Friday, April 29, 2011

इंग्लैंड के नये गुलाम, लंदन दूर कि कोलकाता ?

दिल्ली से लंदन दूर है या फिर कोलकाता ? ये सवाल अटपटा सा है। लेकिन हिंदुस्तान में जो भी इंसान देश के तथाकथित नेशनल चैनल्स को देख रहा हो या फिर देश के अग्रेंजी के स्वघोषित राष्ट्रीय न्यूज पेपर को पढ़ रहा है तो उसका जवाब यही होगा कि लंदन में दिल्ली की आत्मा बसती है। कोलकाता यकीनन कोई दूर-दराज का शहर होगा। लंदन में ब्रिटेन की महारानी के पोते की शादी है। पिछले एक महीने से हिंदुस्तान में मीडिया बौराया हुआ है। किसी चैनल वालों से ये पूछना कि भाई बेगानी शादी में अबदुल्ला दीवाना वाली शादी भी आंख के सामने होगी तो अबदुल्ला दीवाना होगा यहां तो शादी सात समंदर पार है और आप है कि पागलों की मानिंद घूम रहे है।
लंदन और कोलकाता का रिश्ता भी दिल्ली से एक खास है। 1942 में बंगाल में एक अकाल पड़ा था। भूख से मरने वालों की तादाद करोड़ तक पहुंच गयी थी। और जब आप इस अकाल के कारणों पर जाते है तो कई रिपोर्टस इस बात का जिक्र करती कि ये अकाल जितना बड़ा था उससे बड़ा बनाया था लंदन में राज करने वालों ने। हिंदुस्तान की आजादी की मांग को दबाना इसका एक बड़ा कारण था। दूसरा कारण था इंग्लैड के प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल का घोर नस्लवाली रवैया। हिंदुस्तानी से पागलपन की हद तक नफरत करने वाले चर्चिल ने इस बात की जानकारी के बावजूद की करोड़ों लोग भूख से तड़प रहे है इस बारे में कोई कदम नहीं उठाया। दूसरे राज्यों से भेजा गया अऩाज जानबूझ कर जमाखोरों के हवाले कर दिया ताकि बेतहाशा मंहगी कीमत से बंगालियों और भारतवासियों की कमर टूट जाएं।
देश की यारदाश्त बहुत कम है और जवान हो रही पीढ़ी की किताबों में ये बात मिलना भी मुश्किल है। लेकिन उस पीढ़ी को घूंट में पिलाया जा रहा है कि जॉन मेजर और गॉर्डन ब्राउन को न्यौता नहीं दिया है। देश के मुख्यमंत्रियों के नाम भले ही उस युवा और खूबसूरत ऐंकर/रिपोर्टर को न मालूम हो लेकिन ब्रिटेन की किस महारानी ने कब क्या पहना था उसे पूरी तरह से याद है। विदेश को कवर करने वाले पत्रकार वहां है देश में क्या चल रहा है इस बारे में किसी को शायद दो लाईन भी नहीं मालूम है। हिंदुस्तान के पडौसी देशों में क्या हालात है इस बारे में भी कई रिपोर्टर दो लाईन से ज्यादा बोल नहीं सकते है और वो लाईनें भी भारत सरकार के ब्यूरोकेट के बताई गयी होती है। लेकिन ब्रिटेन की दुल्हन कैट मिडलटन के मां-बाप का ताल्लुक किस खानदान से है इसका ब्यौरा उंगलियों पर है। कई रिपोर्टर की आंखों में इस कवरेज के दौरान जो चमक दिख रही है वो इस बात को दिखाती है कि वो रिपोर्टर से कम हीरोईन और हीरों के रोल में खुद को ज्यादा देखते है। उनका काम सूचना देना नहीं ग्लैमर की चांदनी स्क्रीन पर देना है।
बात वापस कोलकाता पर। पैतीस साल से ज्यादा शासन कर रहे वाम मोर्चे के खिलाफ पहली बार कोई पार्टी इस हैसियत में आई है कि उसे चुनौती दे सके। लेकिन दिल्ली में बैठे मीडिया के मठाधीशों की रूचि उसमें नहीं है। बंगाल में किस कदर बदलाव की कसमसाहट है इसका कोई ब्यौरा किसी न्यूज चैनल्स पर नहीं है।
बात तो बहुत लंबी है लेकिन देश में खुदीराम बोस और चापेकर बंधुओं की याद रखने वाले कितने लोग होगे। इस बात पर मैं पूरा इत्मीनान रखता हूं कि विदेश यात्रा पर घूम रहे और ब्रिटेन के महाराजा को माई-बाप कहने वाले इन रिपोर्टर को जरूर इस बात से कोई नाता नहीं होगा।

Monday, April 18, 2011

सचिन तेंदुलकर को नहीं राखी सावंत को दो भारत रत्न:

लगभग 6 महीने बाद आज कोई शब्द लिख रहा हूं। मैं कोई ऐसा लेखक नहीं हूं कि लोग मेरे लिखने का इंतजार करे। न ही मेरे लिखे का मेरे अलावा किसी के लिए कोई अर्थ है। लेकिन खुद के लिए ही आज छह महीने बाद ही की बोर्ड पर टाईप कर रहा हूं। मैं किसी यात्रा पर नहीं था। कुछ दिन इधर-उधर रहा। देश की सत्ता यानि दिल्ली से खासा दूर आया गया। कई यात्रा बेमकसद और बेवजह की। जाने कितने लेखकों ने कहा कि यात्रा आपको नये शब्द देती है। मुझे लगा बेमकसद यात्राएं बस यात्राएं होती है और कुछ भी नहीं।

पिछले छह महीनों में देश भर में हमेशा की तरह कुछ न कुछ चलता रहा। इस दौरान देश के तथाकथित नेशनल मीडिया को काफी कुछ मिला। पैसा और हमेशा की तरह बिकाऊं खबरें और सबसे बड़ा था क्रिकेट का दीवानापन। एक देश जहां लाखों की तादाद में दीवानें हों वहां आशिकी के लिए एक ऐसा खेल जिंदा है जो साहब लोगों की याद दिलाएं रखता है। यानि खोना कुछ भी नहीं और साहब बन जाना।

कई खास चीजें इस मायने से गुजरी। हिंदुस्तान ने क्रिकेट वर्ल्ड कप जीत लिया। लगता था जैसे सदियों पुरानी कोई ख्वाहिश उतरी और पूरी हो गयी। टीवी चैनल्स कब ऐंटरटेनमेंट में बदल गए इस का किसी को पता नहीं चला था। लेकिन न्यूज चैनल्स क्रिकेटटैनमैंट में जब बदले तो सबको पता चला।

दिल्ली में बैठने भर से वो नेशनल हो जाते हैं, क्योंकि दिल्ली से देश की सत्ता का कारोबार चलता है। दिल्ली का वायसराय हाउस जिसे गांधी जी एक खैराती अस्पताल में बदलना चाहते थे लेकिन नेहरू एंड कंपनी ने उसे राष्ट्रपति भवन में बदल दिया,के पास के कमरों से ये देश चलता है। भौगोलिक सीमाओं में बंधा एक संवैधानिक तौर पर कागजों के पुलंदों में बंधा देश। नेशनल चैनल्स के लिए जब सचिन तेंदुलकर को भारत रत्न देना हो तो संख्या बल बढ़ाने वाला देश। लेकिन अभी असम में एक चुनाव हुआ है। असम भी इस देश का राज्य है। इस राज्य में अभी क्रिकेट की कोई ऐसी टीम नहीं है जिससे तथाकथित नेशनल न्यूज चैनल इसको दिखा सके। लिहाजा ये चुनाव भी देश के नेशनल न्यूज वालों को नहीं दिखा। लेकिन न्यूज चैनलों का ऐंकर चिल्ला-चिल्ला कर इस राज्य की जनसंख्या को भी जोड़कर कि सचिन को भारत रत्न देना सवा अरब भारतीयों की मांग है। ये सवा अरब कहां से आते हैं भाई। असम पूर्वोत्तर की सात बहनों का मुख्य द्वार है। यहां से गुजर कर आप इस देश के सात राज्यों को छू सकते है देख सकते है और अहसास कर सकते है। लेकिन इस राज्य में सरकार का चुनाव हो रहा है और नेशनल न्यूज चैनलों को दिख नहीं रहा है कि चुनाव में कौन खड़ा है कौन मुद्दें हैं और क्या कहना है देश के इस राज्य का।
ये तथाकथित न्यूज चैनल्स सही मायनों में आतंकवादियों का एक मंसूबा तो पूरा करते ही है कि पूर्वोत्तर हो या फिर कश्मीर सबमें आतंकवादियों का एक ही तो गाना है कि दिल्ली को न आपकी परवाह है और न वो आपको अपने अंदर गिनती है। आप न्यूज चैनलों का न्यूज कंटेंट देख लीजियें एक महीने का टोटल न्यूज एअऱ टाईम मिला लो तब भी पांच मिनट टोटल आपको पूर्वोत्तर या गैर हिंदी भाषी राज्य की खबर नहीं मिलेंगी। ये कैसे राष्ट्रीय न्यूज चैनल है भाई।
इस बार देश के राष्ट्रीय न्यूज चैनल्स की जबान पर एक ही बात लगी हुई है कि देश के सवा अरब लोगों की मांग सचिन तेंदुलकर को भारत रत्न। कई न्यूज चैनल्स तो इस बात के लिए आत्मदाह तक करने को तैयार दिखते है कि भाई जल्दी दो, जल्दी दो। वर्ल्ड कप के मैंचों में भारत का राष्ट्रीय तिरंगा लहराने के अलावा पूरे स्टेडियम में कही भी देश नहीं दिखता। बीसीसीआई की टीम है हर टीम का खिलाड़ी करोड़पति है। कंपनियों के बैनर तले खेल रहा है। ये खेल अब भारतीय उपमहाद्वीप के अलावा बाहर कही खेला नहीं जाता। हिंदुस्तानी और पाकिस्तानी पैसे से बनी आईसीसी के लोगों ने पूरा पैसा उडेला लेकिन किसी भी देश में ये खेल लोकप्रिय नहीं हुआ। न्यूजीलैंड, इंग्लैंड, आस्ट्रेलिया और वेस्टइंडीज इन तमाम देशों से क्लब के तौर पर ये खेल गायब हो गया।वहां खिलाड़ियों को इकट्ठा करना ही समस्या है।लेकिन गरीबी के महासागर में लूट कर नए बने अमीरों के देश भारत में अब ये राष्ट्रीय खेल है। एक ऐसा खेल जिसमें आठ देश ही दुनिया है। जिसमें जीत पर कोई पोडियम पर नहीं चढ़ता राष्ट्रगान नहीं होता।
ऐसे खेल के महानायक सचिन तेंदुलकर ने इस देश का ऐसा कौन सा मान बढ़ाया है ये बताना उस ऐंकर के लिए भी मुश्किल होगा जो चिल्ला-चिल्ला कर सचिन को क्रिकेट का भगवान बताने में जुटा रहता है। सिर्फ मनोरंजन है ये खेल। मल्टीनेशनल कंपनियों का खेल। पैसे कमाने में लिप्त भ्रष्ट्र राजनेताओं से भरी एडमिनिस्ट्टेटिव कौंसिल के सहारे चल रही इस मांग में ऐसा क्या है जिससे इस पर ध्यान दिया जा सके।
मुझे लगता है खेलों की दुनिया में क्रिकेट की हैसियत इससे ज्यादा कुछ भी नहीं जैसे डब्लू डब्लू एफ की कुश्तियां। उस खेल में भारत के खली ने काफी हल्ला किया है। स्टेडियम भरे रहते है बच्चें भी उस खेल के दीवाने है तो खली को क्यों नहीं भारत रत्न देने की मांग उठती है। आखिरकार वो भी तो मनोरंजन के खेल में भारत का झंडा उठाये है। और उसमें दुनिया भर के पहलवानों में खली ही अकेला हिंदुस्तानी है। सचिन तेंदुलकर से ज्यादा प्रतिभाशाली हुआ इस हिसाब से तो।
रही बात मनोरंजन करने की और इस लिहाज से सचिन तेंदुलकर को भारत रत्न देने की मांग उठ रही है तो अपना वोट राखी सावंत के लिए है। जो बेचारी इससे भी कम पैसे में देश का मनोरंजन कर रही है। उसके लिए भी लोग टीवी पर बैठते है वो भी जाती है लोग देखने आते है। और किसी न किसी तरीके से वो देश के मनोरंजन के लिए मसाला जुटाती है। लिहाजा मेरे वोट की कोई कीमत है तो मैं अपना वोट भारत रत्न के लिए राखी सावंत को देता हूं।