अब तुम रूठते नहीं हो
मैं मनाता नहीं,
तुम तोड़ते नहीं
मैं भी अब रेत के घरोंदें बनाता नहीं।
वक्त था गुजर गया
एक भी लम्हा वापस आता नहीं।
इस रात से उस रात तक
लड़ने की बातें
जाग-जाग कर चांद के सहारे
छोटी सी मुलाकातें
रात भी आती है
चांद भी दिखता है
आवारा सा
अब वो मुस्कुराता नहीं हैं।
आग थी सो बुझ गयी
राख से कोई दिया जलाता नहीं।
4 comments:
अच्ची रचना है।बधाई।
राख से कोई दिया जलाता नहीं।
बुझते को लोग बुझा देते है
सुन्दर रचना
Waah!!! Bahut Achhe....
वाह
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