Sunday, May 29, 2011

मनमोहन सिंह का वार्ड नंबर 6

हॉस्पीटल में घुसते ही बदबू का भभका नाक में घुस गया। सब लोगों के मुंह पर रूमाल बंधे थे। वही बैठे एक सिक्योरिटी गार्ड से पूछा कि वार्ड नंबर 6 कहां है। 23-24 साल के उस सिक्योरिटी गार्ड की आवाज में बेहद ऊब थी और उसने बता दिया की उल्टे हाथ से जाआों और फिर सीधे हाथ मुड़ जाना- वार्ड नंबर 6 लिखा दिख जायेगा। वार्ड नंबर 6 तक के रास्तें में बेहद बदबूदार पानी फैला हुआ था। उसको पार करते ही एक गैलरी में दाखिल हुआ। गैलरी में साईड में सामान रखा फैला हुआ था। खून के पुराने पड़ चुके धब्बों और धूल से अट गयी ये चादरें इस बात का इशारा भर कर रही थी कि ये चादरें जब बनी थीं तो सफेद थीं। एक व्हील चेयर पर इंसानी ढांचा निकल रहा था। उसके कुर्तें की बांहे जैसे उनमें लटक रही थी। व्हील चेयर को लेकर चल रही महिला के चेहरे में उदासी का पूरा जीवन दिख सकता था। लेकिन उसके सूख गये चेहरे में जीवंत थी तो आंखें जिसमें वो अपने करीबी की जिंदगीं की आस के साथ इस अस्पताल में थीं। जैसे ही दाखिल हुआ तो लगा कि कहां आ गया। चारों तरफ गंदें बेड़ पर लेटे हुए लस्त-पस्त इंसान। उनके पास बैठे घर के लोग जो बेहद खामोश है या फिर अगले दिन के ऑपरेशन पर बात कर रहे है।
मेरे मन में बेहद खौंफ भर गया। अपने परिचित को देखने के बाद भी मैं संयत नहीं हो पा रहा था। हालांकि उसके ऑपरेशन की बात मैं कर जरूर रहा था लेकिन रास्ते में शवगृह में जाते हुए स्ट्रेचर को दिमाग से नहीं निकाल पा रहा था। ये अस्पताल देश की किसी प्रांत या आदिवासी इलाकों में नहीं बना हुआ है। पेशे से वकील मेरे दोस्त बता रहे थे कि अस्पताल में बेड़ की समस्या है। इससे बावजूद कि मरीज मर कर बेड़ खाली कर रहते है। ये अस्पताल है लाला रामस्वरूप टीबी हॉस्पीटल। राजधानी दिल्ली में टीबी यानि तपेदिक का सबसे ज्यादा अहमियत वाला अस्पताल। इसकी दीवारें अगर दो तीन रेड लाईट्स पार कर लेती है तो एनसीआरटीई और देश के सबसे शानदार संस्थान आईआईटी से मिल जाएंगी।
इस अस्पताल में घुसने के बाद ही आपके स्नायुतंत्रों को लकवा मार सकता है। ये देखकर कि देश में तपेदिक के इतने सारे पोस्टर लगाने वाली और निजि मीडिया से लेकर सरकारी मीडिया को एडवरटाईजमेंट से पाट देनी वाली सरकार ने सुविधा के नाम पर इस अस्पताल को क्या दिया। मैंने किसी भी साईट्स पर जाकर इस अस्पताल के बारे में रिसर्च नहीं की है। मैंने इस संस्थान के अधिकारियों से भी जानने की कोशिश नहीं की। क्योंकि जो भी था वो आंखों से दिख रहा था। इस हॉस्पीटल में मरीजों की संख्यां कितनी थी उसका अंदाजा इतने से लग सकता है कि अपने मरीज की भर्ती के लिए संस्थान के डायरेक्टर को कई बार फोन करना पड़ा। और जैसे ही मैं देखने गया तो पांव तले की जमीन खिसक गयी। इसीतरह से लड़ रही है सरकार इस महामारी से।
ये वही सरकार है जो देश की इज्जत के नाम पर सत्तर हजार करोड़ रूपये दिल्ली पर लगा सकती है। ये वहीं सरकार है जो एक लाख छिहत्तर हजार करोड़ के घोटाले पर आंख मूंद कर बैठ सकती है और जब दलालों की महारानी का भांडा-फोड़ हो जाएं तो साझा सरकार की मजबूरी बता सकती है। एक ऐसा व्यक्ति प्रधानमंत्री हो सकता है जिस पर जनता को इतना विश्वास है कि कांग्रेस की आंधी में भी चुनाव हार गया। देश की सत्ता में जीत कर आएं नेताओं से ज्यादा भऱोसा जताया था सोनिया गांधी ने उस पर तब भले हीमीडिया के बौनों ने लिखा हो कि ये योग्य है। लेकिन योग्यता बढ़ती मंहगाईं के कारण हर रोज गुम होते आदमी की जद्दो-जहद में दिखती है।
मैं बार-बार बहक रहा हूं। मुझे याद आ रहा है मेरा गांव का दोस्त सतेन्दर उर्फ पटवारी। अपने शहर तो जाता रहता हूं लेकिन गांव जाना अब कम हो गया है। गांव में भी उन दोस्तों के साथ बातचीत और भी कम हो गयी जिनके साथ मई-जून की गर्मियों में सालों तक जानवर चुगाता रहा। ऐसे ही दोस्तों में शामिल था सतेन्दर। गांव की कुनबे और खानदान की परंपरा में मेरे कुनबे में आऩे वाला सतेन्दर पतला-दुबला तो बचपन से ही था। कभी का बड़ा किसान परिवार रहा सतेन्दर का परिवार अब पुरखों के खेतों की कहानियां और दूसरे किसानों के खेतों में मजदूरी के सहारे दिन काट रहे थे। सतेनदर के साथ रहने में घर वालों को एक ऐतराज और था कि मौका लगते ही सतेन्दर के पिता और बड़े भाई दूसरे के खेतों से फसल काट लेने के लिये भी बदनाम थे। लेकिन दोस्ती चलती गयी। सतेन्दर मुझे हमेशा अपने लिए एक ऐसा दोस्ता मानता रहा जो उसके साथ शहर की बातें भी बांटता था।
इधर हम लोग उमर में बड़े होते गये और हमारी मुलाकातें छोटी होती गयी। सालों तक यायावरी की और फिर देश की राजधानी में डेरा जमा लिया। अमेरिका की नीतियों से लेकर अफगानिस्तान के बामियान के बारे में जानकारी बढ़ी तो दोस्तों के बारे में जानकारी और भी कम हुई। लेकिन फिर भी सतेन्दर के बारे में पता चलता रहा कि उसका परिवार गांव से पलायन कर गया। पानीपत में कपड़ों के कारखानों में मजदूरी कर रहे उसके परिवार के किसी सदस्य से वास्ता अप्रैल -मई के महीनों में ही पड़ता था जब वो लोग बटाई पर दिये गये अपने खेतों से गेंहू काटने आते थे। फिर एक दिन गांव से आएँ मेरे भतीजे ने बताया कि चाचा जी आपके दोस्त पटवारी ने शादी कर ली। मैं बहुत खुश हुआ। पटवारी पानीपत से एक महिला से शादी कर गांव चला आया था। मैं गांव गया और पटवारी से मिला। रिश्तें में बड़ा होने के नाते मैं पटवारी की पत्नी का चेहरा नहीं देख सकता था। मुंह पर पल्ला डाले एक औरत के पटवारी के आंगन में घूमते देखकर मैं बेहद खुश था। लेकिन जैसे ही पटवारी पर नजर पड़ी तो मैं हैरान रह गया लंबा पटवारी अब बस हड़्डियों का ढांचा भर था। उसकी आवाज बेहद नर्म हो गयी थी। मेरे साथ बात करते हुए पटवारी ने इस बात का बेहद ख्याल रखा कि मैं ये न भूल सकूं कि पटवारी मेरे से बेहद नीचे का आदमी है। मैं जैसे ही पटवारी से ईलाज की बात करता वो औऱ अपने में सिमटता जाता था। खैर बेहद उदास मन से मैं वापस लौट आया। मैं कुछ दिन पहले गांव गया तो मेरे भतीजे ने बताया कि सतेनदर नहीं रहा। उसको टीबी थी। ईलाज कराने के लिये शहर के अस्पताल में जा रहा था लेकिन फायदा नहीं हो रहा था। मैने सतेन्दर के भाई पवन को काफी भला-बुरा कहा कि क्यों नहीं सतेन्दर के लिए दिल्ली आएँ। मैं वहां के शानदार सरकारी अस्पतालों में उसका ईलाज कराता। वो बेचारा कहता रहा कि भाई क्या करते उसकी मौत तो बुला ही रही थी। मैने पूछा तो पता कि सतेन्दर की बीबी चली गई कहां कोई नहीं जानता।
मैं बेहद अफसोस में था कि दिल्ली चला आता तो पटवारी बच सकता था। लेकिन दिल्ली के इस सबसे बेहतर सरकारी अस्पताल की इस हालत को देखकर मुझे लगा कि अच्छा हुआ था कि पटवारी दिल्ली नहीं आया। पवन के मुताबिक आखिरी दिनों में अक्सर पटवारी ये बोलता था कि अगर वो वक्त से दिल्ली चला जाता तो उसका दोस्त बबलू उसका ईलाज करा देता। मुझे तो बस इतना ख्याल आ रहा है कि बेचारा दवाईयों के लिए भटकता पटवारी कॉमनवेल्थ खेल देख लेता तो मरने से पहले ये तो सिदक रहता कि कॉमनवेल्थ के सही तरह से होने से देश की ईज्जत बच गयी पटवारी की जिंदगी का क्या वो तो वैसे भी रास्ते का पत्थर थी।

Friday, May 27, 2011

अमेरिका में मोर नाच रहा है, मीडिया को दिख रहा है।

हिंदुस्तान का नेशनल मीडिया इस वक्त खबरों की एंड्रीनेलीन के नशे में है। अमेरिका के शिकागों में डेविड कॉलमेन हैडली और तहव्वुर राणा पर मुकदमा चल रहा है। इस मुकदमें का भारत से ताल्लुक इतना है कि इन दोनों ने भारत में अब तक के सबसे बड़े आतंकवादी हमले की साजिश रची थी। ये जानकारी भी हिंदुस्तानियों को अमेरिकी सरकार ने सायास नहीं दी थी अमेरिका से अनायास ही मीडिया के जरिए मिल गई थी। दुनिया की सबसे उभरती हुई अर्थव्यवस्था और मोंटेक सिंह अहलूवालिया के हिंदुस्तान ने तो इस हमले को आमिर अजमल कसाब पर खोल कर विजय हासिल कर ली थी। हिंदुस्तानियों की गाढ़ी कमाई के हजारों करोड़ रूपये की रकम पर पलने वाली हिंदुस्तानी जांच एजेंसियां का सबसे नायाब कारनामा था ये। महीनों तक इस देश के तथाकथित खोजी रिपोर्टर जो किसी भी झूठ को सच बना सकते है बिना किसी नियामक एजेंसी से या कोर्ट से डरे हिंदुस्तानी एजेंसियों की तारीफ के डंके बजाते रहे।
एक दिन अचानक अखबार में एक खबर छपी कि अमेरिका में आतंकवादी साजिश रचने के आरोप में हैडली और तहव्वुर राणा नाम के दो लोगों को गिरफ्तार किया है। इन दोनों लोगों की गिरफ्तारी के हिंदुस्तान के लिए क्या मायने है इस बारे में अमेरिका ने हिंदुस्तान को कब बताया ये मालूम नहीं। हो सकता है ये रहस्य भी ये नार्थ ब्लाक के उन तहखानों में दफन हो जहां इस देश के उजले लोगों के काले कारनामे दफन है हमें मालूम नहीं। फिर अखबारों में धीरे-धीरे ये खबर साया होने लगी और रिकंस्ट्रक्शन के सहारे या फिर घटिया स्केच ग्राफिक्स के सहारे जोकरनुमा ऐंकरों ने पूरे देश को ये कह कर चेताना शुरू कर दिया कि हैडली और राणा ही है असली गुनाहगार मुंबई हमले के।
ऐसा ही हुआ इस मामले में। अमेरिका ने बेहद गिड़गिडाने के बाद हिंदुस्तानियों को हैडली और तहव्वुर राणा की सूचनाओं तक पहुंच दी। हालांकि उनसे पूछताछ करने का एक सपना अधूरा ही रह गया। खैर इसपर अमेरिका में ये जद्दो-जहद हुई की हम राणा और हैडली का क्या करें। फिर उनको अमेरिकी कानूनों के तहत उन पर मुकदमा चल रहा है। अब उस मुकदमें रोज नये खुलासे हो रहे हैं। और समाचार जगत बल्लियों उछल रहा है। अहा क्या बात है। पाकिस्तान का हाथ, आईएसआई की साजिश सब कुछ तो है इस खबर में। न्यूक्लियर प्लांट की भी रेकी की गई थी। ये बात तो न्यूज रूम में बैठे एडिटर्स को और भी खुशी देने वाली है।
घटिया से घटिया किताब में इससे बेहतर लिखा जाता होंगा जो न्यूज चैनलों के स्क्रिप्ट राईटर लिखते है। स्क्रीन पर लिख कर आता है पाकिस्तान होगा बेनकाब, आज फूटेगा पाकिस्तान का भांडा..पाकिस्तान की खतरनाक साजिश।
एक दम वाहियात और पूरे देश को धोखा देने वाली पत्रकारिता का शर्मनाक नजारा है ये। कोई ये पूछने को तैयार नहीं कि मुंबई हमले के वक्त लापरवाही बरतने वाले आईबी, रा, और दूसरी जांच एजेंसियों के अफसरों के खिलाफ क्या कार्रवाई हुई। किसी अखबार या चैनल को याद नहीं कि मुंबई हमले में इस्तेमाल हुए फोन नंबर पहले ही आईबी को दे दिये गये थे कि इन नंबरों को किसी आतंकवादी नेटवर्क ने खरीदा है।लेकिन दिल्ली और राजधानियों में ऐश काट रहे आईबी के काले साहबों पर इसका कोई असर नहीं पड़ा। मंत्री वहीं है संतरी वही है तो फिर बदला क्या।वही अफसर अभी भी देश को आतंकवादियों से बचाने की रणनीति तैयार कर रहे है जो बेचारे सालों से बचा रहे है। कई सौ लोगों की मौत के जिम्मेदार इन अधिकारियों के खिलाफ कोई कार्रवाई करने या उसके लिए खबर लिखने का ख्याल इस देश में किसी को नहीं।
ये कैसा देश है जो बेचारा विदेशियों से शिकायत करता घूमता है कि पाकिस्तान ये कर रहा है पाकिस्तान वो कर रहा है। हम तो गांधी के देश के है। हमारी पुलिस सिर्फ गांधीवादी आदर्शों पर चलती है। उसके सैकड़ों फर्जी एनकाउंटर देशी लोगों के लिए है उसका बेरहम लाठीचार्ज सिर्फ मजदूरों के लिए है।
सवाल सिर्फ इतना ही होता है कि पार्टियों में बैठकर गप करने वाले अधिकारियों के लिए हिंदुस्तानी कब तक अपनी जेब से टैक्स देते रहेंगे। हजारों करो़ड़ रूपये की लूट ऱकरने वाली कंपनियों पर नजर रखने वाली एजेंसियों के अधिकारी मौज में अपने घर जाते है अपने बच्चों के लिए हराम के पैसे से खरीदे गये ऐशो-आराम के साधनों पर नजर डालते हुए दारू पीकर सो जाते है। उधर जीबी रोड़ -सोनागाछी या फिर ऐसे ही बाजार में दस रूपये के लिए जिस्म बेचती है औरतों पर जिम्मेदारी आ जाती है जन-गण-मण अधिनायक जया है गाने की और इसके सम्मान के लिए अपना जिस्म बेचकर कमाएं गएं पैसे से टैक्स भरकर काले साहबों का ऐशो-आराम जुटाने की।

Thursday, May 26, 2011

मैं नहीं डरता था, बिके हुए डर से

मेरे बचपन में,
मैं डर सकता था किसी से भी
मेरे वक्त में नहीं बिका था डर
ऐसे में मुझे ही तय करना था
बचपन को रंगीन करने के लिए
किससे डरना है मुझे।
मैं गांव के किनारे बने रेत टीलों से डरा
घरों में सुनसान पड़े कमरों से भी डरा
मैंने डर कर देखा पीपल के पेड़ों को
अंधेंरे में तेज हवा से झूलते
हल्के-फुल्के पेड़ों से भी डर लिया कभी-कभी
रात को घेर में सोते वक्त
मुझे
अहसास हुआ कि कभी भी आ सकता है
सिर कटा हुआ भूत, या बैचेन डायन
मैंने पसीने से भीगी रात काट दी
मां की बगल में या पिता के साथ लिपट कर
सारे डर की बनी डोर में
जो सच्चा डर था
ताऊजी की पिटाई का,
या
कभी कभी मैं कुछ सामान टूट जाने से
मां से भी डर सच्चा होता था।
डर के हजार आईनों में देखता था
तो सबसे बड़ा डर मां ने दिया
झूठ बोलना यानि पत्थर हो जाना
किसी प्यासे को पानी न देना
यानि अगले जन्म में प्यासा रहना
भिखारी को डांटना
मतलब कई जन्मों तक
भूख के रेगिस्तान में भटकना
ऐसे डर के बहुत से रंगों से
बुनता रहा जिंदगी की चादर
मेरी जिंदगी में डर का दायरा
मेरे डर से भी छोटा था
जिसकी सीमा में आ जाते थे
गांव के सूने पड़े मंदिर
शहर के बीच में बना स्कूल
जिसमें खूबसूरत जीनों से फिसलते वक्त
आत्माराम मास्टर जी का डंडे का डर
याद न करने के बावजूद
भूल जाना क्लास में
कि
आज टेस्ट है जिसके नंबर पिताजी की मेज पर रखने है
इस सब डर से निकल कर महानगर पहुंच गया।
लेकिन
पांच साल के बेटे की जिंदगी में
जब भी दखल देता हूं
लगता है कि डर भी डर नहीं है उसका
जल के डर बाजार के बडे होने के साथ ही बदल गये
अब उसको कोई बूढ़ी औरत नहीं डरा पाती है
उसको डर नहीं लगता है किसी अंधेंरे कमरे से
बिल्डर ने हर कमरे में रोशनी के लिए प्लान बनाया है
इस शहर में बिना पोस्टर लाउड्स्पीकर के कोई मंदिर नहीं है
वीरान पड़े घर किताबों में सिमट गये।
अब उसको डरना पड़ता है
हर उस डर से जो बिक सकता है।
डोर में कीआई नहीं है
सिक्योरिटी के कैमरे नहीं है कॉलोनी में,
नया पैगासिस आया है
बहुत खतरनाक
घर के बाहर आवारा गाडियों से डर है
कुचल सकते है गाडियों में चलने वाले राक्षस
भीख मांगने वाले उठा सकते है
खाकी वर्दी वाले उठाकर बेच सकते है
अंग बेचने वाले,
इंसानी जिस्म को बेचने वाले
ऐसे तमाम डर से घिरा
आयुध
उसके पास एक भी डर ऐसा नहीं है जो
उसने भरा हो अपने बचपन के कैनवस पर
आलीशान और एअर कंडीशन्ड
आफिसों में तैयार हो रहा है डर
घर में चल रहे टीवी के
हर फ्रेम में उतर रहा है डर
सच की रोशनी में सदियों के भूतों की
झूठी समझी गई कहानियों से
सिल्वर स्र्कीन के सहारे
उसके दिमाग में भर दिया डर
अब डर जीने से फिसलने पर नहीं
रिपोर्ट कार्ड में गिरने से लगता है
प्रलय की झूठी खबरों के बीच
दुनिया तबाह करने के रोजमर्रा के
खबरी झूठों के बीच जनमता है डर
ऐसा डर जिसमें उसका कुछ भी नहीं है
सिवा उस डर के जो उसके बीच समा
गया है खबरों के स्ट्रिंगर की तरह
वो नहीं डरता है मेरे डर से
मैं हर पल डरता रहता हूं उसके डर से

Sunday, May 22, 2011

साधो ये मुर्दों का देश ?

एक देश है। देश है तो संविधान भी होगा। संविधान है तो चलाने वाले भी होंगे। चलाने वाले हैं तो गलतियां भी होंगी। गलतियां होंगी तो फिर वो लोग भी होंगे जिनसे गलतियां होती हैं। और वो लोग भी होंगे जो लगातार गलतियों को माफ करते हैं। देश हमारा है गलतियां आम आदमी करते हैं। और माफ करने के लिए राजनेता है। देश के मंत्रिमंडल में एक से बढकर एक मंत्री हैं। एक से बढ़कर एक। एक है कि हर घोटाले में सलिंप्त मिलते है, खुद नहीं तो अपनी बेटी-दामाद के सहारे या फिर भतीजे का रोल निकलता है। दाल से लेकर क्रिकेट तक कोई भी घोटाला हो उनकी मेहरबानी जरूर होती है। देश के अमीर राजनेताओं में भी अमीर। ऊपर वाले से गजब का इम्यून सिस्ट्म बनवाकर लाए है।
देश है तो फिर विदेश भी होगा। लिहाजा एक विदेशमंत्री है। विश्व संसद में दूसरे देश का बयान पढ़ देते है जनाब। पता ही नहीं चलता। उनको लगा चुनावी मेनीफेस्टों की तरह है कि पहला पन्ना उखाड़ दो तो बनाने वाले को भी पता न चले कि किस पार्टी के लिए बनाया था। लेकिन वो विश्व संसद की तरह माने जाने वाला यूएनओ था लिहाजा हल्ला हो गया। लेकिन उन्होंने कहा कि कोई बड़ी गलती नहीं थी। पूरी दुनिया में मजाक हो गया लेकिन वो गरीब-गुर्बों और बेहद पिछडे़ लोगों के देश का हुआ होगा। उनके लिए तो एक बेहद मामूली सा मजाक था। किसी की नौकरी नहीं गयी।
एक गृहमंत्री है। पॉलिशिंग ऐसी की हर कोई हैरान हो जाएं। बौने से मीडिया से इस तरह से अपनी लंबाई बढ़ाई है कि हर कोई कायल उनके काम करने का। किसी को लगता है कि गजब का काम करते है। दिल्ली में आतंकवादी फायरिंग करके निकल गएं लगभग साल होने को किसी को मालूम नहीं। बनारस के घाट पर बम विस्फोट हो गया लेकिन कोई सुराग नहीं। और अब पाकिस्तान को दी गई देश की मोस्ट वांटे़ड़ लिस्ट में एक के बाद एक गलतियां लेकिन जनाब की नजर में ये बेहद मामूली गलती है। एक कदम आगे बढ़कर उन्होंने कहा कि ये लिस्ट एक रूटीन है बल्कि देने का कोई फायदा नहीं। यानि आठ साल से एक नाटक देश के सामने खेला जा रहा था। अगर मौजूदा गृहमंत्री की माने तो पहले सभी प्रधानमंत्री और मंत्री देश के सामने लिस्ट का एक नाटक खेल रहे थे। एक ऐसा नाटक जिसमें बेहद संजीदगी का अभिनय किया जाता है। यहां देश का मीडिया लिस्ट् को लेकर बेचारा हलकान होता जा रहा था। कभी एक्सक्लूसिव करता था तो कभी विशेष कोई पूछने वाला नहीं था। अब भेद खुला कि भाई ये तो बांकों का नाटक था।
एक मंत्री है। कानून मंत्री है। कानून भी जानते है। पैसे दो और किसी को भी उनकी भाषा में दूध धुला बनवा लो। उनके पास दूसरे भारीभरकम मंत्रालय भी है। साहब को सरकार बचाने की जिम्मेदारी लेनी थी। लिहाजा सुप्रीम कोर्ट ने जिस राजा को प्रथम दृष्टया चोर ठहरा कर सलाखों के पीछे भिजवा दिया उसकी इनसे शानदार पैरवी कौन कर सकता था। देश की संवैधानिक संस्था को गलत ठहरा दिया। बिना उस संस्था के प्रमुख के खिलाफ मामला दर्ज कराएं। बात इतनी तरीके से की एक नया गणित का फार्मूला निकाल दिया। और उस फार्मूले के मुताबिक देश को उस घोटाले में कोई नुकसान नहीं हुआ जिसको सरकार की एक संस्था एक लाख छिहत्तर करोड़ का तो देश की सबसे बड़ी जांच एजेंसी भी तीस हजार करोड़ के बराबर का ठहरा रही है। अब तो सब साफ हो गया लेकिन मंत्री जी नवरत्नों में शामिल है।
एक मंत्री है जो अब पेट्रोलियम संभाल रहे है। उससे पहले शहरी विकास मंत्रालय देख रहे थे। बेचारे जनमोर्चा संभालतें हुए कांग्रेस विकास मंत्रालय संभाले हुए थे। सत्तर हजार करोड़ रूपये के घोटाले में धृतराष्ट्र बने रहे। उनके अफसर घोटाला करते रहे और वो बेचारे मूक दर्शक बनते रहे। जनाब कलमाड़ी साहब तो तिहाड़ में पहुंच गए अपनी बारात के साथ लेकिन मंत्री जी की तरक्की हो गयी।
राजा साहब की बात करना बेकार है। नाम ही राजा रखा गया था पैदा जरूर मध्यम वर्ग में पैदा हुए थे। बेचारे बड़े हुए राजा नाम से लेकिन जनतंत्र में राजा कैसे। फिर एक राज्य में बेहद भावुक और नारों से खेलने वाले लोकतांत्रिक राजा की बेटी के करीब आ गये और बन गए राजा। एक हजार दो हजार नहीं पूरे पौने दो लाख करोड़ का घोटाला कर बैठे। अब अपने राजा की बेटी के साथ तिहाड़ की अलग-अलग कोठरी में बाहर आने की जुगत बैठा रहे है।
ये कहानी आप कितनी लंबी लिख सकते है। इसमें सिर्फ नाम बदलने है और हर कोई फिट बैठ जाएंगा। ये एक ऐसे देश का मंत्रिमंडल है जिसको दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहा जाता है। जिसकी तरक्की के कारनामे दुनिया का हर देश गा रहा है ऐसा मीडिया के लोगों का कहना है।
इस पूरे देश में एक बात साफ हो जाती है कि किसी भी अपराधी को आप जिन अपराधों के लिए पकड़ कर जेल में डाल सकते है उसकी आजादी पर रोक लगा सकते है उन्हीं अपराधों को करने पर नेताओं की तरक्की के रास्ते खोल सकते है।
लिखना तो बहुत कुछ है लेकिन मेरी समझ में जो उलझन थी वो सबसे पहले हर्षद मेहता मामले को लेकर सामने आई थी। देश में पांच हजार करो़ड़ का घोटाला हुआ लेकिन इस घोटाले को रोकने की जिम्मेदारी न किसी मंत्री पर गई न किसी ब्यूरोक्रेट पर। किसी ने नहीं पूछा कि भैय्या इन महानुभवों को किस बात के लिए पाला गया देश के आदमियों ने अपने बच्चों के खून को पिला-पिला कर। उसी वक्त राजनेताओं और भ्रष्ट् बाबूओं की जमात को ये रास्ता मिल गया था कि उनके राजनैतिक और नौकरशाह पूर्वज इस देश को लूटने का इंतजाम करके गए है। और रही बात मीडिया की तो वो बेचारा चुनावों में हार- जीत में देश की जनता की समझदारी की तारीफ करने लगता है। ये जानते-बूझते हुए भी कि जातिगत गोलबंदी और छोटे-छोटे लालच के सहारे जीतते है ये राजनेता न कि जनता की किसी सामूहिक समझदारी पर। अगर जनता की समझदारी ही सामने आनी थी तो ये जानना जरूरी है कि इस देश में दहेज खत्म होने की बजाय बढ़ गया है। आर्थिक घोटालों की तादाद एजूकेशन की दर के साथ ही बढ़ रही है। सड़क पर मौतों की संख्या गाडियों की संख्या के साथ होड़ कर रही है। और सबसे बड़ी बात कि पैसठ साल की आजादी के बाद भी देश की राजधानी दिल्ली समेत सभी शहरों चलने वाले वेश्यालयों में गरीब, बेसहारा और जबरदस्ती धंधें में धकेली गईं औरतों की तादाद बढ़ रही है। हां इस बार देश के मीडिया के पास खुश रहने का एक और कारण आ गया देश में महिला राजनीतिज्ञों की बढ़ती हुई ताकत का।

Wednesday, May 18, 2011

ये युवराज भी बौना निकला ?

नेशनल न्यूज चैनलों के दफ्तरों में अचानक सनसनी फैल गईं। राजनीति में टीवी चैनलों के सबसे बड़े ब्रांड औऱ देश के अघोषित युवराज बयान दे रहे है। किसानों की राजनीति के टाट में मखमल का पैंबद हो रहे है आजकल ये युवराज।हम भी टीवी के सामने जम गएं कि देखें युवराज की जुबांन से क्या निकलता है। कलावति और गन्ना किसानों के बाद अब युवराज की किस मांग से कांग्रेंस के चारण अपना गला तर करेंगे। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। देश में राज कर रही पार्टी के युवराज है ये और लोकतांत्रिक भाषा में पार्टी के महासचिव और सांसद भी है। लेकिन उनकी जबान से निकले आरोप तो नगर निगम के पार्षद से भी गये-गुजरे थे।
राजधानी से सटे हुए उत्तरप्रदेश के एक गांव की जमीनों पर बिल्डरों की निगाह है। देश के सबसे बड़े लुटेरों में बदल चुके ये बिल्डर भ्रष्ट्र मुख्यमंत्रियों और नौकरशाहों को जूतों की नोंक पर रखते है। ऐसे ही एक मामले में भट्टा पारसौल गांव के किसानों की जमीन को राज्य सरकार अधिगृहित कर एक कुख्यात बिल्डर को दे चुकी है। लेकिन किसानों ने बाजार भाव से मुआवजें की मांग की और जमीनें देने से इंकार कर दिया। सत्ता के नशे में मदहोश दलित की बेटी और राज्य की मुख्यमंत्री के लिये तो ये अंग्रेजी राज में किए गए विद्रोहों से भी बुरी बात है। जातियों के दम पर चुनी गई सरकार के लुटेरों को ये बात नागवार गुजरी। आजादी के बाद से ही वर्दी में गुंड़ों के तौर पर काम कर रही पुलिस ने गांव पर हमला बोला दिया। कानून के दम पर किस किस्म की गुंडईं की गई इसके निशान टीवी चैनलों की फुटेज और अखबारों की फोटों से किसी को भी दिख जाएंगे। नादिरशाह ने दिल्ली को जिस तरह से रौंदा था उसी तरह से रौंदा गया होगा वो छोटा सा गांव।
और मीडिया की सुर्खियों के बीच एक दिन युवराज वहां छिप कर पहुंच गएं। वहां से लौटकर प्रधानमंत्री से कुछ किसानों को मिलवाने के बाद मीडिया के आतुर कैमरों को युवराज ने बयान दिया कि गांव में राख के ढ़ेर है जिसमें किसानों को जला कर राख कर दिया। पुलिस ने घर लूटे और औरतों के साथ बलात्कार भी हुए। देश के युवराज ने ये सब आरोप राष्ट्रीय मीडिया के सामने लगाएँ। हमेशा की तरह युवराज की जर्रानवाजी पर खुश मीडिया में से किसी ने ये सवाल नहीं किया कि क्या ये मंच है। केन्द्र सरकार को संविधान से शक्ति हासिल है कि वो गैरकानूनी काम करने वाली राज्य सरकार को बर्खास्त कर सकती है। राष्ट्रपति शासन लगा सकती है।
लेकिन युवराज को आरोप लगाना था और तीसरे दर्जे के सनसनीखेज बयानों से यूपी के चुनावों के लिए गिरे-पड़े और कूड़ादान में पहुंच चुके कांग्रेसियों को योद्धा की पोशाक पहनानी थी। लेकिन ये सवाल कहीं से नहीं आया कि पिछले 63 सालों से पुलिस कानूनों में युवराज की पार्टी ने कभी बदलाव नहीं किया। किसानों से जमीनें लूट रही सरकारों के अधिग्रहण संबंधी कानूनों में बदलाव नहीं किये गये। बुनियादी किसी किस्म का बदलाव नहीं किया युवराज की पार्टी ने। सांसद उनके पास है केन्द्र सरकार उनके पास है। आजादी के 62 साल से ज्यादा के समय में ज्यादातर हिस्से में युवराज के पिता, दादी, और दादी के पिता ने राज किया है। लेकिन किसी ने ये नहीं सोचा कि किसानों की जमीनों को किस तरह से लूट से बचाया जा सकता है। कैसे देश की आम जनता के लिए मुसीबत बन चुकी पुलिस को ब्रिटिश झंडें की सोच से मुक्त कराया जाएं। न ही ये सोचा गया कि आजादी के दीवानों के परिवार को गोलियों से भूनने वाले, उनके बच्चों को भाले की नोंक पर बींधने वाले और औरतों की सरेआम इज्जत लूटने वाली पुलिस के मैन्यूअल और कानूनों में आमूल-चूल बदलाव किया जाएं।एक बार सोचा तक नहीं गया कि कैसे फर्जी एनकाउंटर करने वाले अधिकारी, लूट में शामिल रहने वाले अधिकारी, बलात्कार और लड़कियों से छेड़छाड़ करने वाले अधिकारी अपनी नौकरियां पूरी कर शान के साथ पैंशन उठाते है। उनके ज्यादातर बच्चें अब विदेशों में पढ़ रहे है या फिर वहां सैटल हो गये है। ये कहानी सिर्फ आईपीएस अफसरों की ही नहीं है बल्कि कई थानेदारों के बच्चे भी विदेशों में जा चुके है। देश की लूट का क्या नंगा सीन है। लेकिन युवराज राज्य पुलिस पर ऐसे आरोप लगा रहे है जैसे उत्तरप्रदेश पाकिस्तान का हिस्सा है और वहां परवेज मुशर्रफ की सरकार शासन कर रही है।
युवराज को हरियाणा में होंडा फैक्ट्री के मजदूरों पर हुए लाठीचार्ज के फूटेज याद नहीं होंगे तीन-चार साल पुरानी बात है। लेकिन महीने भर पहले जैतापुर में खुद उनकी पार्टी की सरकार के ही किसानों पर किये गएं गोलीकांड की याद नहीं ये बड़ी हैरान करने वाली बात है। लेकिन हैरानी उसको होगी जिसने युवराज की ऊंचाईं को मापा नहीं है।
देश के ज्वलंत मुद्दों पर युवराज ने अब तक अपना कोई रवैया साफ नहीं किया है। घुन की तरह देश को खा रहे भ्रष्ट्राचार पर युवराज अपनी पार्टी लाईन पर खड़े होते है यानि विपक्षी पार्टी कर रही है तो भ्रष्ट्राचारी है और यदि अपनी पार्टी का नेता है तो फ्री का चंदन है घिसों और अपने और अपनों के लगाओं। युवराज ने ये नहीं बताया कि राज्य की अकाउँटैबिलिटी के बारे में उनकी क्या राय है। क्यों ये साफ नहीं होता कि फर्जी एनकाउंटर में अधिकारियों की नौकरियां फौरन खत्म होनी चाहिए और पुलिस अधिकारियों पर कानून तोड़ने पर सख्त सजा होनी चाहिएं। ऐसा कोई मौलिक बदलाव हो सकता है इसका कोई अंदेशा भी उनके बयानों से नहीं होता है।
लेकिन एक हैरानी हमको नहीं कांग्रेस के कार्यकर्ताओं को है कि देश युवराज के आरोपों पर ध्यान नहीं दे रहा। पहले कांग्रेस के युवराज एक करवट बदलते थे और देश के लोग धन्य हो जाया करते थे। आपके राष्ट्रीय चैनल्स और नेशनल अखबारों की कवरेज दिखाती थी ऐसा। पहली बार युवराज संसद में बोले यूपी के किसानों के चीनी मिलों पर बकाया पैसों को लेकर। अखबारों और चैनलों ने काफी प्रशंसा की। एक और बिलकुल गौरा-चिट्टा और हमारे लाट साहिबों के देश से पढ़कर आया युवराज किसानों पर बोला। कितना सुंदर और अभिराम दृश्य था वो जब देश के सबसे बड़े ऐशो-आराम में पला -बढ़ा हुआ एक युवराज गरीब किसानों पर बोल रहा था। कई कांग्रेसी नेताओं का गला रूंध गया बोल नहीं निकले और कुछ तो हर्षातिरेक रो पड़े। आखिर गूंगे युवराज ने मुंह खोला और वोटो की बारिश के लिए कांग्रेसी रो पड़े।
देश के मीडिया ने काफी लिखा। और हमेशा की तरह टीवी का माईक देखकर मुंह खोल देने वाले राजनीतिक विश्लेषकों ने मौसमी बारिश की तरह से राजनीति में नयी बयार पर बयान दिये। कलावति को लेकर संसद में दी गई स्पीच ने युवराज के जनवादी और जननायक के चेहरे को काफी निखारा। इसके बाद भी कभी ट्रेन में आम यात्रियों के साथ यात्रा तो कभी किसी दलित के घर खाने की अदा ने टीवी चैनल्स और अखबारों के पत्रकारनुमा चारणों को मंत्र-मुग्ध किया। लेकिन यूपी में युवराज का गणित थोड़ा गड़बड़ा गया। लोकसभा के चुनावों में चमत्कार का दावा करने वाले कांग्रेसी जनों के पास अब यूपी में अब कोई तुरूप की चाल नहीं है। वो हैरान है कि गोरे मुंह वाले युवराज की बात जनता नहीं सुन रही है। आखिर युवराज अंग्रेजी पढ़े है, विदेशों में रहे है और देश के जनतांत्रिक राजघराने से ताल्लुक रखते है। उनके दोस्त सब विदेशों से पले-बढ़े है और ज्यादातर अंग्रेंजों के जूते चाटने वाले राजाओं के वंशज है या फिर देश की लूट में सहायक रहे नौकरशाहों के बच्चें। लेकिन यूपी जातियों का कबीला है। कबीले के नायक बदल चुके है। अपनी-अपनी जातियों के गणित के दम पर इस राज्य में जो राज कर रहे है वो किसी भी लुटेरे को अपनी लूट से आईना दिखा सकते है अपनी लूट को वैधानिक बनाने के प्रयासों से वो किसी भी तानाशाह को रूला सकते है। एक मुख्यमंत्री जो लूट के नये प्रतिमान गढ़ रही है। राज्य का दौरा करती है तो राज्य में अधिकारी कर्फ्यू लगा देते है ताकि कोई बच्चा राजा तो नंगा है वाली कहानी न दोहरा सके। राज्य में राजनीति के दूसरे नायक जो कांग्रेसी रहमो करम पर सुप्रीम कोर्ट में लगे हलफनामें के आधार पर कभी सरकार की तरफ तो कभी दूसरी तरफ दिखते है। जब राज्य के मुख्यमंत्री थे तो लूट में इतने बेशर्म थे परिवार के ज्यादातर सदस्य आय से ज्यादा संपत्ति के मामले में कोर्ट में है इस बार राजनीति में ईमानदारी के नये नायक बन रहे है।
अब इस ड्रामें में युवराज को कोई भूमिका चाहिएँ तो हीरो की। लेकिन जातिय गणित में वो कहीं फिट न होने के चलते युवराज को ऐसे बयान देने पड़ रहे है। और इन बयानों के सहारे ही सर्कस के उस जोकर की तरह दिख रहे है युवराज जो अपनी लंबाई बढ़ाने के लिए बांस के पैरों का सहारा लेता है और उस पर एक पाजामा ढक लेता है। युवराज के बयानों ने उसके बांस के पैरों पर लगाया गया उसके चारण कांग्रेसजनों और पिट्ठू मीडिया का पाजामा उघाड़ कर रख दिया है। जिसको देखकर एक ही शब्द मुंह से निकला " अरे ये युवराज भी बौना निकला"।

अब दिन को बोता कौन है

सर्द रातों में. रजाईं के अंदर मुड़ें हुए सपनों की दुनिया में
कुछ आवाजें आकर दस्तक देती थी
धीमें-धीमें अँधेंरे में रोशनी को टटोलती आंखों को
दिखता था बीच में रखा एक अंगार
कुछ देर में दिमाग जागता था कि
रात के आखिरी पहर में
हुक्के की बंसी नाच रही है
एक हाथ से दूसरे हाथ और बीच में सुलग रहा चिलम का अंगार
हमेशा मुझे एक अचरज रहा कि कैसे अंधेंरे में
खाटों के घेरे में बैठें ये बुजुर्ग एक दूसरे के हाथ से ले लेते है हुक्के की बंसी
उन्हीं आंखों के सहारे जिनसे दिन में भी कम दिखता है।
फिर से मेरी आंखें मूंद जाती
जब अम्मा की आवाज से आंखें खुलती तो देखता दिन चढ़ आया घर के कच्चे आंगन में
ताऊजीं और चाचा सब तो जंगल चले गएं।
एक दिन मैंने ताऊ जी से पूछ लिया
क्या करते हो ताऊ जी आप रात के अंधेंरे में जब कोई भी नहीं दिखता बिस्तर के बाहर
हंसी से बिखरते हुए ताऊजीं ने कहा
कि हम दिन को बोते है तुम्हारे लिए
ताकि वक्त का खूड़ तुमकों सीधा मिले।
उनकी हंसी मेरे जेहन में बनी है आज भी
जैसे घर के साफ आंगन में कोई बिखेर दे सफेद चावलों को चादर से उछाल कर।
साल दर साल मैं बड़ा होता चला गया
कम होता चला गया बंसी के हुक्के का घेरा
और मेरा गांव आना जाना।
राजधानी में कभी जरूरत नहीं पड़ी बोए हुए दिन को काटने की
सालों बाद गांव में लौटा
घेर में अकेले बैठे हुए तांबईं से चेहरे वाले ताऊजी को
नौकर के हाथ से भरे हुए हुक्के की बंसी को हाथ में पकड़े हुए
बेहद उदास आंखें, डूबी हुई आवाज से वक्त की डोर को पकड़े हुए
मैंने देखा अब कोई संगी-साथी नहीं है उनके साथ।
लेकिन कई बार बात करते हुए वो भूल कर अपना हाथ बढ़ा देते है अगली खाट की तरफ
जैसे थाम लेगा कोई हुक्के की बंसी को उनके हाथ से
फिर सहसा नींद से जागे हो जैसे वापस अपनी ओर खींच लेते है।
रात को उसी आंगन में सोते वक्त सालों बाद देखा उगे हुए चांद को ठीक उसी तरह
अपने छोटे से बेटे को बगल में लिटाएं
रात भर देखता रहा एक अकेले बूढ़े इंसान की उलझन को
मैं रात भर देखता रहा कब रात का आखिरी पहर हो
कब ताऊं जी उठें औऱ कोई खाटों के बिछे घेरे से थाम ले हुक्के की बंसी
फुसफुसाहटों के शोर से उठ जाएं मेरा बेटा
और ये देख ले कि किस तरह से दिन को बोते है बुजुर्ग
ताकि उसके लिए वक्त का खूड़ हमेशा सीधा रहे।
ताऊ जी की खांसी की आवाज नौकर का उठकर चिलम भरना
और मेरे अंदर जम गएं सन्नाटे में बस एक आवाज थी जिसको गले का रास्ता नहीं मिल रहा था।
ताऊजीं एक बार फिर से दिन को बो दो
मेरे बेटे के लिए ।

Monday, May 9, 2011

गोली किसानों पर और रोना डीएम के लिए

ईश्वर ने जब अपने बेटों की ओर देखा और सोचा कि इनमें से कौन सा बेटा बाकि सब का ख्याल रखते हुएं अपने छोटे भाईयों का पेट भरेगा। फिर उसने सबसे सीधे और विनम्र बेटे को कहा कि तुम्हें अपने भाईयों का ख्याल रखना है। ये तुम्हारी जिम्मेदारी है कि तु्म्हारा कोई भाई तुम्हारी वजह से भूखा नहीं सोना चाहिए। और इस सबका पेट भरने के लिए जरूरी है कि तुम सबसे ज्यादा मेहनत करो। दुनिया तुम को किसान के नाम से जानेगी। किसान ने अपने भाईयों को लिया और उसके बाद उसने धरती का सीना चीर कर फसलें पैदा की और अपने भाईयों का उनके परिवार का पेट पाला।
ये कहानी कितनी सच है ये तो नहीं मालूम है लेकिन मानव विकास के दौरान किसानों ने अपने खून-पसीने से इंसानी समाज को सींचा।
लेकिन जब किसान के भाईयों ने अपने रोजगार फैलाने शुरू किये तो उनको अपने उस भाई का ख्याल नहीं आया जिसने उनको जिंदा रखने में सबसे ज्यादा मेहनत की थी। दलालों, व्यापारियों और सरकारों के बाद किसान को लूटने की बारी बिल्डरों की है। जातियों के नायक बन कर सिर्फ समीकरणों के सहारे सत्ता चलाने का वैधानिक अधिकार हासिल करने वाले बौने नेता सकार बन गए। बौने नेताओं की लाठी बने ब्योरोक्रेट्स जिनको विेदेशी शासकों ने गुलाम हिंदुस्तान की लूट को सुगम बनाने के लिए पैदा किया था। इतने शक्तिशाली कि हजारों करोड़ की लूट के बावजूद उनपर मुकदमा चलाने के लिए अनुमति मिलने में सालों कभी कभी तो दस साल लग जाएं। इन दोनों ने जब किसानो को हर किस्म से निचोड़ लिया तो एक नयी कौम पैदा कर दी और इसका नाम दिया बिल्डर। छोटे-छोटे सौदों में दलाली खाने वाले प्रोपर्टी डीलर अब शहर बसा रहे है। शहर बसाने के लिए जो जमीन चाहिए वो सिर्फ किसान के पास है लिहाजा उनके इशारे पर टके के राजनेता और रीढ़विहीन ब्यूरोक्रेट किसानों से जमीनें छीन कर उन हवाले कर दे रहे है।
देश भर में किसानों और सरकारके बीच जमीन के अधिग्रहण को लेकर झगड़े-आन्दोलन और प्रदर्शन जारी है। इसी कड़ी में ग्रेटर नौएड़ा में शुक्रवार को जो फायरिंग हुई और दो किसान मारे गए। कई महीनों से प्रदर्शन कर रहे इन किसानों के साथ झड़प में दो पुलिसकर्मियों की मौत भी हो गई। इस खबर को लेकर न्यूज चैनल्स और अखबारों ने काफी वक्त दिया। राजनीति पर बात करना ऐसे है जैसे कोढियों में खाज के गीत गाना है। सत्ता में जो पार्टी है उसको अपनी कार्रवाई को जायज ठहराऩा है विपक्ष में बैठी तमाम पार्टियां इस वक्त देवदूत की तरह से सरकार के खिलाफ बयान जारी करेंगी या कर चुकी होगी। इस पर बात करना भी उल्टी करने जैसा ही है। कि ये नेता जब सत्ता में थे तब क्या हुआ था। उस वक्त अंग्रेजों के वक्त से चले आ रहे भूमि अधिग्रहण कानून में बदलाव के लिए उऩ लोगों ने क्या इस बारे में को जवाब नहीं मिलेगा और न ही कोई सवाल खड़ा करेगा। लेकिन मैं इस बारे में नहीं सोच रहा हूं। मेरे जेहन में सिर्फ वो खबर है जो न्यूज चैनलों ने दिखाईं और बार-बार दिखाईं। खबर थी ग्रेटर नौएड़ा के डीएम यानि जिलाधिकारी या जिला कलेक्टर को गोली लग गयी। तस्वीरों में ्चो कलेक्टर भाग रहे थे और उनका घुटना खून से सना हुआ था। पूरे न्यूज चैनल्स को लग रहा था कि गुंडों और बदमाश किसानों ने संभ्रात डीएम पर गोली चला दी। कई न्यूज चैनल्स सरकार को इसलिए कोस रहे थे कि किस तरह से कानून व्यवस्था चल रही है डीएम तक पर फायरिंग हो रही है। इसी कड़ी में अगले दिन एक अखबार में खबर थी कि डीएम की पत्नी ने अस्पतालमें गुस्से में मीडिया के कैमरे वगैरह छीन लिये थे। कवरेज को लेकर नाराज थी। लेकिन गांव में पुलिस ने किसानों की फसलें जला दी बुरी तरह से मार की। औरतें और बच्चों का क्या हुआ। इस सब के लिए आपको फोटों और वीडियों दिख सकते है लेकिन इसकी वजह किसानों को बताया जायेगा प्रशासन को नहीं। मारे गए किसानों के बच्चों का भविष्य क्या होगा। किस तरह से उसकी पत्नी अपनी जिम्मेदारियां का निर्वहन करेंगी क्या उसको भी इतना हक होगा कि वो अपने पति की लाश के फोटों खींच रहे फोटो जर्नलिस्ट के कैमरे छीन लेंगी। जवाब में आपको शायद भी लगाने की जरूरत नहीं पड़ेगी आपका जवाब होगा बच्चें सड़कों पर पलेंगे और बीबी शहर में जाकर बर्तन मांज सकती है और बर्तन मांजने वालियों का कोई निजता नहीं होती।
इस सबके बीच मीडिया की औकात नापने का पैमाना चाहिए तो देखिये कि जिस प्राईवेट कंपनी यानि जे पी गौर के लिए उत्तर प्रदेश सरकार दलालों की तरह से ये काम कर रही है उसका नाम तक लेने में अखबारों और न्यूज चैनलों के पसीने छूट रहे है। किसी विपक्षी नेता की औकात नहीं थी कि वो जे पी गौर की भूमिका की जांच करने की मांग करता। और अब ये भी जान लीजिये कि जिस एक्सप्रेस वे के लिए ये जमीन का अधिग्रहण किया जा रहा है उससे अमीरों के सिर्फ 90 मिनट बचेंगे। ये 90 मिनट कितने कीमती है इस बात का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि सरकार हजारों किसानों के बच्चों को यतीम कर सकती है।

Saturday, May 7, 2011

बिन लादेन, दिग्विजय की जुबान और अमरसिंह के जूतें

सुबह-सुबह घर में बड़ा हल्ला-गुल्ला मचा था। सारे नौकर इधर से उधर भाग रहे थे। पीए भी पसीना-पसीना हो रहा था। आखिर मामला जूतों का था। वहीं जूते जिन को पहन कर एमपी अमरसिंह बयान जारी करते है। ठाकुर अमर सिंह से अफलातून हो जाने वाले बयान। ऐसे में अमर सिंह के वही प्यारे जूतें गायब हो तो परेशानी स्वाभाविक है। अमरसिंह की त्यौंरियां चढ़ी हुईँ थी आखिर उनकी जुबान माफ करना जूतें घर से कहां गायब हो गये। थोड़ी देर में एक नौकर ने आकर कहा साहब जूतों का पता लग गया है। लेकिन अब जूतें घर में नहीं है।अमरसिंह ने पूछा कि कहां है जूते, नौकर ने डरते-डरते हुए कहा, टीवी देखिएं साहब। टीवी पर दिग्गी राजा का भाषण चल रहा था। और उनकी जुंबा जो उगल रही थी उसके बाद अमरसिंह का शक गायब हो गया था कि अमरसिंह के जूतें माफ करना जुबान अब दिग्विजय के पास है। पिछले कुछ दिनों से राजनीतक रिपोर्टिंग कवर करनेवाले रिपोर्टर को समझ में नहीं आ रहा है कि अमर सिंह और दिग्विजय सिंह के बयानों में अंतर खोजना क्यों मुश्किल होता जा रहा है। अमरसिंह ने समाजवादी पार्टी में रहते वक्त अपने उल-जलूल बयानों से टीवी चैनलों में खूब सुर्खियां बटोरी थी। अब अमरसिंह राजनीति के कूडेंदान में है तो ये जिम्मेदारी दिग्विजय सिंह ने अपने कंधों पर ली हैं।
बचपन की एक कहानी याद आती है कि एक गांव में रामलीला चल रही थी। लेकिन राम का अभिनय कर रहे बच्चें की तबीयत खराब हो गयी। ऐसे में उस रोल के मुफीद कोई बच्चा नहीं मिला तो एक मजदूर के बच्चें को पकड़ कर उस दिन राम का रोल दे दिया गया। गांव में मुख्य अतिथि जो इलाके का जाना-माना बदमाश को भी आना था। बच्चा जब लकड़ी के तीर कमान जिन पर चमकीली पन्नी चढ़ी थी और पीतल का मुकुट पहन कर स्टेज पर पहुंचा तो गांव के हर आदमी ने खडे़ होकर कहा जय श्री राम। रामलीला शुरू होने से पहले बच्चें की आरती की गयी और परंपरा के मुताबिक मुख्य अतिथि यानी उस बदमाश ने भी बच्चें के पैर छुएं। बच्चा बहुत हैरान था कि रोज गालियों से नवाजने वाले ये लोग उसको आज इतना सम्मान क्यों दे रहे है। थोड़ी ही देर में उसने अपने दिमाग में तय कर लिया कि ये सब इस मुकुट और तीर कमान की वजह से है। अब उसने निश्चय कर लिया कि वो इस तीर कमान और मुकुट को चुरा कर भाग जाएंगा। रामलीला के खत्म होते ही वो बच्चा मुकुट और तीर कमान के साथ गायब हो गया। अगले दिन सुबह-सुबह बच्चा रात के मेकअप में जब निकला तो गांव के लोग उस पर हंसने लगे, ठहाके लगाने लगे, बच्चा चकरा गया कि ये लोग रात-रात भर में किस तरह से बदल गए है। अमर सिंह के साथ कुछ ऐसा ही हुआ है। मुलायम सिंह के मजमें में कुछ दिन का मेहमान बनने के बाद अमरसिंह अपनी जुंबान और जूते के साथ भाग निकले लेकिन अब उनको कोई भाव नहीं दे रहा है।
दिग्विजय सिंह का आजकल हाल कुछ ऐसा ही है। राजनीति का ककहरा पढ़ने वाले भी जानते है कि दिग्विजय सिंह मध्य प्रदेश में कांग्रेस का भट्ठा बैठाने के बाद दिल्ली पहुंचे। उनको उत्तर प्रदेश की जिम्मेदारी दी गई। कुछ दिन बाद दिग्विजय की किस्तम का सितारा बुंलद हुआ और कांग्रेस के घोषित सेक्युलर सम्राट अर्जुन सिंह हाईकमान की नजर से उतर गए। और स्वास्थ्य संबंधी कारणों और उससे भी ज्यादा मुस्लिमों में अपनी अपील के खत्म होने से घर बैठ गए अर्जुन सिंह की जगह खाली हो गयी। अपनी राजनीति की शुरूआत अर्जुन सिंह के जूतों में बैठकर करने वाले दिग्विजय सिंह को मौका अच्छा लगा और एक दिन वो अर्जुन सिंह के जूतों में अपना पैर घुसा कर दिग्गी ने अपनी राजनीति के सेक्यूलर रथ की यात्रा शुरू कर दी। उसके बाद से उनके बहुत से अफलातूनी बयान आएं और लोगों को यकीन हो गया कि अर्जुन सिंह के जूतों में दिग्विजय सिंह के पैर सही नहीं जम पाएं। तब अमरसिंह के खाली रखे जूतों का ख्याल दिग्विजय सिंह को आ गया और एक रात उन्होंने वो जूते पहन कर शुरू कर दी अपनी जुबान यात्रा। खास तौर पर अण्णा की टीम पर भ्रष्ट्राचार को लेकर हमले शुरू कर दिए। ये बात अलग है कि दूसरों की भ्रष्ट्राचार की निंदा करने वाले दिग्गी की घिग्गी बंध जाती है जब उनके सामने शरद पवार और दूसरे उनकी खुद की पार्टी के नेताओं का काला चिट्ठा सामने आता है।

गौर करने की बात है कि काफी दिन तक दिग्गी और अमर दोनों नेताओं ने आपसी गाली-गलौज की जुगलबंदी करने के बाद गलबहियां शुरू कर दी। कारण अज्ञात है। लेकिन हालिया बयान दिग्गी का आया है। रही बात अमर सिंह तो वो अब पैसे देकर भी पत्रकारों को बुलाएं तो नहीं आते है। उनकी प्रेस क्रांफ्रैंस कुछ नाटक के कारण कभी-कभी चर्चा का विषय बन जाती है। बेचारे जन नेता तो कभी बन नहीं पाएं लेकिन टीवी के लिए मनोरंजन जुटाने में हद तक कामयाब हो गए थे। अब अमरसिंह की समाजवादी पार्टी से रूसवाई के साथ दफा होने के बाद से उनकी धार कम हुई तो मीडिया मनोरंजन का जरिया बन गएं दिग्विजय सिंह।

ओसामा बिन लादेन की मौत के बाद दिग्विजय सिंह को याद आया कि आतंकवादी या फिर कोई अपराधी मरने के बाद उसके शव को धार्मिक रीति-रिवाजों का पालन करते हुए उसका सम्मान करना चाहिएं। हां इस बात को और साफ कर देना चाहिये कि निजि तौर पर दिग्विजय सिंह से कोई वास्ता हमें नहीं है लेकिन हिंदुस्तान जैसे देश की सत्ता संभाल रही पार्टी के जनरल सेक्रेट्री की कोई तो हैसियत होती होगी। ऐसे में दुनिया के सबसे बड़े आतंकवादी की मौत के बाद उसके सम्मान का नारा लगाने वाले दिग्गी के इस बयान से पूरे देश को ही आपत्ति होगी। वोटों की फसल काटने की उम्मीद करने वाले दिग्गी को ये जवाब जरूर देना चाहिये कि अमेरिका को उनकी सरकार ने इस आंतकवादी की गिरफ्तारी या फिर मौत के लिए क्या इनपुट दिए थे। इनकी सरकार से क्या बातचीत की थी। इनका मिलिट्री सहयोग लिया था या फिर कोई दूसरा कारण कि अमेरिका को दिग्गी राजा के बयान पर ध्यान देना क्यों चाहिये था। ये ऐसे बयानवीर है कि ओबामा ने सुबह नाश्तें में जो मुर्गा खाया उसको हलाल किया या नहीं इस पर भी बयान दे सकते है। देश को इस पर क्यों ध्यान देना चाहिए सवाल तो ये भी है। लेकिन एक अरब लोगों वाले देश में एक सत्ता संभाल रही पार्टी का नेता ऐसे बेसिर-पैर के बयान देता है तो लोगों का चौंकना स्वाभाविक है। अमेरिका ने पाक-साफ देश नहीं है।लेकिन वो एक देश है जिसका अपने नागरिकों के लिए एक वादा है कि वो उनके लिए सब कुछ करने को तैयार है।
ओसामा बिन लादेन को अमेरिकी कमांड़ों द्वारा इस तरह मारने के बाद हिंदुस्तानी तथाकथित नेशनल मीडिया को भी ये जोश चढ़ा हुआ है कि हिंदुस्तान को दाउद इब्राहिम को मारना चाहिएं। कभी सेनाध्यक्ष बयान देते है तो कभी पूर्व विदेश मंत्री। टीवी पर खूबसूरत मेकअप के बाद अपनी बेवकूफाना भरी बातों से देश को उल्टी-सीधी जानकारी देने वाले ऐंकर हाथों की आस्तींनें चढ़ाएं बस एक ही बात कर रहे है कि अमेरका की तर्ज पर पाकिस्तान में दाउद का इलाज करना चाहिएं और हां एक और शब्द उधार ले लिया है सर्जिकल स्ट्राईक। आधे से ज्यादा ऐंकर वो है जो निठारी कांड में मंनिनदर और कोली दोनों को किडना सप्लायर साबित करने में जुट गएं थे। बिना ये जाने कि भैय्या किडऩी और सेम का बीज अलग होता है ऐसा नहीं है कि एक की जेब से निकाल कर दूसरे कि जेंब में डाल दिया। हां इतना जरूर जान ले कि ऐंकर जो बोलता है वो सामने स्क्रीन पर पढ़ता रहता है।
देश की सड़कों पर एक लाख से ज्यादा मौत सड़क दुर्घटनाओं में होती है। लेकिन अंग्रेजों के समय से पैसों वाले के मददगार कानून में इतने बदलाव के लिए तो मीडिया लड ले कि भैय्या एक्सीडेंट में किसी को मारने वाले की जमानत थाने से न हो। बेवकूफ बनाने वाले कानूनों से बेहतर है कि कोई सख्त कानून आएं ताकि अपनी मनमानी से किसी कि जान लेने वाले को थाने से जमानत न मिल जाएँ। अमरसिंह के जूतों से चल रहे दिग्गी बाबू को इस पर ध्यान देना चाहिएं कि किसी आतंकवादी की मौत पर रोने से बेहतर है कि वो इस कानून पर सवाल उठाएं. लेकिन मुस्लिम वोटों को लेकर कुछ ज्यादा ही संजीदा हो तो एक काम कर सकते है ये सिर्फ सलाह है माने न माने उनका काम कि लादेन के नाम से राघोगढ़ में अपनी हवेली में एक मजार बना दे और रात दिन उस पर दिया जलाएं हो सकता है उनकी बंद दुकान में इस बहाने ही सही वोटों के ग्राहक आ जाएं।

Monday, May 2, 2011

शाही चुंबन का दीदार, गुलामों का दिल बेकरार

एक राष्ट्रीय न्यूज चैनल के दफ्तर की लिफ्ट से उतर रहा था। लिफ्ट में एक बेहद जानी पहचानी सूरत भी थी जिसका नाम याद नहीं आ रहा था। लिफ्ट सफर में अलग-अलग मंजिल पर रूक रही थी। चेहरे डसे पहचानी सी उस महिला के साथ दूसरी महिला ने कहा कि ये दोनो किस पैतालिस सेकेंड के तो होंगे। अचानक याद आया कि ये तो देश की मशहूर लेखिका शोभा डे है। मेरी समझ में अंग्रेजी कम ही आती है लेकिन उस अंग्रेजी में ये भी ये महिला अपनी लेखनी कम उट-पटांग हरकतों और बेकार से वक्तव्यों के कारण ज्यादा जानी जाती है। शोभा डे का जवाब था कि नहीं किस पैतालीस सेकेंड का नहीं था दोनों चुंबन कुल मिलाकर लगभग पैतीस सेकंड के होंगे। और इस के बाद वो लिफ्ट के उस सफर में उन चुंबनों की मीमांसा करती रही। बाद में मालूम हुआ कि चैनल में हुए डिस्कशन में शामिल हो कर लौटी थी दोनो महिलाएं जो डिस्कशन दुनिया में सबसे बड़ी शादी के जश्न में भारत के न्यूज चैनल कर रहे थे।
देश के बे लगाम और छुट्टे सांड की तरह से चल रहे इन न्यूज चैनलों के महान गणितज्ञों की सूचना है कि इस शादी को लगभग दो अरब लोगों ने देखा हैं। पूरी दुनिया की आबादी छह अरब के आस-पास है। इस आबादी में औरते, बच्चे भी शामिल है। हिंदुस्तानी न्यू नक्शें में तो अफ्रीका और एशिया के वो देश भी आते है जहां गरीबी और भूखमरी का साम्राज्य फैला हुआ है। ये अलग बात है कि इस के पीछे सबसे ज्यादा हाथ इंग्लैंड का ही है जिसकी तारीफों के पुल बांधते-बांधते हिंदुस्तानी मीडिया के नौनिहाल थक नहीं रहे है। खूबसूरत ऐंकर कम रिपोर्टर भाव विभोर हो रही है। गोरों के देश में ज्यादातर टीवी चैनलों ने जिन लोगों को भेजा होंगा उनका रंग भी कम से कम इतना गोरा तो होंगा ही कि वो बाकि हिंदुस्तानियों से अलग नजर आएं और बेहतर था कि वो लड़की हो तो फिर इस शादी की कवरेज में टीआरपी की लूट हो जाएं।
मैंने रात को देखा कि न्यूज चैनल्स पर गोरी चिट्ठी एंकर अपने आपको लुभावने लगने वाले लेकिन घटिया से अंदाज में इन दोनों चुंबनों पर चर्चा में जुटी थी। पूरी दुनिया में विकसित देशों में अलग-अलग विषयों पर चर्चाओं का फैशन रहा है क्योंकि ये देश सालों पहले गरीबी और भूख की महामारी से बाहर आ चुके है, लेकिन उन देशों में जहां भूख और कुपोषण आज भी समस्या है वहां चुंबनों पर चर्चा कितनों लोगों में उत्तेजना जगाएंगी ये वाकई दिलचस्प होगा। हो सकता है इस बारे में लंबी बहस हो जाएं कि आखिर दुनिया का इतना बड़ा आयोजन है इसकी रिपोर्टिंग देश के दर्शक जरूर देखना चाहेंगे। लेकिन हमेशा की तरह एक बात जेहन में घूमती है कि कौन से दर्शक है जो इसको देखना चाहते है और देश की खबरों को नहीं। बाबा, अघोरी, तांत्रिक, हंसी, सास बहू और ,,,इसके अलावा बंदर भालू दिखाने वाले चैनल अपने आपको जनता का पहरूआ जब समझते है तो हैरानी होती है। इस शादी की चर्चा अगले दिन के सभी तथाकथित नेशनल न्यूज पेपर्स में भी पहले पेज पर थी। और कोई हैरानी नहीं थी कि शाही चुंबन का फोटो हर अखबार का बिकाऊ माल था। देश के एक तिहाई जिलों में भूख से तड़पते लोग है। बीमारियों से मरते लोग है, राशन और पीने के पानी के लिए भागते और इधर-उधर दौड़ते लोग अब चैनल्स के लिए बिकाऊं विज्यूअल्स नहीं रहे। वो दौर चला गया जब एनडीटीवी इस तरह के विज्यूअल्स दिखा कर टीआरपी बटोरा करता था। आज टीवी में एक दो पत्रकार इसको अपना ब्रांड बनाकर बेचते रहते है लेकिन उनको देखता कोई नहीं है हां तारीफ सब करते है।
देश में चुंबनों पर इतना वक्त जाया करने वाले पत्रकारों को इस बात की याद कितनी है नहीं जानता कि सरकार में अभी भी इस बात की लड़ाई चल रही है कि देश में गरीबी रेखा से नीचे रहने वालों की जनसंख्या को आंकने का फार्मूला क्या हो ताकि उनके नाम पर वोट भी मिलते रहे और उनके नाम पर आऩे वाली राहत राशि को डकारते भी रहे। आखिर कभी ये सवाल क्यों कोई टीवी चैनल नहीं पूछता कि जाम के वक्त गायब रहने वाले कांस्टेबल की तनख्वाह किस पैसे से आती है। यदि वो जाम के वक्त ही गायब है तो उसकी नौकरी की जरूरत ही क्या। शहर में जगह-जगह गर्मी में गर्मी में और सर्दी में सर्दी से दम तोड़ते इंसानों के आधार पर समाज कल्याण विभाग के अफसरों की संपत्ति जब्त क्यों नहीं होती। कभी इस बात पर भी चर्चा हो कि रोड एक्सीडेंट में हर साल अस्सी हजार से ज्यादा दम तोड़ने वाले लोगों के मामले में किसी को भी उम्रकैंद क्यों नहीं होती और तो और इंसान को मारने वाले ड्राईवर को जमानत सिर्फ थाने से ही क्यों मिल जाती है।
बात तो आप चुंबन की कर रहे है फिर इस में गुलामों के हालात पर तरस खाना विधवा विलाप सा ही है। चलिएं यूं ही सही एक बार आप को फिर से शाही चुंबन याद तो रहा। वैसे भी अमेरिकी इशारों पर नाचने वाली सरकार ने इसको देखने के पैसे नहीं वसूले ये क्या मोंटेक सिंह अहलूवालिया का आप पर कम अहसान है।