग है जी को पता चल गया कि लोग ऐसे ही होते है। लेकिन इस पूरे शोर-शराबे में एक बात से लोग अपना ध्यान हट रहा है और वो है कि आप पार्टी बीजेपी से भी ज्यादा एक आदमी आश्रित पार्टी है। आम आदमी का मतलब सिर्फ अरविंद केजरीवाल है। दिल्ली में मोदी के पोस्टर.बैनर और पंपलेट में कभी कभी ए4साईज में स्टांप साईज में कोई दूसरा नेता भी मिल जाता था। कभी कभी किरण बेदी भी पोस्टर में नरेन्द्र बेदी के साथ चल दी है। लेकिन आम आदमी के पोस्टरों में किसी का चेहरा नहीं था अरविंद के अलावा। चाहे वो बस स्टॉप पर लगे पोस्टर हो या फिर कही भी बैनर। और तो और जिस गाने को आपने मुख्यालय में सुना वो गाना या संगीतमय प्रस्तुति भी सिर्फ पांच साल अरविंद केजरीवाल का नारा था। जनता ने सुन लिया नारा और अपने जनतांत्रिक अधिकारों को सबसे बड़ी ताकत थमा अरविंद के हाथो। इस बहुमत का बोझ आपको आप नेताओं के कल के भाषणों में सुनाई दे रहा था। हर कोई इस जीत से डरा हुआ था। हर कोई इस बोझ को महसूस कर रहा था। लेकिन हम को अगर किसी से डर लग रहा है तो अरविंद केजरीवाल से। व्यक्तिगत तौर पर कोई वास्ता नहीं रहा लेकिन जैसा दिखा उसमें अरविंद एक तेज-तर्रार और समीकरणों की जोड़-तोड़ में माहिर एक नौकरशाह दिख रहे है। अंदर से कितने डेमोक्रेटिक है मालूम नहीं। लेकिन पूरा आंदोलन एक आदमी के बदल गया है। पूरी सरकार एक आदमी पर निर्भर हो गई है। ऐसे में अरविंद की पसंद और नापसंद ही पार्टी की पसंद और नापसंद हो जाएंगी। ऐसे में अरविंद की जरा सी भूल एक पूरी पार्टी की भूल में तब्दील हो जाएंगी। ऐसे में ऐसे वक्त पर जब खुशियों की शहनाईंयां आम आदमी पार्टी के दरवाजे पर बज रही होंगी आम आदमी के रणनीतिकार इस आवाज को भी सुन रहे होंगे। वक्त तय कर देंगा कि देश के आम आदमियों का लोकतंत्र में किया गया एक और प्रयोग विफल हुआ या सफल। अपनी कामना सफलता की है आगे जो अरविंद तय करे।

दोस्तो ये संजय सिंह कौन है।



अन्ना आंदोलन के दौरान मंच पर एक से बढ़ कर एक कलाकृति मौजूद थी। बौंनों की उछल-कूद के दौरान रामलीला पहुंच रहे मीडिया के बौंनों ने टीवी स्क्रीन पर उछलकूद मचा रखी थी। खैर आशुतोष जी के बारे में कुछ कहने की जरूरत नहीं है उनका एजेंडा साफ था बाकि लोग सिर्फ मंच से भीड़ की उम्मीद का आकलन कर रहे थे। और भीड़ की उम्मीद को मंच पर खड़े हुए अभिनेताओं से जोड़ रहे थे। चलिए बाकि नायकों के बारे में कुछ न कुछ जानता था लेकिन एक आदमी अचानक बीच-बीच में आता था और बोलता था ..लरेगे,, जीतेंगे । उसकी आवाज में इतना जोश था कि सामने वाले अपना होश खो दे। मेरे साथ मेरे एडीटर दीपक शर्मा भी थे उनसे पूछा कि ये कौन है तो उन्होंने कहा कि ये जनाब संजय सिंह है। जगह उन्होंने बताया कि ये अमेठी के है। बाद में अपनी खबरों के दौरान बाईट्स लिए लेकिन कभी वो ऐसा आदमी नहीं दिखा जिससे बहुत बात करने की इच्छा हो। हालंकि बाद में किसी पत्रकार ने बताया कि इनकी अपने पिता से बहुत शानदार बातचीत होती है जिसमें ये अपने पिता से कहते है कि बीस हजार रूपये आप भिजवाते हो उसमें गुजारा नहीं होता है और आपने बहु और बच्चें भी भेज दिये पैसे बढ़ाओं। युवा रिपोर्टर मेरे बहुत करीब है इसीलिए मुझे लगा लेकिन मैंने कहा नहीं कि जो आदमी इतना बड़ा नाटक कर सकता है कि पत्रकारों के सामने अपने पिता को इस तरह सुना रहा वो कुछ भी हो सकता है एक ईमानदार और जननेता नहीं हो सकता। दरअसल इन साहब के बारे में बाकि सब कहानी अगर आपको जाननी है तो फिर आप चले जाएं सुल्तानपुर वहां के एक सपा विधायक थे जिनकी ख्याति किसी और महिला को साथ घुमाने के लिए बहुत हुई थी ये साहब उनके यहां कार्यकर्ताओं की लिस्ट में आते थे। और जिस भाषा का इस्तेमाल किया जाता है चमचे थे। अपनी पूरी योग्यता को इन्होंने यहां पूरे तौर पर दिखाया। यहां ये अरविंद के खासमखास है अक्सर आप इनकी महानता के किस्से सुन सकते है किसी न किसी आपिया पत्रकार से। लेकिन इनका सबसे महान काम सिर्फ ये ही कि आप अरविंद की ओर चले नहीं कि ये गुर्राने लगते है। पहली बार ये सुन कर इऩ पर लिखने को मन हुआ जब इनको एक स्टिंग्स पर सुप्रीम कोर्ट की गाईडनलाईन के बारे में बोलते हुए सुना। वाह रे राजा दूसरों की धोती सरेराह खोलते हुए कभी दूसरी पार्टियों के संविधान या फिर देश के संविधान की याद नहीं आई अपनी पोल खुली नहीं कि लिहाज की गठरी उसी मीडिया के कंधें रखने लगे जिस पर जब चाहते थे जिसकी चाहते थे धोती खोल कर रख देते थे। और एक बात कल इनके कान भी इनको धोखा देने लगे थे जब इन्होंने बताया कि ये अरविंद की आवाज नहीं पहचान पा रहे है। जियो राजा जियो ... वैसे सांडा कि याद है ( पुराना गॉडफादर)

आखिर मोदी किसके हक में है।

मुझे कुछ विकृत दिमाग सेक्युलरिस्टों से कोई सहानुभूति नहीं है। जो आरएसएस को आईएसआईएस जितना खतरनाक मान रहे है। मुझे जूलियस फ्रांसिस रैबिरों जिन्हें में देश का हीरो मानता हूं (के पीएस गिल से भी बड़ा) के आर्तनाद से भी बहुत पीड़ा नहीं हुई है क्योंकि ये अतिरंजित प्रतिक्रिया ज्यादा लगता है दर्द कम। राजेश्वर सिंह का नाम पहली बार तभी सुना जब वो लोकल मीडिया में बगदादी की टक्कर का दिखाया गया। ऐसे बहुत से लोग जो मोदी के आने से देश छो़ड़ने की पीड़ा से गुजरने की बात कर रहे है उनसे भी कोई सहानुभूति नहीें है। क्योंकि मैं ये जानता हूं कि बहुसंख्यक जिसने इस देश का भाग्य 1947 में संविधान सभाओं में तय किया था आज भी सौभाग्य से बहुमत में है। हो सकता है बहुत से लोगो को ये बात काफी अजीब लगे लेकिन मानने में कोई दिक्कत नहीं कि ज्यादातर अल्पसंख्यकों की घृणा का पात्र बने हुए मोदी को देश के बहुसंख्यक लोगो ने चुना है। उनको संविधान से मिली शक्ति से ही गद्दी हासिल हुई है किसी तमंचें के जोर पर नहीं। लेकिन चुनाव के दौरान भी अपनी एक ही शंका थी मोदी को लेकर और मुझे बहुत दुख हो रहा है कि वो सच साबित हो रही है। मोदी सरकार लगातार कॉरपोरेट के हक में गरीबों, मजलूमों और किसानों को गिरवी रख देंगी। मजदूरों के बच्चे आधुनिक गुलाम बनेंगे। एक के बाद एक फैसले लगातार इस और जा रहे है जिसमें जिसके पास पैसा है वही मालिक है। कानून की औकात जूते में रहने लायक बनाई जा रही है। किसानों के खिलाफ भूमि अधिग्रहण अध्यादेश को जिस तरह से पूरी तरह कॉरपोरेट के हक में बनाया गया है उसने शंका को सच किया है। एक के बाद एक फैसले सिर्फ उन्हीं के हक में। और इसके सबसे बड़े मददगार है तीस्ता, आजम और तथाकथित सेक्यूलर लोग। जो पूरी बहस को गरीबों के खिलाफ हो रही गतिविधियों पर ले जाने की बजाय धर्म के आधार पर ले जाने में जुटे है। जिस प्राची को रोज मीडिया शैतान की आवाज बना कर दिखाने की कोशिश करता है वही प्राची बुरी तरह से चुनाव हारी थी और उस सीट पर हिंदु ही बहुसंख्यक थे। ऐसा क्या हो गया उसके बयानों में। संघ पर कब आरोप नहीं लगे। क्या हो गया मोदी के बनने के बाद जो इस देश के शांतिप्रिय बहुसंख्यकों पर से विश्वास उठ गया सेक्युलरिज्म के ऐसे दुकानदारों का। दरअसल ये सब लोग पैसे पर पलते है मल्टीनेशनल कंपनियों के। ये पैसों पर पलते है देश को लूट रहे नौकरशाही और कॉरपोरेट के नाजायद गठबंधन के। इस वक्त मोदी से डर इस बात का नहीं है कि ये देश का सोशल फ्रैबिक टूट जाएगा क्योकि वो बहुसंख्यकों की संविधान के प्रति आस्था और देश को लोकतत्र बनाए ऱखने की जिद के चलते नहीं हो पाएंगा बल्कि डर इस बात का है कि पूरा का पूरा देश कॉरपोरेट को गिरवी न रक दे मोदी। खैर इस कड़ी में एक नई खबर सामने आ रही है अगर आपको दिख नहीं है तो आपकी मर्जी इस बार वही तम्बाकू इड्स्ट्री की शह पर इस सरकार ने पैकेटों पर छापी जाने वाली चेतावनी को लागू करने की तारीख बढ़ा दी है।और नारा वही है दोस्तों आम जनता का ख्याल रखना है। ये भी जान लो कि ये ही वो लॉबी है जिसने हर्षवर्धन जैसे नेता को जो तंबाकू लॉबी के खिलाफ सबसे बड़े कदम उठाने की कोशिश में था सड़क पर ला दिया। ( साईँस एड टेक कम से कम राजनतिज्ञों की भाषा में डंपिग यार्ड है)
खबर शेयर कर रहा हूं। जो अखबार की कटिंग्स के साथ है।
Relief likely for tobacco firms on the size of health warning
NEW DELHI: The parliamentary committee looking into amendments to the Cigarettes and Other Tobacco Products Act, which mandates increasing the size of health warnings on tobacco products, has urged the government to delay the date of implementation, which is April 1.
The committee on subordinate legislations headed by BJP MP Dilip M Gandhi submitted its report to Lok Sabha on Wednesday saying "the committee strongly urges the government that the implementation of notification dated October 15, 2014 may be kept in abeyance till the committee finalize the examination of the subject and arrives at appropriate conclusions and presents objective report to Parliament".
The panel said it had received representations from MPs, organizations and stakeholders involved in the beedi, tobacco and cigarette trade that the proposed notification would have adverse impact on the livelihood of a large number of people. "It is of the firm opinion that all such apprehensions need to be comprehensively examined before the amendment notification is brought to force," the panel said.

दोस्तों मोदी सरकार लुटेरों को एक बड़ी छूट देंगी काले धन के नाम पर आज ही लिख लो। (19 मार्च को शेयर किया हुआ आर्टिकल्स)

दोस्तों जब यूपीए सरकार लोकपाल को लेकर रामलीला मैदान में अंताक्षरी खेल रही थी तब एफडीआई (रिटेल में) को पास कराने की तैयारियां पूरी हो रही थी । और भारी बहुमत और जन आकांक्षाओं पर तैरते हुए आए मोदी जी पर धार्मिक सद्भावना को छोड़ने का आरोप लगा रहे है और इस पर सेक्युलरवादी हल्ला मचा रहे है उस वक्त एक बड़ी घटना होने वाली है। और उसका रिश्ता फिर लुटेरों को छूट है। हो सकता है आप इससे नाईत्तफाकी रखे लेकिन मुझे ऐसा लग रहा है इसके लिए माफ करें।
सरकार काले धन पर कानून लाने जा रही है। तमाम अखबार और मीडिया वाले इस बात पर आंगन-आंगन नाच रहे है। इसमें कितने कड़े प्रावधान होंगे उनकी स्तुति आप को मीडिया के हर घर में मिल जाएंगी। लेकिन आम आदमी जो इस बात पर ढाढ़स बांधे बैठा है कि इससे भ्रष्ट्राचार रूकेगा भले ही उसको कुछ मिले ना मिले। लेकिन इस खबर में एक बड़ी कहानी पर शायद अभी मीडिया बात नहीं करना चाहता। और वो कहानी है कि काला धन पर कानून लाने से पहले एक मौका दिया जा सकता है। जीं हां लुटेरों और भ्रष्ट्राचारियों को एक मौका देने की उम्मीद बहुत की जा रही है। जैसे ही काला धन पर कानून की बात सुनी थी तो इस सरकार पर यकीन नहीं हो रहा था क्योंकि काले धन पर अगर कोई कानून आ गया काले धन वालों को बिना कोई मौका दिए तो फिर इस सरकार पर शक ही कैसा। फिर ये कॉरपोरेट की सरकार ही कैसी। और फिर अरूण जेटली साहब पर सवाल कौन कर सकता है। लेकिन इसमें पेंच है। उसी दिन से खबर में सफिक्स साथ चल रहा है और वो है कानून लागू करने से पहले एक मौका। हां लुटेरों को मौका। हत्यारों को मौका (हत्यारा कहने के पीछे कारण है जिन लोगो ने जमाखोरी, कमीशनखोरी से धन इकट्ठा किया होगा उसकी वजह से कितने बच्चें कुपोषण से मरे होंगे कितने लोग अकाल मृत्यु का शिकार हुए होंगे)। देश के गद्दारों को मौका। ये एक मौका है पूरे तौर पर गैरकानूनी है। लेकिन इसको काले धन की आड़ में दिया जा रहा है। और इसके बाद मोदी जी के चुनाव का वो सारा खर्चा पूरा हो जाएंगा। इसके बाद कोई खर्च उन पर नहीं रह जाएंगा। क्योंकि काले धन के व्हाईट होने के बाद परेशानी कैसी। देश से लूटा गया लाखों करोड़ का काला धन एक दम से व्हाईट हो जाएंगा। लेकिन कानून लाने में जो देर हो रही है उसके पीछे एक बडा कारण है कि कांग्रेस इस तरह की लूट की छूट पहले ही दे चुकी है। एक बार ऐसी छूट देते वक्त कहा गया था कि ऐसी स्कीम फिर कभी नहीं आएगी। शायद सुप्रीम कोर्ट में इस तरह की दलील दी गई थी। और अब सरकार को काला धन पर कानून लाना है तो फिर ऐसी ही छूट की बात धीरे-धीरे की जा रही है। और उस स्कीम ने काले धन को सफेद करने पर खुद सीएजी और दूसरी तमाम संस्थाओं ने टिप्पणियां की थी। मैं आपको उस स्कीम से संबधित एक आर्टिकल शेयर कर रहा हूं ये आर्टिकल बिजनेस स्टैंडर्ड का है अगर आप चाहे तो वीडीआईएस 1997 को पूरा पढ़ सकते है।
Since this is something the Left also supported in the United Front government, and VDIS 1997 was one of India's most successful black money schemes, few have paid serious attention to this line in the CMP.
Well, they'd be advised to read the Comptroller and Auditor General of India's report on just how the VDIS scheme was serially abused, and the reason why the scheme was a runaway success was not because it was brilliantly designed, it was a success because it gave tax evaders and thieves (what else would you call 'cobbler scam' and 'hawala' accused who participated in it?) the best deal they'd ever got.
If you're favourably inclined to the government, the best that can be said was that the scheme was laxly run, and if you're not, you could say the scheme was deliberately designed to be the way it was. And no, no one has been held to account for this, at either a senior or a junior level.
To begin with, unlike any other amnesty scheme, VDIS 1997 allowed tax evaders to choose the price at which they wanted their assets valued.
While all schemes in the past said the assets declared were to be valued at current prices, VDIS 1997 brought in an arbitrary date of April 1, 1987 -- any jewellery acquired before April 1, 1986 was to be valued at prices prevailing on April 1, 1987 and any jewellery bought after this was to be based on the acquisition cost.
The choice of the cut-off date was strange since the scheme was introduced in 1997, and in the decade in between, gold prices had gone up by 84 per cent and silver by 53 per cent. Just introducing this simple change allowed tax evaders to lower their tax liabilities around 45 per cent in case they decided to declare their assets in the form of gold.
So, instead of a 30 per cent tax rate, the rate would come down to around 16 per cent! According to the CAG, this helped reduce the tax payments by between Rs 1,247 crore (Rs 12.47 billion) and Rs 1,965 crore (Rs 19.65 billion) depending upon whether the jewellery declared was shown to be in the form of silver or gold.
Of course, what happened was even worse than the carelessly designed law envisaged. For one, there was no proof of purchase to be given, except for an affidavit by the tax-evaders themselves.
So, even if gold was bought after 1987, it could be shown as having being bought before 1987. This is where the tax officers stepped in to make things better.
While the law said jewellery purchased in 1971, for instance, would have to be valued at the price on April 1, 1987, tax officers accepted the 1971 price as the correct one.
So, if you bought gold in 1997 (the year of the scheme), not only could you say you bought it before 1987 to reduce its valuation (for tax purposes) to around half, you could reduce it even further by saying you bought it in 1971, or 1961, even 1951!
The CAG found there were 113 cases where the gold declared was valued at 1961 prices, in another 21,128 cases the value was taken as that before 1967-68, and so on even though the law did not allow this.
Interestingly, the government clearly realised this was happening, and on November 25, 1997, a circular (No 296/31/97-IT Inv III) addressed to various commissioners of income tax said, "a large number of taxpayers (have) been misusing the provision and declaring unusual quantities of silver utensils, gold coins stating that they have been acquired long back apparently in an attempt to reduce the tax burden", and it directed the tax officials that the valuations should be based on prices on April 1, 1997 if there was no satisfactory proof given by the assessee.
Well, on January 22, 1998, another circular was issued asking the taxmen to issue certificates in all cases, never mind if the declarations were of an "unusual" nature!
The policy of declaring black assets held in the form of property was even more curious, and no proof of purchase or valuation was asked for -- so, in Kolkata and Mumbai, you've had property being declared as being worth the princely sum of Rs 5,530!
Okay, so VDIS 1997 was designed and implemented to give tax evaders a great deal (even those, like the cobbler scam accused, who were not legally permitted to use the scheme were allowed to do so), but how does this help reduce tax levels to 2-3 per cent now?
Because, even if finance minister P Chidambaram does bring in VDIS 2004, it can't be used for the current year, so you'll still have to pay 30 per cent tax rates for the current year.
Not really, for the CAG found that people had declared zero income (and even losses) in their regular tax assessments for 1997-98 while their VDIS declarations showed incomes for the same year.
So, if you're a habitual tax evader, or just someone who wants to reduce your tax payments, just cross your fingers and hope for a VDIS 2004 that's as loosely designed/implemented as its predecessor

भूमि अधिग्रहण अध्यादेश पर कैसी कैसी नौटंकी कर रही है मोदी सरकार। मर्द उतारा है अब।

ये एक महान मंत्री के बयानों का भावार्थ है। बेचारे बीरेन्द्र सिंह को याद ही नहीं रहा कि वो सर चौधरी छोटूराम से कोई रि्श्ताे रखते है और किसानों के नाम पर पूरी जिंदगी राजनीतिक रोटियां सेंकते और खाते रहे है। लिहाजा मोदी सरकार अप ऐसे बेशर्म मंत्री को सामने किया है जो जिसका हाल ही में पता चला था कि वो एक उद्योगपति के याट्स पर फ्री में छुट्टी बिता रहा थ। इनकी कारस्तानियां काफी हो सकती है। लेकिन ये बात बात में अपने वकीलों से काफी ऐसी की तैसी करा देता है सबूत मांगते मांगते। मैें नाम इसलिए नहीं लिख रहा हूं क्योंकि मैंने इस आदमी की दसवीं की मार्क्सशीट नहीं देखी है जिसपर लिखी उम्र और नाम असली माना जाता है। और इन्होंने अपनी चुनौती मर्द आदमी के तौर पर दी है विपक्ष को। लेकिन मैं समझ नहीं पा रहा हूं मोदी सरकार में बाकि मंत्री क्या है क्या वो मर्द के तौर पर कोई चुनौती दे सकते है या नहीं और बाकि महिला मंत्रियों का क्या होगा क्या वो चुनौती दे सकती है या नहीं।
"मैं मर्द आदमी हूँ..सबको ख़त लिखा है..आप तै करो प्लेटफार्म...मीडिया से लेकर कही भी...आपकी बात और सुझाव में दम है तो संसोधन होगा..लेकिन आप ड्रामा कर रहे है..बहस नही मार्च कर रहे है....आपके राज में किसानो ने आत्महत्या की.....गाव में बिजली नहीं है.., स्कूल नही...कर्ज में डूबा है..किसानो का सत्यानाश किया 55 साल में..
हम सुधर कर रहे है तो बवाल कर रहे है...13 एक्ट को आपने कंसेंट दिया और जब गाव की बात हो रही है तो आप विरोध कर रहे है...
हम गाव में रोजगार देंगे..गाव का विकास होगा..यही सपना मोदी जी और हम देख रहे है...लेकिन ये विरोध कर रहे है."
ये बेचारे मर्द आदमी है। मर्द आदमी कैसा होता है। इनको मालूम होगा। क्योंकि महिला होना क्या होता है। क्या कोई मर्द ये भी कहता है

अगर हिंदुस्तानी हो तो विरोध करो। गलत लगे तो हमको गालियां दो भक्तगणों।

पत्रकार को किसी राजनीतिक विचारधारा का विरोध या समर्थन करना चाहिए या नहीं इस पर विवाद हो सकता है लेकिन पत्रकार को देश के हक में क्या है और विरोध में क्या है इस पर बेहिचक लड़ना चाहिए। इस वक्त ये कॉरपोरेट के टुकड़ों पर पूरी चुनावी मुहिम चलाने वाली मोदी सरकार काले धन पर एक बार मौका के नाम से काले धन को सफेद करने की छूट लाने वाले ही। उस लूट में कम से कम छह से दस लाख करोड़ रूपए व्हाईट होने का अनुमान है। और उस दस लाख करोड़ से इस देश की तकदीर को सत्ता के दलालों, कॉरपोरेट और टके के नेताओं के हाथों में बहुत लंबे समय तक के लिए गिरवी हो जाएंगी।
दोस्तों मोदी सरकार पर ये कभी यकीन नहीं था कि ये गरीबों, मजलूमों और किसानों के हक में होंगी लेकिन ये किस लॉबी के हक में इस पर भ्रम में था। जब किसानों की जमीन अधिग्रहण अध्यादेश आया तो लगा बिल्डरों और जमीन छीनने वाले कॉ़रपोरेट की कठपुतली है लेकिन इसी बीच काले धन पर बड़े-बड़े दावे आने लगे तो ख्याल आया कि भाई वीडिआईएस यानि अपने आप काला धन घोषित करो और दंड से बचों जैसे लूटेरी स्कीम कांग्रेस ले कर आई थी और देश को लूटने वालों ने 78 बिलियन डॉलर सरकार को दिए थे। यानि सरकार को मिले थे लगभग 45 हजार करोड़ रूपए। और बदले मे सरकार ने लूटेरों को माफ किया था लगभग 1लाख पचास हजार करोड़ रूपए का काला धन। वो धन जो आम जनता को लूट कर हासिल किया गया था जो रिश्वत का था जो भ्रष्ट्राचार का हत्याओं की सुपारी थी या फिर कुछ भी ऐसा जो सभ्य समाज में स्वीकार नहीं किया जा सकता। 1997 में आए उस धन से पूरे हिंदुस्तान की तासीर ही बदल गई। जमीनों के भाव आसमान पर चले गए। ऐय्याशियों की ऐसी खानकाहें बनी कि इतिहास में मिसालें नहीं मिली। भूमि अधिग्रहण को लेकर नाटक जब शुरू हुआ तो लगा कि वाकई ये सरकार कुछ लिए बैठी है एक ऐसा डिजाईऩ जिसमें देश के साथ कुछ बुरा होगा। और जब काले धन में धीरे-धीरे देश के एक ऐसे नेता ने वित्तमंत्री के तौर पर काम काज संभाला जिसका आम जनता से कोई सारोकार कभी नहीं रहा। उस आदमी को देखते ही याद आता है कि मनमोहन सिंह ज्यादा जनप्रिय नेता थे। ज्यादा ईमानदार और कम से कम ज्यादा हिंदुस्तानियों के करीब। (मनमोहन सिंह इतिहास में सबसे ज्यादा घोटालों को अंजाम देने वाली सरकार के मुखिया थे लिहाजा उनकी ईमानदारी गई तेल लेने)। मनरेगा को लेकर ताली पीटने वाला प्रधानमंत्री बेहद बचकाना दिख रहा था जबअगले ही दिन उसके मंत्री ने पांच हजार करोड़ रूपए उसमें बढ़ा दिये। सच में ये ऐसा जाल है जिसमे देश फंस गया है। और जिन उद्योगपतियों को 0.1 फीसदी की दर पर ब्याज मिलता हो ये पैसा उन्हीं की लूट का है उस किसान का नहीं होगा जिसको मिलने वाले ब्याज की दर अगर सही से काऊंट की जाएं तो 36 फीसदी तक पहुंचती है। वो किसान जिसके बच्चें अब शहरों में गुलाम बनने पहुंच रहे है। लिखने को कई बार शब्द नहीं मिलते है क्योंकि आपके विचारों पर कोढ़ी की खाज जैसा गुस्सा हावी हो जाता है। कुछ ऐसी ही हालत है इस वक्त। और अपने विचारों से इस फेस बुक को गंजाईमान करने वाले भक्तगणों से उम्मीद है हम जैसे लोगो की बात न सुने लेकिन देश की मिट्टी की आवाज तो सुने और देश के दुश्मनों को मिलने जा रही इस छूट का विरोध करे। बाकि राजनेता इसके हक में होंगे चाहे वो कांग्रेस हो या फिर वामपंथी दल क्योकि वो कॉरपोरेट की दुम हिलाने वालों से ज्यादा कुछ नहीं है।

Monday, March 23, 2015

मन की बात मोदी की/वादा अखिलेश का- किसानों को क्या मिलेगा--


“तेग़ मुंसिफ़ हो जहां, दारो रसन हो शाहिद/ बेगुनाह कौन है इस शहर में कातिल के सिवा”
शब्द उधार के भले ही हो लेकिन मन की बात सुन कर यही लगा। लाखों करोड़ रूपए की टैक्स माफी के अलावा अब लाखों करोड़ के लूट के धन को एक मौके के नाम पर केन्द्र सरकार काले धन को सफेद करने जा रही है। ये लाखों करोड़ रूपया जब देश की अर्थव्यवस्था में शामिल होगा तो इंसानों को इंसान समझने वालों की संख्या कितनी कम हो जाएंगी ये शायद अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है। मंहगाई के इशारे पर सब कोई नाचेंगा और जो सफेद धन के स्वीमिंग पूल में नहा रहें होंगे उसके लिए इंसान और पानी दोनो ही मुफ्त के दाम हो जाएंगा। कल पूरे समय प्रधानमंत्री किसानों को ये समझाने में लगे रहे कि साठ साल के गुलामी के शासन के बाद ये प्रधानसेवक उनकी जमीनों के सही दाम दिलाने आया है। बस जमीन उनके इशारों पर बेचे दो। मन की बात चल रही है काम की बात कही नहीं है। किसानों ने आत्महत्या का रास्ता पकड़ लिया है। लिहाजा प्रधानमंत्री को ये जमीन अधिग्रहण पर जल्दी करनी चाहिए ताकि ये किसान खुद ही गायब हो जाएं। मजदूरों के तेवर और किसानों के तेवर में काफी अंतर होता है। आजादी की लड़ाई के सामाजिक धागों को सुलझानें के बाद ये आसानी से समझ आ जाएंगी कि गांव गांव से निकले लोगों ने बेखौफ होकर नेताओं की आवाज पर अपनी जमीनें और जानें दोनों देश के लिए बलिदान कर दी। लेकिन उसके बाद उनको सिर्फ फांसी का एक फंदा या फिर कर्ज की जिंदगी का कफन ही हिस्से आया। उनके बच्चें अगर शहर पहुंचें तो वापस गांव जाने नहीें बल्कि गांव को बाजार में लाने के लिए। गांव तो अब बाजार में ही खड़ा है। बिकने के किस्मत हो या अस्मत दोनो शहर के कुछ लोगो के हाथो में दोनो है। ऐसे में प्रधानमंत्री की मन की बात सुन रहा था क्या क्या कह रहे थे जैसे जूनुं में बक रहा हो कोई कितनी बार कहा कि पिछले बिल में हमने इसको नहीं छेड़ा उसको नहीं छेडा़। भाई बीच में तो आपकी सरकार भी रही है उस वक्त याद नहीं रहा किसान। खैर जाने दीजिए भक्तगणों की ताकत से नैय्या पार हो जाएँगी। लेकिन अपना डर उसी लाखों करोड़ के काले धन को एक झटके में सफेद कर देने से है। उसके बाद तो आम आदमी की हैसियत आलू से भी कम रहे जाएंगी। कीमत बोल खरीद लेंगे सब। कानूनों की हैसियत और कोठों की हैसियत में अंतर आपको समझना है। आप गलती से भी उसके फेर में आएं तो आपकी आप जाने दुनिया तो आपकी उतार ही देंगी।
अखिलेश का भी एक बयान आया कि गन्ना किसानों को पैसा सरकार देंगी। अखिलेश के पुरखों के पैसे से ये सरकार चलती है ऐसा लगा। गन्ना किसानों के हजारों करोड़ रूपए मिल मालिकों पर बकाया है। लेकिन हर बार केन्द्र सरकार हो या फिर राज्य सरकार हजारों करोड़ की छूट मिल मालिकों को देती है। वो पैसा डाईवर्ट कर देते है। फिर बाजार में आ खडें हो जाते है। फिर सरकार जनता का ही पैसा उनको देती है। नाटक के लिए हर साल उनकी आर सी कटती है सरकार नाटक करती है जैसे मिल मालिक अरेस्ट हुआ हो। क्यों भाई हर बार ये नाटक क्यों। सरकार अगर उनको गिरफ्तार करती है तो उनके खिलाफ सख्त धाराएं क्यों नहीं लगती सजाएं क्यों नहीं होती । और सबसे बड़ी बात अगर मालिकों पर फ्रैक्ट्रियां नहीं चल रही है तो फिर वो सरकारी रेट पर नीलाम क्यों नहीं की जाती। याद रखना सरकारी फ्रैक्ट्रियां कौंडियों के भाव बेची है उत्तर प्रदेश सरकार ने। इतने सस्ते में कि जमीन की कीमत कई गुना था भाव के। लेकिन नाटक जारी है नूरा कुश्ती जारी है।
आम जनता को लगता है सरकार देंगी और ये ऐसा ही जैसे हड़डी चूसते कुत्तें को महसूस होता है कि खून हड़ड़ी से आ रहा है उसके खुद के मसूड़ों से नहीं।

Friday, March 20, 2015

भगवान बादशाहों को ऊब न देना। ...................................................

बादशाह गिनते रहे सिक्को कों
चलते रहे मनोरंजक पाशें
उलझे रहे अय्याशियों में
गलबहियां करे पूंजिपतियों के
बेहद लोचदार तिलिस्म में
इसका कोई गम नहीं
मगर भूल कर भी
भगवान इन बादशाहों को ऊब न देना
ऊबें हुए बादशाह चलते है मोहरा
राजनीति की गली-गली बिछी बिसात पर
बिसात की दूसरी और बैठा पूर्व बादशाह या
आने वाला बादशाह या उम्मीद का बादशाह
(यही मजा है इस खेल को देखने वालों का कोई भी बादशाह बदल सकता है पूर्व बादशाह में और पूर्व बादशाह बैठ सकता है इस ओर)
बदले में चलेगा जवाबी चाल
और इन चालों में छिपी होगी कुछ ऐसी बात
बिसात पर जमें मोहरे
पल भर में बदल जाएंगे
एक दूसरे के रक्तपिपासुओ में
लहराने लगेंगी धर्म की ध्वजाएं
फैसलें होने लगेंगे
हजारों साल के अनजाने इतिहास के
कुछ अनाम से मोडों पर
कानों में गूंजनें लगेगी
बेवा चींखें
दिखने लगेंगे
जले हुए घर
हवा में फैलने लगेगी
सड़कों और मिट्टी में
बिखरे रक्त की बदबू
घर से स्कूल
स्कूल से पार्क
और पार्क से घर तक
रास्तों पर बिछ जाएंगी खंदकें
इनसे गुजरता हुआ मोहरा
भूख और हिंसा दोनो से जूझता हुआ
आवारा जानवरों को देखने लगता है
भाग्यशालियों के तौर पर
इन सबसे में फायदे तलाशते हुए
दूर हो जाएंगी बादशाहों की ऊब
नए नए शब्दों के साथ
कारिंदों की फौंज खड़ी हो जाएंगी मैदानों में
बादशाहों के कोमल दिलों से बह निकलेंगे आंसू
और रो देंगी मोहरों से जनता में तब्दील भीड़
मोहरों और आदमियों में यही अतंर बस होता है
दर्द आदमियों के गले पड़ जाता है
चाल में बढ़ते हैं मोहरें
कई बार इसी ऊब में सज जाता है
इंद्रलोक किसी सैफई में
(बादशाह तो बादशाह है तो फिर कही से हो)
शर्माता है पुराणों में वर्णित इंद्र का वैभव
छिप जाती है अप्सराएं किताबों के पन्नों से भी निकल कर
अनजान सी कंदराओं में
फाहिशाओं की ख्वाहिशें होती है पूरी
सीखती है नएं-नएं नखरें
मोहरों के खून से लथपथ इस तरह चमकती है सड़कें
चमक दिखती है खून नहीं
खूशबों से सराबोर
बादशाहों की अगली पीढियां
मंच पर गायन करते
कवि/चारण/भाट
नेपथ्य में कोरस
दंगें/भूख/लूट/किसानों की आत्महत्याएं/बच्चों को मारती माएं/
दूर हो जाती है साल भर के लिए बादशाहों की ऊब
साल भर तक चलता है जश्न का चर्चा
बादशाह भी जानते है
राजनीति की बिसात पर
जीत का खाना रहता है तब तक साथ
जब तक चले खर्चा, पर्चा और चर्चा
और अगर पूछतें हो तो जान लो
बिसात के मोहरों का हाल
फेंकी गईं हड्डियों को मुह में दबाएं
भागता है एक झुंड ऐंठ के साथ
मलाल में डूबे मोहरे
करते है इंतजार
कब बदलेगी बादशाह की जगह
हड्डियों से कब निकलेंगा उनके लिए लहूं
लेकिन बच्चों की आंखों में झांकते हुए
बस एक ही प्रार्थना करते है कुछ लोग
भगवान बादशाहों को ऊब न देना

Sunday, March 15, 2015

अब मैं शहीद नहीं हो सकता।


मैं शहादत की उम्र पार कर गया हूं
अब मेरे शहीद होने की संभावनायें खत्म हो गयी
आंखों में अखबार की सुर्खियां
नाबालिग से रेप, वर्दीवालों ने बेगुनाहों पर बरसायीं लाठियां
या फिर सरे रहा मारा गया कोई
अखबार में छपें कुछ अक्षर भर है
जिनमें मैं खोजता रहतां हूं व्याकरण की गलतियां
अक्सर झुंझलाहट हो जाती है मुझे
जब भी किसी को सही तरह से मौत लिखते हुए नहीं देखता हूं
किस तरह सत्यानाश कर रहे है लेखन का लोग
दूर के राज्य में बम विस्फोट में मरे लोगों को अखबार के किस पेज पर खबर हो
इस बात का लगता है नये लोगों को पता ही नही है
पहले पेज पर लगा देता है
बिना ये जाने कि इस इलाके की खबरों से अखबार नही बिकता है
अखबार हो या टीवी
दोनो में खोजता हूं रेप की खबरें
मिल जाएं कुछ ब्लर की हुई तस्वीरें
जनता को खबर देने की आजादी के नाम पर
मांगता हूं कुछ भी छापने की आजादी
काश ये फोटो छापने दे सरकार
कितना बिकेगा अखबार
एक और दूरी जो मैंने तय की है
वो है ये जानने की
भाषा से बदल जाता है कारोबार
अंग्रेजी में छाप सकता हूं बहुत सी नंगी तस्वीरें
बात करता हूं बेधडक किसी भी शब्द पर
हिंदी में थोड़ा परेशानी है
लेकिन फोटों को देकर मुझे थोड़ी दूरी मिटानी है
मिटानी है एक ऐसी भीड़ की भूख
जिसको सिर्फ छूट की खबरें चाहिएं
जिसकों फिल्मों के नए विवरण चाहिए
जिसकों देशभक्ति के ऐसे गीत चाहिएं
जिनमें अपनी जेंब से कुछ भी खर्च किये बिना
बस शेयर कर बन सके राष्ट्रभक्त
मुझे इन सब में काफी मजा आता है
जानता हू कि वो भी जानता है सच और मैं भी
फिर भी सच का कारोबार मजा देता है
और देता है शहादत से मुक्ति भी
बाहर सड़क पर भिखारी पैसे मांगकर खरीदता है फिल्म का टिकट
पर्दे पर भिखारी बना हुआ अरबपति महानायक
अभिनय से आंखों में ला देता है आंसू
फिर से बाहर बैठकर करना चाहता है नकल
लूला लंगड़ा भिखारी परदे पर भिखारी बने नायक की
मंचों पर ललकारते हुए महानायकों की आवाज
गांव-गांव में अपने ही खून के रिश्तों में दुश्मन तलाश करती है
चुनाव के दौरान दिखते है देश बदलने के संकल्प
उछलती है सपनों की लहरें
चुनाव खत्म शुरू होते है रिश्तें
अनाम-अनजान , भीड़ तालियां बजाती है
उनकी नायकों के व्यक्तिगत रिश्तों को निबाहने पर
मुझे ये अंतर नहीं दिखता
मैं खोजता हूं उसमें भी राजनीति की जीत
मानवीय गरिमा और रिश्तें
नहीं दिखती नंगई, खून से भींगे चावल
जाति के नाम पर उछलती पगड़ियां और लूट
मैं जानता हूं शहादत से पार है ये सब
सच बोलना या लिखना शहादत के करीब ले जाता है
सेमिनार में बोलना मुझे बहुत अच्छा लगता है
खूबसूरत से फूलों के गुलदस्तें
खूबसूरत से हाथों से तिलक
खूबसूरत से चेहरों की जिज्ञासा
खूबसूरत सी बातें
बिसलेरी से शुरू कर
कई बार मिल जाती है विदेशी भी
इन सब में कितनी बार मैंने दोहराया है
बाल श्रम अपराध है
कितनी बार रोया हूं ऐसे आंसूओं में
जिनके बदले में तालियों की गड़गड़ाहट मिली
और कभी हैदराबादी तो कभी करीम की बिरयानी के बीच
कितने ही खूबसूरत चेहरों ने ली है तस्वींरें
लगता है कि शहादत की जरूरत नहीं
शहादत पर बात करने की जरूरत है
इसी से चल जाता है मेरा काम
फिल्मों के नायकों से मिलती है मुझे बहुत प्रेरणा
शहीदों की तस्वीरें अच्छी लगती है फेस बुक पेज पर
कभी-कभी बेटे की अलमारी पर चिपका
कर लेता हूं अपना कर्तव्य पूरा
कई बार लेख शुरूआत करता हूं
यत्र नार्यस्तु पूज्यते
तंत्र रमन्ते देवता
इससे पूरा हो जाता है
कई बार सरेआम बेईज्जत होती
लड़कियों के प्रति मेरा अपराध बोध
कई बार देखता हूं
लोगों के साथ होते हुए अन्याय
लेकिन उसमें खोज लेता हूं अपने लिए कोई रास्ता
धीरे से बोल देता हूं
काश ये थोड़ी मेहनत कर लेते
जिस वक्त स्कूल गया था मैं
उस वक्त ये भी रट लेते
शहादत के फायदें
शहीदों के नाम
और कुछ ऐसे अक्षर
जिनसे बिना किसी शहादत के
मिल जाएं शहादत का पुण्य

कुदाल चलते रहे ......................

मंदिर की घंटियां बजी 
पुजारी उठे और चल दिए 
मजदूरों के फावड़े चलते रहे
मस्जिद से अजान आई
मौलवियों ने वजू किया
मजदूरों के कुदाल चलते रहे।.
जमीन और आसमान देखते रहे
चाल और कुदाल

ये एक साथ होना था... .....

चमचमाती सड़कों पर 
बड़े-बड़े होर्डिंगों में हाथ जोड़े धर्माचार्य
होर्डिंगों के नीचे घिरी जगह में
हाथ देकर ग्राहक रोकती वेश्याएं
ये एक साथ होना था
मेरे ही वक्त में
भूखें बच्चों की मौत की खबरों के बीच
मस्ती में झूमते, चार्टड जेट से उतरती दुल्हन
और अपराधियों के बच्चों के ऊपर चावल फेंकते जननायक
एक ही पेज पर भूख और भूख को साथ होना था
ये एक साथ होना था
मेरे ही वक्त में
कांपतें हुए हाथों से मांगनी थी सड़क किनारे रोटी
उन्हीं हाथों से राजतिलक होना था
भीख मांगना रोटी का
और भीख देना सत्ता की
ये एक साथ ही होना था
मेरे ही वक्त में
एक साथ चलनी थी दोनो तस्वीरें
मंगलयान पर कामयाबी से झूमते हुए
और पेड़ पर लटकी लाश पर रोने वाले
दोनो पर हुलसते और झुलसते
जननायकों को रोना था और गाना था
लेकिन चेहरों पर कई बार धोने पर भी
वो रो रहे है या गा रहे
मुश्किल था ये पता लगाना
ये एक साथ ही होना था
मेरे ही वक्त में

Sunday, March 8, 2015

झूठ बोलती है नौकरानियां

सीढ़ियां चढ़ती हांफती है नौकरानियां
बहाना कर रही है काम से बचने का
अक्सर पल्लूं से आंखों से आये आसूं पोंछनें लगती है
खुरदरे हाथों में काली पड़ चुकी लकींरों में
कोई भी लकीर नहीं सीधी
वक्त उसके हाथो से फिसला कभी या नहीं
कुछ कह नहीं सकती है सही से वो
वक्त उसके लिये सुबह पांच बजे घर की चारदीवारी
और देर रात उसी चारदीवारी तक पहुंचने के बीच सुईंयों की टकटक है
पौंचा लगाना हो या फिर बर्तन साफ करना 
हर काम में लगता है कि सही से नहीं करती है
कामचोरी का आदतों से परेशान है मालकिनें
काम करती है  बेटियां
क्या जरूरत है उसकी बेटियों को फोन की
फोन पर लंबीं बातें कयों करती है
मालकिनों की बेड़रूम तक गूंजती है आवाज
मालिकनें परेशान है
इस कार में एवरेज कम है
बॉस इसका इंटीरियर क्लास है
गोवा के होटल्स में काफी भीड़ है
महंगा पड रहा है है यार
हिल स्टेशन पर अब छुट्टियां बिताना
झूठ बोलती है नौकरानियां
कल गैंग की शिकार लड़की की मां
बोल रही थी किसी से
गर्म रोटी की खुशबू ने खींच लिया था
उसकी बेटी को एक मकान में
लेकिन मकान में बैठे दरिंदों ने रोटी नहीं घाव दिये
मालिकनों को मालूम है बिना किसी के बताएं
खुद भेज दिया होगा पैसे के लिए लड़की को
बदतमीज है नौकरानियों के बच्चें
सोफे पर बैठ जाते है सीधे आकर
गंदें हो जाएँगे तो धोने का पैसा ले लेगी नौकरानियां
डॉटों तो मुंह चढ़ जाते है नौकरानियों के
कई बार देर तलक नहीं आती है काम वालियां
क्यों
तो कहती है बेटी को स्कूल से आने मे देर हो गई
मक्कारियों को किस कदर छुपा लेती है नौकरानियां
बच्चों के लात मारने से कौन सा चोट लगती है
झूठ-मूठ  बहाने बनाने लगती है नौकरानियां
एक दूसरे की बॉलकोनियों में
बतलाती है मालिकिनें
हे भगवान

कितना झूठ बोलती है नौकरानियां

Saturday, March 7, 2015

दर्द साझा नहीं होता


दर्द से दर्द का कोई रिश्ता नहीं होता
दर्द से मिलकर एक नहीं हो जाता है दर्द
दर्द नहीं बहता एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में
बनकर परंपरा ना रक्त
दर्द नहीं बनता रेशों से जुड़कर साझे दर्द की चादर
दर्द साझा नहीं होता
नहीं तो अंगारें में बदल गए होते हम लोग
 और ये दुनिया राख हो चुकी होती